दो-चार दिन बाद ही सुमित्रा जी वापस ग्वालियर चली गयी थीं. बाक़ी सब भी अपने –अपने घरों में व्यवस्थित हो गये. गांव से कुन्ती और जानकी के बीच होने वाले बड़े-छोटे झगदों की खबर आती रहती थी. अक्सर ही गांव से कोई न कोई आता था, और सारी खबरें दे जाता था. कई बार सुमित्रा जी का मन परेशान होता था कि बताने वाले ने तो केवल घटना बता दी वास्तविकता में पता नहीं क्या-क्या हुआ होगा. बहुत बाद में खबर मिली कि कुन्ती ने गुस्से में आ के जानकी को पीट दिया. फिर अक्सर ऐसी ख़बरें आने लगीं. सुमित्रा जी दुखी थीं. तिवारी खानदान बहुत इज़्ज़तदार खानदान था. ऐसी हरक़तें सुन के गांव वाले क्या कहते होंगे? उनकी ग्वालियर में बैठे-बैठे केवल सोच के ही शर्म से गर्दन झुक जाती. जानकी के लिये तक़लीफ़ होती कि वो ज़रा सी लड़की कितने अत्याचार सह रही. कुछ न कर पाने की कसक, रुलाई में बदल जाती.
उस दिन किशोर बड़े सबेरे ग्वालियर आया. अभी पांच भी नहीं बजे थे, घंटी बजी तो सुमित्रा जी ने दरवाज़ा खोला. सामने किशोर को देख के चौंक गयीं. समझ गयीं कुछ न कुछ बड़ी बात हो गयी.
“किशोर... तुम अचानक! इतनी सुबह! सब ठीक तो है न?”
कोई जवाब दिये बिना किशोर बच्चों की तरह फूट-फूट के रोने लगा.
“छोटी अम्मा....... हम तो परेशान हो गये. न हम अम्मा को सम्भाल पा रहे, न जानकी को. ज़रा-ज़रा सी बात पे अम्मा को गाली गलौच करने लगना है और फिर जानकी को सुनना नहीं है. सब जनें तुमाय जैसे तो नईं हो सकत न छोटी अम्मा? बा दूसरे के घर की मौड़ी, बाप-मताई की गारीं दै रईं अम्मा ऊए. काय हां सुनें बा? अम्मा नै परौं जानकी की चोटी पकड़ कें घसीट डारो छोटी अम्मा......मार हाथ-पांव छिल गये ऊ के. दिन सें लैं कें रात तक पानी लौ नई पियो ऊ मौड़ी ने, औ फिर काल गजबई हो गओ. भूकी-प्यासी जानकी जानै कैसीं हरकतें कर रई. कभी दौड़ने लगती, कभी लोटने लगती तो कभी बाल नोचने लगती है. हमें तो भौत डर लग रहा छोटी अम्मा.....”
पूरी बात बताते-बताते किशोर फिर रुआंसा हो गया. सुमित्रा जी भी चिन्ता में पड़ गयीं. पता नहीं क्या हो गया जानकी को. अभी वे गांव भी नहीं जा सकती थीं. स्कूल में त्रैमासिक परीक्षाएं होने वाली थीं. अब तो सीधे अक्टूबर में दशहरे की छुट्टियां ही मिलेंगीं. ( तब दशहरा-दीवाली की एक साथ बीस दिन की छुट्टियां होती थीं.) अभी एकाध दिन को गयीं भी, तो क्या फ़ायदा होगा?तुरन्त लौटना पड़ेगा. ये पूरा मामला एक-दो दिन का था भी नहीं. गांव में कोई नौकरी का महत्व समझता नहीं, तो उनके अर्जेंट लौटने की बात भी हजम नहीं कर पाता. तो बेहतरी इसी में होती है कि जब जायें, फ़ुरसत से जायें.
“ छोटी अम्मा, अम्मा ने कहा है कै छोटी अम्मा खों संगै लैई कें आइयो. तुमे औ चाचा को चलना है साथ में, बहुत जरूरी है. भले एक दिन में लौट आइयो.”
बुन्देली-हिन्दी को मिला-जुला के बोलना, किशोर ने कुन्ती से ही सीखा था शायद.
क्रमशः