थप्पड़ - बस इतनी सी बात Rishi Sachdeva द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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थप्पड़ - बस इतनी सी बात

एक ऑरेंज कैंडी का मज़ा लेते फ़िल्म के किरदारों के संग मस्ती से शुरू हुई और न जाने कहाँ-कहाँ घूम आई फ़िल्म थप्पड़ ।

"बस एक थप्पड़ ही तो था । क्या करूँ ? हो गया न ।"
इस क्या करूँ की गूँज सुनाई देती सहज, स्वाभाविक पुरुषात्मक मानसिकता वाले समाज का दर्पण है थप्पड़।

ये कहानी है एक 13 साल की प्यारी सी बच्ची की, जिसे अपनी माँ की दूसरी शादी करवानी है क्योंकि उसके पिता का देहांत हो गया है।

ये कहानी है एक घर में काम करने वाली बातूनी बाई की जिसे उसका पति बात-बेबात पीटता है और यहीं इतिश्री नहीं उसकी सास भी उसे प्रताड़ित करती है ।

ये कहानी है एक उच्च कुलीन प्रतिष्टित परिवार की बहू, सफल वकील जिसने प्रेम विवाह किया एक सफल वकील के प्रतिष्टित घमंडी बिज़नेसमैन पुत्र से और अब एक शेफ में वह अपने पति का जिससे उसने कभी प्रेम किया, उसका प्रतिबिंब देखती है और लड़ती है अपनी मुवकिल के साथ साथ-साथ स्वयं से भी अपनी अंतर्वेदना से अपने अनकहे दर्द से !!!

ये कहानी है एक माँ की जो मन से जानती है कि उसके बेटे ने गलत किया है, वह कुंठित है अपने ही परिवार से मिले मन के घावों से अपने उच्च वर्गीय सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त पति के व्यवहार से अपनी बहू का साथ न दे पाने का दर्द उसे कहीं भीतर ही भीतर कचोटता है ।

ये कहानी है एक मध्यम वर्गीय परिवार की महिला की जिसने अपने सपनों को भुलाकर अपना जीवन अपने परिवार को दे दिया और यह भूल बैठी कि उसके भी कुछ अधूरे सपने थे, उसकी भी अपनी दुनिया थी अपने शौक थे और अब अपनी बेटी का घर उजड़ते हुए वह यह तय नहीं कर पा रही कि उसकी अपनी बेटी कितनी सही है, कितनी गलत । क्या एक थप्पड़ के कारण उसे उसका घर छोड़ वापस आना चाहिये?

ये कहानी है एक बहु की जो अपने पति से लड़ती है, अपनी ननद को न्याय दिलाने के लिये, उसके संघर्षो में उसका साथ देने के लिए ।

ये कहानी है एक ऐसी महिला की जो अपने पति से बहुत प्यार करती है, पर *"बस एक थप्पड़ - पर नहीं मार सकता"* थप्पड़ जो उसके चेहरे के साथ साथ उसके ह्रदय को भी कहीं भीतर तक ऐसा दर्द दे देता है कि वह उसके स्त्रीत्व, उसके आत्मसम्मान को चुनौती देता है वो उससे उबर नहीं पाती । वह पति का घर तो छोड़ देती है पर अपना कर्तव्यबोध नहीं छोड़ पाती, सास-बहू के बीच के मधुर ताने - बाने का साथ नहीं छोड़ पाती । अपने आदर्श अपने सिद्धांतों को नहीं छोड़ पाती कानूनी दाँव पेच में उलझती है पर अपना सच नहीं छोड़ पाती ।

एक औरत को अपना घर जोड़े रखने के लिए थोड़ा बर्दाश्‍त करना पड़ता है...

उत्तर : जिस चीज को जोड़ना पड़े मतलब वो पहले से ही टूटी हुई है.

इस बीच उसे पता चलता है कि वो माँ बनने वाली है पर अपने रास्ते नहीं बदल पाती वो मानसिक द्वंद से लड़ती है, जूझती है पर *"एक थप्पड़ ही तो था"* इसका जवाब ढूंढती है।

ये कहानी है एक कवि ह्रदय पिता की जिसकी बेटी घर आ गयी है और उसे पता है कि जीवन मे उठाये गए कुछ सही कदम सही होते हुए भी बहुत टीस पहुँचाते हैं बहुत दर्द भी देते है।

ये कहानी हर उस आदमी को अंदर से डराएगी जिसने कभी अपनी पत्नी को चोट पहुचाई हो । एक थप्पड़ उसे कहीं अंदर तक हिला देगा यह फ़िल्म एक बहुत बड़ी हिट नही बन पाई हालांकि समीक्षकों ने इसे बहुत सराहा पर ऐसा सिनेमा देखना जिसमे उसे अपना प्रतिबिंब दिखे तो कैसे सिनेमा हॉल के अंधेरे से बाहर निकल अपना अक्स उन आँखों मे देख पाएगा जिसमें उसने आँसू दिए थे । आखिर हम चाहे बात जितनी मर्ज़ी बड़ी बड़ी कर लें पर सत्य यही है कि आज भी हम पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता से ग्रसित स्वयं को बाहर नहीं निकाल पा रहे।

ये कहानी समाज को उसका आईना दिखाने की है उस कश्मकश की जो अपनी अंदर की कालिख को सुरमे में छुपा लेना चाहता है क्योंकि उसे लगता है कि काला रंग कहीं मन की कालिख को भी छुपा लेगा।

🗞️ "अभिव्यक्ति"
✒️ ऋषि सचदेवा
📨 हरिद्वार, उत्तराखंड ।
📱 9837241310
📧 abhivyakti31@gmail.com

(डिस्क्लेमर:- लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं . किसी व्यक्ति विशेष, संस्था का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है)