भदूकड़ा - 27 vandana A dubey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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भदूकड़ा - 27

कुन्ती ये भी जानती थी, कि फिलहाल ये बात टली तो फिर सबके दिमाग़ से उतर भी जायेगी. क्योंकि न तो इस बात का ज़िक्र भैया करेंगे, न भाभी. हां वे दोनों सुमित्रा को जब भी देखेंगे तो उसकी जगह उन्हें भाभी की साड़ी का फटा हुआ लाल-सुनहरा आंचल लहराता दिखाई देगा, और उसके लिये भैया के मन में स्थाई दूरी बनी रहेगी. यही तो चाहती है कुन्ती. मन ही मन ठठा के हंसती कुन्ती की हंसी ज़ोर से निकल गयी, तो बरामदे में ज़रा दूरी पर बैठे बाऊजी ने सिर उठा के कमरे के अन्दर देखने की कोशिश की, और कुन्ती ने तुरन्त अपनी हंसी अन्दर ही अन्दर घोंट ली.
उधर सुमित्रा जी परेशान थीं कि अम्मा पूछेंगी तो वे क्या बतायेंगीं? क्यों भैया ने भेज दिया? लेकिन कुन्ती से पूरी कथा सुन लेने के बाद अम्मा ने सुमित्रा जी से कुछ नहीं पूछा. सुमित्रा जी मन ही मन घर से निकाले जाने के अपमान और झूठे आरोप से घुट रही थीं लेकिन जल्दी उन्हें इस घुटन से छुटकारा मिल गया.

इस घटना से व्यथित भैया का मन भी घर में लग नहीं रहा था. मन तो उनका भी ये मानने को तैयार नहीं था कि सुमित्रा ने साड़ी फाड़ी होगी लेकिन कुन्ती ने जो सबूत दिखाया उसका क्या? बहनों को घर से इस तरह विदा कर देने का अपराध बोध लिये बड़े भैया तीन दिन बाद ही गांव आ गये. सुमित्रा जी उनके सामने निकली ही नहीं. भरसक बचती रहीं, कि भैया जहां बैठे हों, वहां न जाना पड़े. लेकिन जब अम्मा ने भी बहनों को भेज देने बावत उनसे कुछ नहीं पूछा तो उन्होंने खुद ही बात छेड़ दी. अम्मा तो जैसे भरी ही बैठी थीं. बात शुरु होते ही शुरु हो गयीं-

“ काय लला, तुमने कुन्ती की बात भर काय सुनी? सुमित्रा सें काय नई पूछो? तुमै लगत है के ऊ बिना मौं की मौड़ी ने जौ करो हुइये? ऊये आतीं जे बदमासीं? तुमने आंख मूंद कें सब सही काय मान लओ? पूरी बात तौ हमें सोई नई मालूम लेकिन हम इतेक जानत हैं के जे हरकत सुमित्रा ने नई करी हुइये.”

अम्मा की बातों से भैया का मन भी भारी हो गया. अपराधबोध तो पहले ही था अब दोगुना हो गया. उन्हें याद आया कि सुमित्रा कुछ कहना चाहती थी लेकिन उन्होंने सुना ही नहीं. तुरन्त उठे और छत की ओर चल दिये जहां सुमित्रा बैठी मुनिया की चोटी कर रही थी.

’सुमित्रा, बैन अब बताओ तुम का कहना चाह रही थीं उस दिन.’

’कुछ नहीं भैया. ....!’

’कुछ नहीं? तुमने कहा था न कि तुम कुछ कहना चाहती हो....?’

’ अब भूल गये भैया.... अब कुछ नहीं कहना...!’ इतना कहते ही स्वाभिमानी सुमित्रा जी की आंखों से आंसुओं की धार लग गयी.

भैया उठे और स्नेह से उनके सिर पर हाथ फेरते बोले-

’बताओ सुमित्रा वरना हमारा जीना हराम हो जायेगा. तुम्हारी जैसी बहन का जो अपमान हुआ है, वो भी हमारे द्वारा उसका प्रायश्चित कैसे होगा? बताओ क्या हुआ था उस दिन?’

और सुमित्रा जी ने रोते-रोते पूरी बात बता दी. ऐसा पहली बार हुआ था जब सुमित्रा जी ने कुन्ती की कोई शिक़ायत की थी. भैया चुपचाप सुनते रहे, सुमित्रा जी रोती रहीं और भैया उनके सिर पर हाथ फेरते रहे.

’हो सके तो हमें माफ़ कर देना बैन...!’
(क्रमशः)