आजाद की वीरगति। Manish Kumar Singh द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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आजाद की वीरगति।

जिसने हर संभव यत्न किये, भारत आजाद कराने के।
जो अधिकारी अमृत का था,विष उसे मिला पी जाने को।।
अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु,रखता था जान हथेली पर।
शिव के समान रणधीर वीर, पाया था नाम चन्द्रशेखर।।
आजाद उसे उपनाम मिला,शेेरोंं जैसे थे उसके काम।
बस उसकी अमर शहादत से,प्रयाग बन गया तीर्थ धाम।।
गेंहुआ रंग, मंझला कद था, नहीं काल से डरा जो वीर।
नतमस्तक थे उसके आगे, लंदन के सारे शूरवीर।।
बाल्य काल में प्रण ले डाला, था उसे निभाया जीवन भर।
अपने थे प्राण लुुटा डाले, आजादी की बलि वेदी पर।।
आजाद रहा था जीवन भर, था आजादी की मौत मरा।
ऐसे सपूत को पाकर थी,हो गई धन्य यह वीर धरा।।
सारा भारत फूट-फूटकर,उसके मरने पर था रोया।
अब नहीं जगेगा बबर शेर, मृत्यु की चिर निद्रा में सोया।।
अपने अति छोटे जीवन में, लंदन को बना चुनौती था।
हर गोरा उसे पकड़ने को,करता दिन-रात मनौती था।।
पर उसकी काया को गोरे, कदापि नहीं छू पाये थे।
उसने निज पिस्टल के बल पर, गोरों के शीश झुकाये थे।।
आजाद के अपने मित्रों ने ,धोखा किया था उनके साथ।
उनके भेद दिये गोरों को,सौंंप दिया था मृत्यु के हाथ।।
साहस का सही अर्थ उसने, गोरों को बढ़कर बता दिया था।
अभिमन्यु सम साहसी था वह,भरे समर में जता दिया था।।
जब कारतूस हो गये खत्म, अंतिम गोली खुद पर दागी।
हो गया अमर नश्वर जग में, वह आजादी का अनुरागी।।
सन् उन्नीस सौ इकतीस था, जनवरी मास की सरदी थी।
गोरों ने उसे पकड़ने को, अब पार सभी हद कर दी थीं।। पुरुस्कार हो गया दोगुना, जासूसों का जाल बिछाया।
आजाद मिले जीवित या मृत,हर हथकंडे को अपनाया ‌।।
उन दिनों आजाद कटरा में,साथी के घर पर रहते थे।
सोते समय आजाद मित्र से, वह कभी-कभी यह कहते थे।।
स्वप्न काल के समय अक्सर, मुठभेड़़ पुलिस से होती है।
शव छलनी पड़ा भूमि पर है, हाथों में पिस्टल होती है।।
कहते मैंने प्रण ले डाला, जीवित पकड़ा न जाऊंगा।
समय पड़ा तो निज गोली से, अपनी ही जान लुुुटाऊंगा।।
औरों की तरह मुझे गोरे, यातना नहीं दे पायेंगे।
बंदी गोरों के बनें नहीं, मृत्यु की राह पर जायेंगे।।
कुछ माह से चन्द्र शेखर ने, सीमित सारी गतिविधि कर दी।
भगतसिंह की कैद मुक्ति हित, जन-जन में अभिलाषा भर दी।।
वह गुप्त रूप से एक दिवस, आनन्द भवन में जाते हैं।
जाकर सम्मुख वह नेहरू के, परिचय अपना बतलाते हैं।।
आजाद वीर के प्रश्नोंं पर, नेहरू निज चक्षु झुकाते हैं।
वह खुद को विवश बता देते, आजाद वहां से आते हैं।।
सुबह सत्ताइस फरवरी को,आठ बजे दल की बैठक थी।
आजाद वहां पर आये थे, सबसे मिलकर बातें की थीं।।
नौ बजे समाप्त की बैठक,साथी थे सारे चले गये ‌।
दगा मिली आजाद वीर को, अपनों के द्वारा चले गये।।
अल्फ्रेड पार्क में बैठे थे, आजाद और उनका साथी।
भगतसिंह की बातें करते,मिटनी है वीरों की थाती।।
चिन्ता करते आजाद वीर, कुछ तो मुझको करना होगा।
आजादी के परवानों को, ऐसे कब तक मरना होगा।।
है कौन राह जिस पर चलकर, वीरों के कैसे प्राण बचें। जिनको तय फांसी का फंदा,हम मुक्ति हेतु अभियान रचें।।
आजाद विचारों में खोये,थी तभी पुलिस पर नजर पड़ी।
उस महावीर ने जान लिया,आ गयी आज है बुरी घड़ी।।
अब समय अधिक है रहा नहीं, कुछ कहने या समझाने को।
मेरी पिस्टल है लालायित, अब अंतिम समर मचाने को।।
हाथों में थी पिस्टल पकड़ी, गोली नटबाबर पर दागी।
उड़ी कलाई नटबाबर की, गोरों की पलटन थी भागी।।
दूसरी गोली से उड़ा दिया, फिर जबड़ा देेशी अफसर का।
अब लेकर ओट एक तरु की, गोरों से रण को तत्पर था।।
वह वीर पुरुष एकाकी ही, लड़ता था गोरों के दल से।
सबके थे मान मिटा डाले, अपनी छोटी सी पिस्टल से।।
आजाद वीर ने चुन-चुनकर, गोरों पर प्रबल प्रहार किया।
कितने ही गोरों को पल में, यमपुर के घाट उतार दिया।।
जब बची एक ही गोली तो, अंतिम गोली खुद पर दागी।
मरकर भी हो गया अमर था, वह आजादी का अनुरागी।।
आजाद जिया, आजाद मरा,अति महावीर वह बलिदानी।
उसने गोरों को दिखा दिया, कैसे होते हिन्दुस्तानी ‌‌‌।।
उसके शव को भी छूने की, हिम्मत गोरे ना कर पाये।
संभव है सांसें चलती हों, उठकर गोली अभी चलाये।।