और कहानी मरती है - 3 - अंतिम भाग PANKAJ SUBEER द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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और कहानी मरती है - 3 - अंतिम भाग

और कहानी मरती है

(कहानी - पंकज सुबीर)

(3)

‘अच्छा’ माही कुछ निर्णायक स्वर में बोला, और कुर्सी से उठकर खड़ा हो गया। अपने शरीर पर लिपटा एकमात्र टावेल भी उतारकर फ़ैंक दिया उसने। अब वह एकदम आदम-ज़ात अवस्था में मेरे सामने खड़ा था, अलफ़ नग्न। मैंने ग़ौर से उस शरीर को देखा जिसे मैंने ही ईज़ाद किया है। ‘लो अब मैं भी संबोधनों और संबंधों से मुक्त होकर केवल शरीर बन गया।’ दोनों हाथ ऊपर उठाते हुए बोला माही, ‘अब मैं माही नहीं रहा, केवल शरीर हूं और शरीर बनकर ही वापस लौट रहा हूं तुम्हारे अवचेतन में, जहां तुम्हारी मानसी भी है, अब मैं भूल जाऊंगा कि वह तुम्हारी प्रेमिका है, क्योंकि संबंध और संबोधन तो मैं यहीं त्यागकर जा रहा हूं। तुम्हारे अवचेतन में लौटकर मानसी के साथ वही करूंगा, जो एक शरीर के साथ किया जाता है।’

‘नहीं मानसी के साथ तुम कुछ नहीं करोगे।’ मैं चीखा, माही हँसने लगा। मैं उसे पकड़ने के लिए उस पर झपटा और बांहों में उसके नग्न शरीर को जकड़ लिया, वह हँसता जा रहा है और मेरे हाथों से फिसलता जा रहा है, अंततः वह फिसलकर उसी अवस्था में भाग गया। मेरे हाथों में रह गई उसके पसीने की सोंधी ख़ुशबू। मैं धम्म से फ़र्श पर बैठ गया फ़र्श पर पड़ा उसका टावेल भी धीरे-धीरे हवा में घुल गया। मैं उसी तरह फ़र्श पर बैठा रहा, बहुत देर तक, जब तक सविता कमरे में नहीं आ गई। मुझे इस तरह फ़र्श पर बैठे देखा तो चाय का कप टेबिल पर रखकर मेरी ओर लपकी ‘क्या हुआ चक्कर आ गए थे ’ घबराकर बोली।

‘हां ’ मुझे अचानक होश आया ‘नहीं ....! नहीं कुछ नहीं पेन गिर गया था टेबिल के नीचे, उसे ढूंढ रहा था, मिल ही नहीं रहा, शायद अलमारी के नीचे चला गया है।’

‘तो दूसरे से लिख लो।’ सविता बोली ‘कल झाडू लगेगी तो मिल जाएगा, एक पेन के लिए इतना परेशान हो रहे हो।’

‘ये भी ठीक है’ मैंने मुस्कराने का प्रयास करते हुए कहा और खड़ा हो गया ‘चलो दूसरे से लिख लेंगे, पहले तुम्हारे हाथ की गरमागरम चाय का मज़ा तो ले लें।’ मेरे अंदर का अपराध बोध मुझसे सविता की ख़ुशामद करवा रहा है।

‘ठीक है, चाय पीकर थोड़ा आराम कर लो, शरीर की तरह दिमाग़ को भी आराम की ज़ुरूरत होती है, बल्कि शरीर से ज्यादा दिमाग़ को आराम की ज़ुरूरत होती है।’ कहकर कमरे से बाहर चली गई।

अब मुझे मानसी की चिंता होने लगी है, कहीं माही उसके साथ सचमुच कुछ न कर बैठे। मानसी तो वैसे भी सचमुच काफी भोली है, जब पहली बार मैंने सीमाओं का उल्लंघन किया था, तो उसने कोई प्रतिरोध नहीं किया था। बाद में जब मैंने उससे पूछा था, कि तुमने मुझ पर इतना विश्वास क्यों कर लिया, तो बड़े शांत स्वर में बोली थी ‘तुम पर विश्वास न करने का भी तो कोई कारण नहीं था। जीवन में दो ही तरह के तो लोग होते हैं, एक वो, जिन पर आप विश्वास करते हैं, और दूसरे वो, जिन पर आप विश्वास नहीं करते। जिन पर आप विश्वास नहीं करते, उनसे आप प्रेम भी नहीं कर सकते। एक साथ अविश्वास और प्रेम दोनों होने का दावा नहीं किया जा सकता, अगर कोई ऐसा करता है, तो वह झूठ बोल रहा होता है।’ मैंने पूछा था, ‘पर मानसी अगर मैं तुम्हारे विश्वास पर खरा नहीं उतरा तो ?’

फ़िर उतनी ही शांति से जवाब दिया था मानसी ने ‘वह तुम्हारा सरदर्द है, अगर तुम मेरे साथ विश्वासघात करोगे तो वह तुम्हारे लिए ही परेशानी का कारण बनेगा, मेरे लिए नहीं, क्योंकि विश्वास-अविश्वास के बारे में सोचने का क्षण तो मेरे लिए बीत चुका है।’ इतने सब के बाद भी मैंने उसके विश्वास को तोड़ दिया था।

कहानी फ़िर वहीं रुकी हुई है, माही और निशा साथ सोए हुए हैं, यही तो वह मोड़ है जो मैं चाहता था, लेकिन इसके आने के बाद भी मैं संतुष्ट क्यों नहीं हूं्? क्या वास्तव में मैं कुछ ग़लत कर चुका हूं। कहानी को आगे बढ़ाने की हिम्मत नहीं हो रही है। माही को लेकर कुछ भी लिखने का सोचता हूं, तो मानसी का ख़याल आ जाता है। याद आ जाता है माही, जो मेरे ही सामने पात्र का चोला छोड़ कर शरीर बन गया था, मेरे शरीर से अभी उसके पसीने की सौंधी-सौंधी ख़ुश्बू आ रही है। कहीं यह ख़ुश्बू मेरे स्वयं के पसीने की तो नहीं ? कहीं निशा सच तो नहीं कह रही थी, कि माही के रूप में मैं खुद ही ....। नहीं ऐसा कैसे हो सकता है, मैं कोई पात्र थोड़े ही हूं मैं तो इंसान हूं और कोई इंसान किसी पात्र के साथ कुछ कैसे कर सकता है। यह ख़ुश्बू माही के पसीने की ही है, अभी कुछ देर पहले ही तो उसका शरीर मेरे हाथों में था, इस ख़ुश्बू को जाने में कुछ तो समय लगेगा।

खिड़की के बाहर शाम फ़िर से गहराने लगी है। कहानी टेबल पर उसी प्रकार पड़ी पूर्णता की प्रतीक्षा कर रही है।आज संभवतः कुछ नहीं हो पाएगा, स्टडी की लाइट बंद करके बाहर आ गया।

सुबह नींद जल्दी खुल गई, शायद कल जल्दी सो जाने के कारण। आज कुछ भी करके कहानी को पूरा करना है, इसी में उलझा रहा तो कुछ नया नहीं कर पाऊंगा। तैयार होकर स्टडी में पहुंचने तक काफी दिन चढ़ गया। सबसे पहले स्टडी की सारी खिड़कियां खोल दीं, सारे पर्दे हटा दिये, उजाले और हवा से ही शायद आत्मविश्वास बढ़ जाए। टेबल पर पहुंच कर कहानी को खोला तो माही और निशा उसी प्रकार सो रहे हैं। कुछ नया घटनाक्रम हो उसे पहले कहानी को बढ़ा दिया जाए। कहानी की रात को सुबह में बदला पहले निशा उठी फ़िर बाद में माही, अलसाते हुए उसने चारों तरफ़ देखा और चौंक गया, फ़िर अपनी अवस्था देखी तो और ज़्यादा हैरान हो गया। पास की कुर्सी पर पड़े अपने कपड़े जल्दी जल्दी पहने। रात का घटनाक्रम उसके दिमाग में घूमने लगा, शराब का इतना भी नशा नहीं था रात जो कि कुछ याद ही नहीं रहे। जूते के फीते बांधने में ही निशा कमरे में आ गई, दोनों की नज़रें मिलीं, माही ने नज़र झुकाई और तेज़ क़दमों से बाहर चला गया। माही अब कार में है और कार मालती के घर की ओर जा रही है।

मैं बहुत चाह रहा हूं कि कहानी कुछ तेज़ चले ताकि जल्दी से जल्दी ख़त्म हो सके पर कहानी तेज़ चल ही नहीं पा रही। यही सोचकर माही को पहले मालती के घर ले जा रहा हूं ताकि समय की बचत हो सके, और जो कुछ भी होना है यहीं हो गए। अब फ़िज़ूल में कहानी को खींचना नहीं चाहता। निशा और अनुज को अब अनुत्तरित प्रश्नों की तरह छोड़कर ही आगे बढना होगा, और समापन करना होगा। अगर उन्हें मैं अंत में शामिल करने की सोचता हूं तो इतनी जल्दी अंत नहीं आ पाएगा। और वैसे भी कहानी के मुख्य पात्र तो माही और मालती ही हैं, तो फ़िर कहानी के अंत में इन दोनों की उपस्थिति ही बहुत है। पहली बार अपने आत्मविश्वास को अपने साथ पा रहा हूं, जिससे निर्णय लेना आसान हो रहा है।

माही की कार मालती के घर के सामने जाकर रुक गई है। माही गाड़ी से उतरा, रात के अपराधबोध से ग्रस्त धीरे-धीरे दरवाज़े की ओर बढ़ रहा है।

‘वहीं रुक जाओ’ अरे यह मालती कहां से बोल पड़ी, नज़र उठा कर देखा तो सामने मालती खड़ी है। उसी सुनहरे बूटे वाली काली साड़ी में, जो मैं अक्सर उसे पहनाता हूं। खुले हुए बाल हवा में लहरा रहे हैं।

‘आप इसे मेरे घर लेकर क्यों आ रहे हैं?’ दोनों हाथों को टेबल पर टिका उन पर अपना पूरा वज़न डालते हुए बोली।

‘क्यों लेकर आ रहा हूं ?’ मैंने कुछ आश्चर्य का पुट डालते हुए कहा, ‘अरे भाई तुम्हारा मंगेतर है, तुम्हारे घर नहीं आएगा तो कहां जाएगा।’

‘वह सब कुछ करने के बाद भी?’ मालती ने फिर प्रश्न किया।

‘तो क्या हुआ’ लापरवाही के अंदाज़ में जवाब दिया मैंने, ‘माही पुरुष है और पुरुष के जीवन में इस तरह की घटनाएं कब घट जाएं कुछ पता होता है? और वो तो इतने सब के बाद भी तुम्हारे घर आ रहा है, तुम्हें सब कुछ बताकर तुमसे माफ़ी मांगने।’

‘मुझसे माफ़ी मांगने ?’ मालती का सवालिया अंदाज़ बरकारार है, ‘मुझसे क्यों मांगने आ रहा है वो ? मेरे साथ क्या किया है उसने?’

‘क्यों ? तुम्हारे विश्वास को ठेस नहीं पहुंचाई उसने ?’ मैंने जवाब दिया।

‘जब आप पूर्व में ही कह चुके हैं, कि आधुनिक पुरुष के जीवन में इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं, तो फिर विश्वास और अविश्वास जैसे फ़िज़ूल के मानदंड को बनाने का औचित्य ही क्या है ?’ मालती ने पूछा।

मैं जितना आसान समझ रहा था कहानी का अंत करना, संभवतः यह उतना आसान नहीं है। मालती के प्रश्नों का उत्तर देना ज़्यादा मुश्किल है। इसलिये भी क्योंकि वह मेरे ही दिये हुए उत्तर में से रक्तबीज की तरह पुनः एक नया प्रश्न उत्पन्न कर रही है। मैंने समझाइश भरे अंदाज़ में कहा, ‘मालती वह तुम्हारे पास आ रहा है, तुमसे माफ़ी मांगने, तुम्हें उसे माफ़ करना होगा, और उसे स्वीकार करना होगा, इसी में तुम चारों का हित है।’

‘मैं क्यों स्वीकार करूं उसे ?’ मालती दृढ़ स्वर में बोली, ‘अब उसे स्वीकार करने का कोई पश्न ही नहीं उठता।’

‘क्यों नहीं करोगी उसे स्वीकार ?’ मैंने पूछा, ‘वह तुम्हारा मंगेतर है, अगर तुम उसे स्वीकार नहीं करोगी तो कहां जाएगा वो ?’

‘चला जाए वहीं, निशा के पास’ मालती के स्वर में उदासी है, ‘वैसे भी एक सहारे की आवश्यकता मुझसे ज़्यादा निशा को है, अनुज के जाने के बाद बहुत अकेली हो गई है वो।’

‘मालती ...?’ मैंने आश्चर्य से कहा, ‘तुम ऐसा कैसे कह सकती हो, और फ़िर यह घटना तो वह तुम्हें स्वयं बताने आ रहा है, अगर नहीं बताता तो क्या तुम जान पातीं ?’

‘वही तो’ मालती बोली, ‘वही तो मैं भी कहना चाह रही हूं। यह घटना चूंकि मेरी बहन के साथ घटी है इसलिए वह मुझे बताने आ रहा है, और न जाने कहां कितनी बार वह ऐसा कर चुका होगा क्या पता, आख़िर को आपका ही तो रचा हुआ पात्र है, आपकी अपनी चरित्रहीनता तो उसमें आएगी ही।’

‘तुम लोग बार-बार मुझे चरित्रहीन क्यों कह रहे हो’ मैंने चिल्लाते हुए कहा, ‘क्या चरित्रहीनता की है मैंने ?’

कुछ मुस्कराते हुए कहा मालती ने ‘वो तो आप स्वयं भी जानते हैं। मेरा बस यह कहना है कि आप माही को लेकर मेरे पास नहीं आएं, मुझे उसे स्वीकार करने पर बाध्य न करें। वो किसी और के साथ नहीं बल्कि मेरी बहन के साथ संबंध बनाकर आ रहा है, उसे स्वीकार करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।’

‘तुम्हें स्वीकार करना होगा’ मैंने दृढ़तापूर्वक कहा ‘मत भूलो कि तुम मेरी पात्र हो, तुम अपने स्वयं के विवेक से कछ नहीं कर सकतीं, तुम्हें वही करना होगा जो मैं चाहूंगा।’

‘मैं जानती हूं मेरा स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं है’ मालती का स्वर कुछ ठंडा हो गया, ‘लेकिन कम से कम विरोध तो कर सकती हूं। आप लेखक हैं, अंतिम निर्णय तो आपकी क़लम ही करेगी, पर में फ़िर कह रही हूं,माही को अब मेरे पास नहीं लाएं, मुझे बाध्य नहीं करें कि मैं माही को अब स्वीकार करूं। उसे वहीं रहने दें, निशा के पास, वो मेरी बहन है, उसे भी एक सहारा मिल जाएगा, और मुझे भी उस माही के साथ जीवन गुज़ारने से मुक्ति मिलेगी जो अपराध बोध सर पर रखे मेरे साथ होगा।’ कह कर मालती रुक गई, उसकी आंखों में आंसू झिलमिला रहे हैं।

‘और फ़िर अनुज का क्या करूं ?’ किंचित उपहास के स्वर में मैंने कहा, ‘क्या जिस तरह की एक घटना माही और निशा के बीच घटित हुई है वैसी ही तुम्हारे ओर अनुज के बीच भी दिखा दूं ? इससे तुम चारों व्यवस्थित हो जाओगे ।’

‘तुम ......?’ क्रोध में आप से तुम पर आ गई, गुस्से में बिफ़रते हुए बोली, ‘तुम से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है, तुम्हारे जैसा चरित्रहीन व्यक्ति जब लेखक बनेगा तो उसके सारे पात्र भी स्वाभाविक है चरित्रहीन ही होंगे। तुम न केवल चरित्रहीन हो, बल्कि कायर भी हो, अपनी चरित्रहीनता और कायरता अपने पात्रों में भर रहे हो।’

‘हां हां मैं चरित्रहीन हूं ’ बुरी तरह चिल्ला कर टेबल पर हाथ मारते हुए कहा मैंने, ‘छोड़ आया था मैं मानसी को कायरों की तरह उसके शरीर का उपयेाग करने के बाद। मैं कायर हूं, चरित्रहीन हूं।’

मालती ज़ोर से खिलखिलाकर हँस पड़ी, हँसते -हँसते उसने सिर टेबल पर टिका दिया। वह हँसे जा रही है, हँसना बंद करके उसने टेबल पर से सर उठाया, मैं चौंक पड़ा ‘मानसी तुम...?’ मानसी की आंखों में आंसू हैं।

‘हां मैं, यही तो मैं तुमसे कहलवाना चाहती थी। यही तो मैं चाहती थी कि तुम स्वीकार करो अपनी चरित्रहीनता को भी, और कायरता को भी। तुम..... नीच, कमीने, तुमने मेरे साथ जो किया वो किया, पर मुझे भी चरित्रहीन बनाकर अपने पात्रों में भर दिया।’ कहती हुई वो जाने लगी।

‘नहीं मानसी, मैंने ऐसा कुछ नहीं किया’ मैंने दौड़कर उसके पैरों को पकड़ लिया, ‘मानसी मैंने तुम्हें कभी पात्रों के रूप में उपयोग नहीं किया, मेरी बात सुन लो फ़िर चली जाना तुम्हें कुछ ग़लतफ़हमी हो रही है।’ कहते-कहते मैं रो पड़ा। अचानक ऐसा लगा कोई छोटी लड़की हँस रही है। सर उठाकर देखा तो मानसी की जगह वही बच्ची खड़ी है, जिसके साथ वर्षों पहले मैंने बलात्कार किया था। कपड़े फटे हुए हैं, बाल अस्तव्यस्त हैं, शरीर पर जगह-जगह खरोंच के निशान हैं। ज़ोर-ज़ोर से हंस रही है, अचानक कमरे से और भी लोगों के हँसने की आवाज़ें आने लगीं, देखा तो मानसी, निशा, मालती, अनुज, माही भी कमरे में खड़े हैं, और मेरी ओर देखकर हँस रहे हैं। मैंने दोनों हाथों को कानों पर रखा और पूरी ताक़त से चिल्लाया ‘नहीं.......!’ और घुटनों में सर देकर रो पड़ा। स्टडी का दरवाज़ा तेज़ी से खुला, सविता घबराती हुई मेरे पास आई ‘क्या हुआ, क्या हो गया ?’ उसने पूछा। मैं चौंका, घबराकर कमरे में चारों ओर देखा, सविता और पल्लवी के अलावा कोई नहीं है, सब जा चुके हैं।

सविता उसी प्रकार घबराई हुई है, मेरी पीठ को मलते हुए पूछा, ‘डाक्टर को फ़ोन करूं?’

बुझी हुई आवाज़ में मैंने कहा ‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, मुझे कुछ नहीं हुआ, बस ज़रा सोऊंगा।’

‘चलो’ सविता ने मुझे सहारा देकर उठाया। मैं धीरे-धीरे स्टडी से बाहर आ गया।

शाम होने पर नींद खुली, सर कुछ भारी-भारी सा लग रहा है। मुझे उठते देख सविता आ गई, बालों में हाथ फेरते हुए पूछा, ‘अब ठीक लग रहा है ? चाय बना लाऊं ?’

‘हां बना लाओ’ मैंने कहा। वह चाय बनाने रसोई में चली गई, मैं उठकर स्टडी में आया। कहानी के क़ाग़ज़ उसी प्रकर टेबल पर रखे हैं। क़ाग़ज़ों को उठाया, साथ में सिगरेट और माचिस भी उठाकर बगीचे में आ गया। क़ाग़ज़ों को जमीन पर पटका और आग लगी दी। सिगरेट सुलगा कर झूले पर आकर बैठ गया। क़ाग़ज़ों के गट्ठे ने आग पकड़ ली है, अचानक मैंने देखा धुएं से एक आकृति बन रही है, एक स्त्री की आकृति जिसकी गोद में एक बच्चा है, शायद निशा है, उसके पीछे-पीछे एक पुरुष निकला, यह अनुज होगा धुएं से बनी दोनों आकृतियां आकाश में जाकर घुल गईं। कुछ देर बाद धुएं में एक और आकृति बनी, खुले बाल, लहराता आंचल, यह मालती है, उसके पीछे एक पुरुष की आकृति बनी, यह आकृति पूर्ण नग्न है, माही जिस अवस्था में मेरे पास से गया था, उसी अवस्था में है। आदम इसी अवस्था में आसमान से उतरा था और यह इसी अवस्था में आसमान में जा रहा है। ये दोनों आकृतियां भी आकाश में विलीन हो गईं। क़ाग़ज़ उसी उसी प्रकार जल रहे हैं। ठँडी सांस भरकर मैं झूले से उठा, अब कोई नहीं निकलेगा इस धुएं से, अब तो केवल क़ाग़ज़ ही जल रहे हैं, कहानी तो जल चुकी है। धीरे-धीरे क़दमों से मैं लौट आया।

-:(समाप्त):-