पी.के. - 4 - अंतिम भाग Roop Singh Chandel द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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पी.के. - 4 - अंतिम भाग

पी.के.

(4)

सुमन और डॉ. तनेजा की मुलाकातें बढ़ने लगी थीं. सुमन के लाइब्रेरी जाना शुरू करने के बाद वह घर के बजाय उसके ऑफिस में मिलने जाने लगा था.

पीके लंच के लिए प्रति दिन घर जाता था एक बजे और डेढ़ बजे लौट आता था. यह उसकी पुरानी आदत थी, जबकि सुमन लंच लेकर जाती थी. एक दिन बच्चों की बस सुबह आठ बजे स्टैंड पर पहुंची. आठ बजे पीके को लाइब्रेरी खोलवानी होती थी. बच्चों को छोड़कर वह सीधे लाइब्रेरी की ओर दौड़ा और काम में इतना व्यस्त हुआ कि अपनी दूसरी चाबी लेने जाने का उसे होश नहीं रहा. लंच के समय जब वह घर पहुंचा, चाबी जेब में नहीं थी. याद आया कि चाबी तो सुबह वह ले ही नहीं गया. वह उल्टे पांव सुमन की लाइब्रेरी की ओर दौड़ा. वहां का नज़ारा देखकर पीके हत्प्रभ रह गया. डाक्टर सुमन के सामने मेज पर बैठा था. दोनों के सामने चाय के कप थे और दोनों के दाहिने हाथ एक-दूसरे के हाथ में थे और दोनों किसी बात पर ठहाका लगाकर हंस रहे थे. उसने झटके से सुमन का दरवाजा खोला था चाबी लेने के लिए लेकिन दृश्य देखकर झटके से ही दरवाजा बंद कर वापस लौट लिया था. उसे दोनों ने देखा था और उसके दरवाजा बंद करते ही दोनों के और तेज ठहाके सुने थे उसने. सीधे अपनी मेज पर जाकर सिर मेज पर रख वह पंखे के नीचे बैठ गया था. अप्रैल का महीना था और गर्मी का प्रभाव प्रारंभ हो चुका था. ’यह अंत है’ उसने सोचा था. तभी उसे दोनों बच्चों की याद आयी थी. वह तड़प उठा था.

तीन बजे वह बच्चों को लेने के लिए स्टैंड पर था. बच्चों के आने पर सोचने लगा था कि उन्हें कहां ले जाए? तत्क्षण उसने उन्हें सुमन के पास छोड़ आने का निर्णय किया था. मां के पास जाने की बात सुनते ही बड़े बेटे ने कहा था, “मैं जाकर मम्मी से चाबी ले आता हूं.” और बैग उसे पकड़ाकर बड़ा तेज कदमों से मां की लाइब्रेरी के लिए चला तो छोटे ने भी बैग उसे थमाया और सड़क पार करके बड़े के पीछे भाग लिया था. वह दोनों के बैग थामे बस स्टैंड पर शेड के नीचे बैठ गया था.

पीके इंतजार करता रहा. परिचित उसे बच्चों के बैग के साथ वहां बैठा देखकर पूछते, “बच्चे आए नहीं अभी?” वह दोनों के बैग की ओर इशारा करता कि वे आ चुके हैं. उसे यह अचंभा होता कि बच्चों के बैग उसके पास थे फिर भी लोग बच्चों के लौटने की बात पूछ रहे थे. वह जानता है कि लाइब्रेरी में लोगों को पति-पत्नी के बीच चल रहे तनाव की जानकारी थी.

एक घण्टा प्रतीक्षा करने के बाद भी जब बच्चे नहीं लौटे उसने दोनों बच्चों के बैग पड़ोसी के घर रखा था और लाइब्रेरी के सामने पार्क में जा लेटा था. धूप का प्रभाव वहां कम था और हवा थी कि वह वहां लेट सकता था. साढ़े छः बजे के लगभग उसने सुमन और बच्चों को जाते देखा. वह लेटा रहा. उसे झपकी-सी आ गयी थी. मन चाय पीने का था. दोपहर लंच न करने का अहसास आंते भी करवा रही थीं, लेकिन वह लेटा रहा. हल्की झपकी आयी कि उसे नबारिया की आवाज सुनायी दी.

“पीके---यहां?”

वह उठ बैठा और बोला, “टहलता इधर आ गया. मौसम ठीक लगा तो---.”

“अंदर आ जाते---चल कोई नहीं. चाय पिएगें.”

“तुझे घर नहीं जाना?”

“चला जाउंगा. तेरी तरह मेरी बीबी मेरी क्लास नहीं लेगी समय से घर न पहुंचने पर.”

वह चुप रहा था. नबारिया से वह सभी बातें साझा कर लेता था. लेकिन नबारिया के उस व्यंग्य ने उसे विचलित किया और उसने निर्णय किया कि वह भविष्य में कभी भी घर की कोई बात उससे साझा नहीं किया करेगा.

“चलें?” नबारिया बोला.

“चलो.” और बेमन वह नबारिया के साथ हो लिया था.

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चाय पीते हुए वह कुछ देर पहले के अपने निर्णय पर कायम नहीं रह सका. नबारिया समझ रहा था कि घर में कुछ गड़बड़ अवश्य है इसीलिए पीके पार्क में लेटा हुआ था. कुरेदने पर पीके छुपा नहीं सका और चाबी प्रकरण बता दिया लेकिन सुमन के कमरे में डाक्टर तनेजा के होने की बात वह छुपा गया. पहले भी उसने तनेजा के बारे में उसे नहीं बताया था, जबकि सुमन के साथ होने वाले झगड़ों के विषय बता देता था, फिर भी बहुत कुछ छुपा जाता था. उसे लगता कि नबारिया के साथ आधा अधूरा ही सही—साझा करने से उसका मानसिक तनाव कम हो जाता था. एक दिन नबारिया ने कह दिया था, “पीके –बुरा न मानो तो एक बात कहूं.”

“कहो—“ पीके का स्वर उदास था.

“सुमन सच में तेरे लायक नहीं…..“

लंबी आह भरी थी पीके ने और नबारिया उसके आगे कुछ नहीं बोला था. उसे अफसोस हुआ था कि उसने यह कहकर सही नहीं किया था.

पीके का मन फिर उखड़ गया था और जल्दी से चाय सुड़ककर उसने, “चलता हूं” कहकर चला गया था. नबारिया उसे जाता देखता रहा था और एक बार फिर सोचा था कि उसने सही नहीं किया था, लेकिन जुबान से निकली बात वापस नहीं लौट सकती थी और ’मित्र होने के नाते सच ही तो कहा.’ उसने सोचा था. ’लेकिन इतना कटु सत्य नहीं कहना चाहिए था.’

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घर पहुंचने के बाद जिस बात की पीके ने कल्पना नहीं की थी वह हुआ था. बच्चे अपने कमरे में बिस्तर पर लेटे हुए थे और सुमन दफ्तर के कपड़ों में कुर्सी पर बैठी उसी का इंतजार कर रही थी. वह सीधे बच्चों के कमरे चला गया और वहां पड़ी कुर्सी पर बैठने ही वाला था कि सुमन की तेज आवाज उसे सुनाई दी थी, “मिस्टर कुमार—आपसे बात करनी है.”

सुमन के संबोधन से चौंका था पीके. पहली बार इस टोन में बात की थी सुमन ने. वहीं से बोला था वह, “कहें श्रीमती सुमन शर्मा.”

“मैं केवल सुमन हूं---शर्मा आप अपने पास रखें मिस्टर प्रेम कुमार, अटेण्डेण्ट.”

यह दूसरी चोट थी जो पीके के सिर पर घन की भांति पड़ी थी. पीके को लगा था कि कमरा घूम रहा था और उसकी कुर्सी तेजी से इधर-उधर हो रही थी. अंधड़---तेज और तेज---.

“मुझे आपसे बात करनी है प्रेम कुमार शर्मा---.” सुमन की आवाज पूर्ववत थी.

वह चुप रहा.

कुछ देर बाद सुमन दहाड़ती हुई उसके कमरे में पहुंची और बोली, “आपने अपने को समझा क्या है मिस्टर---मैं तीन बार आपको बुला चुकी हूं और---.”

“मैं तुम्हारा नौकर नहीं सुमन---“ मुश्किल से पीके की आवाज फूटी.

“मिस्टर शर्मा, मेरे अधीन चार अटेण्डेण्ट हैं---“

“तो?” तमतमाया हुआ पीके कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और आगे बढ़ा, लेकिन कुछ सोचकर रुक गया और ऊंची आवाज में बोला, “सुमन, मैं तुम्हारा पति हूं.”

“थे.” सुमन की आवाज तीक्षण थी.

“मतलब.” पीके की आवाज मर सी गयी थी.

“जी---आज के बाद नहीं रहे---मैं कल ही कमलानगर शिफ्ट कर रही हूं.”

“कर लो---कोई फर्क नहीं पड़ेगा पीके को“ कह तो गया पीके लेकिन जानता था कि उसे फर्क पड़ेगा. वह सुमन के बिना तो अब रह सकता था, लेकिन बच्चों के बिना----एक क्षण बाद ही वह बोला, “बच्चे तुम्हारे साथ नहीं जाएगें.”

“पापा” दोनों बच्चे उठ बैठे, जो मां पिता को लड़ता चुपचाप लेटे सुन रहे थे और दोनों ने आंखें बंद कर रखी थीं. दोनों अभी भी स्कूल यूनीफार्म में ही थे. दोनों बच्चों ने एक स्वर में कहा, “पापा, हम भी आपके साथ नहीं रहेंगे.”

पीके सिर थामकर कुर्सी पर ढह गया था. एक शब्द भी उसके मुंह से नहीं निकला था.

“मैं कल डाक्टर तनेजा के साथ शिफ्ट कर रही हूं. कान खोलकर सुन लें प्रेम कुमार अटेण्डेण्ट.”

पीके के सिर पर फिर घन बजा था और उस पर अर्द्ध बेहोशी-सी छा गयी थी.

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“ओह!” बेहद पीड़ाजनक. सुनकर विनोद पाण्डे बोला, “लेकिन आपने यह हुलिया कैसे---?”

“छोटी सी कहानी है आगे की विनोद बाबू.” पीके ने आगे कहना शुरू किया, “सुमन डाक्टर तनेजा के साथ लिव इन में रहने लगी. बच्चे उसके साथ रहे. मैं अकेले. छः माह बाद सुमन ने तलाक के कागजात भेजे. मैंने अपनी नियति स्वीकार कर ली थी. जल्दी ही हमारा तलाक हो गया. सुमन ने डाक्टर से शादी कर ली और डाक्टर ने उसके नाम रोहिणी में एक फ्लैट खरीद दिया. सुमन का प्रमोशन हुआ और वह नार्थ कैंपस से साउथ कैंपस लाइब्रेरी में डिप्टी लाइब्रेरियन बनकर चली गयी. तलाक के बाद मैंने उसके बारे में कुछ जानने की कोशिश नहीं की थी. उसके नार्थ कैंपस में रहते हुए मित्र लोग कभी कोई सूचना दे दिया करते थे, जिसमें मेरी कोई रुचि नहीं रहती थी. इस कान से सुनता और उस कान से निकाल दिया करता था.”

“मेरा आखिरी प्रश्न पीके.”

“पूछें”

“आपका यह हुलाया---आखिर नौकरी तो आपने की ही और पेंशन भी मिली होगी.”

“की. मेरा प्रमोशन भी हुआ था. मैं भी सेमी प्रोफोशन असिस्टेण्टेण्ट बना, लेकिन सुमन के कहने पर मेरे डिप्टी लाइब्रेरियन ने मेरे खिलाफ झूठा केस बना दिया और रिटारमेण्ट से पहले ही मुझे सस्पेण्ड कर दिया गया था. “

“कैसा केस?”

“प्रकाशक से कमीशन खाने का.”

“कमीशन?”

“जी. प्रकाशक ने मुझे केवल दो डायरी और दो कलेण्डर दिए थे, जो मैंने मित्रो को दे दिए थे---और प्रकाशक ने गवाही में भी यही कहा कि उसने केवल डायरी और कलेण्डर दिए थे, लेकिन प्रशासन नहीं माना---और---.”

“जब तक केस चलेगा---आपको पेंशन नहीं मिलेगी. लेकिन फण्ड आदि कुछ तो मिला होगा.”

“मिला था.” पीके धीमे स्वर में बोला, “नबारिया और मैंने मिलकर हापुड़ के पास एक कोल्ड स्टोरेज खोला था. मैंने अपनी सारी पूंजी उसमें झोंक दी थी. जगह नबारिया की थी और----.”

“और क्या ?”

“नबारिया ने भी मुझे धोखा दिया---सारी पूंजी हजम कर गया---उसने किसी अन्य को कोल्ड स्टोरेज बेंच दिया था.” पीके के स्वर की पीड़ा उसे अंदर तक छील गयी, “विनोद बाबू, जब समय खराब होता है तब दुनिया साथ नहीं देती.”

वह कुछ उत्तर देता इससे पहले ही सामने डी.टी.सी. बस आकर रुकी और उसकी ओर हाथ हिलाता पीके बस में चढ़ गया था. बस के पीछे नंबर स्पष्ट नहीं था. वह बस को जाता देखता रहा. एक बार उसका मन हुआ कि वह भी दौड़कर बस में चढ़ ले, लेकिन बस स्पीड पकड़ चुकी थी और वह उसे जाता देखता रहा था.

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