उधड़ा हुआ स्वेटर - 4 - अंतिम भाग Sudha Arora द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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उधड़ा हुआ स्वेटर - 4 - अंतिम भाग

उधड़ा हुआ स्वेटर

सुधा अरोड़ा

(4)

‘‘सॉरी!’’ उसने माफी माँगी, पर शब्द बुदबुदाहट में सिमट कर रह गए. बाएँ हाथ की उँगलियों ने उठकर धीरे से दूसरी कुर्सी की ओर इशारा किया- ‘‘बैठ जाइए प्लीज़!’’

बूढ़े ने सुना नहीं और कुर्सी पर अनमनी-सी बैठी शिवा की आँखों में झाँका. शिवा ने एकाएक महसूस किया कि उसकी आँखों की कोरों पर बूँदें ढलकने को ही थीं. ये आँसू भी कभी-कभी कैसा धोखा देते हैं- बिन बुलाए मेहमान की तरह मन की चुगली करते हुए आँखों की कोरों पर आ धमकते हैं और बेशर्मी से गालों पर ढुलक कर मन के बोझिल होने का राज़ खोल जाते हैं.

शिवा ने जैसे ही आँखें उठाईं वहाँ से एक बूँद ढलक गई. बूढ़े ने उन आँखों में अपना अक्स देखा और धीमे से अपनी हथेलियाँ उसके चेहरे की ओर बढ़ा दीं! उस मुरझाए चेहरे को दो बूढ़ी हथेलियों ने भीगे पत्तों की तरह जैसे ही थामा चेहरे ने अपने को उस अँजुरी में समो दिया. गुलाब की पंखुड़ियों-सा इतना मुलायम स्पर्श जैसे कोई रूई के फाहों से घाव सहला रहा हो. हथेली के बीच आँसू अब पूरी नमी के साथ बेरोकटोक बेआवाज़ बह रहे थे. कोई बाड़ जैसे टूट गई थी. शिवा को लगा यह वक्त जिसका उसे सदियों से इंतज़ार था, यहीं थम जाए. बूढ़े की उँगलियाँ उसके बालों में हल्के से फिर रही थीं. उन उँगलियों की छुअन कानों की लबों तक पहुँच रही थी. शिवा भूल गई थी कि एक फ्लैट की बाल्कनी होने के बावजूद यह एक खुली जगह थी- दाईं-बाईं ओर बने टावरों की बाल्कनी में खड़े होकर या इसी इमारत के दूसरे बरामदों से उन्हें देखा जा सकता था. जो अपने आँसुओं को अब तक अपने से भी छिपाती आई थी वह आज इस तरह अपने को उघाड़ क्यों रही है? लेकिन उन हथेलियों की नमी थी कि शिवा अपने को हटा नहीं पा रही थी.

कमरे में हवा लहराने लगी थी. आँसुओं से भीगे चेहरे पर ताज़ा ठंडी हवा की छुअन पाकर शिवा ने अपनी मुँदी हुई आँखें खोलीं. उसके ज़ेहन में एक पुरानी भूली-बिसरी पंक्ति बजी- टु डाय एट द मोमेंट ऑफ सुप्रीम ब्लिस.....

ज़िन्दा रहने के लिए सिर्फ़ इतनी-सी छुअन ज़रूरी होती है उसे नहीं मालूम था. इस छुअन को पाने की साध इतने बरसों से उसके भीतर कुंडली मारे बैठी थी और उसे पता तक नहीं चला. एक खूबसूरत सपने से जैसे लौट आई थी वह. उन हथेलियों पर अपनी पकड़ को वह कस लेना चाहती थी, पर अचानक उसने पूरा जोर लगाकर अपने चेहरे को आज़ाद कर लिया.

बूढ़ा अब बाहर फैले शून्य में ताकता हुआ खड़ा था. मुट्ठी बाँधे अकबकाया-सा. पास रखी खाली कुर्सी पर ढहते हुए उसने कहा- ‘‘आय‘म सॉरी.’’ कहने के बाद उसने बँधी मुट्ठी खोली और हथेलियों से अपने चेहरे को ढँक लिया. भीगे चेहरे को छिपाए वह बुदबुदाया- ‘‘आय‘म सॉरी शिवा!’’ कुरते की जेब से रुमाल निकाला और अपने भीगी आँखों को पोंछा. बिना उसकी ओर देखे उसने जैसे अपने आप से कहा- ‘‘शिवा, मुझे क्यों ऐसा लगा जैसे बिंदा लौट आई है!.....मेरी बिंदा! छह महीने से मैं उसे ढूँढ़ रहा था और वह यहाँ बैठी थी मेरे सामने. .....शिवा, मुझे माफ कर देना! मुझे आज वो बहुत दिनों बाद दिखी तो मैं अपने को रोक नहीं पाया.’’ और वह फफक कर रोने लगा.

शिवा जैसे पत्थर की शिला हो गई. पथराई-सी वह उठ खड़ी हुई. ‘‘चाय लाती हूँ.’’ उसके होंठ हिले और वह रसोई की ओर मुड़ गई.

बिंदा! ...तो यह छुअन शिवा के हिस्से की नहीं थी. शिवा के लिए नहीं थी, बिंदा के लिए थी.

एक पनीले सपने से बाहर आते हुए उसके भीतर बार-बार वह वाक्य बज रहा था- ‘मुझे क्यों ऐसा लगा जैसे बिंदा लौट आई है...!’ यह गुलाब की पंखुरियों-सा स्पर्श शिवा तुम्हारे लिए नहीं था! ज़ाहिर है उसके हिस्से ऐसे मुलायम स्पर्श तो कभी आए ही नहीं. उसके हिस्से में पहला पुरुष स्पर्श उस चुंबन का था जो होंठों पर जबरन प्रहार की तरह था- उसके अपने फूफा का, जब उसकी उम्र सिर्फ़ बारह साल थी; जिसके बाद होंठ तीन दिन तक सूजे रहे थे और वह अपने माँ- पापा, सबसे अपने होंठों को छिपाती रही थी, जैसे कितना बड़ा अपराध कर डाला था उसके होंठों ने. उसे लगा था जैसे अब वे होंठ फिर से पहले जैसे होंठ कभी बन नहीं पाएँगे. लेकिन नहीं, ऐसा नहीं हुआ. वह फिर से लौट आई थी जब उसकी शादी हुई, और उसने अपने वजूद को उतना ही नम पाया- फिर से एक भीगी-सी छुअन के लिए तैयार. पर शादी के बाद की वह पहली खौफनाक रात- पूरी देह पर जैसे चोट देते ओले पड़ रहे थे. उसके बाद वैसी ही अनगिनत रातें और बीहड़ चुंबन. होंठों ने दोबारा, तिबारा, सौ बार, हज़ार बार धोखा खाया, खाते रहे. सालों साल. वे सारे चुंबन ऐसे थे जैसे उसके होंठ अनचाही लार और थूक से लिथड़-लिथड़ कर बार-बार लौट आते हों. वह उन्हें कितना भी पानी से धोती, तौलिये से पोंछती, पर थूक और लार की लिथड़न उसके भीतर एक उबकाई की तरह जमकर बैठ जाती- उतरने से इनकार करती हुई. उसके बाद स्पर्श की नमी को तो भूल ही गई थी वह. सबकुछ भीतर जम गया था. नहीं सोचा था कि कभी यह बर्फ़ पिघलेगी.

....पर स्पर्श ऐसा भी होता है- हवा से हल्का, लहरों पर थिरकता हुआ और गुलाब की पंखुड़ियों-सा मुलायम, यह तो उसने पहली बार जाना. अब तक वह अपने जीने की निरर्थकता को स्वीकारती आई थी. आज उसे पल भर को लगा था कि अब वह मर भी जाए तो उसे अफसोस नहीं होगा. ....पर यह तो ग़लती से एक नक्षत्र उसकी झोली में आ गिरा था. जब तक उसकी चमक को वह आँख भर सहेजती उसकी झोली को कंगाल करता हुआ नक्षत्र वापस अपने ठिये से जा लगा था.

बरामदे में दो कुर्सियों के बीच की छोटी-सी तिपाई पर उसने चाय का कप रख दिया. बूढ़ा जा चुका था.

चाय का प्याला बरामदे में पड़ा-पड़ा उसके सामने ठंडा होता रहा. उसने चाय को उठाकर अंदर वाशबेसिन में उलट दिया.

अगले दिन वह पार्क गई. उसी बेंच पर बैठी. देर तक प्राणायाम की कोशिश में लगी रही पर अपने मन को एकाग्र नहीं कर पाई. जैसे ही आँखें बंद करती लगता वह सफेद कुरता पास आकर खड़ा है. उसकी खुशबू भी हवा में घुलकर उस तक पहुँच रही थी. खुशबू को छूने के लिए वह आँखें खोलती तो वहाँ कोई नहीं होता. बस पेड़ों की शाखों में हिलते हुए पत्ते थे. बीच में टहलने के लिए बने रास्ते पर एक के बाद एक अधेड़ अपने ट्रैक सूट में तेज़-तेज़ चल रहे थे, दौड़ रहे थे पर वह एके कहीं नहीं था.

किसी तरह वह अधूरे प्राणायाम लेकिन सैर के पूरे बदहवास चक्कर लगाकर लौट आई. शिवा अपनी उम्र के पैंसठ साल फलाँग गई थी. उसने कहा था- वह पचास की लगती है. पैंसठ की हो तो भी क्या! शिवा ने सोचा- उम्र से कहीं कोई फर्क नहीं पड़ता.

दो दिन. तीन दिन. चार दिन. आँखें उन नर्म-काँपती हथेलियों को ढूँढ़ती रहीं जिनमें उसका चेहरा था उस दिन. शिवा बेचैन हो उठी. रोज़ दिखता आसमान जैसे ढँक गया था, बदली गहरा आई थी, लेकिन उसके पीछे छिपे हुए सूरज की किरणें तेज़ थीं जो शिवा के भीतर जमे ग्लेशियर को पिघला रही थीं.

पाँचवें दिन शिवा के कदम खुद-ब-खुद उस सफेद कुरते और उधड़े हुए स्वेटर की उँगली की दिशा में उठ गए. वही इक्कीसवाँ माला. फ्लैट नम्बर वही जो उसका है. फोन नम्बर में सिर्फ एक का फर्क. बस बिल्डिंग का नाम अलग. ढूँढ़ पाना मुश्किल नहीं था.

लिफ्ट का दरवाज़ा खुला और शिवा सकुचाते हुए बाहर निकली. क्या कहेगी क्यों आई यहाँ! क्या वैसे ही जैसे सफेद कुरता चला आया था उसके घर, जब वह पार्क में कुछ दिन नहीं दिखी थी. क्या लौट जाए वह?

वो दुविधा में थी.

फ्लैट के बाहर ही चंदन की अगरबत्तियों का धुआँ और भीनी-सी खुशबू आ रही थी. सामने खूब सारी चप्पलें पड़ी थीं. आखिर पोते-पोती, नाती-नातिनियों वाला घर है. उसके घर की तरह उजाड़ नहीं कि एक जोड़ा चप्पल न दिखे कभी.

फ्लैट का दरवाज़ा खुला था और सामने इतने सारे सिर- अड़ोसी-पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार!

‘‘क्या हुआ?’’ उसने सामने पड़े पहले व्यक्ति से पूछा.

‘‘एके के फादर नहीं रहे. रात को सोए तो बस... सुबह उठे ही नहीं!’’

‘‘क्याssआ?’’ शिवा की साँस थम गई. ऐसा कैसे हुआ! उसे तो किसी ने यहाँ बुलाया नहीं था. आज ही उसके पैरों ने इस घर का रुख क्यों किया? क्यों? इस मलाल से कहीं बड़ा मलाल था कि उसके पैरों ने इस घर का रुख इतने दिन क्यों नहीं किया? पूरे पाँच दिन. रोज़ उसकी निगाहें पार्क में ही क्यों ढूँढ़ती रहीं उसे. ये पैर पहले भी तो इस ओर मुड़ सकते थे. क्या उसकी उम्र आड़े आ रही थी? शायद...शायद वह पहले यहाँ आ गई होती तो बिंदा से मिलने की ऐसी अफरातफरी न होती इन....इन एके को! गले के भीतर रुलाई का एक गुबार-सा उठा, जिसे नीचे धकेलने की कोशिश में उसका सिर वज़नी हो रहा था. मन ने चाहा कि यहीं से अपने को लौटा ले, पर पैर अपने आप सामने खड़े लोगों के बीच से राह बनाते आगे को बढ़ चले, जहाँ ज़मीन पर एक रँगीन चटाई पर सफेद चादर से ढँका वह चेहरा लेटा था- शांत, निस्पंद. कसकर भिंचे हुए पतले-पतले होंठ!

शिवा एकटक आशीष कुमार के चेहरे को निहारती रही जहाँ अब ‘आय एम सॉरी‘ का कोई माफीनामा नहीं था. ‘कोई बात नहीं’- अब वह किससे कहती! किस तक पहुँचाती जो वो कहना चाह रही थी और न कह पाकर अपने गले तक कुछ फँसा हुआ महसूस कर रही थी.

ज़मीन पर बिछी हुई एक रँगीन चटाई पर लेटे उस चेहरे पर एक अपूर्व शांति थी- कोई इच्छा, आकांक्षा, लालसा जहाँ बची न हो. खुली हुई मुट्ठी ऐसे खुली थी जैसे सबकुछ पा लेने के बाद सबकुछ छोड़कर चले जाने की तसल्ली हो!

सहसा शिवा की निगाह उनके कंधों पर गई. वही क्रीम और ब्राउन धारियों वाला उनकी अपनी बिंदा के हाथ का बिना हुआ स्वेटर. उसके गले तक आया रुलाई का गुबार आँखों के रास्ते बह निकला, जैसे कोई बढ़ती आती लहर सूखी रेत को दूर तक भिगो दे और फिर भिगोती चली जाए.

आखिर अपनी बिंदा के पास वे इस उधड़े हुए स्वेटर को पहने बिना कैसे जा सकते थे शिवा ने सोचा और अपने को तसल्ली दी. नहीं, उनकी जगह वहीं थी जहाँ वे इस वक्त चले गए हैं. क्या सचमुच ? अपनी बिंदा के पास ?

शिवा एक साये की तरह मुड़ गई, जैसे अपने को वहीं छोड़ आई हो.

पैरों ने अपने फ्लैट की ओर का रुख किया. जहाँ बाल्कनी की कुर्सी पर चाय का अनछुआ कप जैसे बरसों से अब तक वहीं पड़ा था.

( हंस : जून 2014)

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