नई चेतना - 16 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नई चेतना - 16



उधर लालाजी के पीछे चलते हुए बाबू बस्ती से काफी दूर आ गया था । खेतों के बीच ही बने एक छोटे से ट्यूबवेल के सामने बने पक्के चबूतरे पर लालाजी बैठ गए ।

लालाजी कुछ थके हुए लग रहे थे । बाबू भी उनके सामने ही खेत की मेंड़ पर बैठ गया । लालाजी ने उसको सामने बैठे देख उसे नजदीक ही अपने साथ बैठने का हुक्म दिया ।

बाबू की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह लालाजी के बराबर में बैठे । ” नहीं नहीं मालिक ! मुझसे पाप मत करवाइए । मैं आपके बराबर बैठने का सोच भी नहीं सकता । ” बाबू हाथ जोड़कर गिडगिडा उठा ।

” मैं तुमसे यही बात कहने आया हूँ बाबू ! तुम मेरे बराबर बैठने की हिम्मत नहीं कर रहे हो और वो तुम्हारी लड़की धनिया...... ! वो क्या कर रही है ?" लालाजी ने आवाज में थोड़ी कठोरता लाते हुए कहा ।

” मालिक ! धनिया से कोई गलती हो गयी है क्या ?" बाबू के चेहरे पर हैरानी के भाव थे ।
उसकी बात सुनकर लालाजी ने घूर कर आग्नेय नेत्रों से उसे देखा ।
डर कर सहमते हुए बाबू ने हाथ जोड़ते हुए कहा ," वो अभी छोटी है नादान है मालिक। उसकी तरफ से मैं आपसे माफी माँगता हूँ । उसको माफ़ कर दीजिये मालिक ! मैं उसको समझा दूँगा । आगे से आपको कोई शिकायत नहीं मिलेगी । ” कहते कहते बाबू लालाजी के पैरों पर गीर पड़ा ।

लालाजी ने बाबू को उठाते हुए उसे पहले चबूतरे पर बैठाया और फिर स्वयं उसके बराबर में बैठते हुए बोले ” बाबू ! हमें तेरी लड़की से कोई शिकायत नहीं है । शिकायत तो हमें अपने आपसे है । हम तो तुझसे मदद माँगने आये हैं । ”

बाबू को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ और साथ ही आशंका भी हुई मालिक ये क्या कह रहे हैं ? तुरंत ही लालाजी से घबराए स्वर में बोल पड़ा ” ये आप कैसी बातें कर रहे हैं मालिक ? आप एक बार आदेश देकर तो देखिये । मुझे तो आपके लिए जान देकर भी ख़ुशी होगी । ”

” हमें तुमसे यही उम्मीद थी बाबू ! और इसीलिए हम तुम्हारे पास आये हैं । ” लालाजी अपने धीर गंभीर स्वर में बोले ।

इधर बाबू यह सोच कर मन में खुश हो रहा था कि आखिर कुदरत ने उसे भी मालिक का कुछ कर्ज अदा करने का मौका दे दिया था ।
थोड़ी देर की खामोशी के बाद लालाजी ने बाबू को अमर और धनिया की प्रेम कहानी संक्षेप में सुनाते हुए आज अमर से हुई बातचीत भी बता दी ।

पूरी कहानी सुनकर बाबू के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी थी । वह अपने आपको लालाजी का गुनहगार मान बैठा ।

थोड़ी ही देर बाद लालाजी बोले ” अब तुम ही बताओ बाबू ? क्या मुझे तुम्हारे सहारे की जरुरत नहीं है ? ”

बाबू तुरंत ही हाथ जोड़ कर निवेदन करते हुए बोल पड़ा, ” नहीं नहीं मालिक ! आप बस आदेश कीजिये मुझे क्या करना है ? मैं आपका हर आदेश मानूँगा । आप जैसा कहेंगे वैसा ही करूँगा । ”

लालाजी समझ रहे थे कि इस पूरे वाकये में बाबू की भी कोई गलती नहीं थी । लेकिन आखिर कोई न कोई जुगत तो लगानी ही थी । बुजुर्गों ने कहा भी है ‘ न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी ‘ । लालाजी अब इसी नीति पर चल रहे थे ।

” बाबू अब मेरी इज्जत तुम्हारे ही हाथों में है । तुम जानते ही हो हमारा समाज है और अगर अमर के इस कृत्य की भनक भी किसीको लग गई तो मैं तो किसीको मुँह दिखाने लायक नहीं रह जाऊँगा । मैं जीते जी ही मर जाऊँगा । क्योंकि इज्जत मुझे अपनी जान से भी ज्यादा प्यारी है ।" लालाजी ने अपनी बात कहने के लिए एक दमदार भूमिका बनाई और कहना जारी रखा, ” बाबू ! तुम समझ सकते हो कि इस मामले में क्या करना चाहिए । संभावित विस्फोट से बचने के लिए आग और बारूद को अलग अलग रखना जरुरी है । तुम समझ रहे हो न कि मैं क्या कह रहा हूँ । ”

बाबू सहमति में सिर हिलाते हुए बोला ” जी मालिक ! मैं सुबह ही धनिया को उसके मामा के यहाँ छोड़कर आ जाऊँगा । ”

तुरंत ही लालाजी बोल पड़े ” तुम सही समझे हो बाबू ! लेकिन धनिया को छोड़ कर तुम वापस नहीं आओगे, बल्कि तुम भी धनिया के साथ ही यह गाँव छोड़कर कुछ दिनों के लिए कहीं चले जाओगे । किसी ऐसी जगह जिसके बारे में किसी को भी पता न हो । ”

” लेकिन मालिक ! ” बाबू कसमसाकर रह गया ।

” लेकिन क्या ? यही न कि कहाँ रहेंगे ? कैसे रहेंगे ? क्या करेंगे ? क्या खायेंगे ? तो मैं बता दूँ कि तुम्हें किसी बात की फिकर करने की कोई जरुरत नहीं है । मैं सारा इंतजाम कर दूंगा । तुम्हें बस इतना ही करना है कि कल दिन निकलने से पहले ही यह गाँव छोड़ देना है । ध्यान रहे तुम्हें जाते हुए कोई देख नहीं पाए । और उसके बाद कल ही या एक दो दिन में धनिया की शादी करने के बाद तुम्हें अकेले यहाँ वापस आना है ।
ऐसा इसलिए ताकि अमर धनिया की तरफ से निराश हो जाये । धीरे धीरे उसके जख्म भर जायेंगे और वह हमारी बात मानने के लिए तैयार हो जायेगा । बोलो इतना करोगे मेरे लिए ? ” लालाजी ने उम्मीद भरी निगाहों से बाबू की तरफ देखा ।

बाबू अजीब सी कशमकश से गुजर रहा था । एक तरफ जहाँ वह लालाजी की पीड़ा को समझ रहा था वहीँ दूसरी तरफ धनिया के भविष्य को लेकर भी चिंतित था ।

लालाजी की शर्त के मुताबिक उसे एक दो दिन में ही धनिया की शादी करनी है । लेकिन किससे कर दे उसे बिना जाने समझे अपनी फुल सी बच्ची की शादी ? थोड़े समय में ही बाबू के मन में सैकड़ों विचार कौंध गए ।

तभी उसकी अंतरात्मा चीत्कार कर उठी ‘ बस ! आ गया अपनी औकात पर । बातें तो बड़ी बड़ी करता था । लालाजी के लिए जान भी दे देगा । अब क्या हुआ ? इतनी सी बात और इतना विचार ? '

तभी उसका दिमाग बोल उठा ” नहीं नहीं ! मैं धनिया के साथ नाइंसाफी नहीं होने दूँगा । जरुरत पड़ी तो लालाजी के लिए अभी भी मैं जान देने के लिए तैयार हूँ लेकिन धनिया के भविष्य से खिलवाड़ नहीं करूँगा । अपने स्वार्थ के लिए धनिया की जिंदगी से खिलवाड़ नहीं कर सकता । लालाजी से माफ़ी मांग लेता हूँ ”

अभी बाबू कुछ जवाब देता कि लालाजी ने जेब से नोटों की एक गड्डी निकाल कर उसके हाथों में रखते हुए कहा ” ये लो बाबू ! ये बीस हजार रुपये हैं । ज्यादा विचार न करो और जैसा कहा है वैसा ही करो । ”

अब बाबू कुछ कह नहीं पाया । उसकी जुबान ने उसके दिमाग का कहा मानने से इंकार कर दिया था । बगावत उसके दिमाग में थी लेकिन उसका दिल लालाजी को ना नहीं कर पाया । और गर्दन झुकाए बाबू ने हाथ आगे बढ़ा दिया ।

लालाजी के चेहरे पर ख़ुशी की चमक बिखर गयी । बाबू के हाथों पर नोटों की गड्डी रखते हुए लालाजी ने दोनों हाथ जोड़ लिए और भर्राए स्वर में बोले ” मुझे माफ़ कर देना बाबू ! मैं जानता हूँ यह सब करना तुम्हारे लिए आसान नहीं होगा लेकिन क्या करूँ ? और कोई उपाय भी नहीं सूझ रहा । मैं तुम्हारा यह अहसान कभी नहीं भूलूंगा । ”

लालाजी के इन शब्दों ने बाबू के दिलोदिमाग को झिंझोड़ कर रख दिया था । अब बाबू का दिल दिमाग पर पूरी तरह हावी हो गया था । उसके दिल ने फैसला कर लिया था कि अब वो वही करेगा जैसा लालाजी ने कहा है ।

अपना इरादा मजबूत करके उसने लालाजी की तरफ देखा और दोनों हाथ जोड़ते हुए बोल पड़ा ” अहसान तो आपके हमारे ऊपर हैं मालिक ! आज उपरवाला हम पर कितना मेहरबान है । देखो उसने आज हमें अपनी वफादारी साबित करने का कितना बढ़िया अवसर दे दिया है । अब मैं और देर नहीं करूँगा मालिक । आप मुझे इजाजत दीजिये । अब वक्त ज्यादा नहीं है और तैयारी भी करनी है । बस अब चलता हूँ । राम राम मालिक ! ” कहकर बाबू एक झटके से मुड़ा और बस्ती की तरफ चल पड़ा ।

लालाजी थोड़ी देर तक अँधेरे में उसकी परछाई सी आकृति को जाते हुए देखते रहे और फिर मुड़ कर अपने घर की ओर चल दिए ।

क्रमशः