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घर वापसी

घर-वापसी

माँ कितनी देर बाद हम खाना खाएंगे, छविया की गोद में सवार चार साल की गुड्डो ने पूछा। बस थोड़ी दूर ओर, बच्ची मुस्कुराकर शांत हो गयी। आखिर कब तक छोटी गुड्डो को वह पैदल चलने देती। गुड्डो के पैर का खून भी लू के गर्म थपेड़ो से सूख चुका था। दूर तक चलते चलते बच्ची के पैर में कंकड़ धस गया था। छविया ने उससे हमेशा की तरह कहा- बेटा चोट लगने पर रोते नही हैं, मुस्कुराते हैं। माँ की बताई ये बात गुड्डो के दिमाग मे घर कर गई थी। पर माँ तो माँ होती है, समान के साथ उठा लिया उसे भी गोद में, छविया को ऐसे ही चलते चलते 2 मील से ज्यादा हो गए थे।

चलते हुए वह अतीत की यादों में खो जाती है। पांच साल पहले वह ऐसे ही मीलों का सफर तय करके शिराज के पास आई थी। कहते हैं प्यार में इतनी ताक़त होती है कि सारा दर्द और डर भुला देती है, तभी तो अपने घर से 10 मील दूर शिराज के गांव रातो रात खेतों के रास्ते पहुँच गई थी। गांव में उसकी सहेलियां कहती थीं छव्वो बटन सी आंखे हैं तेरी, कोई भी तुझ पर लट्टू हो जाएगा। छविया मन ही मन अपने सौंदर्य पर गुमान करती। एक दिन खेत की पगडंडी पर शिराज से उसकी टक्कर हो गई। बारिस से भीगने के डर से वह दौड़ी चली आ रही थी, टक्कर से शिराज गंदे कीचड़ में जा गिरा। गुस्साते हुए बोला बटन सी आंखे लेकर भी दिखाई नही देता, छविया खुद को सम्हालते हुए घर को दौड़ी चली आई थी। सहेलियों को बताया तो उसकी जमकर खिंचाई हुई। शिराज, उसी के गांव में अपने रिश्तेदार के यहां पढ़ाई कर रहा था। शिराज के दिखने पर उसकी सहेलियां उसे चिड़ा देती, छवियां मुस्कुराकर रह जाती। उम्र के इस पड़ाव पर प्रकृति आकर्षण के वीज रोप देती है। बात करने के बहाने शिराज ने उससे उस दिन के लिए माफी मांग ली। बातों का दौर शुरू हुआ और प्रेम जाति-पाती, धर्म देखकर नही होता। प्रेम परवान चढ़ता है तो उसकी गरज दूर तक जाती है। एक दिन छविया की माँ ने गांव के बाहर उसे शिराज के साथ जीने मरने की कसमें खाते देख लिया। बिना किसी को खबर लगे शिराज के यहां धमका दिया गया कि जल्द गांव छोड़कर चला जाये। नही तो ज़िंदा जला देंगे। आनन फानन में छविया की शादी तय कर दी गई। छविया के जो प्यारे नयन सबकी आंखों के तारे थे, सबको खटकने लगे। एक दिन रात्रि में घर से निकल कर चलते चलते शिराज के गांव पहुच गई। दोनो ने निकाह किया, ओर छविया के बटन शिराज की कमीज में आ लगे। बस क्या था, छविया के घरवाले दोनो की जान के दुश्मन हो गए।उन्हें तुरंत गांव छोड़कर दूर शहर आना पड़ा। शिराज ने एक कारखाने में नौकरी कर ली। एक साल बाद गुड्डो उनकी जिंदगी में आ गई।

शिराज की तेज खाँसी से उसकी यादों का सिलसिला टूटा, शिराज से कहा सुनो यहीं आराम कर लेते हैं, शाम हो चली है।वो एक पेड़ के पास वैठ गए। शिराज बोतल का गंदा पानी गट गट करके पी गया। बचा हुआ पानी गुड्डो को पीने को दे दिया। मात्र प्रेम ने छविया की प्यास को दवा दिया। खांसी व थकान के कारण शिराज हिल भी नही पा रहा था। बच्ची ने खाने को मांगा तो सड़क पर जाके कुछ लोगो से खाना लेने चला, जो राहगीरो को खाना दे रहे थे। उन्होंने उससे नाम पूछा ओर कहा क्या जरूरत थी शहर से आने की, बीमारी फैलाने चले आते हैं काफर कहीं के, सब खाना बट गया है। जाओ यहां से।थक हारकर बापिस आके बिटिया को समझा दिया, यहां अच्छे लोग नही हैं।और आँसू पोछकर सो गया। थक हारकर भी भूखे पेट गरीब ही अच्छी नींद सो सकता है।

सुबह नन्ही गुड्डो हाथ मे रोटी लिए उसको जगा रही थी, कह रही थी अब्बू आप तो कह रहे थे यहां गंदे लोग हैं। ये तो बहुत अच्छे हैं। रात को दो अंकल आये थे, माँ ने मेरे लिए कुछ कहने को मांगा तो माँ को साथ लेकर गए। बाद में मा बहुत सारा खाना लेकर आई उन्होंने पैसे भी दिए।आप भी खाओगे।

शिराज का कलेजा वैठ गया, वाकी काम छविया की बड़ी बड़ी नमकीन पानी लिए नीचे झुकीं आंखों ने कर दिया। शिराज को देखने की उसकी हिम्मत न थी। जो प्यारे नयन शिराज की दिनभर की थकान गायब कर देते थे उनमें आज आत्मग्लानि व कुंठा भरी थी, एक बार नज़र मिली तो मानो कह रही हो आज वात्सल्य प्रेम ने तेरे प्यार को कलंकित कर दिया। आज शिराज बिना कुछ बोले ही चला जा रहा था। पीछे-पीछे छविया। बहुत दूर चलने के बाद एक नदी के पास जाकर रुक गए , वहां अन्य लोगो की भी भीड़ जमा थी, जो उनकी तरह ही मीलो चलकर अपने घर लौट रहे थे। नदी पर सड़क और रेल के समांतर पुल बने थे। नदी के दोनों तरफ दो अलग अलग जिलों की सीमाएं लगती थी। वहां का नजारा छविया को बहुत कुछ याद दिलाता था। नदी पार ही तो था छविया का गांव, ओर 10 मील उत्तर में शिराज का कस्वा। गर्मी के दिनों में छविया के गांव बाले नदी की मिट्टी में तरबूज उगाते थे। छविया कितनी ही दफा सहेलियों के साथ वहां डुबकी लगाने आ जाती थी।

सामान ऱखकर शिराज आगे बढ़ा तो गुड्डो ने पूछा, अब्बू कहा जाते हो। सवारी के लिए, यहां से सरकार सवारी में लोगो को घर भेज रही है, शिराज बोला और भीड़ की तरफ बढ़ गया। पुलिस चौकी के पास पहुंचा तो देखा, लोगो की भीड़ ठूँस ठूँस कर बस एवम अन्य वाहनों में भरी जा रही है। उसे भी डंडा पटककर ट्रक में ठेल दिया गया। ट्रक आगे बढ़ा, उसने रुकने की लाख मिन्नते की पर नही रुका, घर पहुचने की आस लिए अन्य लोगो ने उसकी आवाज दवा दी।काफी देर बाद उसके विरोध की बजह से उसे उतार दिया गया। वह थका हारा वापिस एक घण्टे बाद पुल के समीप पहुंचा, वहाँ पर भीड़ का कोहराम मचा था। पता चला लोगो ने रुष्ट होकर पुलिस पर पथराव कर दिया और पुलिस ने लाठी चार्ज करके पुल को सील कर दिया। उधर छविया भी उसकी राह देखते देखते रुआंसी हो गयी। वह आत्मग्लानि से भरी थी, उसे लगा शिराज उन्हें छोड़कर चला गया। लाठियों के डर से लोग ट्रैन के पुल से नदी पार करने लगे। छविया ने गुड्डो को समान के साथ उठाया और रेल पुल की तरफ चल दी। यही सोचते हुए, कि कहाँ जाए, पता नही शिराज उसे अपनायेगा भी या नही। अपनाना होता तो छोड़कर क्यूँ जाता। अपना घर तो पास ही में है, पर बो लोग तो जान के दुश्मन है, पर बीमारी के इस दौर में सबकी जान की पड़ी है, चाची जी तो अपने घर शरण दे ही देंगी। बचपन मे वो उसको नज़र का काला टीका लगाकर कहती थीं, नज़र न लगे मेरी प्यारी छव्वो को। सहसा ट्रेन इंजन की धीमी सीटी से उसका ध्यान टूटा। डर के मारे उसका कलेजा धक-धक करने लगा। सोच में डूबी होने के कारण वह पुल पर हरा सिग्नल देखना भूल गयी थी, ट्रेन नजदीक आते देख वह तेज तेज कदमो से आगे बढ़ने लगी। पास आते हुए ट्रेन की गति भी धीमी होने लगी। वह पुल पार करने ही वाली थी कि सहसा पत्थर की ठोकर से पटरी के वगल में जा गिरी। गोद से छूटकर नन्ही गुड्डो भी दूर जा गिरी। ट्रेन धड़-धड़ करके गुजर गई। उठकर संभली तो देखा गुड्डो को दोनों पैर काफी ऊपर से कट चुके थे, यह देखकर दुख के मारे छविया की चीख निकल गई। मां को रोते देख गुड्डो ने उसे पास आने का इशारा किया ओर कहा रोते नही है माँ, देखो मैं भी नही रोती, चोट लगने पर भी नही। ओर मुस्कुराते हुए नन्ही गुड्डो ने हमेशा के लिए आंखे बंद कर लीं। पता नही वह छविया की दी हुई सीख की बजह से मुस्कुराई थी या उसकी घर वापसी पर या फिर इस अमानवीय दुनियां के लोगों पर जिसे वो हमेशा के लिए छोड़कर जा रही थी।

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