कूचाए नीमकश Pratyaksha Sinha द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कूचाए नीमकश

कूचाए नीमकश

दरख़्त के सुर्ख पत्ते अचानक आये हवा के झोंके से गिरते हैं । धीमे धीमे तैरते लहराते, एक के बाद एक । सब जो खड़े हैं, फ़र्रूखज़ाद, नुसरा बी, हमदू, कुबरा, हुमरा, अफ़सान, रसूल बद्द्रूदीन, छोटे छोटे बच्चे, बुज़ुर्ग, बूढ़ी ख़वातीनें, सब तस्वीर खिंचवाने की संजीदगी में शक्लों को गंभीर दुरुस्‍तगी में सजाये, अचानक बालों पर, टोपियों और स्कार्फों पर गिरते पत्तों की छुअन के अहसास में मुस्कुरा पड़ते हैं । कुछ अचकचा कर ऊपर देखते हैं । उस एक लम्हे की हँसी के बाद फिर समेट लेते हैं अपने आप को, देखते हैं कैमरे की तरफ संजीदगी से, उत्सुकता से । उनकी आँखों में सुबह की चमकीली धूप का अक्स है ।

नाजिम दो तस्वीरें खींचता है । एक हँसते हुये ऊपर देखते चेहरे जिस पर सुर्ख पत्तियों की बारिश है, खुशी और हँसी की रौशनी है और दूसरी, संजीदा ज़रा ग़मज़दा, ज़िंदगी से मार खाये चेहरों की तस्वीर ।

ऐन वक्त जब नाजिम सुर्खपत्तियों वाली रौशन तस्वीर खींच रहा था, कोई एक तस्वीर और भी खिंच रही थी, पीछे से , लोगों के पीछे से । इस तस्वीर में सबकी पीठ दिखाई देती है, सिर्फ नाजिम सामने से दिखता है, तस्वीर खींचते हुये ।

मुसाफिर को नहीं पता कि नाजिम की तस्वीर में, लोगों की भीड़ के पीछे, ज़रा धुँधलाये भेस में, थोड़ा अलग हट कर एक शख्स दिखता है, जो कैमरा आँख से सटाये ज़रा झुक कर तस्वीर खींचे जाने की तस्वीर खींच रहा है ।

*****

कूबड़ के शरीर पर खिला उसका सलोना चेहरा लोगों को परेशानी में डाल देता है । इतनी सुंदर, इतनी बदसूरत ? ऐसी खूबसूरत ? माने ओह कैसी बला ! दोनों बातों के साथ-साथ खुलने की भयानक हैरानी होती है । लोगबाग पलट पलट देखते हैं । फिर सिहर कर मुड़ जाते हैं ।

वो कहती है शहर में जो नदी बहती है ..

हमदू परेशान बोलता है, कौन सी नदी ? कैसी ? यहाँ तो झील है सिर्फ ..

कुबरा के सलोने चितवन एक भेदभरी हँसी थिरक जाती जिसमें सौ मन गमों का बोझ होता । धीमे करवट फेरकर, हमदू की तरफ पीठ करके कहती,

है नदी, जो देखना चाहे, है उसके लिये..

उसके बाद कुबरा एकदम से हमदू की तरफ पलटती तो उसके हथेलियाँ फैल जातीं, जैसे उन उँगलियों से पानी छूटा बहता हो । जैसे बाज़ दफ़ा आँखों से बरबस आँसू निकलने लगते हैं । जीवन भर निकलते ही रहे । रंडी खाने में रंडी होकर बरसों एक गाहक न जुटा पाई, बावर्चीखाने में रोटियां सेंककर दिन निकाले । अपने हारे पर गरम सीसे की तरह पिघलती रही है कुबरा, धीमे-धीमे । कितने बरस । ..

ऑंखें मूंदे कुबरा हमदू के पसीने और दालचीनी की मिली-जुली गमक में भीजती रहती है । हमदू कुबरा के कूबड़ को अपनी छाती में भर लेता है । कुबरा सोचती है, सच है ये, सचमुच में सच, यह ऐसा गरम जिस्‍म किसी का ! जैसे जंगल में दिखा था, धीमे लय में उठता गिरता, पत्तियों से झरता, कितना सुंदर, कि मर जाती कुबरा । देखा था फिर तुरत हट भी गई थी । यही था न जिस्म का पानी हो जाना, नदी हो जाना । उसकी हथेलियाँ छाती से होती पेडू तक घूमती हैं, लहर पर लहर ।

बाहर बर्फ़ गिरती है, लकड़ी के दर्रों से, मोमजामे के बीच से, बहकती हवा भीतर आती है । सिगड़ी की आग छत के लक्कड़ को स्याह किये जाती है । जाने कितने बरसों की कालिख । कंबल की खुरदुरी गर्माहट में ये पहला जाड़ा है कुबरा के लिये ।

या खुदा, धीमे से उसकी साँस बुदबुदाती है ।

किसी पुरानी बात की टीस पर बेवक़ूफ़ फिर चुपके से रोने लगती है ।

****

नाजिम चुप देखता है । एक मक्खी उड़ती लकड़ी के तख्त पर मंडराती है । हवा में खुनक है । कई दिन बाद कुछ फीकेपन से ही सही, धूप अलबत्ता चादर से मुंह निकाले बाहर हवा में फैल गई है । सड़क के किनारे बर्फ़ के गँदले ढेर हैं । सुबह सड़क साफ करने वाले फावड़े से बर्फ हटा गये हैं । शहर में सिर्फ एक सड़क है, शाहराह । बाकी गलियाँ हैं । इस सड़क का ये सबसे आबाद हिस्सा है । सामने कहवाघर है, जहाँ से मिली जुली आवाज़ें चहकपने से उठती हैं खिड़कियों के रास्ते, कहवा और कबाब के भाप और खुशबुओं के संग मिली कुछ देर फिज़ा में डोलती हैं । कहवाघर से लगा बावर्चीखाना है जहाँ गज़ब का शोरबा, कोर्मा ए रवाश, चपली कबाब और मोशपुलाव मिलता है । अच्छे दिनों में नाजिम कई बार फ़र्रूख़ज़ाद के लिये लिफाफे में मलीदा और खज़ूर लिये गया है ।

कहवाघर के एक तरफ अज़ ज़हरा बैंक है, और दूसरी तरफ किताबखाना । किताबखाना झील से सटी गुँबदों वाली इमारत है जिसमें पढ़ाकुओं के लिये एक ज़वियत कुर्रा भी है । जाने कहाँ कहाँ की किताबें, गिलगमेश की दास्तान और असुरबनिपाल के अफ़साने, इब्न अल नदीम की फिहरिस्त, अबु अल हसन की मुरुज़ अध दहाब वा मआदिन अल जवाहिर, सुल ऐम इब्न कैस की किताब, क़ुरान और हदीस और पुराने दस्तावेज़ और खुशखती (कैलीग्राफी), चाँदी और काँसी के सिक्के, पुरानी जर जर किताबें, नक्शे, जाने क्या क्या ।

नाजिम की दुनिया उस दुनिया से अलग है । कहवाघर अलबत्ता उसे पुकारता है जब तब । आज खासकर जब ठंडी हवा बर्छी जैसी है, तब कहवाघर की गर्मी सपने में देखे सुकून की गर्माहट है। कुछ हाथ में पैसे आ जायें तो एक करारी नान खटाई और गर्म भाप उड़ाता कहवा ।

लकड़ी के बक्से पर बाबा आदम के ज़माने का पिनहोल कैमरा है । ठीक सामने काठ की कुर्सी है । बगल में तख्त है, उसपर कागज़ और केमिकल्स और ट्रे हैं, तुरत फुरत का डॉर्करूम । धुँधलाये, किसी ज़माने लाल रहा होगा, अब जाने क्या फीका रंग है वाला एक विनायल का चौकोर बक्सा है । उसमें अल्मूनियम की पट्टी लगी है, उसी का कब्जा है । एक छोटा ताला भी ।

भूरे ओवरकोट की जेब में हाथ छुपाये नाजिम सड़क देखता है । आधे किलोमीटर एकदम सीधे जाती सड़क फिर एक बार बायें घूमती है, फिर पहाड़ी टीले के पीछे जाती अचानक गायब हो जाती है । शहर टीले के बाद खत्म हो जाता है । हवा में नाजिम की दाढ़ी फरफराती है । उसकी नाक का कोना ठिठुर कर लाल हुआ जाता है । उसकी भूरी ललछौंह आँखों में मरी मछली सी उदासी है । कुछ साल पहले तक उसकी कमाई ठीक ठाक हो जाती थी । फ़र्रूख़ज़ाद को कभी घुमा भी लाता, कभी उसके लिये सूखे फल और लटकती बालियाँ भी खरीद लेता । तब फोटो खिंचवाने लोग आते थे । कारकुल पहने बुज़ुर्ग, लाल फटे गाल वाले बच्चे, हिजाब लपेटे बूढ़ी ख़वातीन और कभी बहुत अचक्के कोई एक जवान लड़की, शरमाती घबराती ।

***

इस छोटे से शहर में अरसे तक नाजिम फोटोवाला इकलौता तस्वीरें खींचने वाला हुआ । पुराने लकड़ी के बक्से से उसने खुद ये कैमरा बनाया था । कई दिन की मशक्कत और दिमाग लड़ाने के बाद सही पिनहोल और डब्बे के पीछे फिल्म वाली कागज़ की सही दूरी बन पाई थी । फिर कूट का लीवर और पुराने काले साटन का अम्मी के बुर्के का खोल ।

मगर सबसे बड़ी बात कि नाजिम की नज़र थी । उम्दा थी । उसमें उन चीज़ों को देखने का हुनर था जो सतह पर दिखती नहीं थीं । चेहरों के पीछे छुपी दुनिया नाजिम देख लेता । आँखों की पुतलियों और चेहरे की लकीरों से पढ़ लेता किसी के भी अंदर के राज़ को । और जब तस्वीर खींचता तो चेहरे के साथ उन सब दुनियायों की तस्वीर भी उतार लेता । कई बार लोग हैरान होते खुश होते, बिना जाने, बिना समझे कि तस्वीर देख क्या खुशी मिल रही है । कई बार ऐसा भी होता कि लोग बेआराम हो जाते । अंदर कोई कील ठुक जाती, कुछ ऐसा दिख जाता जिसे बरसों खुद से छुपाये चलते थे ।

तस्वीरें, खुरदुरे कागज़ पर ऐसी उतरतीं जिनके किनारे पुछ जाते और चेहरे की तीखी कटान नर्मी के धुँधलायेपन में मुलायम हो जातीं । जैसे किसी ने हल्के हाथ चेहरों के शिकन सलीके से पोछ कर उतार लिये हों । आँखों की नज़र जितनी दूर जाती दिखती उतनी ही भीतर उतरती महसूस होती । कोई पूछता नाजिम से कि ऐसी तस्वीरें कैसे उतार लेता है तो नाजिम शर्तिया भौचक नासमझी से देखता मानो जानता न हो बात हो क्‍या रही है ।

****

किताबखाने से सटे झील में चीड़ और देवदार के दरख्तों का अक्स है । उस नीले आसमान का भी और किताबखाने के नीले गुँबद का भी । दूसरे किनारे पर बत्तख और मुर्गाबियों का झुँड उतरता है ।

सड़क की तरफ वाले हिस्से पर तरतीब से लोहे के नक्काशीदार बेंच लगे हैं । जब धूप निकलती है तब बूढ़ी औरतें बच्चों के संग यहाँ बैठती हैं, अखरोट और चिलगोज़ों के लिफाफे थामे । बच्चे पानी के किनारे गर्म कपड़ों में मुँह से भाप उड़ाते खेलते हैं । उनके गाल और होंठ तीखी ठंडी हवाओं से ऐसे फटे पड़ते हैं मानो खून छलका अब कि तब । सफेद बालों वाली औरतें ऊनी शाल लपेटे धूप में आँख मिचमिचाकर बदन गरमाती बच्चों की हाँक लगातीं । कभी कभार कोई दादी नानी अपने दुलारे नाती पोते की तस्वीर खिंचवाने नाजिम की तरफ चली आती ।

सड़क की दूसरी ओर नाजिम अपने तख्त पर बैठा सड़कपार के नज़ारे पर आंखें फेरता है । मन के गहरे कुछ चिरा जाता है । उसे लगता है उसके भीतर कोई अजनबी आदमी है जिससे कभी वो मिला नहीं, जिससे शायद कभी मिलने की ख्वाहिश भी न हो । उसकी छाती भारी धँसती है । झील के पानी से कोई चीज़ उठकर उसके अंदर समा जाती है । वो चीज़ खौफ़ है क्या है नहीं मालूम ।

नाजिम को लगता है कोई बासी चीज़ उसके भीतर सड़ रही है, पानी में छूटे कपड़ों की बू । एक जोड़ी सीली डरी डूबी आँखें फिर उसकी पीठ से चिपक जाती हैं । दिलयार की लाश उसके कँधों पर लदी रहती है हमेशा । एक लमहा बस । सर से पैर तक लाचारी में नहाये नाजिम चाहता है शिद्दत से उस लमहे के पहले फिर से ज़िंदगी शुरु करे एक बार । पाक साफ ज़िंदगी ।

कभी मन करता है झील के उसपार देवदार और सनोबर के जँगलों में भाग जाये । कभी किताबघर में रखी किताबों और लकड़ी की आदमकद अलमारियों की अनजान तस्वीरें खींचने की सोचता । उस बूढ़ी औरत की, जिसके चेहरे पर कितनी अथाह झुर्रियाँ हैं पर जिसकी आँखें आग में जलते अँगारों सी चमकती हैं । उसका मन होता है एक बार बस ऐसे ही उठ कर चल पड़े उस सड़क पर, टीले के पार, बस चलता जाये । बस ऐसे ही और जो कभी लौटे तो कहवाघर में घुसे, ऐसे जैसे इस शहर में अजनबी हो ! कहवाघर की मालकिन नुसरा बी को कहे, ऐ फूफी, इन मर्तबानों और मशकों में जो भी बेहतरीन हो लाओ, फिर अपनी थैली खनखनाये और गाहकों की तरफ रिश्तेदारी से देखे और कहे, हाज़रीन आपको जो पसंद हो पियें खायें, बीबी सब मेरी तरफ से ।

कुबरा के सलोने मुख को देखकर बरबस हँस दे, फ़र्रूखज़ाद के मासूम रौशन चेहरे की रौनक से अपना दिल जगमग कर ले, दिल पर कोई स्याह छाया न हो, कोई अँधेरी रात न हो।

नाजिम के कँधे गिर जाते हैं । ज़मीन की नम मिट्टी में खोह बनाये दुबक जाने को जी चाहता है, अकेले, एकदम अकेले ।

***

बकरी के दूध से बने सूखे पनीर का टुकड़ा चुभलाते नाजिम विनायल वाले बक्से पर हाथ फेरता है । तख्त के पीछे जो दरख़्त है उसकी शाखों से बँधे रस्सी पर तस्वीरें परचम सी फरफराती हैं, वो सारी तस्‍वीरें जिनके मालिक जाने किस गुमशुदगी में तस्वीर खिंचवाकर फिर साथ लिये जाना भूल गये । नाजिम ऐसे तस्वीरों को फेंकता नहीं । सब उसके साथ रहते हैं, हवा में लहराते । मेंहदीबाल वाले बुज़ुर्ग, वो खिच्चा लड़का जिसकी मूँछ की रेखा भी अब तक साफ न हुई थी, जिसके गले में चिड़िया फुदकती । नीली आँखों वाला वो नौजवान जिसका चेहरा किसी फरिश्ते सा पाक दिखता, और वो डकैत गलमुच्छों वाला अधेड़ जिसने तर्जनी उठाकर नाजिम को होशियार किया था कि तस्‍वीर में मेरे नाक का मस्सा न दीखे, हां !

चमकती धूप में नहाये कैसे सजीले दिन थे ! .. नाजिम मन ही मन मुस्‍कराने की कोशिश करता तो उसकी सांसें भारी हो जातीं ..

***

ऐसा नहीं कि शहर में अचानक तस्वीरें खिंचवाने का शौक खत्म हो गया । इतनी बात हुई कि सड़क की पहली इमारत, जो कि एक सराय थी, उसके अगले हिस्से में किसी अजाने मुल्‍क से कोई परदेसी मुसाफिर एक नये कैमरे के साथ नमूदार हुआ । आया था घूमने वादियों में । नये ढंग का एक अच्‍छा, नया, कैमरा लिए । उसके कैमरे में आगे को निकली, एक लम्बी नली थी जिससे दूर बर्फ़ ढकी पहाड़ियों की तस्वीरें भी साफ सच्ची उतरती थी । मुसाफिर ने खेल खेल में कहवाघर में और झील के किनारे और मस्जिद की नक्काशीदार दरवाज़ों और मीनारों की तस्वीर खींचनी शुरु की, फिर बच्चों की और हँसते आदमियों की, लेटकर, बैठकर, झुककर । फिर उसने तस्वीरें दिखाई . सब ऐसी जैसे सचमुच से ज़्यादा सच हो, ऐसी रंगीन कि इतना रंग पहले किसी ने क्‍या देखा होगा, इतना साफ़ कि आँखें मल-मल देखो फिर भी मटमैला न हो ।

जाने कैसा मुसाफिर था जो आया फिर बस यहीं का होकर रह गया । सराय के कमरे से हट कर बुखरान के मकान की दोछत्ती उसका डेरा बना । सारा सारा दिन किताबखाने में बिता देता, फिर थके चेहरे पर भोली हँसी गिराये कहवाघर बैठने चला आता । देर रात तक रबाब और दिलरुबा के थाप पर लोगों की हँसी गूँजती । मेज़ पर कुहनी गड़ाये, दोनों पंजों पर ठोढ़ी टिकाये मुसाफिर की आंखों में चमकते डोरे कौंधते ।

फर्रूख़ज़ाद ही खबर लेकर आई थी कि किताब लिखने आया है । रहेगा साल दो साल । फिर खबर हुई खर्चे पानी के लिये मुसाफिर ने लोगों की तस्वीरें खींचनी शुरु की । चमकते कागज़ पर लोगों के सपने । टीले के पहले दायीं तरफ की पहली गली में दिलयार की बेवा हुमरा के फलों की दुकान के एक हिस्से में उसने अपनी दुकान खोल ली । आधे दिन वहाँ बैठता, फिर किताबखाने में जाकर गुम हो जाता । कोई तसवीर खिंचवाने वाला आता तो हुमरा अपने छ: साल के अफ़सान को किताबखाने दौड़ा देती ।

मुसाफिर के चेहरे में कोई ऐसी कशिश थी कि सब उसे खुश करना चाहते हैं । बूढ़ी औरतें उसे अखरोट और रसभरी के लिफाफे पकड़ाती हैं, बच्चे अपनी दूधिया हँसी । औरतें अपना दिल । बुखरान की दोछत्ती अचानक आबाद हो गई है । मुसाफिर भी लोगों को छोटी छोटी चीज़ें पकड़ाता रहता है, किसी का छोटा कोई काम कर दिया, किसी को अपनी खुशदिली ही दे दी । लेकिन बाज़वक्त मुसाफिर अपने कमरे में बँद हो जाता है । कई कई दिन निकलता नहीं । नौजवान दोछत्ती के बाहर गिरोह बनाये जुटते, फिर मायूस लौट जाते हैं । मुसाफिर के कमरे का दरवाज़ा बन्द रहता है । फिर अचानक एक दिन धूप निकलती है और कहवाघर के सामने रंगीनी का आलम सज जाता । मुसाफिर के गिर्द बातों की चरखियाँ नाचने लगती हैं ।

***

नाजिम के भीतर धीमे-धीमे एक टीस उठती, फिर अंदर-बाहर समूचे अपने गिरफ़्त में ले लेती । एक आह् छूटती, नाजिम सोचता हुमरा ये कैसी दुश्मनी निभाई तूने । हारे मन के वहशीपने में संगदिल ख़याल उठता बीच सड़क हल्‍ला मचाकर सबके आगे भेद खोल दे, कि बदज़ात मुसाफिर के संग फँसी है । फिर ऐसी सोच पर खुद शर्मिन्दा हो जाता है । शहर की दूसरी तरफ, जहाँ फलों के बगान थे, हुमरा अपने टप्परगाड़ी पर फलों की टोकरी लिये लौटती । नाजिम के तरफ से गुज़रती तो एक ठसक से उसकी तरफ देख लेती, फिर अपने खच्चर को पुचकारती ललकारती एक बार गुज़र जाने के पहले गुमान से देखती, चली जाती ।

रात अपनी बाँहों में सिर टिकाये नाजिम छत ताकता । फ़र्रूखज़ाद उसके सीने में दुबकती, फुसफुसाकर कहती, सब ठीक हो जायेगा । बाहर ठंडी हवायें सपसप बहती ।

नाजिम के कमर से बँधी थैली में सिक्कों की खनखनाहट फीकी होती जाती थी ।

किसी बूढ़े दरख्त के नीचे मसली पत्तियों की बू नाजिम के भीतर उतरती है । कभी देखा था उसने दो साँपों को आपस में गुँथे, छटपटाते, प्यार करते । यही हुमरा थी, और यही उसका शरीर, पक कर फट जाता बदन था । घास पर पसरा । हरी नीली नस की बूटियाँ बिखरी थीं । जँगली बूटियाँ । कैसे किस तरह हो गया था उस दिन ये सब ? हुआ भी था ? तस्वीर में सब्ज़ रंग की बहुतायत थी, और पीली रौशनी । एक जिस्म था, जो आधा दिखता, ज़्यादा ओझल छुपा रहता । जो दिखता उसकी रेखायें रौशनी में घुलती जातीं । उस चेहरे पर समन्दर की नीली रंगत थी, उसकी छाती पर दो नर्म कबूतर थे और उसकी नाभि के नीचे एक छोटा नर्म घोंसला था जहाँ एक नन्हा पागल परिन्दा नीमबेहोशी में अपने पंख फड़फड़ाता । नाजिम की हथेलियों से परिन्दा बेकाबू उड़ जाता बार बार।

तस्वीर बक्से के सबसे भीतर वाले खाने में छुपा रखी थी । उसके कोने मुड़ चले थे, उसका कागज़ मटमैला, जबकि जब से रखा था कभी निकला न था । सिर्फ देखने की सोच भी सच के देख लेने से ज़्यादा होती है कई बार ।

***

सारा सारा दिन नाजिम अपने तख्त पर खुले आसमान के नीचे बैठा रहता । जिस कुर्सी पर बिठाकर वो तस्वीरें उतारता रहा था वो खाली पड़ी रहती । कुर्सी के पीछे दरख्त के पत्ते सुर्ख लाल थे । तस्वीरों में उनकी रंगत एक मुलायमियत से आती । मुसाफिर की तस्वीरों में आएगी कभी वो नरमी ? वह रुमान वह रहस्‍य ला पाएगा मुसाफिर ? नाजिम सोचता लोग देखते नहीं क्या । तस्वीर सिर्फ तस्वीर नहीं होती, उसमें कितनी तो दुनिया होती है उसका क्या ?

नाजिम सोचता उसका शरीर सिकुड़ता जाता है । सिर्फ एक दिन आँखें बचेंगी जो वो सब देखेंगी जिसे और कोई नहीं देखता । हुमरा जो फ़र्रूखज़ाद की खालाज़ाद बहन है, अपने खाविंद दिलयार के बावज़ूद नाजिम से दिलजोई करना चाहती थी । जिसे एक के बाद एक मर्द की संगत चाहिये, दिलयार फिर नाजिम फिर मुसाफिर फिर कोई और । मर्दों को फुसलाती बहकाती जवानी झलकाती । जिसकी ज़रूरतें आग की तरह लपट मारतीं । जिसके शरीर से तीखी पकड़ लेने वाली महक उठती । और नाजिम जो फ़र्रूखज़ाद के सिवा और किसी को नहीं देखना चाहता । और हुमरा जो अब सिर्फ डंक मारना चाहती थी । और दिलयार जो कुछ नहीं जानता था । और बिना कुछ जाने मौत के गहरे गायब हो गया था ।

फ़र्रूखज़ाद को धीमे से खींचकर नाजिम सटा लेता है । उसके साँसों की संगत में सुकून है । थैली अब बिलकुल नहीं खनखनाती । नाजिम सोचता है अबकी किताबखाने जाकर हज़रत नसरूद्दीन से कहेगा यहीं मुझे किताबों की सफाई और देखरेख के लिये रख लो । जितना दोगे उतने पर करूँगा । या फिर लक्कड़ के कारखाने काम माँगने चला जाये, या बगानों में या भेड़ बकरियों की देखरेख का ही काम पकड़ ले । या फिर डाकखाने जाकर कोई पैरवी करे ।

नाजिम का दिमाग चलता नहीं अब ।

***

पिछले तीन दिनों से नाजिम ने अपनी दुकान खोली नहीं । कैमरा धूल खाता पड़ा रहा । फ़र्रूखज़ाद ने टोका तो उदासीन नज़रों से उसे ताक फिर बाहर पत्थर पर बैठा चाकू से लकड़ी के छल्ले तराशता रहा ।

फिर एक दिन उठा और देवदार के दरख्तों की तरफ चल पड़ा । दिन भर रात भर गायब रहा । अगली दोपहर लौटा तो फ़र्रूखज़ाद के कलेजा मुंह को आये की चिंता और फिक्र को बेपरवाही से अनदेखा करता, बिस्तरे पर जा लेटा और चौदह घँटे लकड़ी के कुन्दे सा बेहोश सोता रहा । फ़र्रूखज़ाद इधर उधर छोटे काम करके कुछ खाना लाती रही, वहशी जुनून में बड़बड़ाती रही । नाजिम ने एक मर्तबा को भी मुंह न खोला । तीन दिन उसी सूरत जबान सिले टिका रहा, फिर जो गायब हुआ तो समूचा एक हफ्ता गुज़र गया । फ़र्रूखज़ाद का चेहरा मुरझाने लगा, आँखें डूबने लगीं, हथेलियाँ काँपती रहीं ।

फिर महीने बीते । फ़र्रूखज़ाद पहले कमज़ोर पड़ी फिर हिम्मतवर हुई, पहले मायूसकुन हुई फिर उम्मीदज़दा हुई । नाजिम की दुकान वाली जगह महीनों खाली पड़ी रही । महीने बीते ।

****

आज फिर फीकी धूप खिली है । हवा में खुनक है । कहवाघर से रबाब की आवाज़ आ रही है । बीचबीच में उफनते बुलबुले सी हँसी का दौर उठता है। टीले के तरफ वाली सड़क पर अचानक एक खच्चर सवार आता दिखता है । झील के पास वाली बेंच पर अब भी औरतें बैठी धूप सेंक रही हैं । बच्चे खेलते हैं । गर्म कपड़ों में लिपटा एक ज़रा सा बच्‍चा धूप में हाथ पैर मारता है ।

खच्चर सवार कहवाघर तक पहुँचता है । कहवाघर के सामने कुर्सी के पीछे दरख्त पर सुर्ख़ पत्तों की झालर है । कुर्सी पर एक औरत सब्ज़ मुस्कान सजाये बैठी है । दरख्त की शाखों से धूप झरकर औरत के चेहरे पर दमकती है । औरत के चेहरे की त्वचा रूखी उबड़खाबड़ है । जैसे चेहरे को रेगमाल से घिस दिया गया हो । उसके बनिस्बत उसके पैर सुंदर और तराशे हुये हैं, हाथ भी । उसकी उँगलिय़ाँ नफीस हैं, पीली नाज़ुक । अगर अँधेरे कमरे में बैठे तो उसके हाथ पैर से एक पीली रौशनी छूटती दिखेगी । चेहरा लेकिन ज़रूर ऐसा है जैसे जाने कितनी उसकी उम्र सोख ली गई हो । उस रुखड़े चेहरे पर बला की संजीदगी है, उससे उपजी एक उदास किस्म की खूबसूरती । जीवन को ठीक से जी लेने वाली खूबसूरती, ज़िंदगी जान लेने वाली और उस जान लेने में खुद को इज़्ज़त दे देने वाली खूबसूरती । उसके चेहरे में ठहराव है, गहरा दुख है और एक तरीके का सुख है जो दुख को समझ कर अपने भीतर कर देने से आता है । जैसे किसी ने उसकी साँस में साँस फूँक दी हो ।

कहवाघर के बगल वाले बावर्चीखाने की छोटी खिड़की से फकफक धूँआ निकल रहा है । शायद गीली लकड़ियों का गट्ठर चला आया हो । अंदर रसूल बद्द्रूदीन की रन्दे जैसी आवाज़ गूँज रही है । हमदू जो बावर्ची खाने में रकाबियाँ, तश्तरियाँ धोने से ले कर तन्दूर में आग लहकाने और शोरबे का मसाला तैयार करने का काम करता है और बाज वक्त रसूल बद्द्रूदीन के नशे में धुत पड़ जाने पर लजीज़ तीखा मसालेदार लक्का कबूतर और ठीक ठाक शीरमाल पका लेता है, सर झुकाये उनकी गालियाँ सुन रहा है । दो दिन पहले सीली लकड़ियाँ रसूल बद्द्रूदीन ही लाये थे लेकिन मौके की नज़ाकत में हमदू को ये याद दिलाना मुनासिब नहीं मालूम पड़ता । ऐसे मौकों पर हमदू की समझदारी रश्क करने वाली होती है । रात को रसूल बद्द्रूदीन ही उससे पहाड़ी भेड़ की आंत से बने मशक में खुद की बनाई शराब साझा करेंगे । मीठी रोटी के टुकड़े के साथ शराब की घूँट और उसके बाद रंडियों के डेरे रात गुज़ारना ।

हमदू रात रंडीखाने की बावर्ची नौकरानी कुबरा के संग बितायेगा। उसके बेडौल शरीर और सलोने चेहरे के पानी पर जाने कैसे हमदू का दिल आ गया था । किसी सांड़ की सी तेज़ी और जुनून से हमदू कुबरा के जिस्म पर टूट पड़ता और उसी तेज़ी से फारिग भी हो जाता । कुबरा की आँखों से सुकून के आँसू रिस पड़ते कि आखिरकार इस बड़े ज़हान में कोई एक मर्द उसका भी हुआ ! उसकी देह में किसी मर्द की देह समाकर एक हो गई है का ख़याल उसे सुख के ऐसे इन्‍तहां से भर देती जिसका उन घड़ी भर के बेहूदा जिस्मानी कवायदों से रत्ती भर को मुकाबिला न होता । अलबत्ता कुबरा के कई बार हैरत होती कि आखिर क्या है इस खेल में जिसने आदमजात को ऐसा दीवाना किया ।

जंगलों से गुज़रते उस दिन की ही तो बात । दो जिस्म एक लय में उठते- गिरते, दीन दुनिया, सारे ज़हान से बेखबर । आड़ से देखती कुबरा एकदम से हट गई थी और फिर उसी तेज़ी से उसकी नज़रें जमी रह गई थीं ! उस फूल से चेहरे को फूल की बलियाँ छूती, हिलती थीं । जँगली फल की नशीली खुशबू जाने कैसी बहक में फिज़ा में डोलती थी । एक रौशन टुकड़ा था, जंगलों के तहदार अँधेरों में एक रौशन टुकड़ा । जैसे जिन्नातों ने कोई जादू कर डाला हो । एक परीज़ाद चेहरा और एक खूबसूरत दिलकश फरिश्ता । आदम और हव्वा । उनके जिस्म से रौशनी फूटती, उनके लय से एक कैसी मीठी तान बंधी जाती ।

अपनी छाती पर सर टिकाये हमदू के पसीना सने बाल ममता से सहलाती कुबरा सोचती आज इसे अपने हाथ का पकाया कोरमा खिलाऊँगी । दुलार में हाथ हौले डोले फिरते । मन जँगल के उस रौशन नहाये तस्वीर को चोरी-चोरी देखता होता जिसे हर किसी से छुपाकर रखा था कुबरा ने ।

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खच्चर सवार कहवाघर के सामने पहुंचकर ठिठकता रुकता है, नीचे उतरता है । उसके चेहरे पर हैरानीभरी खोई खोई मुस्कान है । खच्चर के दोनों तरफ असबाब और गठरियाँ बँधी हैं । धूप में आँखें मिचमिचाता एक नज़र देखता है चारों तरफ । झील का पानी एक हिस्से में ठंड से जम सा गया है । किताबख़ाने की मशरक़ी हिस्से की मीनार पर नया रोगन चढ़ा है । भीतर जाती गली के मुहाने पर कुछ बुज़ुर्ग आग जलाये पत्थर गर्म कर रहे हैं । काम लायक गर्म हो जाये तो उस पर अपने ठंड से जमे नंगे तलुओं की सिकाई करेंगे ।

नजिम सब तरफ देखता है, इतने अरसे बाद खुद से मिलने को देखता है ।

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हुमरा की छाती में दर्जनों सुराख हैं । दिलयार कैसा गबरू कड़ियल जवान था । बाँहों में भींचता तब हड्डियाँ कड़क जातीं । कैसे शान से हुमरा की गर्दन तन जाती । सेब की लाली गले में दहकती । दिलयार की मूँछे किस तीखे कटान में ऊपर ऐंठ जातीं । अपने घर के पिछवाड़े से बाहर हुमरा एक नज़र फेरती । पत्थरों के गुलदान में उसने लाल फूल उगा रखे थे । दरीचों पर गुलाब । हुमरा मोहब्बत से दिलयार का घर सजाती, उसके लिये रोटी पकाती, उसके कपड़े साफ करती, दिलयार के नमदे के जूतों तक पर कैसी चमक दिखती ।

फ़र्रूखज़ाद पर हुमरा को रहम होता । जाने कैसा शौहर था किस दुनिया में रहता । अच्छा हुआ उसका निकाह नाजिम से नहीं हुआ । नाजिम जो हुमरा के सपनों में आता । वो एक वक्त था । अब नहीं । अच्छा हुआ, अच्छा हुआ । दिलयार की रईसी उसे फ़र्रूखज़ाद के ऊपर मेहरबान बनाती ।

हुमरा के हैरानी होती फ़र्रूखज़ाद इतना हँसती कैसे है । फ़र्रूखज़ाद के चौड़े उभरे गालों की हड्डियों वाले चेहरे पर जाने कौन सा नूर बरसता । हुमरा बड़े गौर से फ़र्रूखज़ाद को देखती, कई बार नाजिम की आँखों से देखने की कोशिश करती ।

फिर दिलयार की हँसती आँखों में खुद को चहकता देखती, नाजिम को भूल जाती । उसका शरीर नहीं भूल पाता लेकिन । उसके भीतर दूसरी ज़रूरतें बसतीं जो उसकी तमाम कोशिशों को झूठा बनाती चलतीं । झील में जब दिलयार डूबा था तब नाजिम ही बाहर निकाल कर लाया था उस बेजान मुर्दा देह को । दिलयार की लाश फूल गई थी । शरीर नीला पड़ गया था । नीला तो नाजिम भी पड़ गया था । झील के पानी में बर्फ़ के टुकड़े तैरते रहे थे । तब से नाजिम के शरीर में दिलयार की रूह समा गई थी ।

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नाजिम की आँखों से धुआँ निकलता है । उसने उन सब लोगों की तस्वीर संदूक में बन्द कर दी है जो बाद में लेने आएंगे का वादा करके कहवाघर की तरफ गए और फिर कभी उस तक लौटे नहीं । किसी शाम एक एक करके नाजिम उन्हें देखता है । ताश के पत्तों सा फैलाकर । हर तस्वीर के पीछे धूँये सा लहराता एक समन्दर फैल जाता फिर समन्दर के बीचो बीच कोहरे की चादर उठती । नाजिम की आँखें मुंद जातीं जैसे किसी नशे में हो । उसकी उँगली तस्वीर की सतह पर फिरती है । किसी बर्फीले पहाड़ की चट तराई पर, जहाँ न आदम न हव्वा, न शाख न सब्ज़, न जानवर न हैवान, जहाँ सिर्फ हवा हो और ज़मीन हो, पहाड़ और आसमान हो, नाजिम उनके बीच होता है । जान लेता है किसी जादू से कि तस्वीर वाले शख्स की यही दुनिया है । कुछ देर वहीं टिकेगा तो पायेगा किसी चट्टान के पीछे किसी तम्बू में, दाढ़ी में बर्फ़ के टुकड़े सजाये जो शख्स लेटा है, उसी की तस्वीर उस रोज़ खींची थी । तब उसके कोट की ज़ेब में ताज़े बिके माल की एवज़ में नोट और सिक्कों की गर्माहट और हँसी थी ।

या फिर वो बच्चा, जिसके गाल लटक कर गिरते थे, जिसकी पाजी आँखें तस्वीर खिंचवाते वक्त पल को भी एक जगह टिकती न थीं, अब ज़मीन के नीचे अपनी माँ के दुख और सोग को लिये दफन है ।

और वो नौजवान लड़की जिसके चेहरे से नूर बरसता था, जो अपने खाविन्द के संग आई थी तस्वीर निकलवाने, अब उसकी रूखी बेलौस आँखों में तमाम दुनिया की मुर्दनगी समा गई है, जिसका खाविन्द मोहब्बत की बजाय भेड़ हाँकने वाले चाबुक से उसे प्यार करता है ।

और जँगलात की तस्वीर ? नाजिम के जिस्म पर कँपकँपी तारी हो जाती है । दरख्तों के जँगल में चित्त लेटे शाखों और पत्तों के बीच झरते स्याह रौशनी और सूरज की आँख चौंधने वाली किरण से उसका दिमाग घूम जाता है । पानी के टपकने की आवाज़ उस तक पहुँचती है । एक बार उसने हुमरा को प्यार किया था, छुपकर प्यार किया था । उसके पके शरीर का रस पीया था । इन्हीं जँगलो में, इन्हीं बूटों के बीच, इन्हीं जँगली फूलों की खुशबू के साथ । तब भी उनकी वहशत के तले ये घास ऐसे ही मसले गये थे । ऐसे ही रौशनी छनछन कर उसके नंगे जिस्म पर पड़ी थी, ऐसे ही नहीं पागल हुआ था नाजिम । ऐसे ही नहीं । ऐसे ही नहीं फ़र्रूखज़ाद को उस पल बिसार दिया था उसने । ऐसे ही नहीं ।

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पानी में डूबता दिलयार तड़प कर नाजिम को थाम लेता है । उसके देह का भारी ओवरकोट उसकी मौत का लबादा है । उसे खींचे जाता है झील की गहराई में । नाजिम का एक हाथ बढ़ता है दिलयार को बचाने के लिये । दूसरा हाथ उतनी ही सख़्ती से परे झटकता है उसे । वहशी जुनूनी नीमबेहोशी में, अपनी पूरी ताकत से, हाथ पाँव फेंकता । दिलयार की कातर आँखे जो एक पल पहले बचा लिये जाने की खुशी में चमक आई थीं अब भौंचक फैल जाती हैं । ताज़्ज़ुब और हैरानी और खौफ़ के खेल कुछ पल को हवा में नाचते हैं । फिर दिलयार आख़ि‍री साँस की वहशत में लिपट जाता है नाजिम से । पूरी ताकत से । मरते इंसान की आखिरी ताकत ।

बर्फ़ीले पानी में आसमान का एक टुकड़ा, कुछ चीड़ के पेड़, सफेद बादल के फाहे और थोड़ी सी धूप चमकती । मुर्गाबियों का झुँड सबसे बेखबर शोर मचाता एक किनारे उतरता है ।

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फ़ेरीज़ा ..

फ़र्रूखज़ाद मुड़ कर देखती, मुस्कुराती है । जाने किस ज़बान के दुलार से मुसाफिर उसे पुकारता है । उसकी हाथों में किताबों का बंडल है । उसकी दाढ़ी के बाल सुनहले हैं और उसकी बाँहों के रोयें भी । सड़क के किनारे पत्थर के बोल्डर पर बैठ जाता है । किताबों का बंडल फ़र्रूखज़ाद की कुर्सी के पास रख देता है ।

फ़र्रूखज़ाद जानती है उसकी किताब अब पूरी होने को आई । उस किताब में फ़र्रूखज़ाद भी है, हुमरा और नाजिम के लापता होने की कहानी है, शहर है, यहाँ की तारीख़ है, तहज़ीब है, किताबखाने की दुनिया है, मीनार और रिहाईशगाहों की इल्मे तामीर है ।

फ़र्रूखज़ाद जानती है मुसाफिर के जाने का समय आ गया है ।

मुसाफिर झील की तरफ देखता है । उसके चेहरे पर एक किस्म की मुस्कुराहट है।

फ़ेरीज़ा ! मेरे साथ चलोगी ?

फ़र्रूखज़ाद के चेहरे पर आँधी आती है गुज़र जाती है । उसके नाज़ुक हाथ गोद में रखे परिन्दे सा फड़फड़ाते हैं ।

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कभी कभी कुबरा के मन में आँधी उठती है । इस दुनिया में इतनी तकलीफ क्यों है ? अपने शरीर को छूती सोचती है, ये ऐसा किसलिये हुआ ? ये बदसूरत जिस्म ! और इसी पर हमदू का दिल आ जाना । तमाम मनहूसियत और तकलीफ के बीच खुदा की ऐसी नेमत, ऐसी मेहरबानी । सोचती है, दिलयार क्यों मरा । फिर जंगल में उस दिन जो हुआ था, क्या हुआ था ? हुआ भी था या मन का सिर्फ कोई खेल? अँधेरे में उजाले का जादू ? उस होने में कहीं दिलयार की मौत न छुपी थी ? दिलयार जो जाँबाज़ तैराक था, डूब गया और नाजिम बच गया । कौन सी आग इंसान के भीतर लपट जलाती है । कौन सी पागल आग ? क्यों हम जीते जीते मर जाते हैं और मरते मरते जी जाते ? हथेलियों की ओट में सँभाले गये नन्हे फूल की डलियाँ थरथराती हैं । इसी चट पहाड़ों के बीच नीले चश्मे का मीठा पानी और घँटी बजाते भेड़ों का झुँड दूर से उतरता दिखाई देता । उसकी छाती में कुछ दरकता है ।

सिर्फ कुबरा जानती है हुमरा जो नाजिम के लापता होने के हफ्ते भर बाद गायब हो गई, दोनों कहीं साथ हैं शायद। अफ़सान, बेसहारा बिलखता बच्चा फ़र्रूखज़ाद के पास है । जंगल में उसने जो देखा था, कितना सुंदर और अब जो दिखता है ? कितना बदसूरत ।

उसका बदन सिहरता है । एक साथ इस दुनिया में जन्नत भी और दोज़ख भी ?

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नाजिम में दुनिया के भीतर दुनिया देख लेने का हुनर था । झील में डूबते दिलयार की आँखों के भीतर उसने दुनिया देखी थी । उसकी आँखों के भीतर उतर गया था नाजिम । उस दिन फिर जो मरा वो दिलयार नहीं था ।

और उस दिन के बाद नाजिम की खिंची तस्वीरें बेजान हो गईं । वो सिर्फ़ एक पल को कैद करने वाला कागज़ भर रह गया । चेहरे सिर्फ चेहरे थे, सपाट चेहरे । उनमें कोई गहराई नहीं बची थी । उँगली रखो तो सिर्फ कागज़ का टुकड़ा । धड़कता जीवन नहीं । नाजिम के भीतर कुछ गहरे दरक गया था । उसके भीतर झील का पानी समा गया था । जो देखना चाहे, है नदी भीतर, जो देखना चाहे ।

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मुसाफिर नाजिम के बक्से की तस्वीरें सहेजता है । सब उसकी किताब में जायेंगी । यही एक तरीका है उन्हें बचा लेने का, पूरी उस दुनिया को । बक्से को खाली करते एक छूटी हुई तस्वीर का कोना ज़रा सा दिखता है । खींच कर निकालता है । ग्रुपफोटो जैसी तस्वीर है । सब लोग दिखते हैं । तस्वीर पीछे से ली गई थी । छोटी तस्वीरे अक्सी एक के बाद एक, पूरा कस्बा एक जगह । सबकी पीठ, सबकी । सिर्फ नाजिम सामने से दिखता है तस्वीर खींचता हुआ ।

तस्वीर के सब किरदार मुड़ कर देखते हैं, कँधों के पीछे । हुमरा, अफ़सान, कुबरा, रसूल बद्द्रूदीन, नुसरा बी, फ़र्रूखज़ाद, हमदू, यहाँ तक कि दिलयार भी, जो मर चुका है और मर चुकने के बाद भी बाज़ नहीं आता यहाँ वहाँ कहीं भी घुसा आता है । तस्वीर से निकल पड़ना उनकी किस्मत में नहीं । हैरानी कि तस्वीर नाजिम वाली तस्वीर हो गई है । रूखे कागज़ पर दानेदार धुँधलाई तस्वीर जिसमें जाने कहाँ कहाँ की दुनिया दिखती है, बर्फ़ ढके पहाड़ और नीली झील, हरे पेड़, भेड़ों का झुँड, आग में गरम होते पत्थर, कारकुल पहने बुज़ुर्ग, हँसती ख़वातीन, उनके दर्द, उनकी हँसी । दिखता है उनमें बेईंतहा मोहब्बत, दिल को जला डालने वाली ज़िल्लत, छाती तोड़ देने वाली बेवफ़ाई, किसी को खत्म कर देने का जुनून, ज़िंदगी जीते रहने की मजबूरी, इंसान के भीतर की हैवानियत, किसी को पाने की तिश्नगी । दिखता है सब । उन सबकी पूरी ज़िंदगी दिखती है । और कुछ उस पूरी ज़िंदगी से भी बहुत बहुत ज़्यादा !

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सब तस्वीर की कहानियाँ हैं । सचमुच में सिर्फ दिलयार मरा था। बस । और ऐसे मरा था जैसे सब मरते हैं । बाकी सब कहानी है । मुसाफिर के किताब की कहानी । और तस्वीरों का तसव्वुर है । कहते हैं कि सचमुच कोई तस्वीरबाज़ था उस शहर में जो लापता हुआ फिर लौटा एक दिन, बहुत बरस बाद । तब तक कि, जैसे हमेशा होता आया है दुनिया बदल चुकी थी ।

खच्चर सवार कहवाघर में घुसता, नुसरा बी को कहता है, फूफी .. पर हलक से आवाज़ नहीं निकलती । रसूल बद्रूद्दीन जो हमेशा की तरह तुफ़ैल मचा रहे हैं, मुड़ कर देखते हैं और ठंडी आवाज़ में कहते हैं, फ़रमाइये ...

तराई के पार एक पागल औरत जिस तिस बच्चे को छाती से भींचती चीखती है, नामुराद, बाप के साथ झील में डूब मरा होता ..

हर बार अफ़सान नींद में बेखबर चौंककर कुनमुनाता रोता है, बहुत, बहुत देर तक !

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