Pariyo Ka ped - 18 books and stories free download online pdf in Hindi

परियों का पेड़ - 18

परियों का पेड़

(18)

परीलोक में सैर सपाटा

अब राजू के सामने परियों के पेड़ का पूरा ऊपरी हिस्सा साफ – साफ दिखने लगा था | बाहर से पहाड़ की चोटी पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष जैसा दिखने वाला यह पेड़ असल में बहुत जादुई था | यहाँ तो इस पेड़ के ऊपर का ये हिस्सा ही भरा - पूरा पहाड़ लग रहा था | इस हरे – भरे सुंदर पहाड़ पर यहाँ परियों का शहर ही बसा हुआ था | चारों ओर जहाँ तक भी राजू की नजर जा रही थी, यह शहर खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था |

परी रानी को भी यह आभास था कि इतना बड़ा परीलोक राजू जैसे बच्चे के लिए पैदल चलकर घूम पाना संभव नहीं था | इसलिये उसने राजू से कहा – “मैं तुम्हें परीलोक घूमने के लिये एक अनोखा उपहार देना चाहती हूँ |”

“वह क्या परी माँ ?” – राजू ने जिज्ञासा पूर्वक कहा |

“देखो तो सही |” – कहते हुए राजू के शरीर पर परी रानी ने फिर से अपनी जादुई छड़ी घुमा दी | मंत्र के बोल गूँज उठे – “ छड़ी जादुई ऐसा कर, राजू उड़ ले फर - फर - फर |”

फिर क्या था ? एक और चमत्कार हुआ | राजू के देखते ही देखते उसके शरीर में गुदगुदी सी उठी | ....जैसे उसकी बगलों में किसी ने उँगलियाँ फिरा दी हों | उसने हँसते और बल खाते हुए अपने दोनों हाथों को इधर – उधर नचाते हुए झिझोड़ डाला | इसी प्रक्रिया के बीच उसने अपने शरीर में कुछ उगता हुआ महसूस हुआ | जिसे देखते हुए उसकी आँखें आश्चर्य से फैलती चली गयी |

......ये उसके दोनों हाथों के नीचे से जुड़े हुए दो छोटे – छोटे पंख थे, जो देखते – देखते उसके शरीर के अनुपात में बड़े होते चले गये | फिर वे इतने बड़े हो गये थे कि राजू उनके सहारे बड़े आराम से हवा में उड़ सकता था |

इन पंखों को राजू ने अपने दोनों हाथों से स्पर्श किया तो एक अनोखे और चमत्कारी रोमांच के अहसास में डूबता चला गया | वे पंख रुई के जैसे मुलायम और तितलियों की तरह रंग बिरंगे व सुन्दर थे | वे पंख इतने हल्के थे कि उन का भार शरीर पर सिर्फ एक पतंग के जितना ही महसूस हो रहा था |

राजू ने परी रानी की ओर कृतज्ञता से देखा | अब वह भी परियों की तरह उड़ सकता था | परी रानी मुस्कुराई – “अब तुम परी लोक की सीमा के भीतर पलक झपकते ही जिधर जाना चाहो, उधर उड़कर पहुँच सकते हो |”

अब तो राजू और भी खुश हो गया | उसने हौले से पंख फड़फड़ाये | एक प्रयास किया, फिर पंक्षियों की तरह ऊपर की ओर उड़ चला | इस अनोखे अनुभव से वह प्रसन्नता पूर्वक चीख पड़ा – “अरे वाह ! मैं तो सचमुच उड़ सकता हूँ | चिड़ियों की तरह, तितलियों की तरह और परियों की तरह भी | अरे वाह ! सचमुच मजा आ गया |”

राजू सचमुच में झूम - झूम कर उड़ने लगा | लहराकर उड़ा, इतराकर उड़ा | हवा में गोते लगाते हुए उड़ा, परियों के आसमान में कलाबाजियाँ खाते हुए उड़ा | जहाँ मन चाहा वहाँ घूमने लगा | न कोई थकान थी, न कोई डर था | न किसी के डाँटने की चिंता थी, न कहीं भटक जाने की फिक्र हुई |

परी रानी किसी छाया की तरह उसके साथ ही लगी हुई थी | लेकिन राजू से थोड़ा दूर – दूर, ताकि राजू को अपनी मर्जी से जहाँ मन हो वहाँ बिना रोक-टोक घूम पाने का, स्वतंत्र रहने का आभास भी होता रहे |

राजू थोड़ा ऊपर उड़कर परीलोक के बीचों- बीच एक ऊँचे स्थान पर पहुँचा | फिर वहाँ से उसने पूरे परीलोक पर एक विहंगम दृष्टि दौड़ाई तो देखता ही रह गया |

ऊपर - नीचे, दाएँ - बाएँ को मुड़ती हुई इस पेड़ की डालियों पर नागिन जैसी लहराती हुई काली – काली सड़कें बनी हुई थी | जैसे उसके पहाड़ों मे होती हैं | लेकिन वहाँ पहाड़ की सड़कों पर रात में उजाला नहीं रहता था | जबकि यहाँ की सड़कों पर रेडियम जैसी एक अलग ही चमक बिखरी हुई थी | सब कुछ साफ और स्पष्ट देखा जा सकता था | इन सड़कों पर काली रात के अंधेरे में भी बड़ी आसानी से पैदल भी घूमा जा सकता था |

राजू ने देखा | परीलोक में कुछ ऐसे लोग भी थे जो अपनी इच्छा से उड़ नहीं सकते थे | वह यहाँ के सेवक बौने थे, जो जादुई शक्तियों के मालिक तो थे किन्तु उनके पंख नहीं थे | इसलिये वे इन सड़कों पर अजीब से चिड़ियों के आकार और रंग - रूप वाले वाहनों में बैठे इधर – उधर के लिये आ - जा रहे थे |

चौराहों के बीच में बनी चौकियों पर लाल चमकीले रंग की वेश-भूषा में खड़े हुए कुछ बौने आने - जाने वालों को ट्रैफिक पुलिस की तरह हाथ हिला – हिला कर संकेत दे रहे थे | सब कुछ एकदम नियंत्रित लग रहा था | सड़कें इतनी चौड़ी थी कि उन पर दो वाहन आसानी से एक साथ निकल सकते थे | मुड़ने की जगहों पर लाल, पीली और हरी रंग की बत्तियों के संकेतक लगे थे | यहाँ की सड़कों – चौराहों पर खूब चहल – पहल थी |

राजू ने देखा, इस परियों के पेड़ में बाहर से जो घने पत्तों के झुरमुट दिखते थे, उनमें तो आलीशान आवास बने हुए थे | इनमे सुंदर सजावट वाले कमरे थे | रोशनी से झिलमिलाते सितारों वाले झूमर थे और आराम करने के लिए राजाओं के जैसे आरामदायक बड़े पलंग पड़े थे |

इन महलों में चलते – फिरते हुए मचल रही थी वह परियाँ, जो दिन के उजाले में पेड़ पर लटके हुए फलों जैसी निर्जीव दिखती थी | राजू को आभास हो गया कि ये परियाँ शाम ढलते ही पेड़ की शाखाओं से मुक्त हो जाती थी | परीलोक के भीतर कहीं भी विचरण के लिए स्वतंत्र हो जाती थी |

जल्द ही राजू इन परियों के बीच खेलने - कूदने के लिये उनके महलों के बीच उतर आया | उनकी सड़कों पर पैदल चलकर धमाचौकड़ी भी मचायी | कई बौनों की गाडियाँ रोककर उनसे हाथ मिलाया | उनकी दाढ़ियाँ सहलाई | उनकी टोपियों से लटके लट्टुओं को अपने हाथों से हिलाकर, नचाकर देखा | फिर उन्हें उन्हें टाटा और बाय – बाय करके चलता कर दिया |

राजू ने फलों वाली परियों के बीच भी खूब मस्ती की, नाचा – गाया भी | इस समय वे सब सशरीर जीवित, चलती, फिरती, नाचती, गाती दिख रही थी | जैसे आज उनका कोई उत्सव हो | उत्सव हो भी सकता था, क्योंकि आज उनके बीच उनकी परी रानी का विशेष अतिथि और एक अच्छा बच्चा राजू जो आया हुआ था |

परी रानी की भांति ही अन्य परियों ने भी उसे हाथों-हाथ लिया | राजू भी जल्दी ही उन परियों के साथ घुल-मिल गया | उसने सब के साथ खूब बातें की | खूब मस्ती की | खूब घूमा टहला, इतना घूमा – टहला कि कुछ थक भी गया |

तब परी रानी ने कहा – “ इधर आओ राजू ! तुम्हें कुछ नया और तुम्हारी पसंद का दिखाती हूँ |”

राजू फिर नयी स्फूर्ति से परी रानी के साथ चल पड़ा | परी रानी उसे कुछ नया दिखाने के लिए परीलोक की सबसे ऊँची जगह पर ले आयी | ये जगह इतनी ऊँची थी कि वह थोड़ा सा प्रयास करके चाँद को भी छू सकता था |

परी रानी ने बताया – “राजू ! यह परीलोक का अनोखा खिलौना ‘चंद्रासन’ है | तुम इसे चाँद का झूला भी कह सकते हो |”

“अच्छा ?” - सचमुच ये झूला राजू को आश्चर्य चकित करने वाला था |

राजू ने देखा, उसके घर से बहुत ऊँचाई पर दिखने वाला चाँद यहाँ एकदम नजदीक था | इतना नजदीक कि राजू उसको हाथ बढ़ाकर न सिर्फ छू सकता था, बल्कि उस पर उछल कर बैठ भी सकता था |

ये चाँद छोटा था, जैसे दूज की तिथि में होता है | किसानों द्वारा फसल काटने वाली हँसिये के आकार जैसा | इस आकार के समतल स्थल पर आरामदायक मुलायम आसन पड़ा था | परी रानी ने बताया – “इस आसन के चारों ओर सुरक्षा के लिये अदृश्य जालियाँ लगी हुई हैं | जिससे झूलते समय कोई गिर न सके |”

“अरे वाह ! ये तो बहुत अच्छी बात है |” - राजू ने देखा, चाँद वाले झूले के दोनों सिरों पर जो रस्सी बँधी थी, वो ऊपर की ओर बहुत ऊँचे तक चली गई थी ? ये रस्सियाँ इतने ऊपर तक चली गयी थी कि ऊपर जाकर कहाँ बँधी थी ? उसका कोई छोर ही नहीं दिखता था |

राजू अनुमान लगाने लगा था कि ये रस्सियाँ शायद बादलों के घर में बँधी होंगी या फिर भगवान जी के महल में ? पता नहीं | क्योंकि ये तो भगवान जी ही जानें | लेकिन कुछ भी हो, आज ये चाँद वाला झूला मद्धिम रोशनी में जगमगाता हुआ बड़ा ही प्यारा लग रहा है |”

राजू सोच रहा था कि अब वह इस झूले पर उछल कर बैठ जाए | लेकिन एकबारगी उसका मन डर गया कि इसकी रस्सी जाने कहाँ बँधी है ? पता नहीं चल रहा | क्या पता ठीक से बँधी भी है या नहीं ? उसे याद आया कि एक बार गाँव में एक पेड़ की डाल पर झूले की रस्सी ठीक से नहीं बँध पायी थी | सो, झूला टूट कर नीचे गिर पड़ा था | उस पर एक साथ बैठे कई बच्चे अकस्मात चोट खा गये थे | रंग में भंग पड़ गया था |

लेकिन झूलने के लालच में वह साहस करके इसका उल्टा भी सोच बैठा - "रस्सी तो ठीक से ही बँधी होगी, वरना ये अब तक लटक न रहा होता | अपने ही भार और लगातार हवा से हिलते - डुलते रहने के कारण पक्का धरती पर गिर गया होता | वैसे भी यहाँ मुझे कैसा डर ? चलो झूले पर बैठते हैं | जो होगा, देखा जाएगा | परी माँ तो हैं ही, सुरक्षा करने के लिए |"

फिर क्या था ? ऐसा सोचते ही वह उछला और उचक कर चाँद के आसन पर चढ़ गया |

अब राजू ने चाँद पर पहुँच कर सोचा कि जब चाँद तक आ ही गया हूँ , तो थोड़ा सा इधर - उधर भी नजर डाल लेता हूँ | आखिर दोबारा पता नहीं कब आना हो ? हो सकता है ऐसा मौका दोबारा मिले ही नहीं ?

अतः उसने अपने आस – पास और दूर - दूर तक नजरें दौड़ा कर जिज्ञासा पूर्वक देखा | यहाँ तो उसके काम का कहीं कुछ भी नहीं दिख रहा था | ...और तो और वहाँ ‘कहानियों वाली कोई बुढ़िया’ भी नहीं थी | गाँव में बच्चे – बूढ़े सब कहते थे कि चाँद पर एक बुढ़िया है, जो सारी रात चरखा कातती रहती है | लेकिन आज वह कहाँ चली गयी ? क्या आज उसकी छुट्टी है या ये कोई दूसरा ही चाँद है?

-----------क्रमशः

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