एक सीप में तीन लड़कियाँ रहती थीं
(कहानी - पंकज सुबीर)
अगर ये कोई प्रेम कहानी होती तो शायद इसकी शुरूआत कुछ ऐसे होती ‘‘हरी भरी पहाड़ी से झरते हुए झरने के ठीक पास, फूलों से भरे मैदान में बने हुए छोटे से मकान में रहती थी वो तीनों लड़कियाँ’’। अगर ये कोई यथार्थवादी टाइप की कहानी होती तो इसकी शुरूआत कुछ ऐसे होती ‘‘बजबजाते हुए नाले के पास कारखाने की धुंआ उगलती चिमनी के धुंए में डूबी झुग्गी बस्ती में अपनी टूटी फूटी झोंपड़ी में रहती थी वो तीनों लड़कियाँ’’। अगर ये आधुनिक कहानी होती तो शायद कुछ ऐसे शुरू होती ‘‘शहर के सब से पाश इलाके में बनी उस बहुमंजिला इमारत के चौथे माले पर बने फ्लैट में रहती थी वो तीनों लड़कियाँ’’। पर चूृंकि दुर्भाग्य से ये ना तो प्रेम कहानी है, ना यथार्थवादी है और ना ही आधुनिक कहानी है, इसलिए ये ऊपर बताए तीन तरीकों में से कैसे भी शुरू नहीं हो सकती है। ये क्योंकि थोड़ा हट के थोड़ी अलग सी कहानी है इसलिए ये शुरू होगी अपने ही तरीके से।
शीर्षक बता ही चुका है कि तीन लड़कियाँ थीं और चूंकि शीर्षक ने इसके अलावा कुछ और नहीं बताया है जैसे लड़कियों थीं तो उनके मां बाप थे या नहीं थे। कोई भाई वाई था या नहीं था इसलिए हम भी इस बाबत कोई चर्चा नहीं करेंगे, बात करेंगे केवल तीन लड़कियों की। और वैसे भी जब लड़कियों की और वो भी तीन तीन लड़कियों की चर्चा हो रही हो तो फिर मां बाप या भाई की अलग से चर्चा करके विषय को फिजूल में बोझिल बनाने का कोई औचित्य नहीं है। इसलिए फिलहाल बस यही मान लिया जाए कि तीन लड़कियाँ थीं, केवल और केवल तीन लड़कियाँ।
तीनों लड़कियाँ एक सीप में रहतीं थीं। वही सीप जिसके बारे में कहा जाता है कि उसमें स्वाती नक्षत्र की कोई बूंद-फूंद गिर जाए तो वो मोती बन जाती है। अब ये तो पता नहीं कि सीप में कौन से नक्षत्र की बूंद गिरी थी और अगर गिरी थी तो फिर मोती की जगह लड़कियाँ कैसे बनीं लेकिन ये तो तय है कि उस सीप में तीन लड़कियाँ थीं। बड़ी वाली लड़की जो सबसे छोटी वाली से और बीच वाली दोनों से बड़ी थी वो हरी थी। हरी बोले तो ....? हरी मतलब हरी। हरी मतलब घांस की तरह हरी। बरसात के ठीक बाद जो घांस ऊगती है उसकी तरह से हरी। इसी लड़की को बड़ी भी कहा जाता था और हरी भी, बड़ी और हरी शब्दों के उच्चारण में समानता के कारण कई बार समझ में भी नहीं आता था कि बड़ी कहा जा रहा है या हरी ? लेकिन वो समझ लेती थी।
इसके बाद थी मंझली लड़की, मंझली माने छोटी वाली से बड़ी और बड़ी से छोटी। ये मंझली लड़की नीली थी। पूरी की पूरी नीली, बरसात के धुले हुए आसमान की तरह से नीली। इस लड़की के पंख भी नीले थे, पंख...? मगर बड़ी वाली के पंखों के बारे में तो बताया ही नहीं गया कि उसके पंख किस रंग के थे। ऐसा इसलिए क्योंकि बड़ी वाली के पंख थे ही नहीं, बड़ी वालियों के अक्सर होते भी नहीं हैं और इसीलिए उनका रंग भी हरा होता है, पृथ्वी की तरह। तो इस दूसरी वाली लड़की जो छोटी वाली से बड़ी और बड़ी वाली से छोटी थी, इसका रंग नीला था और इसके पंखों का रंग भी नीला था। इसकी आंखें भी नीली थीं और इसके सपनों का रंग भी नीला ही होता था। गहरे और अतल समुद्र की तरह नीला।
इसके बाद थी छोटी लड़की इसकी विशेषता ये थी कि एक तो ये सबसे बड़ी वाली लडकी से छोटी थी, और साथ ही मंझली वाली लड़की से भी छोटी थी, कुल मिलाकर दोनों से छोटी थी। इस लड़की का रंग पीला था, एकदम हल्दी की तरह का पीला। ऐसी लगती थी मानो कोई गेंदे का फूल ताज़ा-ताज़ा ही खिला हो। इस लड़की के पंख नहीं थे, हालांकि इस बात को लेकर कुछ स्पष्ट नहीं है कि पंख थे ही नहीं या फिर अभी ऊगे नहीं थे। जो भी हो फिलहाल तो यही माना जाएगा कि इस पीली वाली लड़की के पंख नहीं थे।
इस तरह से ये कुल मिलाकर तीन लड़कियाँ थीं जो उस सीप में रहती थीं तीनों लड़कियों के अलग अलग रंगों को लेकर भी अलग अलग बातें हैं। नक्षत्र-फक्षत्र की बात करने वाले कहते हैं कि सीप में केवल स्वाती नक्षत्र की ही बूंद गिरती है और फलस्वरूप सफेद मोती बनता है। सिर्फ और सिर्फ सफेद मोती। लेकिन चूंकि ये तीनों लड़कियाँ अलग-अलग रंगों की हैं इसलिए ये तय है कि सीप में स्वाती नक्षत्र की बूंद गिरी ही नहीं। वहाँ तक तो भी ठीक, लोग तो ये भी कहते थे कि क्योंकि तीनों लडकियों का रंग अलग-अलग है इसलिये ये भी माना जा सकता है कि सीप में अलग-अलग समय में अलग-अलग नक्षत्रों की बूंदे गिरीं थीं, इसलिए तीनों का रंग इस प्रकार से अलग अलग हुआ। अटकलें लगाने वाले बाकायदा पंचांग-वंचाग निकालकर ज्योतिष-फ्योतिष टाइप की गणनाएँ करके बाकायदा घोषणा भी करते थे कि कौन कौन सी लड़की किस-किस नक्षत्र की बूंद चलते बनी है। ऐसी घोषणाएँ करने वाले अपनी खोज के समर्थन में पोथी पंचांग के पन्ने हिला हिलाकर अपनी बात को सिद्घ भी करते थे। कुल मिलाकर लड़कियों के रंग बाकायदा शोध का विषय थे।
बहरहाल पृथ्वी के समान हरी आसमान के समान नीली और हल्दी की तरह पीली लड़की, तीनों सीप में रहती थीं। तीनों में एक बड़ी थी दूसरी छोटी थी इसलिए जाहिर सी बात है कि तीसरी मंझली थी। नीली लड़की ग़रीब थी, हरी वाली भी ग़रीब थी और पीली भी ग़रीब थी। मतलब कहा जा सकता है कि तीनों लड़कियाँ ग़रीब थी और शायद ग़रीबी के कारण ही तीनों अलग अलग रंगों की थीं। अमीर होतीं तो फिर एक ही रंग की होतीं, अमीरी के रंग की, फिर उनके रंगों को लेकर शोध भी नहीं होता। अमीरी कभी भी शोध का विषय नहीं होती, शोध का विषय तो गरीबी ही होती है ऐसा इसलिए क्योंकि अमीरी के शोध पत्रों से लेकर अमीरी की कहानियों तक किसी को कोई पुरुस्कार नहीं मिलता। जबकी ग़रीबी पुरुस्कार की संभावनाओं से हमेशा भरी रहती है।
तीनों लड़कियाँ ग़रीब थीं अलग अलग रंगों की थीं और सीप में रहती थीं। ग़रीब थीं इसलिए वे कहानी का पात्र बन रही हैं। इसमें भी विपरीत सैक्स के प्रति आकर्षण जैसी ही बात है। अमीर लोग ग़रीबों के बारे में जानना चाहते हैं इसलिए उनके बारे में पढ़ते हैं, चूंकि पढ़ते हैं इसलिए ग़रीबों के बारे में लिखा जाता है और मंहगी मंहगी पुस्तकों में छापा भी जाता है। ग़रीब भी अमीरों के बारे में जानना चाहते हैं मगर एक तो उनके पास पढ़ने-वढ़ने का समय भी नहीं होता और दूसरा पढ़ना भी चाहें तो पुस्तकें ख़रीदेंगे कहाँ से ? इसलिए पात्र ग़रीब ही होते हैं जिन्हें पढ़ा जाता है। चलिए अब कहानी की ओर चलें। बड़ी वाली हरी, मंझली नीली और छोटी पीली की कहानी की ओर। यहाँ पर व्यवस्था के नाम पर ऐसा करते हैं कि तीनों की कहानीयों को अलग-अलग कर लेते हैं। वैसे भी तीनों के बीच केवल एक सीप के अलावा और कुछ भी साझा नहीं है, तीनों एक दूसरे की कहानी में आती भी नहीं हैं, इसलिए तीनों कहानियाँ अलग अलग भी चलाई जा सकती हैं। इसमें एक सुविधा तो यही रहेगी कि बार बार ये बताने की आवयकता नही पड़ेगी कि कौन सी वाली हरी है, कौन सी नीली है, और कौन सी पीली। केवल नीली पीली और हरी कह कर ही काम चलाया जा सकत
अथ हरी कथा
लग रहा है न धार्मिक-वार्मिक टाइप का नाम ‘‘अथ श्री हरी कथा’’ मगर ये अपनी हरी की कहानी है। बड़ी वाली लड़की हरी की कहानी जिसका रंग हरा था ताजा बरसात के बाद उगे घांस के कच्चे कोंपलों से लदी हुई पृथ्वी की तरह हरा। हरी लड़की जिसके पंख नहीं थे अगर होते तो वो भी हरे ही होते। मगर नहीं थे क्योंकि हरे रंग के पंख नहीं होते, उसे तो बिछा रहना पड़ता है पृथ्वी की तरह। पंख नीली वाली के थे जिसकी बात हम बाद में करेंगे। हरी लड़की के पंख भले ही नहीं थे मगर आँखें थीं जो उसके समान ही हरी थीं। उसके सपने भी हरे थे, दूब की तरह हरे। चूंकि हरे सपने थे इसलिए हमेशा बूंदों से भरे रहना चाहते थे, बरसात की सौंधी सौंधी बूंदों से भरे रहना। हरे रंग के हरियाए रहने के लिए बूंदों की हमेशा ज़रूरत रहती है। हरी लड़की के पंख भी नहीं थे कि वो उड़कर बादलों के पास पहुंच जाए और अपने हिस्से की बूंदें ले आए। हरे रंग की सबसे बड़ी कमी यही है कि उसे पृथ्वी की तरह बिछे रहना पड़ता है, और इंतज़ार करते रहना पड़ता है अपने हिस्से की बूंदों का। आजकल इसीलिए कोई भी हरा नहीं होना चाहता।
हरी लड़की के सपने भी हरियाते रहते थे और हमेशा किसी बादल के बंजारे से टुकड़े की आहट को तकते रहते थे। हरी की हरियारी आंखें (कजरारी की तरह) सीप की दरार से झांकती रहती थीं और ताकती रहती थीं आसमान की ओर। आसमान जहाँ से बादल आते हैं और जिनमें बूंदें होती हैं, बूंदें जो हरेपन का सबसे आवश्यक तत्व हैं। हरी के हिस्से का जो आसमान था उसमें बादलों की आवाजाही बिल्कुल नहीं थी, बादल तो के वल उसके सपनों में ही होते थे, हरे वाले सपनों में। हरी के हिस्से का आसमान मतलब सीप की दरार के पार नजर आने वाला असामान।
हालांकि हरी को हमेशा से ही कहा गया था कि बादलों के बारे में सोचना ग़लत होता है। ग़लत...? मगर आंखें जब हरी हो जाती हैं तो उनमें बादल के सपने खुद ही आ जाते हैं। हरेक हरापन खुद ही प्रतीक्षा करने लगता है बूंदों की, तो हरी वाली लड़की जो बड़ी भी थी उसके सपनों में भी बादल आते जाते थे। हरी वही जो नीली वाली से भी बड़ी है और पीली वाली से भी और जो पूरी तरह से हरी है, जिसकी आंखें, जिसके सपने सब हरे हैं। और जिसके पंख नहीं हैं, वो हरी।
हरी के हिस्से का वह आसमान जो इसकी हरी-हरी आंखों में सिमटा हुआ था उस आसमान में बादलों की आवा जाही काफी कम थी। अब इसे ऐसा भी नहीं कह सकते कि सीप पर बादल कभी आए ही नहीं थे। क्योंकि तीनों लड़कियाँ वहाँ थीं इसका मतलब साफ था कि पहले इस इलाके में बादल खूब आते थे। अधखुली सीप से छनकर आते सुबह की धूप के एक कच्चे से टुकड़े में एक दिन हरी ने देखा कि उसके हाथ का एक हिस्सा हल्का पीला सा नजर आ रहा है। हरी ने थोड़ा बहुत वनस्पति शास्त्र पढ़ रखा था इसलिए उसे पता था इटियोलेटेड पौधों के बारे में । वे पौधे जो सूर्य के प्रकाश, हवा, पानी से दूर रहते हैं वे हरे ना रह कर पीले हो जाते हैं। इन्हें इटियोलेटेड प्लांट कहा जाता है। किसी जमे हुए पत्थर को हटा कर देखो तो उसके नीचे की सारी वनस्पति हरी न होकर पीली होती है। तो हरी भी डरती थी इटियोलेटेड हो जाने से। डरती इसलिए भी की कि अगर इटियोलेटेड हो गई तो वो भी पीली हो जाएगी छोटी वाली की तरह। और फिर दो दो पीली हो जाएंगी, फिर ये पहचानना भी मुश्किल हो जाएगा कि पीली वाली हरी कौन सी है और पीली वाली पीली कौन सी है । इसीलिये हरी हमेशा हरियाई हुई ही रहना चाहती थी। हालंकि कहने वाले तो ये भी कहते हैं कि उस दिन हरी को भ्रम हुआ था। वास्तव में तो सुबह की कच्ची धूप पड़ने के कारण हाथ पीला दिखाई दे रहा था। मगर हरी ने जब अपने हाथ का पीलापन देखा तो चौंक गई ‘‘इटियोलेशन....? ’’ उसने अपनी सुबह की अलसाई आंखों को हथेलियों से मसला और फिर हाथ की ओर देखा रंग का चकत्ता अब भी पीले का पीला ही था। हरी घबरा गई। हरी चूंकि पृथ्वी थी इसलिए वो पीले हो जाने से डरती थी, हरी इसलिए भी डरती थी क्योंकि उसके हिस्से का जो आसमान था उसमें बादलों की आवाजाही पहले ही काफी कम थी। अपने हाथ पर बन गए पीले चकत्ते को उसने नहाते समय खूब मला पर वो चकत्ता जस का तस ही रहा। पृथ्वी रूप में स्नान करती हुई हरी ने अचानक अपने शरीर की ओर देखा तो ....। इटियोलेशन - इटियोलेशन- इटियोलेशन.......। पृथ्वी कांप रही थी, बादलों के बिना पृथ्वी कांप रही थी, हरी वाली पृथ्वी कांप रही थी, हरी आंखों वाली पृथ्वी कांप रही थी, पृथ्वी को पता था कि बिना सूर्य ओर बादल के ये होना ही है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वह ख़ुद ही सूर्य और बादल नहीं चाहती थी।
पृथ्वी ने अपनी ओर देखा कुछ देर तक देखती रही धीरे धीरे इटियोलेशन बढ रहा था। पृथ्वी ने भाग जाना चाहा बाहर। बाहर, जहाँ सूर्य था। हरी ने भाग जाना चाहा पहाड़ों की ओर, पहाड़, जहाँ पर बादल रुकते हैं और बिना पंख वाले लोग जहाँ पर अपने हिस्से का बादल तलाशने जाते हैं। हरी ने आवाज लगानी चाही बादलों को अपने हिस्से की नमी के लिए, पर हरी कुछ भी नहीं कर पाई, पृथ्वी जो थी। उसे अचानक याद आ गया कि वह हरी है, वह पृथ्वी है। और इसीलिए वह भाग नहीं सकती। हरी ने सब कुछ भूलकर फिर भी भागना चाहा पर वो पृथ्वी थी, नहीं भागपाई। स्नानगृह में बने रोशनदान के बाहर मौसम तेजी से गुज़रते रहे और पृथ्वी वहीं स्नानगृह में बैठी इटियालेटेड होती रही। पूरी तरह से इटियोलेटेड होते ही पृथ्वी गलने लगी। वहीं बैठे बैठे गलती रही बाहर मौसम गुज़रते रहे, पृथ्वी गलती रही। न नीले रंग को पता चला और न पीले को कि पृथ्वी स्नानगृह में बैठी इटियोलटेड हो चुकी है और फिर गल भी रही है। दरअसल नीले और पीले रंग ने कभी सोचा भी नहीं कि परिदृष्य से हरा रंग गायब हो चुका है। जब पूरी तरह से इटियोलेटेड हो चुकी, पृथ्वी पूरी तरह से गल भी गई तो स्नानगृह की नाली से होकर बह गई, बह गई बाहर की ओर, बाहर, जहां वो कब से जाना चाहती थी। सूरज ने देखा, पहाड़ों ने देखा, बादलों ने देखा सबने देखा स्नानगृह की नाली से रिसकर बहते पीले रंग को। बाहर मौसम गुज़रते रहे और पृथ्वी रिसती रही जब पूरी तरह रिस गई तो गुज़री हुई बात हो गई। नीले और पीले रंगों को पता भी नहीं चला कि हरी गल भी गई और फिर रिस भी गई। हरी जिसके बारे नीले और पीले रंगों ने जानना भी नहीं चाहा कि हरी कहाँ गई ? हरी जिसकी कहानी खत्म हो गई। हरी जिसने केवल एक बादल चाहा था, थोड़ी सी धूप और एक मुट्ठी नमी चाही थी, नमी जिसको वो अपने अंदर बीज लेती। हरी जो बड़ी थी, नीली से भी बड़ी और पीली से भी बड़ी उसकी कहानी खत्म हो गई। इति हरी कथा।
अथ नीली कथा
बड़ी वाली से छोटी और छोटी वाली से बड़ी थी नीली। नीली जिसका रंग नीला था। बारिश से धुले हुए कच्चे, टटके आसमान की तरह नीला। जिसकी आंखें नीली थीं, जिसके सपने नीले थे, और जिसके पंख भी नीले थे। नीली जो सीप में रहती थी, नीली जो मंझली थी। नीली जिसके पंख भी थे। हालांकि नीली की कहानी तो उससे भी काफी पहले शुरू हो जाती है जब पृथ्वी ने पहली बार अपने शरीर पर इटियोलेशन देखा था, उससे भी काफी पहले जब पृथ्वी गल गई और गल कर रिस गई। उससे भी काफी पहले जब हरी इस तरह खत्म हो गई जैसे वो थी ही नहीं।
तो ये थी नीली। चूंकि ये नीली थी इसलिए इसके सपने भी नीले थे। दूर तक फैले हुए जिनका कोई ओर-छोर नहीं था। चूकि ये नीली थी इसीलिए इसके पंख भी थे ‘नीले पंख’। चूंकि ये नीली थी इसलिए ये आसमान की तरह विस्तृत थी, चूंकि ये नीली थी इसलिए पृथ्वी की तरह बिछी हुई नहीं थी बल्कि आसमान की तरह छाई हुई थी। नीली पर सबसे पहले जब पंखों के कल्ले फूटे तभी उसकी आँखों में भी एक छोटा सा सपना कुनमुनाया था। छोटा सा, नीला सा सपना। फिर उसके बाद पंख जैसे जैसे बढ़ते गए पंख के साथ साथ सपने भी बढ़ते गए। इतने बढ़े कि सीप के अंदर का छोटा सा आसमान उन सपनों के सामने छोटा, छोटा, बहुत छोटा होता गया।
नीली को भी सीप की दरार से नज़र आ रहा आसमान बहुत ललचाता। वो भी आसमान हो जाना चाहती थी और फिर नीली के साथ तो हरी की तरह वो समस्या भी नहीं थी कि उसे अपने हिस्से के बादलों की तलाश में पहाड़ पर जाना पड़े। नीली के पास तो अपने पंख थे। पंख जो उसे आसमान बना सकते थे। हरी ने तो अपने लिए एक मुट्ठी बादल का सपना देखा था। पर नीली का सपना तो खुद आसमान हो जाने का था, आसमान जिसमें बादल भी रहते हैं और सूरज भी। इतने बादल, इतने बादल कि एक उम्र भी कम पड़ जाए।
सीप की दरार के पास बैठी नीली बाहर दिख रहे बीच में नीले और किनारे पर धूसर आसमान को देख रही थी तभी उस आसमान पर चक्कर लगा रहे एक बादल के छोटे से सफेद टुकड़े ने नीली की नीली आंखों को देखा। आसमान के सामान नीली आंखों को। बादल झुककर दरार के पास आ गया, सीप की दरार के पास। लोग तो ये कहते हैं कि नीली उसी बादल के साथ पहली बार उड़ी थी। उसी के कारण पहली बार दरार से बाहर भी आई थी, सच क्या है ये तो कोई नहीं जानता मगर हाँ ये बात ज़रूर है कि नीली की नीली आंखों में वो बादल धुंआ बनकर उतर गया था। नीली ने आंखों में उतर रहे उस धुंए के एक क़तरे को जब ज़बान पर रख कर चखा तो उसके पंख खुद ब खुद खुल गए और वो उड़ने लगी। सीप के बाहर नीले रंग से गहगहाते आसमान में ऊपर, ऊपर, बहुत ऊपर उड़ती चली, गई वहाँ तक जहाँ जाकर वो खुद भी आसमान हो गई।
उस दिन जब आसमान बनकर नीली वापस आई तो वह गुनगुना रही थी। गुनगुनाने का मतलब यही था कि उसे आसमान बनना अच्छा लगा था। उसके बाद यही सिलसिला चलता रहा, नीली के दरवाजे पर कोई बादल आता और नीली उस बादल के लिए आसमान बन जाती। हर बार जब लौटती तो पहले से तेज़ आवाज़ में गुनगुनाती हुई लौटती थी। पहले उसकी आवाज सीप तक ही सीमित थी फिर गली मोहल्ले से होकर पूरे शहर में गूंजने लगी । बादलों की आवाजाही बढ़ने लगी। नीली जो आसमान बनने के सपने देखती थी उसके सपने पूरे होते जा रहे थे।
आसमान बनते बनते नीली कब थक गई उसकी कोई विशेष तारीख तो नहीं है। हाँ इतना पता है कि एक दिन जब नीली किसी बादल को अपने अंदर समेटे आसमान बनी हुई थी तब उसे भी हरी की तरह एक चकत्ता अपने ऊपर दिखाई दिया। गहरा लाल-चकत्ता। नीली ने उसे खुरच कर देखा पर वो नहीं गया। नीली ने रसायन शास्त्र पढ़ा था और उसको अचानक याद आया कि वो तो नीले लिटमस की बनी है, जिस पर अम्ल की क्रिया उसे लाल कर देती है। और बादलों के पास तो केवल अम्ल ही है। उस रोज पहली बार नीली जब आसमान बनकर लौटी तो गुनगुना नहीं रही थी चुप थी।
नीली लाल नहीं होना चाहती थी, जानती थी अगर पूरी लाल हो गई तो गल जाएगी। वो बादलों से बचने लगी मगर आसमान हो जाने के बाद बादलों से बचना बहुत मुश्किल होता है। लाल चकत्ते बढ़ने लगे आसमान धीरे धीरे लाल हो रहा था। लाल होने का मतलब था कि रात करीब है। रात मतलब आसमान का काला हो जाना। काला होना मतलब बुझ जाना।
वही स्नानगृह था, वही मौसम था मगर इस बार वहाँ हरी की जगह नीली थी, पूरी तरह से लाल हो चुकी नीली जिसका अब केवल नाम ही नीली था और कुछ भी नहीं। लाल हो चुका आसमानी लिटमस धीरे धीरे किनारों से गलना शुरू हो गया था। पंखों की फितरत सबसे खराब होती है, ये जहाँ एक और आपको आसमान बनाने का काम भी करते हैं तो वहीं सबसे पहले गल कर गिरते भी यही हैं। स्नानगृह के फर्श पर आसमान ने अपने पंखों को गल कर गिरते हुए देखा। पंख जो कभी नीले थे मगर अब लाल बनकर पड़े हुए थे और गल रहे थे। नीले लिटमस से बना आसमान लाल हो चुका था और इस तरह से गल रहा था मानो बरस रहा हो। दूर दूर तक कहीं कोई बादल नहीं था आसमान अकेला ही गल रहा था। स्नानगृह की फर्श जो एक बार पहले पीली हो चुकी थी आज लाल रंग से सनी हुई थी। गले हुए आसमान के लिटमस के लोथड़ों के लाल रंग से। फिर वही हुआ लाल रंग धीरे धीरे नाली में रिसने लगा, नाली से बहला लाल रंग तब तक बहता रहा जब तक लाल आसमान पूरी तरह से गल कर रिस नहीं गया।
आसमान रिस चुका था और कहीं कोई हलचल नहीं थी। एक भरा पूरा आसमान नीले से लाल होकर गल गया और रिस भी गया और फिर नाली से होकर बह भी गया मगर सीप के बाहर के मौसम को पता भी नहीं चला। नीली नाली में बह गई थी और बादल कहीं और जा चुके थे। इति नीली कथा।
अथ पीली कथा
पीली तो जन्म से ही पीली थी। गेंदे के फूल की तरह पीली,हल्दी की तरह पीली। आग के अंदर नजर आने वाले अंदरूनी वृत्त की तरह पीली। इस बारे में भी दो बाते हैं कुछ का कहना है कि दरअसल तो पीली जन्म से ही इटियोलेटेड थी वहीं कुछ का कहना था कि पीली सपने देखती ही नहीं थी, ना तो पृथ्वी की तरह बिछने के हरे सपने, और ना ही आसमान की तरह छा जाने के नीले सपने। और चूंकी सपने नही देखती थी इसीलिए पीली थी। हल्दी की तरह से पीली। पीली की आंखे भी ज़र्द थीं, इतनी ज़र्द कि सपने वहाँ आते हुए भी डरते थे। पीली आंखें इतनी स्थिर रहती थीं कि उनमें देर तक झांका जा सकता था।
पीली के पास कोई सपने नहीं थे, न बादल के, न सूर्य के, ना पृथ्वी के और न आसमान के। पीली जब सीप की दरार से नज़र आ रहे आसमान की ओर देखती तो वो आसमान उसे एक दीवार की तरह लगता। नीले रंग से पुती हुई एक दीवार। दीवार जो कठोर होती है, दीवार जो उस पार का दिखने या देखने से रोक कर रखती है। दीवार जो केवल इसलिए दीवार होती है क्योंकि दीवार होने के अलावा वो और कुछ कर भी नहीं सकती। पीली को नीला आसमान दीवार की तरह इसलिये नज़र आता था क्योंकि आसमान को आसमान की तरह देखने के लिये आंखों में ढेर सारे सपने होना ज़रूरी है। सपनों के कोहरे से बसी आंखें जब आसमान की ओर देखती हैं तभी आसमान आसमान हो जाता है, गहरा, धुंध खाया, बीच में चटख नीला और क्षितिजों पर धूसर आसमान। आसमान जो सपनों की बीज स्थली है, वही आसमान पीली को दीवार की तरह नजर आता था।
पीली चाहती थी कि कोई और उसके हिस्से के सपनों को देख ले। वो अपने सपने खुद नहीं देखना चाहती थी। डरती थी ऐसा तो नहीं कहा जा सकता पर वो सपनों की साझेदारी चाहती थी। वो चाहती की कि अपने अभी तक नहीं देखे गए सपनों की ढेर सारी पुड़ियांएँ बना ले पीली, ज़र्द, हल्दिया क़ाग़ज़ की पुड़ियांएँ और फिर बांट दे उन सारी पुड़ियाओं को हर किसी को, जाने की भी, अनजाने को भी। अपने पास एक भी पुड़िया नहीं रखना चाहती थी वो। चाहती थी कि उसके नहीं देखे गए सपनों को बाकी लोग देखें और उन लोगों की आंखों में अपने सपनों का धुंआलापन वो देख पाए। पीली जो आसमान भी नहीं थी और जो धरती भी नहीं थी। पीली जिसकी आंखें इतनी पीली थीं कि सपने वहाँ आते हुए डरते थे और अक्सर सारे सपने बिना दिखे ही रह जाते थे, वही सपने जिनकी पुडियांएँ पीली बनाना चाहती थी।
बिना सपनों की इस पीली ने एक दिन जब दरार से बाहर झांका तो देखा कि बाहर एक गेंदे का फूल खिला है। जर्द पीला गेंदे का गदबदा फूल, पीली कांप गई। उसने तुरंत अपने अनदिखे सपनों को टटोला कि कहीं उनमें से कोई कम तो नहीं हो गया। मगर सपने तो अनदिखे थे वे भला कैसे कम होते। सपनों के खर्च होने के लिए जरूरी है, उनका देखा जाना और पीली के सपने तो पीली के सपने थे। पीली ने फिर याद करने की कोशिश की कि कहीं उसमें कोई पुड़िया सचमुच तो नहीं बना दी थी। मगर उत्तर फिर नकरात्मक था। फिर ये फूल ? ये कहाँ से आया ? उसके सपने स्थगित जरूर थे, मगर उपस्थित तो थे, पूरी मात्रा में उपस्थित, एक भी अनुपस्थित नहीं। पीली ने अपनी पीली आंखों के पिछले सिरे से सारे सपने निकाले और चादर पर डाल दिये। फिर एक एक कर सबको गिना, सारे वहाँ थे। पीली अचंभे में थी।
रात भर पीली को नींद नहीं आई। जब सुबह हुई तो पीली की आंखें बुझी हुई थीं। बुझी हुई आंखों से जब वह दरार के पास आई तो देखा पीले फूल पर एक तितली बैठी है, पीली तितली, पीली कांप गई, एक और सपना? कौन कर रहा है ? और कैसे कर रहा है ? सारे सपने तो वहीं है। और फिर वो तो खुद ही अपने सपनों की पुडियांएँ बना चाहती है फिर ये कौन है जो ? पीली ने एक बार फिर सारे सपने टटोले। मगर सारे वहीं थे। पीली को लगा कि शायद वो खुद ही....। मगर ऐसा कैसे हो सकता है सपने तो वो देखती ही नहीं है। पीली का हल्दी सा ज़र्द रंग फीका होने लगा था। उसे अपराध बोध हो रहा था कि वो अपने सपनों के साथ खुद ही कुछ ना कुछ कर रही है। ऐसा जो उस नहीं करना चाहिए। ऐसा जो ग़लत है, ग़लत ....?। अगर नहीं कर रही है तो फिर ऐसा कैसे हो सकता है।
अगली सुबह पीली के लिए और ज़्यादा चौंकाने वाली थी दरार के बाहर खड़ा अमलतास रातों रात फूल गया था, लदा हुआ था पीले झोलदार गुच्छों से, इस तरह मानो सारा पीला रंग पी डाला हो। गेंदे का पेड़ भी रातों रात फूलों से लद गया था और जमीन की घांस में भी रातों रात देर सारे पांखर कुसुम खिल गए थे, पीले पांच पत्तियों वाले पांखर कुसुम, इस तरह कि पूरी जमीन पीली नज़र आ रही थी। और हवाओं में थीं ढेर सारी तितलियाँ, पीली बड़े-बड़े पंखों वाली तितलियाँ। ढेर तितलियाँ जो आसमान को ढंककर कर उसे भी पीला बना रहीं थीं। पीली कापंने लगी, पीली आपाद मस्तक कांप रही थी, दरार के बाहर सब कुछ पीला था, पीली के अनदिखे सपनों की तरह पीला। उन सपनों की तरह पीला जिनकी पुड़ियांएँ बनाना चाहती थी पीली।
पीली कांपती हुई, भागती हुई अंदर गई आंखों के पीछे की पोटली निकाली और उसे खोलकर फिर सारे सपनों को चादर पर बिछा दिया। एक, दो, तीन, चार, सारे वहीं थे। पीली ने एक बार फिर टटोल कर गिना अचानक एक सपना जब उसने छुआ तो उस सपने के किनारे नम थे। पीली ने उस सपने को पास लाकर सूंघा तो उस सपने में सौंधी सौंधी महक आ रही थी। आषाढ़ की तपी हुई धरती पर गिरी पहली बूंद से उठने वाली महक, पीली सहम गई। उसने एक एक कर सारे सपनों को उठा कर देखा, सारे नम थे। किनारे किनारे से नम। और सारे ही महक रहे थे। सीली सीली सी छुअन और सौंधी सी महक से भरे हुए थे सारे के सारे अनदिखे सपने। सारे के सारे नम थे, इतने कि अब उनकी पुडियांएँ भी नहीं बनाई जा सकती थीं। पीली ज़र्द पुडियांएँ जो पीली हमेशा से बनाना चाहती थी। पीली ने सपनों की पोटली की रस्सी को देखा रस्सी बिल्कुल ठीक ठाक थी। फिर ये कैसे हुआ, पीली सपनों को उसी तरह चादर पर डला हुआ छोड़ फिर बाहर भागी दरार की तरफ ।
दरार के बाहर सब कुछ और भी पीला हो चुका था। पांखर कुसुमों ने पीले रंग का गलीचा बना दिया था, आसमान में पीली तितलियाँ टिड्डी दल की तरह छा गईं थीं। अमलतास और गेंदे में इतने फूल आ गए थे कि उनकी पत्तियाँ दिखाई भी नहीं दे रही थी। पीला, पीला, पीला, चारों तरफ एक ही रंग दिखाई दे रहा था। पीली बुरी तरह से चीखी और फिर अंदर की तरफ भागी। अंदर जहाँ चादर पर उसके सपने डले हुए थे, अनदिखे पीले सपने। अंदर आकर उसने देखा कि उसके सपनों में से सौंधा सौंधा धुंआ उठा रहा है। कोहरे की तरह ठंडा और सफेद धुंआ। उस ठंडे धुंए में ठंडा होने के बावजूद लोबान की खुशबू आ रही थी। पीली ने चीख कर एक बार फिर बाहर भागना चाहा पर भाग नहीं पाई।
यहाँ पर फिर दो तरह की बातें हैं। वो कहावत है ना कि जितने मुंह उतनी बातें। ठीक उसी तरह से यहाँ पर भी दो बातें हैं। कुछ लोग कहते हैं कि पीली ने भागना चाहा था लेकिन उस धुंए ने उसे उलझा लिया। वो कोहरे समान धुंआ उसके पैरों से रस्सी की तरह लिपट गया। उसे इस तरह से जकड़ लिया कि फिर पीली भाग ही नहीं पाई। वहीं छटपटाती रही। वहीं कुछ लोगों का ये भी कहना है कि पीली ने वास्तव में भागना चाहा ही नहीं। उसे उस ठंडे धुंआले कोहरे की छुअन और उससे निकल रही लोबान की मादल गंध ने रोक लिया। और फिर उसने भागने का सेाचा भी नहीं।
हकीकत चाहे जो भी हो लेकिन हुआ यही कि पीली भागी नहीं। उसी कोहरे में घिरी रही जो चादर पर पड़े नम सपनों के किनारों से निकल रहा था, पीली उसी लोबानी कोहरे में डूबी रही। धीरे धीरे धुंऐ के कारण पीली से सफेद होने लगी। धुंआ उसके ज़र्दपन को खींच रहा था। पीली ने अपनी आंखें बंद कर ली वो अपने पीले रंग को सफेद होता नहीं देखना चाहती थी। धुंआ पीली के पीलेपन को पीता जा रहा था। पीली पूरी तरह सफेद हो चुकी थी। और अब किनारों से नम भी होती जा रही थी। धीरे धीरे पीली ने भी धुंआ बनना प्रारंभ कर दिया। सौंधा सौंधा कोहरे समान धुंआ। लोबान की महक से गमकता धुंआ। चादर से उठ उठकर सपने एक एक करके पीली में समा रहे थे और पीली धीरे धीरे धुंआ बन रही थी। उसकी आंखें अभी भी बंद थीं। सिरों से झर झरकर पीली धुंआ बन रही थी। धुंआ कमरे से बाहर निकल कर दरार से बाहर निकलने लगा था, बाहर जहाँ अमलतास था, गेंदा था, पांखर कुसुम था, और तितलियाँ थीं। धीरे, धीरे, धीरे,पीली धुंआ बनती गई, बनती गई, बनती गई। धुंए का आखरी थक्का जब दरार से बाहर आया तो कमरा खाली हो चुका था। वहाँ न चादर पर पड़े हुए सपने थे और ना पीली थी सब कुछ धुंआ बनकर उड़ चुका था। कमरे में हल्की हल्की लोबानी गंध अवश्य आ रही थी। बाहर निकल कर धुंआ अमलतास और गेंदे के फूलों, पांखर कुसुम की पंखुरियों और तितलियों के परों से लिपटा रहा। फिर धीरे धीरे वहाँ से भी झर गया उसी तरह जिस तरह अमलतास के फूल झरे, गेंदे के फूल झरे, पांखर कुसुम झरे और तितलियों के पर। अब न धुंआ था और न पीलापन। पीली जा चुकी थी। इति पीली कथा।
तो ये थी तीन लड़कियाँ जो सीप में रहती थीं। तीन लड़कियाँ एक हरी, एक नीली और एक पीली। सीप के बाहर आज भी मौसम बदलते हैं, बादल आते हैं, सूरज आता है, फूल आते हैं, तितलियाँ आती हैं। मगर सीप के अन्दर का मौसम एक ही जगह पर ठहरा है। लोग कहते हैं कि जब बादल घिरते हैं तो सीप के पीछे वाली नाली में कुछ पीला पीला सा रिसने लगता है और जब आसमान धुलकर गहरा नीला हो जाता है वो उसी नाली से लाल रंग सा कुछ बहता है। और जब अमलतास पर फूल आते हैं तो सीप की दरार से सफेद, लोबानी, कोहरे समान धुंआ निकलता है। आपने देखा है कभी ? नहीं देखा ? क्या बात करते हैं ? अभी तक नहीं देखा ? कहाँ है ये सीप ? क्या पूछ रहे हैं ? आपके घर के पास ही तो है, एक, या शायद दो घर छोड़कर इस तरफ या शायद उस तरफ। अबकी बार ध्यान से देखिएगा सीप वहीं है। और जब भी ऐसा होता है तो झुर्री खाए चेहरे वाली कोई बुढ़िया, धुंआली, सूखी आंखों को शून्य में टिकाकर उदास से स्वर में कहानी को शुरू करती है ‘‘.....एक बार एक सीप में तीन लड़कियाँ रहती थीं। हरी नीली और पीली .......।’’
-:(समाप्त):-