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बिकी हुई लड़कियां - 3 - अंतिम भाग

बिकी हुई लड़कियां

  • नीला प्रसाद
  • (3)
  • ‘और एक अच्छा लड़का जुगाड़ने की भी’, तरु बोली. ‘आंटी, हम बानी को जल्दी- से- जल्दी ब्याह देना चाहते हैं. दिल्ली में यह सब कोई सोचता नहीं होगा कि बूढ़े के साथ रह आई है, पुलिस के साथ अकेली यात्रा करके आई है.. वगैरह बुलशिट.. तो आप इसे दिल्ली में ही सेटल करा दीजिए. कोई घरेलू नौकर भी चलेगा. सर्वेंट क्वार्टर में रहेगी हमारी बानी और राज करेगी. आपके घर या किसी पहचान वाले के यहां कोई ड्राइवर, क्लीनर, सर्वेंट..कोई भी चलेगा.’ तरु रौ में बोलती जा रही थी.

    मुझे आश्चर्य हुआ- कितने भोले हैं ये लोग! सोच रहे हैं कि दिल्ली बड़ा शहर है, महानगर है और देश की राजधानी है तो वहां सब बड़ी सोच वाले बसते हैं. गांव से दिल्ली पहुंचते ही बदल जाते हैं जैसे!! कि उनके लिए देह का जूठा होना वैसे मायने नहीं रखता, जैसे छोटे शहरों या गांवों में.. वे खुले दिल, दिमाग, खुले विचारों वाले हो जाते हैं.. और फिर निचले या मध्यवर्गीय तबके की कौन कहे; तथाकथित पैसे वाले, बड़े लोग ही कितना बदल पाए हैं?.. हां, है एक क्लास- अतिआधुनिक कहलाने वाला उच्च वर्ग या फिर कलाकार, साहित्यकार, सामाजिक बदलाव से सरोकार रखने वाला क्लास, जहां देह की पवित्रता कोई मायने नहीं रखती. बाकी सब तो बंटे दिल, बंटे दिमाग के होते हैं. एक ओर आधुनिक होने का दिखावा, दूसरी ओर वही निम्नवर्गीय या मध्यवर्गीय सोच.. कि लड़की मिले तो अनछुई, दहेज लेकर आने वाली. पवित्र और पतिव्रता. पति के पीछे चलने वाली, साथ चलने वाली नहीं..

    मैं चुप सोचती रही. कितना, क्या और कैसे बताऊं इन सबों को?! सच तो यह था कि ऐसा कोई मेरी नजर में न था, न मिलने की आशा थी, जो बानी को खुशी-खुशी अपना ले. मेरी पहचान के सारे ड्राइवर, क्लीनर, सर्वेंट पारंपरिक सोच वाले, गाजे-बाजे की शादी, दहेज और कुंवारी कन्या के इच्छुक थे, या फिर शादी-शुदा, घर- गृहस्थी वाले. कोई बिन घर-परिवार का हो तो..

    ‘मैम तय करने की कोशिश कर रही हैं कि ..’, तरु बोली.

    ‘ऐसा कोई तुरंत याद नहीं आ रहा,जिसे बानी के लिए सही समझा जाय.’ मैंने जल्दी-से कह दिया.

    ‘और पैसे का क्या करें मैम?’, शुचि ने कंसर्न से पूछा.

    मैं जानती थी, वह क्या चाहती है. वह चाहती है कि मैं अपने कुंवारेपन के दिनों की तरह बोल दूं ‘उसकी चिंता नहीं. मैं हूं न!’

    पर मैं तो इस सब से जान छुड़ाना चाहती थी. यह सब, अब संभव नहीं था. अब मेरी अलग दुनिया थी, अलग ही प्राथमिकताएं.. मैंने अपने हिस्से का कुंवारेपन में कर लिया था और कोई जरूरी नहीं था कि सारी जिंदगी मैं इस सब में ही गुजार दूं. आखिर बेटी –बेटे, पति और घरवालों का हक था मेरी कमाई पर.. मैं पछताने लगी कि मैं यहां आई ही क्यों, जब अंदाजा था कि क्यों बुलाया जा सकता है. पहले ही समझ लेना था कि मैम की इतनी खोज, किसी- न- किसी मदद के लिए ही की जा रही है, आरती उतारने के लिए नहीं.

    पर अंदर सोच ने करवट बदली- मेरे अनचाहे.

    मैंने खुद को जितना भी दबाया, अंदर से कोई लड़की सतह पर बार-बार आ, वही, ठीक वही-वही शब्द कहने को छटपटाने लगी जो तरु और शुचि सुनना चाहते थे. मैंने अंदर उग आई उस लड़की से कहा कि पता है न कि मेरी भी एक बेटी है, बेटा है, सास-ससुर, पति हैं, जिम्मेदारियां हैं; पर वह लडक़ी नहीं मानी. क्षण भर बाद लगा कि असल बात यह नहीं है कि मेरी जिम्मेदारियां हैं, असल बात यह है कि अब प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं, सोच बदल चुकी है. अब मैं एक पारंपरिक पत्नी की तरह, पति और ससुराल वालों को खुश रखती जीना चाहती हूं, इसके लिए चाहे खुद को, अपनी सोच और इच्छाओं को जितना भी मारना पड़े. अब जो, जितना भी कमाऊं, बांटने से हिचकती हूं. पति, सास-ससुर को समझा नहीं पाती न, कि क्यों दिया.. और वे कोई तर्क सुनने को तैयार भी नहीं होते. अपनी जरुरतें फैलती- फैलती आसमान तक जा पहुंची हैं और परिवार में सबों की मुझसे अपेक्षाएं भी.. वे सब सोच तक नहीं सकते कि कोई अपनी सारी जमा- पूंजी इस तरह एक मेड के ऊपर लुटा सकता है. मैं सोच भी नहीं सकती कि इस तरह, एक मेड के लिए, इतनी कोशिशों के बाद संभव हुए अपने विवाह को बिखेरकर रख दूं. इतने- इतने इंतजार के बाद मिले पति का दिल दुखाऊं और परिवार में तनाव की स्थिति झेलूं. अब जिंदगी एक ढर्रे पर आ चुकी है. मैं कमाती हूं, अपने निर्णय खुद ले सकती हूं, पर चाहती यही हूं कि अब सबकुछ, सारे आर्थिक-सामाजिक निर्णय पति पर छोड़कर, मैं घर-गृहस्थी देखूं तथा नौकरी के अलावा और कोई तनाव न लूं.

    पर यहां इज्जत बचानी थी. तरु, शुचि और उसके पति के मन में बसी अपनी इमेज को बचाए रखना था. मैंने खुद को मन में पहली बार पति से जिरह करते सुना. एक तो वे कोई तर्क सुनने को तैयार नहीं थे, दूसरे उनके तर्कों के जवाब मेरे पास नहीं थे. जो तर्क थे, वे मैं उन्हें ढंग से समझा नहीं पा रही थी.

    मैंने खुद को फंसा हुआ महसूसा. मुझे यहां आना ही नहीं चाहिए था. अतीत को एक जगह छोडकर जब आगे बढ़ गई तो राख में दब चुकी चिनगारी को फिर से भड़काना नहीं चाहिए था. मैं अपनी दुनिया में, अतीत की अपनी दरियादिली को याद करती सुख से जी सकती थी. पर मुझे पूरी तरह तय थोड़े था कि मुझे सलाह के लिए नहीं, इस तरह की मदद के लिए याद किया जा रहा है. एक लड़की की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है और आर्थिक मदद मांगी जा रही है. पता होता तो शायद कन्नी काट जाती. जैसे शादी के बाद से लगातार काट जाती रही थी- व्यस्तता का बहाना, बेटा,बेटी, पति,सास-ससुर का, नौकरी का बहाना.. कभी तबियत खराब, कभी पति के वैल्यू सिस्टम का बहाना, जिसे नारे लगाती, पुलिस से भिड़ती पत्नी पसंद नहीं थी... और मुझे पसंद नहीं था, पति को नापसंद होना. जैसे मैं भी शादी करके पति को प्रसन्न रख सकने और एक बेटा-बेटी पाल सकने का उद्धेश्य पूरा करने को ही बनी थी, उसी के लिए जीती रही थी.

    मैंने उसांसें लीं. यह क्या हो गया था जिंदगी में. यह क्या कर लिया था जिंदगी का!

    गहरे कुएं में डूब चुकी खुद को बाहर निकालते बहुत समय लगा. समय लगा यह समझते कि मैने खुद को खो दिया था. जहां आत्मिक खुशी मिलती रही थी, उसे त्याग दिया था और खुशी वहां खोज रही थी, जहां वह उतनी हो ही नहीं सकती थी, जितना मैं चाहती रही थी. तभी तो शादी में सब ठीक होते हुए भी बेचैनी थी, तभी थी घुटन.

    घुटन और दुविधा अंदर रहती आई थी - रोज एक दरवाजा खुलता और बंद हो जाता रहा था. खुलता था तो खुलते ही उसके अंदर से दूसरों की जरूरतें, आशाएं झांकने लगती थीं और मैं घबराकर, उसे बंद करके, वापस सिर्फ और सिर्फ अपनों के बीच सिमट, बिना झंझट, तथाकथित शांति से जीती रही थी.

    मेरे मन में फिर से भाव बदले. मुझे स्वार्थी होने का हक है क्योंकि अब मैं मां हूं. मैंने दो बच्चों को दुनिया में लाने का फैसला किया तो स्वाभाविक रुप से उनकी जिम्मेदारी मुझे सर्वोपरि रखनी चाहिए.आखिर शुचि भी तो पैसे इसीलिए नहीं दे रही कि उसे तरु की जिम्मेदारी निभानी है. अगर तरु का भविष्य महत्वपूर्ण है तो मेरे बच्चों का क्यों नहीं? मैं ही क्यों उनके हक के पैसे किसी और उद्देश्य के लिए झोंक दूं.?? .. और फिर किया तो था समाज के लिए शादी से पहले इतना कुछ!! तो अब मेरे बच्चे, घर- परिवार भी तो उसी समाज का हिस्सा हैं और बच्चों की परवरिश से, समाज की सेवा ही हो रही है.

    बानी मुझे दुविधा से देख रही थी. क्या उसे पता था कि मेरे मन में क्या चल रहा है?

    वह अब भी जब-तब आंसू पोंछ रही थी. ‘निजेर मां ए रोकोम ऐकटा बूढ़ो के दिए दिलो.. मेरा मां ने मुझे एक बूढ़े को दे दिया, बेच दिया मेरे को..’

    मैं पसीजने लगी. उसे कहना चाहने लगी कि तुम बिक गई थी, बचकर निकल आई. हम सब महिलाएं शादी में बेच दी जाती हैं- पति और ससुराल के वैल्यू सिस्टम को, उनकी इच्छा-अनिच्छा को.. और बचकर निकल नहीं पातीं. हां, मैं भी तो बिक ही गई आखिर, अपनी शादी बनाए और बचाए रखने की खातिर.

    निरंतर रचती, बनाती- बसाती दुनिया को बेचकर, जो शादी से पहले मुझे इतना खुश रखती थी, शादी और पति की खुशी खरीद ली. फिर मां बनी और एक जगह खड़ी, किसी पेड़ की तरह, अब सूखने के कगार पर आ गई. मैंने खुद को हिकारत से देखा.. मैंने तो खुद को खुद ही बेचा था, बिना किसी और की जबर्दस्ती के.

    पर मैं, मैं थी और मुझे मैं ही होना था.

    एक वाक्य, और मैं उस सूखते पेड़ के तनों, डालियों, और पत्तों से मुक्त हो गई, जो मैं ही थी.. उड़ गई फिर से एक चिड़िया की तरह.

    ‘हां ठीक है. बानी को मैं ले जाऊंगी’. मैंने खुद को कहते सुना. ‘पैसे मैं दे दूंगी न, आप सब चिंता मत करो’. मैंने खुद को यह भी कहते सुना.

    अतीत वाली खुद को पकड़ते ही अपने अंदर जैसे सबकुछ बदल गया- सबकुछ.!! टूट गया सोच का वो घेरा- जिसमें मै रहती, सोचती, जीती आई थी. पति का वो वर्चस्व, वो भावनात्मक शिकंजा, जो अनजाने ही मुझे घेरे रहता था, जब कि मैं उसके बराबर कमाती और घरेलू जिम्मेदारियां उससे ज्यादा निभाती थी. वो स्वार्थ, वो दुविधाएं, जो सिर्फ अपनों को कुछ देने को उकसाती, बाकी सब को मन में धीरे- धीरे धुंधलाती, गलाती गई थीं- एकदम से काफूर हो गईं.

    मुझे पता नहीं था कि मैं पति को कैसे मनाऊंगी कि बेटे की पढ़ाई के लिए रखा पैसा बानी की मां को दे दें.. या फिर उस बूढ़े को मना लें कि वह पैसा मांगे ही नहीं. कैसे मैं बानी को दिल्ली में सेटल करा पाऊंगी.. क्या मैं उसके लिए कोई वर ढूढ पाऊंगी? क्या उसके बाद बानी की सारी जिम्मेदारी- उसके भविष्य, सुख- दुख की- मेरी ही नहीं हो जाएगी?. मैं जो करने जा रही थी, वह एक तरह से शादी के बाद, मेरे परिवार की व्यवस्था से विद्रोह था. विद्रोह उस सबसे- जिन्होंने मेरे जीने का एक ढर्रा तय कर दिया था और जिसे मैंने स्वीकार लिया था. इस ढर्रे में हमारे परिवार के अलावा दूसरे समाते ही नहीं थे और हम ऐसी जिंदगी जीते शर्माते नहीं थे.

    अब सवाल यह नहीं था कि दिल्ली पहुंचकर क्या होगा. यह भी नहीं कि मैं अगर बानी के लिए कुछ नहीं कर पाई, बानी का घर नहीं बसा पाई, तो तरु को, शुचि को और उसके पति को क्या मुंह दिखाऊंगी. मैं अब खुद को मुंह दिखाने के काबिल हो जाने मात्र से खुश थी और मुक्त हो गई महसूस रही थी.

    और कुछ तय हो, न हो, ‘मैं’ नहीं रही खुद को, अब मुझे फिर से ‘मैं’ बनाकर जीना था, इतना तो तय था.

    शुचि, तरु और उसके पापा के चेहरे पर खुशी साफ पढी़ जा सकती थी- उनके मन की दुविधा खत्म जो हो गई थी!

    दुविधा अब सिर्फ, और सिर्फ, बानी के चेहरे पर थी.

    हमदोनों ही बिके हुए थे बानी- मैं जोर देकर कहना चाहती थी. बिकी हुई तुमको बचा लिया गया, बिकी हुई खुद को मैंने फिर से खरीद लिया- हमदोनों मुक्त हो गए. पर तुम, जो एक बार बिक कर किसी तरह बच निकाली हो- क्या कभी खुद को, मेरी तरह ही, खुद से खरीद, मुक्त हो पाओगी? क्या कभी शादी से पहले या शादी के बदले, अपने पैरों खड़ी होने और जीवन अपनी शर्तों पर जीने की इच्छा से युक्त हो पाओगी??

    पसरते सन्नाटे को बेधती शुचि की आवाज आई- ‘बानी, चाय तो बना लाओ, मैम के लिए!!’

    ( कथाक्रमः जनवरी-मार्च 2012)

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