"हम पता लगते ही ख़बर देंगे" सेना मुख्यालय के तीन दिन में तीस चक्कर लगाने के बाद जब एक क्लर्क ने जवाब दिया तो प्रतिवाद करने लायक उसके पास कोई तर्क नहीं था। हाथों में बेटी की हथेली थाम उसने साथ खड़े अफज़ल की तरफ़ देखा जो खुद में ही ग़ुम, शून्य में ताक रहा था।
विडम्बना ऐसी की उसे समझ ही नहीं आ रहा था की अब क्या? अब तक खुद को सुहागन मानती आ रही थी पर आज सुबह से ख्याल आ रहा था की काश! आज उसे बेवा घोषित कर ही दिया जाए। कम से कम हर महीने के राशन के लिए तो किसी पर आश्रित नहीं रहना पड़ेगा। फिर शहीद की बेवा कहलाकर सिर उठाकर बाजार जायेगी।
मोहसिन सेना की वर्दी पहने लद्दाख के ग्लेशियर में कहीं दब गया ।
सरकार उसे मरा हुआ नहीं मानती । वो ड्यूटी पर नहीं आता उसकी सैलरी नहीं जाती खाते में ।
उसे याद आया की कैसे उसे छह किलो गेहूँ पिसाई के बदले पैसे न होने की वजह से एक किलो आटा देना पड़ा था! पैर के अंगूठे से ज़मीन कुरेदते हुए उसने कहा था, "पैसे तो नहीं हैं आटा रख लो।" बहुत धीरे से। सोचते ही वो सिहर उठी। पर पैसे तो हमेशा मिलते थे,ज्यादा नहीं पर अफज़ल कुछ न कुछ उसके हाथ में ज़रूर देता था ये कहते हुए की अभी इतने ही आये हैं। उस दिन तो साफ़ इनकार कर दिया था "पैसे नहीं आये हैं!"।
"अफज़ल, चलें?" मोहसिन की बेबा ने कहा तो जैसे अफज़ल किसी नींद से जागा।
"ह...हाँ हाँ" वो हकलाया। आगे बढ़ते हुए अफ़जल अंदेशा लगा रहा था की गाँव लौटने पर जाने क्या होगा। मोहसिन की बीवी जब जब उसके पास एटीएम लेकर आती तब तब वो जेब से थोड़े पैसे निकाल उसके हाथ में थमा देता, जिसे लेकर उसकी खुद की बीवी बवाल कर चुकी थी।
बवाल के बाद अफज़ल ने न चाहते हुए भी पैसे न आने की बात कही थी। भीतर ही भीतर थूक रहा था अपने आप पर, जाना तो उसे भी था फ़ौज में लेकिन फिर उसकी जेहनी बहादुरी हक़ीक़त की कमज़ोरी से जीत न सकी थी। भाग आया था भर्ती की दौड़ से, अपने दोस्त मोहसिन को छोड़, जो न सिर्फ़ सेना में गया बल्कि गाँव में अफज़ल के भाग आने के किस्से का ज़िक्र तक न किया। बहुत शर्मिंदा हुआ था अपने आप से वो। इसी शर्मिंदगी को दूर करने के लिए उसने मोहसिन की गुमशुदगी की खबर आने के बाद उसके परिवार की ज़िम्मेदारी अघोषित रूप से खुद उठा ली। ये सोचकर मदद कर रहा था कि जंग नहीं लड़ सका तो क्या हुआ सिपाही के घर रसद पहुंचाकर ही देश का कर्ज तो चुका रहा हूं ।
उसकी बीवी के बवाल के बाद उसने जब पैसे होने से इनकार किया तो फिर वही शर्मिंदगी हावी हो गयी । बीवी के लाख मना करने और धमकी के बावजूद मोहसिन की बीवी-बच्ची के साथ सेना मुख्यालय आया था। दोनों अनपढ़ वहां कुछ बता न पाये बस फोटो दिखाकर कहते सेना में था लद्दाख में ड्यूटी पर । सेना वालों ने हम पताकर खबर करते हैं कहकर वापस भेज दिया ।
वापस आते हुए दोनों अपनी अपनी चिंता में खामोश सफ़र करते रहे।
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गाँव में उतरते ही अफजल की बीवी ने अपने भाईयों के साथ मिलकर मोहसिन की बेवा और अफजल के रिश्ते पर कीचड़ उछालते हुए तलाक मांगा!अफजल ने दे भी दिया, उसे क़र्ज़ उतारना था। मेहर के रूप में अपना घर भी देना पड़ा ।
अब अफजल दुकान पर ही सोता और उसी की कमाई से मोहसिन का घर चलता। करीब तीन साल बीत गये पर न मोहसिन लौटा न कोई खबर ।
रिश्तों को क़ायदा समझ कर पढ़ने वाले गांववालों ने उनके रिश्ते पर ऊंगली उठानी शुरू कर दी। ताने, उलाहने बहुत चुभते पर अब तो मोहसिन की बेबा पूर्णतया आश्रित हो चुकी थी, और अफ़जल ये बात कभी नही भूलता।
एक दिन मौलाना साहब ने दोनों को समझाया कि तुम दोनों निकाह पढ़ लो, अफजल ये सुनकर चुपचाप ही उठ गया।
उस दिन जब अफजल खाने बैठा तो उसने बात छेड़ी
" तो क्या सोचा आपने । "
" किस बारे में । "
" वही जो मौलाना साहब कह रहे थे ?"
अचानक से कौर मुंह में डालते रूक गया, बोला "मैं तो अपनी दोस्ती का फ़र्ज़ निभा रहा हूँ, मोहसिन देश के लिए लड़ रहा था । मेरा भी सपना था ,भारतीय फौज में जाने का , लेकिन नहीं जा पाया । मैं ये सोचकर मदद नही कर रहा था कि..." बोलते बोलते वो फिर कुछ न बोला।
सर उठा नहीं पाई वो धीरे से दुपट्टे को उंगली में लपेटते हुए वो बोली
"हमारी तुम्हारी शहादत का कोई मोल नहीं है जब तक सरकार मोहसिन को शहीद घोषित नहीं कर देती । मुझे तो ये भी नहीं मालूम कि मोहसिन की बेवा हूं भी या नहीं , समाज की गगरी हमारे सम्बन्ध के दरिया को तबतक नहीं अपनाएगी जबतक उसमे किसी नाम का आफताब न चमके!"
" आप चिंता न करो , मैं कल से खाने का इंतजाम दुकान पर ही कर लूंगा और आपकी रसद समय से पहुंच जाया करेगी । " हाथ धोकर बाहर निकलते हुए अफजल ने कहा ।
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अगली ही सुबह लोगों का हूजूम देखकर अफ़जल दौड़ता हुआ पहुंचा तो देखा जमीन नापी जा रही है और मोहसिन की पत्नी और बेटी एक तरफ सहमे से खड़े हैं ।
दारोगा ने बताया ये जमीन जाकिर मियां की है खाली करनी पड़ेगी , कोर्ट का आर्डर है!
उसने जिरह की "साहब ये मोहसिन की बेबा है ,इसका पति मोहसिन फौज में था । एक घर ही तो है बेचारी के पास । "
दारोगा ने सहानूभूति से पूछा " था मतलब शहीद हो गये क्या ? "
बमुश्किल बोल पाया अफजल " पता नहीं ।"
" तो कैसी बेबा है ? "
" पता नहीं साहब । " मोहसिन की बीवी की तरफ देखते हुए अफजल के मुंह से फिर वही निकला।
शाम को मौलवी साहब ने अफजल के कहने पर दोनों का निकाह पढ़वा दिया। अफ़जल, मोहसिन की बेबा को लेकर दूसरे गाँव चला आया, जहाँ दो कमरो वाले किराए के मकान में दोनों अलग अलग सोते।
अफ़जल आज भी मोहसिन के इंतज़ार में रहता है, मोहसिन की बेबा सोचती है की काश उसका पति दुश्मन की गोली से शहीद हुआ होता! क़ुदरत के क़हर से नहीं क्योंकि क़ुदरत के रंग हज़ार सही पर उसे कोई दुश्मन नहीं कहता।