Ek julus ke sath - sath - 3 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

एक जुलूस के साथ – साथ - 3 - अंतिम भाग

एक जुलूस के साथ – साथ

नीला प्रसाद

(3)

मैं अगली क्लास में नहीं गई। पेड़ के तने से सटी खड़ी कुछ सोचने की कोशिश करती रही पर दिमाग शून्य था। सुजाता मुझे देख मुस्कुराई। ‘तुम उन लोगों में हो जो जिंदगी भर पानी के किनारे खड़े तैरने का आनंद लेने का दावा करते रहते हैं। जिंदगी में कभी तो समूह के लिए खतरा उठाना सीख! जिंदगी भर डर-डर कर, सामने दीख रही समस्याओं से मुंह छुपाती जियोगी क्या!’ कल रात सुजाता ने व्यंग्य में कहा था। विनीता ने सीधे निमंत्रण दे डाला- ‘तुम भी तो विक्टिम हो, आ जाओ हमारे साथ।’ मैं मुस्कुराकर टहलती हुई आगे निकल गई। दो घंटे बाद, तीन लड़कियों को बातचीत का बुलावा आया। रिप्रेजेन्टेशन ले लिए गए तथा धरना खत्म करने को कहा गया ताकि आगे की कार्रवाई हो सके, पर किसी ठोस एश्योरेंस के अभाव में लड़कियां धरने पर बैठी रहीं। चार घंटे बाद पुलिस और अखबारवाले लगभग साथ-साथ पधारे। धरने पर बैठी सभी लड़कियां अरेस्ट करके थाने ले जाई गईं, पर बाद में छोड़ दी गईं। सुजाता विस्तार से बताती रही कि थाने में उन्हें कितना सम्मान मिला तथा कोई अभद्रता नहीं की गई। अगले दिन के सभी स्थानीय अखबारों में खबर आ गई।

लड़कियां कुछ कर गुजरने को अधीर हो रही थीं।

‘जुलूस बनाकर डीन और वी.सी से मिलने जायेंगे।’ लतादी ने फैसला सुनाया।

मैंने जोश के ज्वार को अपने सामने बनते, उठते और सबों को छा लेते देखा। मैं भी अनजाने इस ज्वार की चपेट में आ गई।

जुलूसवाले दिन सुबह जी.वी. का कमरा खाली पाया गया। लड़कियों के चेहरे पर मुस्कुराहट खिल गई।

‘यहां सुमिता मैम आयेंगी’, चपरासी ने बताया। आयेंगी क्या, आ गईं। बिना इंतजार कराए सुमिता मैम सामान उठाए एकदम से आ पहुंचीं। वे कुछ माह पहले ही कालेज में लेक्चरार नियुक्त हुई थीं। एकदम ताजी-ताजी, युवा, हंसमुख- स्टुडेंटनुमा दीखती थीं। उन्होंने आते ही लतादी को कमरे में बुलवाया और दसेक मिनट बाद लतादी हंसती हुई कमरे से बाहर आ गईं। ‘ये अपने साथ हैं’, लतादी के इशारे हम समझ गए।

साढ़े ग्यारह बजे जुलूस डीन के आफिस की ओर चला। तीन किलोमीटर की पैदल यात्रा थी। मेरा मन बेकाबू था। चारों तरफ इतना उत्साह, चहल-पहल, जोश.....खुद को अछूती रख पाना असंभव था। लड़कियां दो-दो, चार-चार की टुकड़ियां बनाकर चल रही थीं। उस झुंड का हिस्सा बनते ही मेरा मन शांत हो गया। ‘मुझे बहुत पहले शामिल हो जाना चाहिए था। इतना भी क्या डरना’, मैंने खुद से कहा और मुस्कुराकर चारों ओर नजरें दौड़ाईं। किसी की आंखों में मेरे पिछले व्यवहार को लेकर कोई उलाहना नहीं दीखा- सबने मुस्कुराकर अपने समूह में मेरा स्वागत किया जैसे! दसेक मिनट गर्व से उनके साथ चलने के बाद मैं अचानक चौंक गई। दो-चार प्रेस फटोग्राफर भाग-भागकर, अलग-अलग एंगलों से धड़ाधड़ हमारी तस्वीरें उतार रहे थे। अरे! अगर मेरे चेहरे वाली तस्वीर ही कल अखबारों में छप गई तो? यही अखबार तो मेरे कस्बे में भी जाता है! तब क्या कहेंगे लोग! क्या जवाब दूंगी फिर घरवालों को ?यही सब करने कालेज गई थी- यही है मन लगाकर पढ़ाई? जाड़े की उस सुबह, मोटे स्वेटर से लदी मैं, अचानक पसीना-पसीना हो गई।..हम बाजार के बीच से गुजर रहे थे। सड़क के दोनों ओर कतार से बनी दुकानें दीख रही थीं और लगभग सारे दुकानदार अपनी-अपनी दुकान के बाहर खड़े, गुजरते जुलूस का नजारा देख रहे थे। बस कुछ सेकंड की दुविधा..... और मैंने खुद को चुपके से एक दुकान में घुसते पाया।

वह क्षण और आज का सुजाता से नजरें मिलने का यह क्षण - मैं जैसे उसी जुलूस से भागी हुई मनःस्थिति में जी रही थी। जुलूस गुजर रहा था और मैं चुपके से उसका हिस्सा बनने से खुद को रोक रही थी। जुलूस बढ़ रहा था और मैं जानबूझकर पीछे छूट रही थी। मुझे मालूम था कि जुलूस सफल होगा और मैं जश्न का हिस्सा बनने से चूक जाऊँगी। बाद में सब अपनी भागीदारी के किस्से अगली पीढ़ी को सुनायेंगे और मैं पछताऊंगी.... भविष्य मुझसे हिसाब मांगेगा और मैं अतीत से नजरें चुराती रह जाऊँगी।

पर जो रिक्शे पर बैठकर हॉस्टल लौटा और आनन-फानन सुजाता के बिस्तर पर माफी की स्लिप छोड़, सुमिता मैम से कहकर दूसरे हॉस्टल शिफ्ट हो गया, वो मैं थी। जो जिंदगी भर सुजाता और लतादी को नायिकाओं की तरह सराहता रहा पर उनसे मिलने के नाम से कतराता रहा, वो भी मैं ही थी।

डीन ने जुलूस की नायिकाओं से मिलने के बाद इंक्वायरी कमिटी बना दी। पर प्राइमा फेसी दोषी पाये जाने पर भी जी.वी को सस्पेंड नहीं किया गया, इसीलिए लतादी कुछेक लड़कियों को लेकर आमरण अनशन पर बैठ गईं। नहीं, देर नहीं लगी थी। अठारह घंटे भी नहीं बीते थे कि सस्पेंशन लेटर आ गया था। लतादी ने जूस पीकर अनशन तोड़ दिया था। दो हफ्ते के अंदर- अंदर तो इंक्वायरी कंप्लीट भी हो गई थी। कालेज की वर्तमान ही नहीं पूर्व छात्राओं ने भी गवाही दी थी। मैं चकित रह गई। इतना आक्रोश मन मे लिए जी रही थीं कि खबर मिलते ही दूसरे शहरों से बयान दर्ज करवाने आ गईं। उनमें से तीन को पति से अलग होना पड़ा था, दो पति की ही पहल पर आई थीं और बाकी मन में पल रहे आक्रोश को गलाने की खातिर... मैं खुद से शर्मिंदा थी।

जी.वी डिसमिस हो गई। कालेज में जश्न पूरे आयोजन से मना। थोड़ी नारेबाजी, थोड़ा हुड़दंग, उल्लास के चीखते स्वर!..होली आने में देर थी पर अबीर के उड़ते रंगों ने पूरे कालेज को छा लिया। उत्सव के रंगों का मन पर असर मिठाइयों के अनवरत दौर से जाहिर था। मैं उदास थी। मैं भी उत्सव के इन रंगों में डूब सकती थी अगर मैंने कायरता से लड़ना सीख लिया होता! मैं भी आइने में खुद से नजरें मिला सकती थी अगर मैंने जुलूस से किनारा न किया होता... मैं भी मानवता के बदनुमा दाग, जी.वी पर, एक पत्थर उछाल सकती थी अगर...अगर..अगर..अगर....पर ये अगर अंतहीन थी।

अपने अंदर की, दौड़ लगाकर सुजाता से गले मिल जाने को आतुर उस युवा लड़की को, मैंने रोक लिया। अड़तालीस की उमर में सत्रह की चंचलता शोभा नहीं देती। लपकते कदमों की रफ्तार सायास धीमी करके, मैंने ग्रेस क्रियेट करने की कोशिश की। पर धड़कते दिल का क्या करती? इतने सालों तक,जाने कितनी - कितनी बार, मैं इस प्रसंग को याद करके खुद से शर्मिंदा पर उस आंदोलन की नायिकाओं की प्रशंसा में नतमस्तक होती रही। जब-जब कहीं भी महिलाओं के सेक्सुअल हैरेसमेंट का मामला सामने आया, सारा अतीत मेरे सामने घूम गया और मुझसे अपने किए का जवाब मांगने लगा। मैं हर बार सोचती और खुद का विश्लेषण करती रही। हर बार सोचती रही कि जब युवावस्था की शुरुआत में ही इतनी हिम्मती थीं लतादी, तो जाने बाद में उन्होंने समाज के लिए क्या कुछ नहीं किया होगा! कितनी बड़ी समाज - सेविका होंगी वे! हां, उनका नाम अखबारों में नहीं आता तो शायद वे किसी छोटे शहर को अपना कार्यक्षेत्र बनाए होंगी। और सुजाता़! वह भी तो लतादी की बराबरी की सहभागी और उन जैसी ही हेड स्ट्रांग थी। हो सकता है उसने लतादी से भी कहीं अच्छा काम किया हो! जब भी समाज सेविकाओं का जिक्र आता मैं ये दो नाम जरूर तलाशती, भले ही हर बार निराशा हाथ लगती। पर अब तो वह ऐन सामने थी। उसे जरूर लतादी के बारे में भी पता होगा। दोनों की कितनी अच्छी पटने लगी थी तो संपर्क नहीं बनाए रखने का कोई कारण ही नहीं!

...ऐन सामने आकर हमारे चेहरों पर मुस्कान फ्रीज हो गई। ‘कैसी हो मधुमिता!’ उसने पूछा। ‘अच्छी हूँ।’ ‘और तुम!?’ ‘मजे में’.. उसकी मुस्कान इतनी चौड़ी हो गई कि दंत - पंक्तियां झलकने लगीं। ... पर मैं सड़क किनारे खड़ी थी और जुलूस मेरे स्थिर पांवों को पीछे छोड़कर आगे निकला जा रहा था...सुजाता उस जुलूस में थी। वह सफल होने वालों में थी..और मैं उनमें, जो सच का साथ देते घबरा गए थे..जिंदगी में सच से आंखें मिलाने वालों की कतार से पीछे छूट गए थे।... सच है कि मैं अबतक उस जुलूस से भाग निकलने के गिल्ट से बाहर नहीं निकल पाई थी। मैं अभी भी उसी गिल्ट की ठंढी शिला पर खड़ी थी और पांव सर्द हो रहे थे।.. ‘क्या तुमने हॉस्टल के कमरे में तुम्हारे बिस्तर पर छोड़ा मेरा पुरजा पढ़ा था?’ मैंने शिला को तोड़ने की कोशिश की।’ ‘अं! कैसा पुरजा?’, वह चौंककर हंसी। नहीं, अतीत उसके दिल पर रखा कोई बोझ नहीं था। न ही कोई शिला उसके पांवों को गला रही थी या आग की लपटें सर को भस्म किए जा रही थीं। ‘..कमरा छोड़ते समय तुम्हारे बिस्तर पर रख दिया था। उसके बाद कभी मिल नहीं पाए तो आज तुम्हें देखते ही याद आया कि पूछ लूं!’ ‘ओह! तब हमें पुरजे देखने- पढ़ने की फुर्सत थी! जिस आग से घिरे जीते थे हम, उसमें कितने पुरजे जल गए होंगे!’ वह फिर हंसी - उन्मुक्त। ‘और रिश्ते?.. क्या रिश्ते भी? क्या तुमने मुझे कभी याद नहीं किया, एक पल को भी कभी , किसी भी सिलसिले में?’ मैं भावुक होने लगी। ‘हं,हं, किया ही होगा शायद। ... पर जी.वी कि सिलसिले में- कब्भी नहीं। क्यों करती याद, तुम्हीं बताओ! तुमसे नाराज होने, तुम्हें गालियां देने या तुम्हें सुधारने को! तुम अपनी परिस्थितियों द्वारा इस कदर जकड़ ली गई थी कि स्वतंत्र रूप से कुछ भी कर या सोच नहीं सकती थी। सच है कि मेरी कोई रुचि नहीं बची थी तुममें। ... पर अभी नजरें मिलते ही लगा कि जानना चाहती हूं कि तुम कहां हो, कैसी हो’....‘लतादी के बाद तुम सब ही हिरोइन्स थीं उस आंदोलन की।’ ..‘अरे नहीं यार! और अब पुराने जमाने की हिरोइन्स को वैसे भी पूछता ही कौन है- चलो छोड़ो। अब वह सब क्यों याद करें- एक फेज़ था जिंदगी का, गुजर गया। हम सब जिंदगी में आगे बढ़ गए।’ उसने ठहाका लगाते हुए कहा। ‘हां, अच्छा हुआ कि तुम्हारे मन से सब बीत गया, तुम आगे बढ़ गई। मैं तो अबतक नहीं उबर पाई। कोई गिल्ट अबतक मुझे जकड़े हुए है जैसे!’, मैंने कहा। ‘तुम जरूरत से ज्यादा भावुक हो रही हो। और वैसे भी वे सब बातें अब इर्रेलेवेंट हो गई हैं। आज के जमाने में उन कारणों के लिए आंदोलन करने की न नौबत आएगी, न उस तरह का सेंटिमेंट है शरीर की पवित्रता को लेकर! अब तो बच्चों को बस कहानी की तरह सुनाने की घटना रह गई है वह, जिस पर बच्चे हंसेंगे। ‘हंसेंगे क्यों?’ ‘लो, करलो इनसे बात! आज किस वार्डन की हिम्मत है कि धोखे से लड़कियों को ग्राहकों से मिला दे... सब सजग और बोल्ड हो गई हैं। किसी हॉस्टल वार्डन के ऐसे किसी इंटेशन की हवा भर लगते ही मीडिया ले उडे़गा ..’, वह ठहाके मारकर हंसने लगी। ‘ और आजकल की लड़कियां- उफ्! कइयों के लिए तो बायफ्रेंड और सेक्स, जेबखर्च और गिफ्ट कमाने का जरिया भर है। इन्हें मना करो तो ‘ये मेरी लाइफ है’, वाली स्टाइल के जुमले मुंह पर मारकर चलती बनेंगी। ‘अरे, ऐसा मत कहो।’ मुझ दो युवा लड़कियों की मां को बुरा लगना स्वाभाविक था। ‘कैसे नहीं कहूं? मैं खुद इतने प्रेस्टिजियस कॉलेज में गर्ल्र्स हॉस्टल की वार्डन हूं। मुझे नहीं मालूम इनके किस्से!’ हमारे जमाने की लड़कियां संकोची और असहाय हुआ करती थीं। नहीं तो दो -दो थप्पड़ मार कर हवा नहीं निकाल देतीं सबकी! और जी.वी! अब सोचती हूं कि उसे तो कितनी आसानी से हमसब मिलकर पीट सकते थे- नहीं? पर हमसब डरपोक थे और अपने शरीर को कोई पवित्र सी चीज़ समझते हुए जाने किन-किन मोरलिटी से घिरे जीते थे। वह हंसी।‘ तो तुम समझाती तो जरूर होगी लड़कियों को कि आज भी उस तरह की भले ही नहीं पर नैतिकता की जरूरत बाकी है, क्योंकि सेक्स को जेबखर्च और गिफ्ट कमाने का जरिया समझने पर भी, शादी के बाजार में लड़कियां आज भी उसी वीक ग्राउंड पर हैं, जिन पर हम खड़े थे ..‘आजकल की लड़कियों ने सब त्याग दिया है - पुरानी नैतिकता, पुराने वस्त्र, पुराने तौर-तरीके’..... वह लापरवाही से हंसी। शायद जुलूस में शामिल सब आगे बढ़ते, बड़े होते, अनुभवी और परिपक्व होते गए थे। मैं एक जगह खड़ी, अब तक उसी मानसिकता में जी रही थी.... ‘पर पुरुष तो मानसिकता में जस- के- तस हैं। लड़कियों को लेकर घूमते हैं, साथ सोते हैं, मस्ती करते हैं पर शादी की बात उठते ही खट् से परंपरावादी बनकर दहेज और अक्षत कौमार्य की बात करने लगते हैं।’ क्षण भर की असुरक्षा के बाद मैं दृढ़ता से अपने विचारों पर डट गई। मैं अपनी बेटी ब्याहने को थी और मुझे बाजार अच्छी तरह पता था। वह चुप लगा गई। ‘तुम किस अस्पताल में डॉक्टर हो?’, उसने बात बदलते हुए पूछा। ‘नहीं, डॉक्टर नहीं, इकॉनॉमिस्ट हूं।’ ‘ओह, अच्छा! मैंने तो बीच सेशन में ही कॉलेज छोड़ दिया था इसीलिए तुम्हारी कोई खबर मालूम नहीं।’ ‘मैं कई महिला संस्थाओं से भी जुड़ी हूं। एक बार एक कॉज को बीच में ही छोड़ दिया था। शायद उसी गिल्ट के मारे अब जिस भी केस को हाथ में लेती हूं, अंत तक पहुंचाकर ही मानती हूं।’ ‘ग्रेट यार!’, वह बिना इंटरेस्ट के बोली। ‘जी.वी वाले मामले में अचानक पीछे हट जाने के लिए मैंने खुद को कभी माफ नहीं किया, इसीलिए... अब पीछे नहीं हटती, डटी रहती हूं। ‘ओह, इंटरेस्टिंग।मुझे तो इन बातों में अब कोई रुचि नहीं रही। समाज अपनी गति से चल रहा है , मैं अपनी। जो होता है होता रहे.. मुद्दों को लेकर जिन्हें लड़ना- मरना हो, मरते रहें- मेरी बला से। मेरे पास न वक्त है, न इतना तनाव झेल पाने की हिम्मत!’ वह ऊबे भाव से बोली। मैं चौंकी। ‘ तो अब तुम पानी के किनारे खड़े होकर तैरने का आनंद लेने वालों में शामिल हो गई हो क्या!’, मैंने उसका व्यंग्य लौटाना चाहा जो सालों- साल मुझे छेदता रहा था।... पर नहीं। मैं अशोभन क्यों बोलूं? मैंने सोचा था कि पुराने जमाने की वह हिरोइन आज भी कुछ ऐसा जरूर कर रही होगी कि याद रहे कि वह अपने जमाने में क्या कुछ कर गुजरी है। वह तो समूह के लिए खतरा उठाने की हिम्मत रखने वालों में थी तो निःसंदेह आज महिला मामलों में कोई हस्ती होगी। जाने क्या- क्या सोचा था मैंने उसके बारे में पर... पर वह बदल गई थी। ‘और लतादी कैसी हैं? कहां हैं?’ मैं उत्सुकता रोक नहीं पाई। उसकी आंखें आश्चर्य से विस्फारित हो गईं। ‘अब यह सब मुझे कैसे मालूम होगा, बताओ!.. और क्यों मालूम रखना चाहिए मुझे?’ ‘क्यों कि तुम दोनों ने मिलकर एक जोत जलाई थी अन्याय के विरुद्ध.. तुम दोनों समान विचारों और कर्मों वाले थे, तुम आंदोलन में लतादी का दाहिना हाथ मानी जाने लगी थी, तो स्वाभाविक रूप में तुम दोनों समानधर्मा हो गए, इसीलिए’...‘लतादी के पति विदेश में रहते हैं ,तो स्वाभाविक रूप से वे भी वहीं होंगी। वे क्या करती हैं, क्यों करती हैं या कुछ करतीं क्यों नहीं, इससे मुझे कोई मतलब नहीं। साफ है कि इस देश में महिला मामलों में उनकी कोई हिस्सेदारी नहीं। वे अलग तरह का जीवन जी रही होंगी और उन्हें, मेरी तुम्हारी याद भी नहीं होगी। पर तुम हमदोनों के पीछे क्यों पड़ी हो? हम अब आवाज बुलंद नहीं करते, नहीं लगाते नारे-वारे.... तो तुम्हें क्या? तुम तब भी इरीटेटिंग थी, अब भी हो! शिट्’ .. वह मुड़ी और मेरी ओर पीठ किए खड़ी हो गई।

सुजाता वही थी, पर वह, वही सुजाता नहीं थी।... या सुजाता तो वही थी पर उसके प्रभामंडल से सहमी मैं, कॉलेज में उसे पहचान नहीं पाई थी।

हम दोनों वापस मुड़े। एक दूसरे से ठीक विपरीत दिशाओं में। अब हम दोनों गुजरते जुलूस के आर पार, दो अलग किनारों पर खड़े थे। अबकी जुलूस में शामिल होने की बारी मेरी थी और वह चुपके से निकल भागी थी। नहीं, वापस लौटते समय मेरे मन में ग्लानि पैदा करती अतीत की कोई गांठ नहीं थी।

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