biki hui ladkiya - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

बिकी हुई लड़कियां - 1

बिकी हुई लड़कियां

  • नीला प्रसाद
  • (1)
  • मैं उसके घर के दरवाजे के सामने खड़ी हूं. दूसरे तल्ले के उसके घर के बाहर तक सीढ़ियां लांघकर नहीं, अंदर उमड़ती लहरों को चीरकर पहुंची हूं. अलग-अलग किस्म की भावनाएं, साझा सुख- दुख, बातें, सलाह, आंसू, हंसी और गलतफहमियों की यादों की अंदर उमड़ती लहरें.. और यह अहसास कि हर बार उन सबों को लांघकर ज्यादा करीब होते गए थे हम दोनों! पर अभी तो बीच में इतने बरसों का मौन पसरा था. नहीं, अनबोला नहीं, बस अपनी- अपनी व्यस्तताओं में इस कदर खोया जीवन कि कभी- कभी फोन पर औपचारिक बातें भले ही होती रहीं, अंदर का सब-का-सब अनकहा, मौन ही रह गया.. तो अभी सीढ़ियां चढ़ते यह लगना स्वाभाविक कि अगर बीच के बरसों को क्या- क्या हुआ, क्या-क्या महसूसा, की जानकारी से न पाटा तो एक दूसरे तक पहुंच ही नहीं पाएंगे. अब इतने बरसों बाद बिछड़े दोस्त से मिलने पर बीच के साल-दर-साल पाटते किसी पुल पर चलकर ही तो एक दूसरे तक पहुंचा जा सकता है!!

    दरवाजे के सामने कुछ क्षण खड़ी रही, फिर मैंने दरवाजा खटखटा दिया. ध्यान आने पर कि अब तो दरवाजा खटखटाने का जमाना नहीं रहा, कॉल बेल भी बजा दिया. दरवाजा खुला, सामने मुस्कुराहट लिपटा एक पहचाना चेहरा स्वागत को उत्सुक दिखा. मैं अतीत को मन में बसाए दरवाजे से अंदर घुस गई. अब वर्तमान और अतीत साथ-साथ वहां बैठे थे. उसने मेरा बाहर देखा, अंदर उमड़ती लहरों से अछूती रही. ‘अरे, आप! अचानक कैसे? फोन तो कर देतीं कि आ रही हैं’, से बात शुरू हुई. ना, अचानक नहीं, मैं तो सालों- साल, रोज-रोज तुमसे मिलती रही. मैं कहना चाहती थी पर प्रकट कुछ नहीं बोली. वह भी मेरे उत्तर के इंतजार में चुप इंतजार करती, कुछ बोली नहीं.

    ’ मिलती तो थी, तुम जान नहीं पाती थी’, मैंने कहा. उसने सोचा होगा, मैं मजाक कर रही हूं. मैंने सोचा, चलो दिल की बात कह देने से मुलाकात की शुरुआत हुई. बार-बार लगता है कि किसी से भी सालों- साल बाद मिलो तो नए सिरे से परिचय बनाना पड़ता है. एक पुल जो टूट गया होता है, फिर से रचना होता है कि उस पर चलकर एक दूसरे तक पहुंच सकें. फिर छू सकें, उस कुछ को, जो रोज- रोज साथ नहीं रहने के कारण सिरे से गायब-सा हो गया लगता है. वह कुछ, जो रोज- रोज साथ रहने वालों को अदृश्य रहकर भी लपेटे, बांधे रहता है और वे अगले दिन मिलते हैं तो नए सिरे से लगाव महसूसने, ताजा करने की जरुरत नहीं पड़ती.

    मैं बैठ गई. वह खुश दिख रही थी. मुझे पता है कि वह एक फाइटर है. पहले एक विधवा होते हुए क्लर्क की अपनी थोड़ी-सी सैलरी से सालों- साल बेटी अकेली पाली. बेटी के जन्म के कुछ ही दिनों बाद, आत्महत्या कर चुके पति की ग्रैच्युइटी, पी.एफ, पेंशन के लिए, जिसके नॉमिनेशन में उसका नाम बतौर पत्नी देना रह गया था, सास के विरुद्ध लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी.. फिर हिम्मत करके एक अर्ध- बेरोजगार पुरुष से दुबारा शादी कर ली, क्योंकि बिना किसी पुरुष की उपस्थिति के, रोजमर्रा का जीवन, इस छोटे-से शहर में मुश्किल होता जा रहा था. बेटी भी किसी को पिता कहने, महसूसने के लिए तरसती रहती थी. शादी से पहले मुझसे राय ली गई थी. मैंने सबकुछ धीरज से सुना, तमाम सवाल किए और हामी भर दी थी. वह मुझे बुद्धिमान मानती थी, ईमानदार भी. जानती थी कि मैं जो कहूंगी, दिल और दिमाग दोनों से कहूंगी. मेरी राय पहले भी उसे सही लगती आई थी, तो शादी जैसे मसले पर मुझसे भी राय न करना अटपटा लगता

    मैं उसकी शादी के रिसेप्शन में गई थी. मैरेज हॉल के बाहरी गेट पर खड़ी उसकी दस बरस की बेटी तरु ने खुशी से छलकते सबों का स्वागत किया, तो मैंने अपने अंदर की निर्णय देकर भी जागी हुई दुविधा को काफूर होते और उसकी जगह एक अलग तरह की खुशी के ज्वार को उठता महसूस किया था. आंखें उसकी बेटी की खुशी पर नम हो आई थीं. मैं खुद तब कुंवारी थी. पारंपरिक विवाह की विरोधी थी और तब तक किसी से शादी के लिए खुद को राजी नहीं कर पाई थी. उसकी हिम्मत ने मुझे एक अलग तरह का हौसला दिया था कि जैसे मेरी जिंदगी में भी कोई मोड़ आ सकता है.. राह चलते मुझसे भी कोई टकरा सकता है कि जिसे देखते ही लगे कि हां, यही तो है.. और फिर साथ रहने की कामना को शादी का रुप देते कोई हिचक न हो.. मैं उस दिन उसकी शादी के रिसेप्शन हॉल के एक कोने में खड़ी, उसके और अपने लिए सपने बुनती किसी मीठी खुशी से भर उठी थी. सही तो कहा है किसी ने कि सारे दरवाजे कभी एक साथ बंद नहीं होते. खोजो तो एक- न- एक दरवाजा खुला मिल ही जाता है, जिसमें घुस आगे बढ़ा जा सकता है.. अंधेरे से रोशनी की ओर, निराशा से आशा, हताशा से खुशी की ओर.. उसका पति औसत कद- काठी, औसत रंग-रूप का था. रोजगार भी ऐसा कि पैसे की कोई गारंटी नहीं कि किस महीने कितना ला पाएगा. कहने को एक छोटा-सा गेस्ट हाउस चलाता था, पर शुचि को मालूम था कि बेटी और गृहस्थी की आर्थिक जिम्मेदारी व्यावहारिक रूप से उसकी ही है. शादी करके शुचि का चेहरा चमक रहा था. यह शादी उसने खुद, आगा- पीछा सोचकर की थी और खुश थी. उसकी बेटी तरु भी खुशी से दमक रही थी. ’मैं पापा से कई बार मिल चुकी हूं. मुझे वो बहुत पसंद हैं’ - सबों से कहती फिर रही थी.

    तब की दस बरस की तरु अब बड़ी हो चुकी थी. पोस्ट- ग्रैजुएशन कर रही थी. शुचि बताती थी कि पापा से अब भी खुश थी. पापा ने उसे अपना सरनेम दिया था. तरु मित्रा से तरु घोष बनी वह चहकती फिरती थी. नए पापा उसके दोस्त थे और वह, अपने बायोलॉजिकल पापा से, जिन्होंने उसके जन्म के तीसरे दिन ही हॉस्पिटल के बाथरूम में लगी कुंडी से लटककर जान दे दी थी, एक तरह से घृणा करने लगी थी. एक ने उसके वजूद को अपना होते हुए भी नकार दिया था, दूसरे ने अपना नहीं होते हुए भी अपना लिया था. एक के लिए वह बोझ थी, तो दूसरे के लिए धन- जिसे संभालते, संवारते, संजोते वह थकता नहीं था. सामने ड्राइंग रुम में ही उन सबों की एक तस्वीर लगी थी. तस्वीर में वे तीनों खुश- खुश हंस रहे थे.

    मैं भी खुश होने की कोशिश कर रही थी- या कम-से-कम दिखने की.

    उस बात को, जब मैं कुंवारी थी और अपने विवाहित जीवन के मीठे सपने देखा करती थी, अब जैसे युगों बीत गए थे. अब मैं एक शादीशुदा अधेड़ महिला थी- विवाह और नौकरी में सामंजस्य बिठाने की कोशिश में हलकान होती एक महिला. गृहस्थी, नौकरी और बच्चों की जिम्मेदारियों में खुद को सफलतापूर्वक बांटने की कोशिश में टुकड़े- टुकड़े जीती एक महिला. उन टुकड़ों को सिलकर, रफू करके, खुद को साबुत महसूसने की कोशिश में लगी एक परेशान महिला. तबसे अब तक, कितना कुछ बदल गया था. तब मैं एक अनुभवहीन कुंवारी थी, और वह दो बार शादी कर चुकी अनुभवी महिला. तब मैं एक सफल ऑफिसर थी और सिर्फ अपने लिए नहीं, पूरे समाज के लिए सपने देखती रहती थी; और वह? वह तब वो थी, जो अपने कर्मों से मेरे सपनों की उड़ान को नित नई ऊंचाइयां दे रही थी. तब, जब मुझे किसी की मदद में अपना सबकुछ झोंक देने की प्रवृत्ति बिल्कुल स्वाभाविक लगती थी. वह मेरे अधीन काम करती थी, सब सुनती-समझती मेरे लिए प्रशंसा के गरूर में डूबी जीती थी.. तब मेरे लिए सिर्फ अपना कोई नहीं था. मेरा स्व, अपनी खुशी दूसरों को खुश करके पा सकने के स्वाभाविक हक में डूबा, दूसरों की समस्याओं का हल जुटाने में पूरी ताकत लगा देता था. किसी की मदद करके कुछ क्षण अघा जाता था, फिर उस संतुष्टि से निकल अगली संतुष्टि की कामना में, किसी और की मदद को आगे आ जाता था.

    फिर मुझे कोई मिल गया. मैंने उससे शादी कर ली, शहर छूट गया और जिंदगी में धीरे- धीरे सब बदलने लगा. शादी, बच्चे, मायका, ससुराल- सब धीरे- धीरे इतनी ज्यादा जगह घेरने लगे कि अंदर की ‘मैं’ एक खोल में सिमटने लगी- अनजाने. शायद इस सिमटने का किसी और को भी पता नहीं चला था. दूसरों की खुशी के बदले, सिर्फ और सिर्फ, अपनी और अपनों की खुशी में डूबते जाने का जैसे खुद मुझे भी पता नहीं था. अब अपनों का मतलब था सिर्फ अपने रक्त संबंधी- मायके या ससुराल के. वो दिन, जब जो भी अपना दुखड़ा लिए मेरे दर आ जाता, उसी क्षण जिंदगी भर के लिए मेरा हो जाता और जब तक उसकी समस्या का निदान न हो जाए,मुझे नींद न आती, जाने कहां खो गए थे. किसी एक को अपना और ‘सिर्फ अपना’ कह सकने की आकांक्षा ने मुझे ये कहां ला पटका था कि जिसे ‘सिर्फ अपना’ महसूसना चाहा, वह तो अपनी स्वार्थपूर्ति, अपनी खुशी की खातिर, दिल से ‘जाने कितनों’ में बंटा रहा और मैं, जो पहले ‘जाने कितनों’ में बंटी जीती रही थी, सिमटती गई. पहले जिनके लिए बंटती रही थी, वे समस्याएं भावनात्मक, आर्थिक, सामाजिक थीं. किसी को खुद के या किसी अपने के इलाज के लिए पैसे चाहिए होते थे, तो किसी को पुलिस परेशान कर रही होती थी. कोई रिश्तेदार या पड़ोसी का सताया होता, तो कोई ऑफिस में किसी का. किसी को शादी करने का निर्णय लेना होता था, तो किसी को शादी छोड़ने का. कोई बच्चों के बारे में सलाह मांगता था, तो कोई पैसे. मैं हरेक की, किसी भी तरह की, मदद के लिए तैयार हो जाती थी. जब, जो भी बन पड़ता था, करती थी. पर अब? अब तो जिंदगी में लोग आने जैसे बंद हो गए थे. बाहरी रिश्ते बस औपचारिकता थे. जाने कितनी-कितनी कामवालियां घर आईं, गईं और मुझे कभी पता तक नहीं चला, उनके सुख- दुख, उनकी समस्याओं के बारे में. कभी उन्हें समय देने या उनसे ढंग से उनसे बातें करने तक की इच्छा न जगी. उनके किसी दुख ने मुझे कभी नहीं छुआ. मेरी ऑफिस की जिंदगी किस्म- किस्म के लोगों से भरी रही और मुझे कभी फुर्सत नहीं हुई उनसे दोस्ती करने, उनके बारे में जानने की कोशिश करने या उनकी जिंदगी में उस तरह शामिल हो जाने की, जैसे कुंवारेपन में हो जाया करती थी. मैं तो एक से दो, फिर बच्चों के आने के बाद चार होते ही, एक छोटे से वृत्त में घूमती जीने लगी थी. अभी सीढ़ियां चढ़ती जाने किन- किन गलियों से गुजरती, शुचि के घर का कॉलबेल बजाती किसी दूसरी दुनिया में घुस जाने की कोशिश जैसा-कुछ महसूस कर रही थी. खुद को ज्यादा- से- ज्यादा लोगों में फैलाते जाते लोग, अब मुझे पहले की तरह आकर्षित नहीं करते थे. मैं उनसे बच निकलने के बहाने खोजती फिरती थी. नहीं, कभी-कभी, क्षण भर को, वे मुझे खुद पर शर्मिंदा होने को मजबूर जरूर करते थे. क्षणांश को मैं फिर से अपने कुंवारेपन वाली लड़की की तरह हो जाना चाहती थी- चिड़िया, जो जब चाहे, अपने घोंसले से निकल कहीं और, किसी और की मदद के लिए उड़ जा सकती है. फिर जब चाहे, अपने घोंसले में सुकून से वापस लौट आ सकती है. पर सिर्फ खुद को मुखातिब ऐसे कमजोर क्षण जीवन में आने भी तो लगभग बंद-से हो गए थे.

    ‘देखो तो, कौन आया है’, शुचि ने पति को पुकारा.

    ‘हां, आखिर आ ही गईं आप हमारे यहां. इतनी बातें होती रहती हैं आपकी’,पति ने खुश होते हुए आदर से कहा तो मुझे अच्छा लगा.

    ‘इन्होंने भी ‘हां’ नहीं की होती, तो एक बार तो सोचती कि तुमसे शादी करूं कि नहीं’. शुचि ने पति को इतराते हुए छेड़ा. वे मुस्कुराए.

    एक छोटी-सी लड़की पानी ले आई.

    ‘यही है’. तरु ने बताया.

    ‘ए, किछू बोलते हॉय.. कुछ बोलना, प्रणाम करना होता है कि नहीं.. तुम तो ऐसे कर रही हो, जैसे मैंने कुछ सिखाया ही नहीं..’ शुचि की टोकाटाकी के बाद लड़की ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया. ‘इसी की समस्या है, जो आपको यहां आने को कहा. जैसे ही पता चला कि आप मायके आई हैं, मैंने कहा कि अब क्या चिंता, मैम सब संभाल लेंगी.’

    क्रमश...

    अन्य रसप्रद विकल्प

    शेयर करे

    NEW REALESED