नई चेतना - 17 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नई चेतना - 17



बाबू वहाँ से तो बड़ी तेजी से चला था लेकिन कुछ ही दूर आकर उसकी गति शिथिल पड गयी। विचारों के अंधड़ थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे ।

हालाँकि उसने मन बना लिया था कि अब उसे वही करना है जो लालाजी ने कहा है । लेकिन क्या यह इतना आसान है ? एक दो दिन में ही धनिया की शादी करनी है । कैसे करेगा ? यहाँ आसपास के गाँवों में करना होता तो शायद जानपहचान से कोई अच्छा लड़का मिल भी जाता । अब बिना किसी जान पहचान के धनिया को किसके गले में बाँध दे ?

लालाजी ने भी सब सोच समझ कर ही तय किया होगा । उन्होंने निश्चित ही यह सोचा होगा कि अगर धनिया कहीं आसपास ही रही या उसका पता चल गया तो अमर उनसे कहीं बगावत न कर ले ? ठीक ही तो सोचा है । क्या पता कल धनिया भी उसके सूर में सूर मिलाने लगे । सही तो सोचा है लालाजी ने । और कोई विकल्प भी तो नहीं !

दिमाग में चल रहे विचारों के बीच बाबू अचानक गिर पड़ा और तब उसे अहसास हुआ कि वह तो बस्ती की तरफ जाती पगडण्डी छोड़कर निचे खेतों में उतर पड़ा था । उसके घुटने पर खरोंच लग गयी थी ।

किसी तरह अपने आपको संभालते हुए उठ खड़ा हुआ और चलने लगा । चोट लगी तो थी लेकिन जिस्म पर लगे छोटे मोटे चोट गरीबों के लिए कोई मायने नहीं रखते । वह तो परेशान हो रहा था अपने दिल पर लगी उस चोट से जो मज़बूरी में ही सही लालाजी ने उसे दे दिया था और अब वह भी मज़बूरी में ही धनिया के दिल को ठेस पहुँचानेवाला था ।

बाबू अपनी झोपड़ी के दरवाजे पर पहुँचा। धनिया अभी तक दरवाजे में ही बैठी हुई थी । बाबू को देखते ही उठ कर परे हटते हुए उससे पूछ बैठी ” क्या हुआ बापू ? क्या जरुरी बात करना चाहते थे बड़े मालिक ? ”

बाबू ने एक ठंडी साँस ली और अपनी झुग्गी में प्रवेश कर जमीन पर बैठ गया । उससे कुछ कहा नहीं जा रहा था । लेकिन कब तक चुप रहता ? आखिर उसकी जुबान खुली और उसने सिलसिलेवार तरीके से अपनी और लालाजी के बीच हुई पूरी बातचीत संक्षेप में सुना दिया ।

पूरी बातचीत को सुनने के बाद धनिया कुछ चिंतित अवश्य लगी लेकिन फिर संयत स्वर में पूछ बैठी ‘ तो बापू क्या सोचा है तुमने ? ”

अपने मनोभावों को छिपाते हुए बाबू ने कहा ” बड़े धर्मसंकट में फँस गया हूँ बेटी ! एक तरफ मुझे अपनी जिम्मेदारी का अहसास है वहीँ दूसरी तरफ लालाजी के प्रति अपनी वफादारी से भी पीछे नहीं हटना है । समझ में नहीं आता है किस तरफ जाऊँ ? एक तरफ कुआँ तो दूसरी तरफ गहरी खाई । दो चक्की के पाटों के बीच फँस गया लगता हूँ । ” बाबू ने अपनी चिंता व्यक्त की ।

धनिया ने बड़े ध्यान से उसकी बातों को सुना और फिर उठते हुए बोली ” बापू ! रात के बारह बजनेवाले हैं । अब हमारे पास दो तीन घंटे ही बचे हैं गाँव से निकलने में । आप थोड़ी देर आराम कर लो । तब तक मैं सारा सामान बाँध लेती हूँ । ”

बाबू तड़प कर रह गया । वह समझ रहा था कि धनिया ने किन हालातों में ऐसा कहा होगा । बोला ” लेकिन बेटी ! यहाँ से निकल कर हम कहाँ जायेंगे ? कौन हमारी मदद करेगा ? और फिर लालाजी की वो शर्त ? ”

बिना एक भी पल गँवाए धनिया बोल पड़ी ” तो क्या हुआ बापू ? मेरी शादी तो एक न एक दिन करनी ही थी फिर बड़े मालिक की मर्जी के मुताबिक क्यों नहीं ? ठीक ही तो सोचा है बड़े मालिक ने । मेरी शादी होते ही छोटे मालिक की झूठी उम्मीद तो टूट जाएगी और फिर सब ठीक हो जायेगा । ” और धनिया एक झटके से मुड़कर दूसरी तरफ पड़े कुछ कपडे सहेजने में लग गयी ।

बाबू ने उसकी भीगी पलकों का अंदाजा लगा लिया था और मन ही मन तड़प उठा था । धनिया की हिम्मत और धैर्य देख कर वह हैरत में था । वह सोचने लगा था क्या धनिया को वाकई अमर से कोई लगाव नहीं था या फिर यह तूफान से पहले की ख़ामोशी है ?

थोड़ी ही देर में बाबू की पलकें झपकने लगी थीं । अपनी ख़राब सेहत की वजह से ज्यादा तनाव ना झेलते हुए खुद को नियती के हाथों सौंपकर वह जमीन पर ही लुढ़क गया ।

थोड़ी ही देर में उसे नींद भी आ गयी थी । धनिया ने कपड़ों की एक पोटली बना ली थी । कमरे में अब कुछ बर्तन और बाबू के जिस्म तले दबा एक फटा चादर ही समेटना था ।

धनिया थोड़ी देर के लिए रुकी और सोये हुए बाबू पर एक नजर डाल कर बाहर निकल पड़ी । बाहर आकर धनिया बस्ती के मुहाने पर ही एक नीम के पेड़ के नीचे बैठ गयी ।
पूरे घटनाक्रम ने उसके अंतर्मन को झकझोर दिया था । उसे अपनी फिकर नहीं थी उसे फिकर थी तो बस अमर की । क्या वह उसके बिना रह पायेगा ? धनिया ने महसूस किया था अमर उसकी रजामंदी से ही कितना खुश हो उठा था ।

इतने बड़े घर का लड़का होने के बावजूद कोई भी बुराई उसको छूकर नहीं गयी थी । उसकी स्वीकारोक्ति के बावजूद अमर ने कभी भी अपनी हैसियत का फायदा उठाने की कोशिश नहीं की । उसका विनम्र और शराफत भरा व्यवहार उसके दिल को भा गया था और फिर उसके दिल ने भी हसीन सपने बुनने शुरू कर दिए थे । लेकिन आज उनके प्यार को ज़माने की नजर लग ही गयी ।

बड़ी देर से वह अपने आपको सँभाले हुए थी । अपने बिमार बापू के सामने वह कमजोर नहीं बनना चाहती थी । यहाँ एकांत पाकर उसके सब्र का पैमाना छलक पड़ा और वह आँखों के रस्ते आँसुओं की धार के रूप में बह निकला ।

उसके सीने में भी आखिर एक दिल ही था जो धड़कता भी था । ख़ुशी और गम का उसे भी बखूबी इल्म था । लेकिन उसकी किस्मत ने उसे इतनी आजादी भी नहीं दी थी कि वह खुल कर रो सके और अपना गम हलका कर सके । साड़ी का पल्लू मुँह में ठूँसे बड़ी देर तक धनिया वहाँ बैठी ख़ामोशी से रोती रही ।

इसी बीच बाबू ने झोपड़ी के दरवाजे से ही झाँककर धनिया को बिलखते हुए देख लिया था और उसकी तड़प को देखकर उसका मन चीत्कार कर उठा ‘ नहीं नहीं ! अपने बेटी की खुशियों पर डाका डालकर मुझे वफादारी का मैडल नहीं लेना है । बड़े मालिक नाराज ही तो होंगे और क्या ? दवाई के पैसे देना बंद कर देंगे । कम से कम मरते हुए मेरे मन में यह सुकून तो रहेगा कि मैंने अपने बेटी की खुशियों का सौदा करने से मना कर दिया था । हाँ यही ठीक रहेगा । सुबह होते ही बड़े मालिक को उनके पैसे वापस कर आऊँगा । ‘ इस विचार के आते ही बाबू ख़ामोशी से आकर फिर से अपनी झोपड़ी में लेट गया और जबरदस्ती आँखें मुंद लीं ।

इधर जी भर रो लेने के बाद अब धनिया का मन कुछ हल्का महसूस हो रहा था । मन की टिस तो अब ताउम्र के लिए हमसफ़र बन गयी थी सो उससे अब क्या डरना ? अपने ह्रदय को मजबूत कर धनिया पल्लू से आँसू पोंछते हुए उठ खड़ी हुई ।

कमरे में सोते हुए बाबू को देखकर उसने बचे हुए बर्तनों को समेट कर एक पोटली बना लिया और बाबू को जगाया ।

क्रमशः