सेज गगन में चाँद की [ 2 ]
लड़का उड़ती सी नज़र वहां फैले-बिखरे सामान पर डाल कर मन ही मन कुछ तौल ही रहा था कि धरा के सुरों का बदलाव उसे प्रतीत हुआ। धरा बोल रही थी--"क्या नाम है तुम्हारा ?"-"नीलाम्बर !"-"बहुत बड़ा नाम है।"-"घर में मुझे नील कहते हैं।" कहते-कहते लड़का संकोच से ज़रा झेंप गया।-"कौन है घर में?" धरा ने नज़र को ज़रा और गहरा, स्वर को ज़रा और मुलायम करके पूछ डाला। -"यहाँ तो कोई नहीं !"-"कोई नहीं है, मतलब?"-"यहाँ पर तो रिश्ते के एक चाचा के साथ रहता हूँ, बाकी लोग गाँव में हैं।"-"कौन सा गाँव?" धरा की जिज्ञासा बढ़ी।-"तुम नहीं जानोगी, बहुत दूर का गाँव है।"लड़के की उम्र ज़्यादा नहीं थी। लेकिन स्वर की सधाई से लगता था कि थोड़ा बहुत पढ़ा-लिखा है। लड़का भी शायद धरा के बारे में ऐसी ही कुछ धारणा बना चुका था। स्वर में और थोड़ी संजीदगी लाते हुए बोला --"आपका नाम क्या है?"धरा को उसका 'तुम' से 'आप' पर आना कुछ-कुछ भाया भी, कुछ-कुछ नहीं भी भाया। -"धरा !" धीरे से उसने कहा।-"बहुत छोटा सा नाम है।"-"सिर्फ छोटा?" कह कर धरा अपने ही प्रश्न पर मुस्करा कर रह गयी। फिर बोली--"हाँ , घर के लोग मुझे इसी नाम से पुकारते हैं, वैसे मेरा नाम वसुंधरा है।"-"कौन लोग हैं घर में?" लड़के की दिलचस्पी भी अब बढ़ रही थी। -"माँ और मैं, बस !"बातचीत का पटाक्षेप सा होता जान कर धरा ने एकदम से दूसरा सूत्र पकड़ा--"गर्मी है, पानी पिलाऊँ?"लड़के ने पानी के लिए हामी भर दी। जब धरा पानी का लोटा व गिलास लिए वापस कोठरी में लौटी, तब तक दोनों ही थोड़े सहज हो चुके थे। गिलास हाथ में थाम कर लड़के ने पानी मुंह में उंडेलना शुरू किया तो धरा का ध्यान इस बात पर गया कि लड़के ने गिलास को मुंह नहीं लगाया है, फिर भी उसके पानी पीने के ढंग से उसके सलीकेदार होने का आभास हुआ। किसी सड़कछाप आम फेरीवाले जैसा फूहड़पन उसमें कहीं से भी नहीं दिखाई दिया। लड़के ने कलाई से मुंह के गीलेपन को पौंछा और धरा की ओर देखने लगा। -"यहाँ कौन रहता है?" लड़के ने अपनी जिज्ञासा धीमी आवाज़ में रखी।-"कोई नहीं, मैं और माँ ऊपर रहते हैं।" धरा ने किसी रहस्य की तरह बताया। -"फिर यहाँ ?" लड़के ने भोलेपन से एक बार फिर अपने मन की शंका रखी। -"खाली है, किराए से दे देंगे" धरा के मुंह से अकस्मात निकला।लड़का कुछ न बोला, मगर धरा को अपनी प्रत्युत्पन्नमति पर संतोष सा हुआ। वैसे एक ललचाई सी नज़र जब लड़के ने कोठरी की दीवारों पर डाली तो धरा को ये भांपते देर न लगी कि लड़का रहने के लिए ठौर-ठिकाने की तलाश में है।
शाम के सात बज जाने पर भी जब रसोई में बर्तनों की खटर-पटर शुरू न हुई तो भक्तन माँ का माथा ठनका। पहले तो खाट पर पड़े-पड़े ही आवाज़ लगाई। पर जब दो-तीन आवाज़ों के बाद भी धरा की आहट सुनाई न पड़ी तब भक्तन खुद ही उठ कर बाहर चली आई।धरा अभी तक पेट के बल उसी तरह बिस्तर पर पड़ी थी। बाल बिखरे हुए थे। कोहनी मोड़ कर माथे के नीचे लगाई हुई थी। सूखे हुए आंसुओं के निशान गालों से होकर होठों तक फ़ैल गए थे। भक्तन को बेटी पर ममता-सी जागी। धीरे से झुक कर उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगी। कुछ सोचती हुई सी भक्तन अपनी यादों के गलियारों में न जाने कितनी पीछे तक निकल गयी थी। फिर भी उसे दोपहर की बात पर पश्चात्ताप तो हो ही रहा था। वह हाथों से ही बेटी को दिलासा देने की कोशिश कर रही थी। मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे।ग्लानि कितनी भी हो, जबान से निकले बोलों के तीर तो अब वापस आ नहीं सकते थे। बिटिया अब तक इसी बात पर रूठी पड़ी थी। बिन बाप की इकलौती बिटिया पर भक्तन-माँ ने आज पहली बार , केवल कड़वे बोलों की ही बरसात नहीं की थी, बल्कि हाथ भी उठा दिया था।असल में हुआ ये, कि धरा ने नीचे वाली कोठरी की सफाई करने के बाद, कबाड़ के लिए फेरी लगाने वाले उस लड़के को सारा पुराना सामान बेच डाला। कुछ देर बाद सारा असबाब अपने बोरे में भर कर लड़का जब देहरी से बाहर निकला तो अपने ही बुहार कर इकट्ठे किये गए कचरे पर उसे रश्क सा हुआ। धरा ने उसके दिए रूपये-पैसे बिना गिने ही मुट्ठी में डाल लिए थे। लड़का तो गली में आगे बढ़ गया पर धरा उसके जाने के बाद कोठरी को नए सिरे से निहार कर ऊपर की सीढ़ियां चढ़ गयी। छत की मुंडेर के सिरे पर पहुँच कर सिर्फ एक अहसास सा धरा के पास रह गया, बाकी सब ओझल हो चुका था। अनमनी सी धरा ने अब माँ के पास बैठ कर उस सारी बात का खुलासा किया जो बात कल शाम से ही भक्तन के पेट में पानी किये हुए थी। धरा ने माँ को बताया कि उसने नीचे वाली कोठरी की साफ-सफ़ाई इसलिए की है, कि उसे किराए से उठाएंगे, ताकि हाथ में चार पैसे भी आएं और वक़्त-ज़रूरत मदद के लिए घर के वीरान सन्नाटे में कोई हिलता-डुलता इंसान भी दिखाई दे।धरा को पहले तो इसी बात पर भक्तन का कोपभाजन बनना पड़ा कि उसने पिता की स्मृति को बिसरा कर उनका सब सामान घर से निकाल बाहर किया, फिर ये जानने के बाद तो भक्तन हत्थे से ही उखड़ गयी कि धरा नीचे वाली कोठरी एक रास्ता चलते अनजान लड़के को किराए से देने की तरफदारी कर रही है।लड़के की न जाति का पता था न गाँव-घर का,जाने कंवारा था कि शादी-शुदा, किसी चोरी-चकारी के मामले में घर से भागा हुआ भी हो, तो क्या पता? वरना बिना नौकरी-धंधे के कोई अपने घर से इतनी दूर आता है भला? न कोई जानकारी, न बीच में कोई जानकार।
बड़ी मुश्किल से धरा भक्तन-माँ को इस बात के लिए राज़ी कर पाई कि नीचे वाली कोठरी को किराए से दे दिया जाये। तरह-तरह के तर्क देकर समझाया तब कहीं जाकर माँ की समझ में ये बात बैठी कि बढ़ती मँहगाई के साथ घर के खर्च बढ़ते जाते हैं और मंदिर की आमदनी से इतना कुछ नहीं आता कि दोनों माँ-बेटी का खर्च आराम से चल सके। बुढ़ापे की मार झेल रहा शरीर अन्न की बचत दवा-दारु में सोख लेता है, ये बात धरा ही नहीं, भक्तन खुद भी तो जानती थी।आखिर भक्तन ने कहा-"अच्छा चल, हनुमान मंदिर वाली पण्डिताइन को कह दूँगी, वो किसी कामकाजी औरत को भेज देगी, कोठरी में रहने को।"धरा ज़रा कसमसाई, फिर बोली-"माँ ,मैंने किराएदार ढूंढ लिया है।"और जब भक्तन को पता चला कि धरा ने बिना किसी पहचान-पड़ताल के सड़क चलते एक कबाड़ी लड़के को ढूँढा है, तो जैसे भूचाल सा ही आ गया। बुढ़िया आपा खो बैठी।-"बोल, सच-सच बता कब से चल रहा है तेरा ये खेल?" भक्तन चिल्लाई। -"माँ, ये क्या कह रही हो? मैं तो उसे जानती भी नहीं, आज ही बात हुई है,जब वो कोठरी का सामान लेने आया, पढ़ा-लिखा शरीफ.... " धरा अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई कि माँ बरस पड़ी। -"चुप, निर्लज्ज कहीं की ! तभी मैं सोच रही थी कि क्यों तेरे पैर थिरक रहे हैं कोठरी खाली करने को" भक्तन ने अपना क्रोध निकाला।धरा को अपनी प्रेम-पींग बढ़ने से पहले ही लांछन की ये बौछार बिल्कुल नहीं सुहाई, वो ये भी भूल बैठी कि वो अपनी माँ से बात कर रही है। बोली-"अब मैं क्या बच्ची हूँ जो सांस भी तुमसे पूछ-पूछ कर लूंगी?"धरा का सुर उठा देख कर भक्तन ने पैंतरा बदला-"बेटी, मैं तो तेरे भले के लिए ही कहती हूँ, बिना बाप के गरीब घर में जवान होती लड़की क्या होती है,ये तू क्या जाने बच्ची,लोगों ने तो तेरे पिता को सुनाने में ही कोई कोर-कसर नहीं रखी, लोगों के कड़वे बोल उनका जीवन खा गए" कहते हुए भक्तन ने पल्लू से अपनी आँखें पौंछने का उपक्रम किया।लेकिन माँ के आंसुओं को देख कर भी धरा ये नहीं भूल पाई कि माँ ने चाहे-अनचाहे उसके चरित्र पर कीचड़ उछालने में भी कोताही नहीं बरती है।वह माँ के समझाने की अनदेखी कर पूर्ववत क्रोध में ही कह बैठी-"मुझे पता है, मुझे सब पता है, बापू को क्या गम खा गया। आज मुझसे पूछती हो कि मेरा उस लड़के के साथ क्या खेल चल रहा है? मैं पूछती हूँ, तुम्हारा क्या खेल चला था आखेट महल वाले रावसाहब के साथ, जिसके कारण बापू को लोगों के ज़हर-बुझे ताने सुनने पड़े, बोलो, बताओ?"भक्तन के जिगर-कुंड में बरसों से दबी राख की चिंगारियों पर मानो ताबड़तोड़ घी पड़ गया। ज्वाला धधक उठी, भक्तन ने पूरी ताकत से खींच कर एक चांटा धरा के गाल पर दे मारा।धरा बिफर पड़ी, और रोती हुई भीतर खाट पर औंधी जा लेटी।रोते-रोते ही उसे न जाने कब नींद आ गयी।
घर मानो सीधा सा हो गया। वो कहते हैं न, कि यदि किसी घर में औरत न हो, तो घर घर न होकर भूतों का सा डेरा लगता है। ठीक वैसे ही,अगर किसी घर में कोई मर्द-बच्चा न हो, तब भी घर घर न होकर बिना बांस का सा तम्बू लगता है, जिसे हवाएं कभी भी झिंझोड़ दें, कहीं भी उड़ा ले जाएँ। तिरछा सा ही रहता है डेरा।और इस तरह भक्तन का घर भी सध गया।अब जब सवेरा होता तो घर के सारे कोण खनखनाते। पूजा के आले में भक्तन की जलाई हुई अगरबत्तियों की सुवास महकती,छत पर साग-भाजी काटती धरा की कायनात पर चहकते हुए पखेरू मंडराते,तो नीचे दालान में बाल्टी भर पानी से नहाते नीलाम्बर के बदन से ठन्डे पानी के छींटे छलकते। नीलाम्बर बहुत संकोची स्वभाव का था, किसी काम के लिए ऊपर न आता। नहा कर अपने कपड़े तक नीचे ही दीवार के एक टूटे से हिस्से पर सूखने के लिए फैला देता।कोठरी में पहुँच कर तन पर कमीज और पैरों में पेंट डालता,घने गीले बालों को झटकारते हुए सहलाता और उल्टा-सीधा कुछ भी पेट में डाल कर काम पर निकल जाता।भक्तन का ध्यान तो गया तब,जब एक दिन दीवार से उड़ कर नीलाम्बर की चड्डी दीवार के सहारे मिट्टी में जा गिरी। देखा धरा ने भी,पर वह हलके से बस मुस्करा कर रह गयी। ये वही जगह थी जहाँ कभी एक दिन धरा ने नीलाम्बर को ऊपर बुलाने की ग़रज़ से जानबूझ कर अपनी चोली नीचे गिरा दी थी।जैसे नीलाम्बर उस दिन झिझकता सा चोली हाथ में पकड़े ऊपर आया था, काश, आज धरा भी उसकी चड्डी हाथ में लेकर कोठरी की देहरी पर जा पाती !पर वो था ही नहीं घर में।शाम को नीलाम्बर आया तो भक्तन ने आवाज़ देकर उसे ऊपर बुला लिया और बोली--"बेटा, छत पर कपड़े सुखाने की रस्सी बंधी है,तू नीचे दीवार पर क्यों उन्हें छोड़ जाता है? इधर-उधर उड़ते फिरते हैं, कोई गाय-वाय चबा जाएगी, यहाँ सुखा जाया कर।"नीलाम्बर कृतज्ञता से सर झुकाए रसोई की ओर देखने लगा जहाँ से धरा तीनों के लिए चाय के प्याले लिए आ रही थी। नीलाम्बर को लकड़ी की कुर्सी पर बैठना पड़ा। तीनों चुपचाप बैठे चाय पीते रहे। शाम का सूरज सिंदूरी होने लगा था, मानो विधाता-दर्ज़ी धरती के वाशिंदों का भविष्य सिल कर अब दुकान की ढिबरी बुझाने को हो।
नीलाम्बर का गाँव यहाँ से बहुत दूर था, और ये उन्नीस वर्षीय युवक कुछ समय पहले अपने घर-गाँव के कष्टों का कोई आर्थिक तोड़ ढूँढ़ने के लिए किसी कागज़ की कश्ती में सवार भुनगे की भांति यहाँ चला आया था। उसके पिता किसी बेहद मामूली से काम से रिटायर होकर अब घर के एक उम्रदराज़, पर अनुपयोगी सदस्य की तरह घर में रह रहे थे।अशक्त भी थे। गाँव में उनका कमाया जो कुछ थोड़ा-बहुत जमा-जोड़ था वह परिवार के लिए पूरा नहीं पड़ता था। इसी चिंता के चलते नीलाम्बर इस नई जगह चला आया था। यहाँ नीलाम्बर एक दुकान में काम करता था और उसी दुकानदार के लिए घर-घर से पुराना सामान बटोरने और फिर बेचने का उसका फेरा था। दोपहर तक उसे इसी तरह फेरी लगाने जाना पड़ता था। बाद में दोपहर को रोटी खाने के बाद उसे दुकान पर बैठना पड़ता था। उस समय दुकान का मालिक आराम करने घर चला जाता था और नीलाम्बर दुकान सम्भालता था।धंधे में ज़्यादा कमाई न थी। बस किसी तरह गुज़र-बसर हो रही थी। नीलाम्बर सुबह-सुबह उठ कर रोटी अब अपने हाथ से बनाने लगा था। शाम को ज़्यादातर भात बना लेता। उसका अपना काम अपनी कमाई में भले ही चल जाता हो, पर अपने सोच के मुताबिक घरवालों को भेजने के लिए वह कुछ बचा न पाता था।अब उसने इसीलिये किराए पर ये छोटी सी कोठरी ले ली थी कि अपने छोटे दोनों भाइयों को अपने पास लाकर रख सके। अब तक तो वह वहीं दुकान पर सोता रहा था।दुकान कबाड़ भंगार और पुराने टूटे-फूटे सामान की थी इसी से रात को उसे खुला रख कर सोने-बैठने के काम में लेना कोई मुश्किल न था। दुकान के एकाध लड़के कभी-कभी और वहां रहते थे।यह बस्ती अपनी बसावट में अपेक्षाकृत नई ही थी। वहां जो भी लोग थे, अधिकतर नए-नए ही आकर बस रहे थे। खेतों से कट-कट कर ज़मीनें निकल रही थीं,ज़मीनों से दुकानें। ऐसी बस्ती में भला पुराने-बेकार माल की ज़्यादा गुंजाइश कहाँ होती है। बसे-बसाए पुराने घर तो वहां बहुत कम थे। और जो थे, उनमें भी धरा भक्तन जैसे लोग जिनका बसना क्या, उजड़ना क्या?शहर पर फफूंद की तरह उगते चले जाते हैं ऐसे इलाके। इनमें खानदानी लोग नहीं रहते। इनमें तो ज़िंदगी बनने और ज़िंदगी बिखरने से गिरे धूल-मिट्टी और तिनके ज़्यादा होते हैं।ये ऐसी बस्तियां हैं कि इनमें रहने वालों को न समाज-रिवाज़ का कोई सहारा मिलता है, न संस्कारों और परम्पराओं की कोई विरासत। यहाँ तो खेत जब बंजर होने लगे, दालान में बदल जाता है, और दालान जब सूखने लगे, चौबारा बन जाता है। ऐसी बस्तियां उन लोगों को ही पालती हैं जिन्हें पूंजीवादी-सामंतवादी तरीकों से चलने वाली संस्कारी बस्तियां ज़रा-ज़रा सी बात पर दुत्कार कर फेंक देती हैं।
सच, ऐसे ही तो होते हैं शहर। जब तक आप ज़माने के साथ दौड़ो,सब कुछ ठीक है। जहाँ कोई ज़रा सी ऊंच - नीच हुई कि आप समाज की कतार से बाहर।सीमेंट, पत्थर,चूने और लोहे के अल्लम-गल्लम से घिरे कितने ही मकान तो ऐसे होते हैं कि जिन्हें घर बनाने या बनाये रखने की कोशिशों में समूचे जीवन खर्च हो जाते हैं। कच्ची उम्र के उठते सपने लेकर गाँव-देहात अपनी कलाई इन बस्तियों के हाथ में दे देते हैं, और फिर तेज़ी से ऐसा विकास होता है कि शहर को बस्ती का गिरेबान पकड़ने में ज़रा भी वक़्त नहीं लगता। भक्तन ने अपने इस चढ़ती उम्र के सीधे-सादे से किराएदार में ऐसा कभी कुछ न पाया जो उसे किसी शक-शुबहा में डाले। बल्कि इसके उलट, उसके व्यवहार से माँ-बेटी ऐसी अभिभूत रहतीं कि दिनों- दिन उसे अपने और करीब करती चली गयीं।भक्तन की ये चिंता हवा में उड़ गयी कि अकेली जवान लड़की के घर में अजनबी पराया लड़का न जाने कब कोई गुल खिलादे।भक्तन ने देखा कि कभी-कभी अगर हम खुद अपने को कुछ न कहें, तो ज़माना भी कुछ नहीं कहता। निगोड़ा ज़माना भी उसी को सुनाने का आदी है जो उसकी सुने। भक्तन को तो बुढ़ापे में ऐसा लगता मानो उसके एक नहीं, दो बच्चे हैं। लेकिन कुछ दिन बाद भक्तन ने धरा से जब ये सुना कि नीलाम्बर अब अक्सर रात को घर नहीं आता , तो उसके माथे पे बल पड़ गए।ये बात आम हो गयी कि नीलाम्बर रोज़ ही रात को घर से बाहर रहने लगा है। वह शाम को घर पर दिखाई देता, खाना बनाता, खाता , फिर नौ बजते-बजते कमरे को ताला डाल कर बाहर निकल जाता।भक्तन माँ को ये बड़ा अटपटा लगता। उसे ये बेचैनी सताने लगी कि आखिर रोज़ रात को लड़का कहाँ चला जाता है? उसके मन में एक कुशंका सी आई कि कहीं पास-पड़ोस की किसी नसीब-जली औरत ने धरा के बापू की तरह उस पर भी कोई ताना तो नहीं तान मारा ? आखिर घर में जवान बेटी थी।पहले दो-एक दिन तो वह मन ही मन सोचती रही कि मौका देख कर खुद नीलाम्बर से ही पूछेगी। पर बाद में एक दिन धरा से ही कह बैठी-"बेटी, ज़रा पता तो लगा, रात को रोज़ कहाँ चला जाता है? कोई रिश्ते-नातेदार मिल गया है या ... "-"या ...?" धरा ने बौखला कर माँ को टोका।- " तुम भी माँ बस ज़रा सी बात का बतंगड़ सा बना कर बैठ जाती हो, अरे अकेला लड़का है, कहीं यार-दोस्तों में चला जाता होगा,या फिर हो सकता है उसे रात का कोई काम ही मिल गया हो। ऐसे रोज़-रोज़ रात को बिना काम के कोई कहाँ जायेगा, और क्यों जायेगा?"भक्तन धरा के इस तरह झुंझला कर बोलने से चुप तो हो गयी, पर उसे पूरी तसल्ली फिर भी नहीं हुई। उसका मन ये मानने को कतई तैयार नहीं था कि जवान कुँवारा लड़का सारी-सारी रात घर से बाहर रह कर लौटे,और उस से कहीं कोई कुछ न पूछे।अरे, हम उसके रिश्तेदार न सही, जब तक हमारे मकान में किराएदार बन कर रहता है, तब तक तो हमें उसके चाल-चलन पर निगाह रखनी ही होगी। बाद में चाहे जहाँ मुंह मारे, हमें क्या?
धरा फिर उलझ पड़ी --"कमाल करती हो माँ तुम भी ! अरे वो क्या कोई नवाब या राजा-महाराजा है जो सारी -सारी रात कहीं ऐश करने जाता होगा। काम-धंधे वाला आदमी है, जब अपना घर-बार छोड़ कर यहाँ परदेस में अकेला पड़ा है,तो चार पैसे कमाने की फ़िक्र न करेगा? जहाँ काम मिलेगा, जब मिलेगा, जायेगा ही। और सोचो उसे यदि कोई खुराफात ही करनी होगी तो यहाँ दिन क्या कम पड़ता है उसे?"धरा कह तो गयी, पर अब अपनी ही बात पर झेंप कर रह गयी।माँ-बेटी के ये तर्क-वितर्क दो दिन और चले। माँ ने भी शक और शुबहे के कोई कोण बाकी नहीं छोड़े,और बेटी ने भी निपट अनजाने लड़के का आँख मूँद कर पक्ष लेने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। पर दो दिन बाद मामला खुद-ब-खुद साफ़ हो गया। तीसरे दिन रात को कागज़ की पुड़िया में चार इमरती लेकर नीलाम्बर ऊपर ही चला आया। संकोच से अपने हाथ की पुड़िया धीरे-धीरे खोलकर उसने भक्तन माँ को ही थमाई, फिर विनम्रता से बोला--" अम्माजी, मुझे एक जगह काम मिल गया है, वहां से आज पहली बार पगार मिली है।"भक्तन ने इमरती की पुड़िया की ओर चमकती आँखों से देखते हुए कहा- " अच्छा-अच्छा बेटा ....अरे ये तो बहुत अच्छी खबर सुनाई। मैं चार रोज़ से यही सोच रही थी कि रोज़ रात को तू कहाँ चला जाता है।भक्तन माँ दोहरी प्रसन्न थी।एक तो नीलाम्बर का अम्माजी कह कर बोलना उन्हें खूब भाया था, दूसरे उन्हें उनकी कई दिन पुरानी उस शंका का माकूल उत्तर मिल गया था जिसने चार दिन से उनके पेट में पानी किया हुआ था।और इन दोनों बातों के अलावा एक तीसरी बात ये भी तो थी कि मंदिर का प्रसाद खाते-खाते मिठाई भक्तन माँ की पसंदीदा कमज़ोरी बन चुकी थी।भक्तन देखते ही समझ गयी कि इमरती मथुरा मिष्ठान्न वाले की है, जिसकी इमरती दूर-दूर तक प्रसिद्ध थी। इमरती की मिठास में भक्तन ऐसी खोई कि उसे थोड़ी ही दूर पर फुसफुसा कर बात करते धरा और नीलाम्बर की भी सुधि नहीं रही।शायद सीढ़ियों तक उसे छोड़ने चली गयी धरा को नीलाम्बर उस काम के बाबत बता रहा था जो हाल के दिनों में उसे मिल गया था। ठीक भी तो है, जब आदमी घर से कोसों दूर हो तो पराये भी उसके अपने ही होते हैं। ऐसे में अपने मुंह की भाप आदमी उन के सामने न निकाले तो और कहाँ निकाले? फिर धरा और नीलाम्बर? जिनकी आँखों में चुम्बक, जिनकी बातों में चुम्बक, जिनकी उम्र में चुम्बक !
भक्तन का ये नया युवा किराएदार धीरे-धीरे भक्तन के मन में भी जगह बनाने लगा। अब उसके व्यवहार से भक्तन के सोच की डाल पर बैठी वो चिड़िया उड़ कर कहीं ओझल हो गयी जो अकेले में सोते-जागते भी भक्तन की शंका-कुशंका को ठकठकाती रहती थी।और धरा ? उसके तो कहने ही क्या ?एक दिन जब नीलाम्बर ने अम्मा जी से कहा-"मैं तो यहाँ बिलकुल नया हूँ,राशन कार्ड बनवाने की अर्जी कहाँ-कैसे देनी है, ये भी नहीं जानता" तो भक्तन की तमाम दरियादिली दाव पर लग गयी।उसकी दुनियादार अनुभवी आँखें तुरंत ताड़ गईं कि लड़का धरा को साथ ले जाने की परवानगी चाहता है। भक्तन ना कैसे कर दे? आज तो पूछ रहा है, कल गुपचुप धरा खुद बहानेबाज़ी से उसके साथ घूमने फिरने लगी तो बुढ़िया कैसे रोक लेगी?भक्तन को इजाज़त देनी ही पड़ी। और उसके "हाँ " कहते ही धरा जैसे फड़फड़ाकर तैयार होने भीतर घुसी, भक्तन समझ गयी कि बच्चे पहले से सब सोच-ठान कर बैठे थे, उसकी अनुमति तो बस एक औपचारिकता थी। थोड़ी ही देर में दोनों निकल गए। भक्तन भी मन को समझाने लगी कि जवान होती लड़की के साथ बूढ़े माँ-बाप का नहीं, बल्कि किसी भरोसेमंद जवान लड़के का होना ही निरापद होता है। बिना बाप-भाई के आखिर कोई तो हो जो घड़ी- दो- घड़ी लड़की को बाहर की रौनक दिखा लाये?बार-बार उमड़ती चिंता को मक्खियों सा उड़ाती भक्तन भीतर आ लेटी।उसे नींद तो क्या आती, हां उनींदी सी पड़ी-पड़ी ने पहाड़ जैसी दोपहरी काट दी। लेकिन ये क्या ? घंटे भर की कह गए थे, पर अब पूरे पांच बजने को आये।घर लौटने पर धरा ने देखा कि माँ ने कुछ कहा तो नहीं है, पर फिर भी उसके हाव-भाव से स्पष्ट था कि उसे अच्छा नहीं लगा है। अब भला राशन के दफ्तर में इतनी देर लग गयी तो इसमें धरा का भी क्या दोष? लेकिन ये बात माँ घर बैठे-बैठे कैसे जानती?वह तो यही जानती थी कि धरा पराये लड़के के साथ बारह बजे से पहले की निकली-निकली अब साढ़े चार के भी बाद घर में घुसी है। धरा भी अब क्या करे? पूछी गयी बात का जवाब दिया जा सकता है, शिकायत की सफाई दी जा सकती है, किन्तु न कही गयी बात की सफाई किस तरह दी जाये? धरा समझ न पाई। हाव -भाव की कैफियत कोई कैसे भला दे?धरा मन ही मन ताड़ रही थी कि माँ देर से लौटने पर नाराज़ है, पर इसका उपाय भी क्या था? धरा खीजती रही।