Barby Dol's - 3 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

बार्बी डॉल्स - 3 - अंतिम भाग

बार्बी डॉल्स

  • नीला प्रसाद
  • (3)
  • आखिरकार मन नहीं माना तो मैंने पूछ ही लिया।

    ‘दीपाली नहीं आती इन दिनों? कई महीनों से नहीं देखा। अब तो बेटा खेलने लायक हो गया होगा

    सभी महिलाएं एक -दूसरे का मुंह देखने लगीं। मुझे कुछ अजीब -सा लगा। ठीक है कि मैं इस मंडली से बहुत घुली - मिली नहीं, पर किसी का हाल पूछ लिया तो क्या बुरा किया?

    तब नीलम धीरे से बोली - ‘आपको मालूम नहीं कि दीपाली नहीं रही?’

    ‘क्या?’ मैं चौंकी। ‘क्या हुआ उसको?’

    ‘उसने तो जी, सुसाइड कर लिया।’ ममता मैम बोलीं।

    ‘हाय राम, क्यों भला?... इतनी प्यारी लड़की! अभी तो बेटा साल का भी नहीं हुआ होगा। इतने प्यार से पति के लिए बन -संवरकर रहती थी।’ मैंने चौंकते हुए कहा।

    ‘प्यार से नहीं, मजबूरी में। बन -संवरकर नहीं रहती तो वैसे भी पति छोड़ देता। उसे वह पसंद नहीं थी। उसका लाया कम दहेज भी पसंद नहीं था। फिर बेटे की सूरत न पापा जैसी थी, न मां जैसी, तो झगड़े होने लगे थे।’ वहां बैठी किसी महिला ने कहा, जिसे मैं पहचानती नहीं थी।

    ‘ना जी, बच्चे की सूरत तो दादी से पूरी मिलती है। वह तो बहाना था।’ ममता मैम बोलीं।

    नीलम ने कहा - ‘दीपाली बेचारी पति को लुभा सकने को, नन्हे दूध पीते बच्चे को छोड़कर यहां आती रही कि उसके चेहरे - मोहरे, देह, बालों में कोई कमी न दिखे। अच्छा फिगर, अच्छा स्वभाव, अच्छी सूरत। पति पर तो वह जान देती थी। अब अगर मायके वाले दहेज ज्यादा न दे पाए तो उसका क्या कसूर?’

    ‘दहेज की बात नहीं थी जी। असल में पति का दिल पहले से ही कहीं और था, तो पत्नी को परेशान करता, हर बात में नुक्स निकालता रहता था– खासकर उसकी साज - सज्जा, चेहरे और देह में। वह सजी -धजी रहे तब भी उसे शिकायत, न सजे तब भी। सुना तो यह भी है कि उसने दीपाली के कई न्यूड फोटो और गंदे वीडियो नेट पर डाल दिये थे। किसी और को चाहता था तो इसे तरह - तरह से अपमानित करता रहता था। घर का सारा काम करती थी तब भी सास दिन भर परेशान करती, डांटती रहती थी। अब कहां जाती वह? पिता पहले ही चल बसे, भाई रखने को तैयार नहीं। जाने क्या बात हुई कि उसने पंखे से लटककर..’

    मैं सिहर गई।

    ‘कोई भी समझ सकता है कि अपना ही पति अगर इंटरनेट पर पत्नी की न्यूड तस्वीरें डाले, पत्नी को घर पर रख छोड़, किसी और को प्यार करे तो पत्नी को कैसा लगेगा... और फिर मायके में कोई पूछने वाला नहीं। क्या करती, कैसे जीती, कोई उपाय ही नहीं था।’ ममता मैम अपनी रौ में बोलीं।

    मेरा दिल रो पड़ा। तो यह था उसका ‘गुडबाई आंटी’

    ‘भई, हम तो चेहरा संवार सकते हैं, ज़िंदगी नहीं संवार सकते।’ नीलम बोली। ‘किस्मत पर हमारा क्या वश!!’

    मैं ठक बैठी रही। ममता मैम कहे जा रही थीं ‘औरत तो हर तरह से पति की पसंद की बनने को तैयार रहती है। अगर पति को लंबी पत्नी चाहिए थी, तो नाटी पत्नी बेचारी सारी ज़िंदगी पति की बगल में हील पहने खड़ी होगी, चाहे इसके कारण कमर में तकलीफ ही क्यों न हो जाए; पति को गोरी चाहिए थी और पत्नी सांवली या काली है, तो बुढ़ापे तक गोरेपन की क्रीम लगाएगी, किसिम-किसिम के नुस्खे आजमाएगी कि रंगत सुधर जाए पर पति कभी कहेगा नहीं कि तुम जैसी भी हो, मुझे पसंद हो। कम पढ़ी - लिखी हो या सुंदर नहीं हो तब तो पति का हक बनता ही है कि घर पर पत्नी को रोती छोड़, पढ़ी - लिखी या सुंदर औरत से दोस्ती कर ले, अफेयर चलाए। कम बोलने वाली हो तो हो सकता है कि पति कह दे कि तुम तो हंसती - बोलती ही नहीं, मुझे खिलखिलाती, हंसती लड़कियां पसंद हैं.. और ज्यादा बोले तो क्या पता पति ऐसा मिल जाए जिसे गंभीर, चुप्पी, पढ़ाकू -सी पसंद हो। तो जो भी हो जी, लड़की को तो हर समय कोई और बन जाने, पति की पसंद में ढल जाने को तैयार रहना होता है। दीपाली ने भी ऐसा ही करने की कोशिश की, पति और सास जैसे कहें, वैसे ही जीने की कोशिश की पर उसकी किस्मत ही खराब थी। बैड लक नहीं तो और क्या है यह कि लड़की कठपुतली बनकर जीने को तैयार है तब भी आप...’

    वातावरण भारी हो गया। इतनी सारी चुप्पियां, इतनी सारी अनकही सिसकारियां, इतने सारे अंदर छुपे दुख सतह पर आ चेहरे दिखाने, दिल के अंदर झांकने लगे।

    ममता मैम कहे जा रही थीं ‘अब देखो न, क्या शादी के समय किसी लड़के से किसी ने पूछी है उसके कंधे की माप, कमर की माप.. जैसे कि लड़की की जानना चाहते हैं। छातियां बढ़ाने या घटाने के विज्ञापन, इतने तरह के लोशन, क्रीम, रंगत निखारने की तरकीबें.. उसके मुकाबले लड़कों के लिए कितने विज्ञापन हैं? क्या आज भी शादी के वक्त मिडिल क्लास में कोई परवाह करता है कि लड़के का शरीर कैसा है! दुबला है? चलो लड़की खिला - पिला के ठीक कर देगी.. मोटा है? कोई बात नहीं, चलता है। नाटा है? तो क्या हुआ, मोटा कमाता तो है न!! जो भी जैसा भी है, लड़की का काम है उसे वश में करके रखना, उसके दुर्गुण नहीं देखना और उसके पसंद की बनकर रहना!! पति जैसा चाहे, वैसे ही ढल जाना। पर लड़के को यह नहीं सिखाते कि पत्नी के दुर्गुण मत देखो, उसे कोई और बनने पर मजबूर किए बिना प्यार करो..’ वे लगातार बोले जा रही थीं। मैं अपने अंदर मौन बहते दुखों को संभालती, चकित हो रही थी कि वे मुहल्ला पुराण सुनाने के अलावा सोच भी सकती हैं, तर्क भी कर सकती हैं!

    ‘चलो, जाने वाली तो चली गई। अब हम तो जी लें।’ अनामिका बोली, तो सब चौंक गए। फिर रुके हुए हाथ चलने लगे। बाल कट -कटकर नीचे गिरने लगे, भौंहें तराशी जाने लगीं, चेहरा चमकाने को मालिश शुरू हो गई। मेड को चाय बनाने को कह दिया गया... धीरे -धीरे मुस्कराहटें पसरने लगीं, ठहाके हवा को फोड़ने लगे।

    पर कुछ था जो मेरे अंदर ठहर गया।

    दरअसल मेरे दिमाग ने सुनना बंद कर दिया था। एक ही धुन बज रही थी अंदर कि वह मर गई है, वह अब इस दुनिया में नहीं है... मैंने उसके लिए सिर्फ सोचा, कुछ किया क्यों नहीं? मैं अपराधी हूं। सोचते -सोचते इतनी देर कर दी मैंने कि वह मेरी पहुंच से इतनी दूर चली गई। अब हाथ अब उसे छू नहीं सकते.. और जब यहां इकट्ठा महिलाओं को उसके बारे में इतना सब मालूम है तो मुझे क्यों मालूम नहीं हो पाया पहले? सब मेरी गलती है, मेरी! वह मेरी तरह बनना चाहती थी और मैंने ही उसको धोखा दिया। मैं उसके घर जा सकती थी। चली जाती तो सास और पति को मालूम तो होता कि कोई है जो दीपाली के साथ है, वह अकेली नहीं है।

    यह एक भयावह अंत था।

    मेरा दिमाग सुन्न हो गया और पार्लर की हवा में फैली खुशबू मुझे विकर्षित करने लगी। वहां बैठी लड़कियों की खिलखिलाहट और ठहाके चुभने लगे। उन ठहाकों और खिलखिलाहटों के पीछे बसा चीत्कार साफ सुनाई पड़ने लगा।

    मैं बिना बाल कटवाए, बिना फेशल करवाए उठकर बाहर आ गई। वह नहीं है, वह जा चुकी है– मैंने खुद को याद दिलाया। क्यों जा चुकी है वह और उसने मुझे पूरा सच क्यों नहीं बताया? ये न्यूड फोटो, सेक्स वीडियो वाली बात क्यों नहीं कही? हम एक - दूसरे को अपने जीवन का पूरा सच क्यों नहीं बतातीं?

    हम दुख भुगतती और उसे खुद ही न स्वीकारती औरतें क्यों है?

    मेरी आंखों में आंसू आने लगे। काश कि दीपाली ने खुद को सजी-धजी गुड़िया बनाए रखने और पति की फरमाइश पर पार्लर आने से इंकार कर दिया होता! पर मुझे एक झटका लगा। वह बिन पढ़ी, बिन मां -बाप की बेटी ऐसा कैसे कर सकती थी, जब अपने पांवों खड़ी, पीठ पर पिता का हाथ होते हुए भी मैं ऐसा नहीं कर पाई? हमेशा यही तो सोचती रही कि कैसे खुद को सागर की नजरों में काम्य बनाए रखूं। शादी होते ही पति की पसंद का खाना, उसी के पसंद की घर की साज - सज्जा, उसकी पसंद से स्लिम बनी रहने के चक्कर में बार -बार मालन्यूट्रिशन की शिकार होना.. पति की पसंद के बाल कटाने के चक्कर में एक बार तो मैंने बाल इतने छोटे करा लिए कि बंदरिया -सी दिखने लगी थी। ऑफिस में बॉस से लेकर, सहेलियां तक परेशान हो गई थीं। मुझे रोना आने लगा। फिर मेरा रोना और तेज हो गया।

    जी भरकर रो लेने की ख्वाहिश में मैं बगल के पार्क में जाकर बैठ गई। दीपाली, दीपाली.. तुम ऐसे हार क्यों गई? एक बार तो कहा होता, बस, एक बार! काश कि थोड़ी -सी हिम्मत की होती.. पर वह तो जैसे मेरी आंखों के सामने मुझे ‘गुडबाई आंटी’ लिखकर, बार -बार पंखे से लटक रही थी, लटकी हुई दम तोड़ रही थी।

    काफी देर बाद मैं उठी। मैंने पार्लर को मुड़कर देखा। नहीं, वह बदसूरती और खूबसूरती को पाटती कोई जादुई जगह नहीं थी। वह दोजख की आग थी, जिसमें सिर्फ इस वक्त वहां बैठी लड़कियां या महिलाएं नहीं, सारी नारी जाति जल रही थी - सारी की सारी नारी जाति! उनको कोई और बनने, किसी और के वैल्यू सिस्टम के अनुसार सजने -जीने को उकसा रही थी यह जगह!

    मैं पार्लर से उलटी दिशा में भारी कदमों से चलने लगी।

    अब ज़िंदगी में कभी पार्लर नहीं जाऊंगी– मैंने अनचाहे भी बार -बार आ जाते आंसुओं के साथ सोचा।

    पर क्या मैं कभी सिखा पाऊंगी किसी को कि वह सिर्फ खुद से प्यार करे, भीड़ में लोगों की अपनी ओर उठती निगाहों से नहीं? आखिर मैं पूरे समाज की इस सोच से कैसे लड़ पाऊंगी कि वह किसी लड़की को काम्य समझी जाने के लिए खूबसूरत बनने पर जोर नहीं दे? पुरुषों को रिझाने के खेल में उसे न डाले?

    पता था मुझे कि हमें खुद को प्यार करना नहीं, खुद को प्यार किया जाना भाता है!

    मैं घर वापस आकर आईने के सामने खड़ी हो गई। मैं रो रही थी। मां की सलोनी, गोल -मटोल गुड़िया रो रही थी। वह बहुत जल्दी बूढ़ी हो गई थी और उसे ऐसा लग रहा था मानो किसी ने उसका सबकुछ छीन लिया है। जार -जार रो रही थी वह प्यारी गुड़िया, जिसने युवावस्था में अपने आकर्षक चेहरे, आइडियल फिगर की इतनी धूम मचा रखी थी। आईने के सामने खड़ी उस बदशक्ल, बूढ़ी, स्थूलकाय गुड़िया को जैसे कोई चिढ़ा रहा था - मां की बूढ़ी गुड़िया, मां की बूढ़ी गुड़िया.. बदशक्ल, भद्दी, मोटी गुड़िया!! मैं हैरान थी - बदशक्ल, भद्दी, मोटी और मैं?? मैं परेशान थी - मां की बूढ़ी गुड़िया? पर बार्बी कभी बूढ़ी नहीं होती। जो बूढ़ी हो जाए, वह बार्बी नहीं हो सकती। मैं हिचक - हिचक कर रोने लगी।

    ‘मां, आपने भूरे बाल और गोरे गालों वाली अपनी चिकनी गुड़िया को सिखाया क्यों नहीं कि सफल, काम्य बनी रहने को पति की पसंद की गुड़िया बनी रहना जरूरी नहीं! उस बार्बी -सी बनना कतई जरूरी नहीं जिसे उसके अनजाने - अनचाहे उसकी कीमत मांगकर, उससे दहेज लेकर, उसका मालिक बना पति मनमर्जी मरोड़ -तोड़ रहा होता है। उससे खेलता -खुश होता, उसपर अपना हक जताता, कभी सीने से लगाता, कभी लतिया रहा होता है।’ मैंने सुबकते हुए खुद से बुदबुदाकर कहा।

    ‘पापा, मुझे माफ कर दो। आपकी बात ही सही थी कि मुझे किसी ऐसे को खुद को सौंपना चाहिए था जो चेहरे नहीं, बुद्धि की कीमत लगाता– पर मैंने आपकी सोच का साथ नहीं दिया।’

    मेरा रोना और तेज हो गया, पर दो हजार किलोमीटर दूर रहते मां या पापा ने नहीं सुना।

    गुड़िया बनी रहने की कोशिश में दीपाली और मैं दोनों मारे गए थे। उसका मरना सबों को पता था पर मेरा रोज –रोज, धीरे -धीरे मरते जाना किसी को पता तक नहीं था!

    रोती हुई मैं, खुद और दुनिया की हर लड़की को, पार्लर जाने या किसी बार्बी डॉल में तब्दील होने की कोशिश से बचा लेना चाहती थी। मैं ठानना चाहती थी कि अनाकर्षक दिखने की कीमत पर भी दुनिया में अपनी जगह बनाऊंगी। अब साज -सज्जा की जगह वह करूंगी जो करना दिल को भाता हो। पर कल्पना में दिखते दृश्यों ने मुझे दहला दिया। सागर किसी और की बाहों में था...और ऑफिस में बॉस मुझे किसी भी फंक्शन, किसी भी मीटिंग में प्राइम रोल नहीं दे रहे थे। कह रहे थे वे कि जो प्रेजेन्टेबल है, वही दिखाया जा सकता है।

    मेरे सर पर हथौड़े पड़ने लगे। मुझे पता था कि खुद से किए अपने वादे पर मैं टिक नहीं पाऊंगी। आज तो वापस आ गई पर अगले हफ्ते पार्लर जरूर जाऊंगी।

    (कथनः जुलाई-सितंबर, 2012)

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