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गुच्चू गरिया

गुच्चू गरिया

गुच्चू मेरे ननिहाल के पास के गाँव गरिया का रहने वाला था। बचपन के उन दिनों में जब मैं ग्रीष्म की लंबी छुट्टियों में या दशहरा दिवाली या मकर संक्रांति के अवकाश में अपने ननिहाल में होता था तब मेरे हमउम्र मामा गुच्चू को बहुत सताते थे। उस समय मुझे समझ में नहीं आता था कि गुच्चू ऐसा क्यों है? वह मामा की ताड़ना बर्दाश्त करता बावजूद इसके हर वक्त उन्हीं की खुशामद में लगा रहता था।

हम लोग अच्छे खासे समझदार किशोर हो चुके थे। चौदह या पन्द्रह वर्ष के रहे होंगे। मामा यद्यपि मुझसे उम्र में कुछेक माह ही बड़े थे तथापि वह मुझसे स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत आगे थे। वह कसरती व मजबूत शरीर के थे, पहलवानी उनका शौक था पर कुश्ती से कोसों दूर रहते थे। उनके लंबोतर चेहरे पर बकरे जैसी दाढ़ी उगने लगी थी और उनके दोनों गाल पके मुहांसों से भरे रहते थे। सुबह भोर दण्ड बैठक के बाद स्वयं ही बकरी को दुहते और लगभग एक लीटर से भरे लौटे का सारा निपनिया दूध पी जाते, फिर बाड़े में बने शौचालय को छोड़ गाँव से लगी पहाड़ी पर अपने खास पड़ोसी मित्र रामदेव को साथ लिए दिशा-मैदान को जाते और वहीं पहाड़ी की तलहटी पर स्थित कमल सरोवर में दातुन-स्नान आदि करते। समय पर जाग गया तो मैं भी उनके साथ जाता, नहीं जगा तो घर में ही शौचादि से निवृत हो अपनी मौसी के बेटे लालता के साथ कमल सरोवर मामा के स्नान के समय पहुँच जाता था। कांच की छोटी शीशी में बचे हुए कडुवे तेल से अपने पूरे शरीर की मालिश मामा के कहने से करनी पड़ती मेरे न नकुर करने पर मामा और रामदेव दोनों मिलकर मेरी शरीर पर तेल मालिश करने लग जाते जिससे गुदगुदी होती। अतः स्वयं ही शरीर पर तेल लगाना श्रेयस्कर समझता। मामा अपनी कसरती देह और बाहों पर उछलती मछलियां जरूर दिखाते और पहलवानों की तरह ताल ठोकते हुए तालाब के पानी में कूद जाते। पानी चाहे जितना भी ठंडा हो वह वहां तक जरूर जाते जहां कमल के फूल लगे रहते थे। ढेर सारे कमल के फूल वह तोड़ लाते जिन्हें वह पहाड़ी में स्थित महामुनी आश्रम की अंधेरी गुफा में प्राण प्रतिष्ठित शिवलिंग पर जल के साथ चढ़ाते।

ग्रीष्मावकाश में खेतों में अक्सर हम लोगों का जाना होता था। ऐसे समय गुच्चू हमारे साथ होता। मामा गुच्चू को खेतों से कुछ दूर स्थित जंगल के पास नाले में लेकर चले जाते थे। ऐसे समय हम लोगों का उनके साथ जाना निषिद्ध रहता था।

मैं शहर का पढ़ा-लिखा होनहार व मेधावी छात्र समझा जाता था। मामा पढ़ने में नितांत कमजोर किंतु बुद्धि, विवेक व देह से काफी परिपक्व व मजबूत थे। उस उम्र में टैक्टर व जीप चला लेना उनके बाएँ हाथ का काम था । मोटरसाइकिल तो वह ऐसे नचाते जैसे वह मदारी और मोटरसाइकिल उनकी बन्दरिया हो। ठीक इसी तरह गुच्चू भी मुझे उनका पालतू बन्दर लगता था, जो उनके इशारे पर हर वक्त नाचता रहता था।

बुंदेलखंड में गुल्ली डंडा लोकप्रिय खेल है। जिन्होंने कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'गुल्ली डंडा' पढ़ी है, वे इस खेल को भली-भांति जानते होंगे। गुल्ली और डंडा लकड़ी से बनाए जाते हैं और जिस जमीन की सतह पर गुल्ली रखी जाती है, उस नाव के आकार के छोटे गढ्ढे को हमारे बुन्देलखण्ड में गुच्चू या गुच्ची कहते हैं, जिसपर से गुल्ली डंडे से अन्य खिलाड़ियों के ऊपर उछाली जाती है, गुल्ली लोप ली गई तो दांव गया अन्यथा खेल आगे बढ़ता है। यह मुझे पता नहीं था कि गुच्चू का नामकरण किसने किया था? हम किशोर बच्चों के साथ गुच्चू भी चोर-सिपाही, विष-अम्रत, छुआछुहाल, आइस- पाइस-धप्पा या सिलोर माई डंडा जैसे खेल बहुत लगन के साथ घण्टों बिना थके खेलता था। दोपहर की गर्मी व उमस से बचने के लिए घण्टों तालाब में लोरते, कमल फूल को तोड़ना और कमल की जड़ों को खोद-खोद कर खाना यह गर्मियों की छुट्टी का एक आनंददायक समय होता था। नानाजी के यहाँ बीसियों गाय व अन्य पालतू मवेशी थे।बड़ी-बड़ी सारें, भूसा अटारियाँ, कोठरियां हम लोगों के छिपने-छिपाने के अड्डे हुआ करते थे। ऐसे खेल के दौरान अक्सर गुच्चू को न केवल मेरे मामा बल्कि उनकी हम-उम्र के अन्य युवा होते लड़के भी तंग किया करते थे। जिसकी शिकायत वह अपने स्त्रैण-स्वभाववश बड़ी अदा से मामा से करता। मामा की छद्म नाराजगी में वह अपनी जीत समझता और पुनः खेलने में मशगूल हो जाता। उन दिनों मैं उन आशयों को समझ नहीं पाता था। उन्हीं दिनों की बात है जब एक बार मैंने भूसा की अटारी में मामा को गुच्चू के साथ गलत हरकत करते देख लिया था तब मुझे बहुत गुस्सा आई थी और मुझे याद है मैंने मामा की जमकर पिटाई भी की थी और वह पिटते रहे अंत में उन्होंने घर में किसी को न बताने का मुझसे वचन लेते हुए भविष्य में ऐसा न करने की सौगंध ली। मैंने उन्हें बख्श दिया था पर उसी दिन से मेरे मन में गुच्चू के प्रति हमदर्दी भी पनप आई थी। वह एकांत में मेरा हाथ पकड़ते रोते हुए बोला था,"मन्नू भैया! क्या करूँ मेरी मनोवृति ही ऐसी है। मेरे पुरुष शरीर में एक स्त्री की आत्मा बसती है। तुम्हारे मामा से मुझे बहुत प्रेम है, मैं उन्हें अपना आदमी और स्वयं को उनकी लुगाई समझता हूँ।" उसकी स्वीकार्यता ने मुझे अवाक कर दिया था, मेरा माथा ठनक गया था।

गुच्चू के माता-पिता नहीं थे। सौतेली विधवा मां उसे भरपेट खाने को भी नहीं दे पाती थी। वह अक्सर हमारे यहां बरेदी के खाने कि लिये आई हुई रोटियों में अपना हिस्सा बना लेता था। सूखी रोटी आम का अचार या कभी-कभी सत्तू के लड्डू वह भी नमक वाले वह इतने चाव से खाता जैसे बनारस की सुप्रसिद्ध मिठाई लौंगलता हो।

शनै:शनै: हम लोग कुछ और बड़े होते गए और अगली गर्मियों में जब मैं अपने ननिहाल गया तब मुझे गुच्चू बड़े नए अंदाज में मिला फुल पैंट-शर्ट पहने कुछ अधिक उम्र का लगने लगा था। दाढ़ी-मूछें उसके चेहरे पर न तो पहले थी न ही अभी जमीं थी और न ही भविष्य में उसके जमने के आसार ही थे,पर इस बार वह पहले से कुछ अधिक समझदार लगा। मेरे पूछने पर उसने बताया कि उसकी नौकरी छत्रसाल ग्रामीण बैंक में चपरासी के पद पर अस्थाई रूप से लग गई है। ढाई सौ रुपया महीना मिलता है। सुबह नो बजे से शाम को छः बजे तक की ड्यूटी उसे करनी होती है। नौकरी के अलावा अवकाश के दिनों में या ड्यूटी के बाद वह शादी-ब्याह से लेकर नोटंकी तक में नाच-गाकर अच्छा कमाने लग गया है। अब उसे लोग गुच्चू गरिया के अलावा गुच्चू या गुच्ची नचैया के नाम से भी जानने लगे थे।

ननिहाल की हमारी पहले की जो बानर टोली थी उसमें से कुछ लोग अब छूट गए थे। जो बड़े हो चुके थे उनपर ब्याह-काज की नकेल डलने लगी थी तो कई बड़े शहरों में जाकर मिल या सेक्युरिटी गार्ड की नौकरी करने लग गये थे।

गाँव, देहात में शादियाँ पहले जल्दी हो जाती थी जो आज भी कानूनी प्रतिबंधों के बावजूद बरकरार है। बारात जाने, जीमने के अलावा किसे समय है कि थाने जाकर रपट लिखाये और अपने ही लोगों से पंगा ले। मामा भी अठारह बरस के हो चुके थे और उनके विवाह की तैयारियाँ भी शुरू हो चुकी थी। लड़की देखी और पसंद की जा चुकी थी। मुझे इस बात का मलाल अभी भी रहता है कि हमारे ग्रामीढ़-अंचल के युवाजन कम उम्र में विवाह के लिये राजी ही क्यों हो जाते है, भले ही वह इक्कीस की उम्र सीमा पार कर लें पर रहते तो अपरिपक्व ही हैं, यानि माता-पिता की आय पर निर्भर रहते हैं। मेरा स्पष्ट मत है कि आर्थिक दृष्टि से पूर्ण निर्भर रहने वाली युवती व युवक को वैवाहिक जीवन में प्रवेश करना चाहिए।

गुच्चू ने इस बार की छुट्टियों में एक दिन बड़े गम्भीर अंदाज में मुझसे कहा कि, "मन्नू मैं तुम्हारे मामा से शादी करूँगा। उस समय मैं समझा कि वह मजाक कर रहा है, मैंने उसकी बात मजाक में उड़ा भी दी थी बल्कि भूल भी गया था। गर्मियां बीती मैं वापस अपने शहर लौट आया फिर अगली साल गर्मियों में कोचिंग क्लास की ट्यूशन करनी पड़ी और मैं ननिहाल नहीं जा पाया। इधर मेरा ग्रेजुएशन पूरा हो रहा था उधर सूचना आई मामा के ब्याह की।

मामा की बारात बैल गाड़ियों से भी गई थी। बहुत आनंद आया। ऊंची बैलगाड़ी भूसे से भरी गद्देदार। रास्ते में खाने के लिए बेसन के मोटे सेव, आटे के खुरमे और काली मिर्च वाले बूंदी के बड़े-बड़े लड्डू क्या बारात थी। आज भी मेरी जिह्वा पर बूंदी के लड्डू उस पर काली मिर्च का वह स्वाद ज्यों का त्यों बरकरार है। नानाजी के पास तीन ट्रैक्टर थे और एक महिंद्रा जीप भी थी। स्वयं घुड़सवारी करते थे। बारात ट्रैक्टर में भी गई जीप में भी गई और बेल गाड़ियों में भी गई जो बाकायदा सज धज कर गई थीं। सम्भवतः बीसेक बैलगाड़ियां रही होंगीं। एक से बढ़कर एक। बैलों को रंग-बिरंगे कपड़े पहनाए गए थे, उनके सींग रंगे हुए थे। गले मे घन्टी और जुओं पर बेलबूटे लगाए गए थे। रास्ते में बैल गाड़ियों की दौड़ भी हुई। जहाँ कहीं किसी पीपल के पेड़ की छांव, कुआं और मंदिर होता बैलगाड़ियाँ ढील दी जातीं और हम लोग नाश्ता-भोजन जो भी होता उसे बड़े मजे से खाते। भरपूर मजे करते। हमारे बड़े मामा तो फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी 'मारे गए गुलफाम' जिसपर राजकपूर ने फ़िल्म 'तीसरी कसम' बनाई थी के हीरामन लगें अगर उनके गोरे चेहरे से मूछें हटा दी जाएँ । एकदम राजकपूर की तरह दोहरे बदन के गोरे चिट्टे मामा। हीरामन की तरह भोले नहीं बल्कि उसके उलट आक्रमणकारी आक्रांता अधिक लगते थे। उसपर बड़ी-बड़ी आँखें और गरजती हुई आवाज। हम बच्चे उनसे दूरी बनाकर रखते थे। उनकी कमर के पास छिपा कट्टा कंधे पर टँगी दुनालू से कहीं अधिक खतरनाक दिखता था।

गुच्चू भी समझदार हो गया था। वह जानता था कि उसकी मामा से शादी नहीं हो सकती थी। उन दिनों बारात तीन दिन की हुआ करती थी। नाचने वाली पतुरियाँ दूसरी रात आईं। रात भर गाना बजाना और पतुरियों का नाच होता रहा। उनके बीच एकदम महिलाओं के कपड़ों में गुच्चू को नाचते देख कोई न पहचानने वाला कह नही सकता था कि वह पतुरिया नहीं बल्कि भांड है। अधिकांश यही समझ रहे थे कि वह भी उस नाच गाने की मंडली की कोई नृत्यांगना है। उन दिनों जो शादियां होती थी बारातियों के मनोरंजन के लिए नौटंकी या ऐसे नाचने गाने वाली पतुरियों की मंडली को रात भर के लिए बुला लिया जाता था। रतजगा होता हंसी-ठिठोली चलती बाराती हुज्जत में रुपए लुटाते हुए खुश होते थे।

बड़े मामा को गुच्चु की हरकतों का पता था। साथ ही उनसे दूल्हा बने बैठे अपने अनुज के साथ गुच्चू के अंतरंग सम्बन्धों की बात भी छुपी नहीं थी। यही कारण था कि गुच्चू को बारात का आमंत्रण नहीं दिया गया था,फिर भी वह नृत्य मंडली के साथ वहां स्त्री वेश में मौजूद हो गया। बड़े मामा को जब गुच्चू की मौजूदगी का पता चला तो वह उस पर भड़क उठे। इंतेहा तो तब हो गई जब गुच्चू ने दूल्हा बने बैठे मामा को नाचते हुए न केवल माला पहना दी बल्कि उनकी गोद में बैठ उनके होंठ चूम लिए। गुच्चू की इस बेमौके बेहूदगी हरकत से हड़कम्प मच गया। बड़े मामा तक खबर गई। नृत्य रुक गया,विषय परिवर्तन हुआ नौटंकी शुरू हुई सभी 'सुल्ताना डाकू' देखने लगे।

देर से सोने के कारण मैं देर सुबह तक सोया पड़ा रहा। दूल्हा मामा ने मुझे जगाते चिंतित स्वर में कहा,"मन्नू गुच्चू की खबर लो बड़े भैया ने कहीं...."

गुच्चू को तलाशा गया वह न तो जनवासे में मिला न ही पूरे गाँव में। यह संभावना व्यक्त की गई कि गुच्चू भी नृत्य-मंडली संग भोर में निकल गया है।

मामा का तीन दिवसीय ब्याह सम्पन्न हुआ। ब्याह हो चुकने के बाद बारातियों की भी वही दशा होती है जो गुजरे गवाह की होती है। मेरी वापसी इस बार जीप में हुई। नव-दम्पति और कुछ परिवार के बच्चे जो नवविवाहिता को अपना परिचय दे उससे अपना रिश्ता बता रहे थे,जीप में सभी खुश बैठे थे।

बड़ी-बड़ी आँखों वाली सुकोमल मामी को पारदर्शी घूंघट में देख मैं सोच में पड़ गया कि अपने मामा के भाग्य की सराहना करूँ जो उन्हें ऐसी रूपसी धर्मपत्नी मिली या अपनी नयी-नवेली मामी के भाग्य पर तरस खाऊं जिसे मुहासों से भरे गालों वाले बीहड़ से बेडोल जीवनसाथी मिले। खैर! मैंने अपना परिचय देते मामी से कह दिया,"भांजा हूँ, पर गाढ़ी दोस्ती है मामा से अपने सारे राज बचा कर रखियेगा, चाहो तो कसम वसम दे देना नहीं तो सुबह होते ही सब पता चल जाएगा मुझे।"

शेष घराती-बाराती कैसे आए? कब आए? यह मायने नहीं रखता,पर गुच्चू वापस नहीं आया यह मायने रखता था। इस बात को सिवाय मामा और मेरे किसी ने महत्व नहीं दिया। विवाह की शेष रस्में भी निपट गईं। सुहागरात भी बीत गई और सुबह सबेरे रात में क्या कुछ घटा मामा यार ने मुझसे यारी निभाते सब बखान भी दिया।

देर शाम अप्रत्याशित सूचना आई गुच्चू ने गाँव के बाहर कुएं में कूदकर अपनी जान दे दी है। हम लोग सूचना पा गांव के बाहर उपेक्षित से उस कुएं के पास दौड़े गए। कुआं प्रयोग में नहीं था, गंदा बदबूदार पानी जिसपर कूड़ा-करकट भरा पड़ा था। पुलिस आ चुकी थी। गुच्चू की लाश फूल चुकी थी। लाश से आ रही बदबू से लोग अंदाजा लगा रहे थे कि वह तीन-चार दिन पहले कुएं में कूदा होगा। गुच्चू की फूली लाश देख मन विचलित हो उठा आख़िर उसने ऐसा कदम क्यों उठाया? किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। गुच्चू की सौतेली माँ और उसके सौतेले भाई-बहनों को उसकी मौत से ज्यादा फर्क नहीं पड़ा था। गुच्चू का दाह- संस्कार पोस्टमार्टम के बाद हो गया। उसने आत्महत्या की थी पर क्यों? यह प्रश्नचिन्ह मेरे मन-मस्तिष्क में अंदर तक पैठ बना चुका था। ब्याह के माहौल से निकलने के कुछ दिन तक में अपने ननिहाल में रुका रहा।जिस दिन मैं अपने शहर की ओर जाने लगा उस दिन मामा ने बड़े अधीर होकर बस में मुझे बैठाते हुए मेरा हाथ दबाया और कहा, "मन्नू किसी से कहना नहीं गुच्चू ने मुझसे कहा था कि अगर मैंने उससे शादी नहीं की तो वह आत्महत्या कर लेगा। अजीब सनक थी उसकी। भला मैं उससे शादी कैसे कर सकता था। यह उसे सोचना चाहिए था। बचपन और किशोर वय की बात अलग थी हम बड़े हो चुके थे। कई आदतें जो समाज के लिए ग्राह नहीं थी। वह बड़े होकर या ब्याह के बाद नहीं की जा सकती थी। गुच्चू ने भावुकता में आकर सनक में अपनी जान दे दी जो उसे नहीं देनी चाहिये थी। अच्छा नहीं किया उसने! अरे एक बार ऐसा करने के पहले मुझसे मिल तो लेता..."

मामा की सजल हो आईं आँखें मैं पहली बार देख रहा था। वह मुझे विदा कर जा चुके थे और मैं उस उम्र में बहुत समझदार हो चुका था और गुच्चू की समलैंगिकता की प्रवृत्ति के प्रति संवेदना के भाव रखते हुए उसकी मन: स्थिति को स्वयं में उतार कर उसके साथ न्याय करने की सोच में बहुत समय तक डूबता- उतराता रहा था।

अब जबकि समलेंगिकिता के पक्ष में देश की सर्वोच्च अदालत ने भी अपनी मुहर लगा दी है। समलेंगिकों को भी अपनी प्रवृति के अनुसार जीवन जीने का अधिकार मिल चुका है।

यह अधिकार सम्भवतः गुच्चू गरिया की भटकती आत्मा को दिलासा दे जाए।

--- महेंद्र भीष्म

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