नाम में क्या रखा है
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“फलसफों को जरूरत नहीं किसी अफसाने की ये बात तो है बस दिल को जलाने की”.......कुछ ऐसा ही मेरा हाल है. ‘मैं कुछ नहीं से कुछ होने तक’ के सफ़र की अकेली कड़ी हूँ जो अपने अन्दर की कचोट से लडती है झगडती है लेकिन शिनाख्त करने की हिम्मत नहीं है शायद तभी तो असमंजस के जूतों में पाँव डाल डगमगाती चाल से हैरान परेशान हूँ. खुद को देखना एक प्रक्रिया भर नहीं है. ढूंढती हूँ अन्दर ठहरी बर्फ में आग के निशाँ जो पिघला सकें अपनी तपिश से बरसों से जमी बर्फ को. सिर फोड़ने को पत्थर की जरूरत नहीं महसूसने को काफी है इल्म होना ही.........किराये की कोख से जैसे नहीं उपजता पीड़ा का अहसास कुछ यूँ ही बेचैनियों की दबिश से नहीं बुझती दिल की आग.....जहाँ सुलगती है एक गीली लकड़ी, धुंआ धुंआ ही फैला है, आर पार देखने का हुनर जान कर भी अनजान बन रही हूँ, मन के तहखाने की सांकल खुलती ही नहीं, चाबी भी हाथ में है मगर खोलने को कंपकंपाते हाथों की सर्द छुअन सिहरा रही है बार बार. उस तरफ आवाज़ की ख़ामोशी है, मरघटी खामोशियों में भूत पिशाच बेताल का सन्नाटे की दहलीज पर मानो तांडव हो और शोर बाहर का द्वार खटखटा रहा हो और मैं उस मरघट का पहरेदार बन अनसुनी कर रही हूँ......... कोई दुविधा की स्थिति नहीं है बस मेरे अन्दर बैठी स्त्री अपने घूंघट के पट खोलना चाहती है तो दूसरी तरफ देव को दर्शन भी नहीं उपलब्ध करवाना चाहती है........ एक कशमकश की चौखट पर मेरे मन की सांझ उतरना चाहती है, कुछ देर सांस लेना चाहती है सब कुछ उगलकर, हर विष और हर अमृत को चखकर...........शायद बन सके शिव का तीसरा नेत्र, हो कहीं भृकुटी में मध्य कोई संतुलन तभी आज स्मृति की कोख से वेदना प्रसूत हुई है.
नाम में क्या रखा है
नाम में ही तो सारी दुनिया समायी है
बस ये शब्द ‘नाम ‘ ही जीवन का उद्देश्य बन गया. “ख्याति के रथ पर सवार होने को, आरूढ़ होना होता है संयम और मर्यादा के घोड़ों पर तभी संतुलन के साथ की जा सकती है सवारी”....... को ब्रह्म वाक्य मान लिया और चल पड़ी वक्त से आँख मिलाने मेरे मन की एक किरण.
रूप बदलती मिली बहुत सी इकाइयां बस नाम का फर्क लिए मगर अन्दर तो वो ही बैठा था लार टपकाता एक पुरुष. रंग रूप मुद्रा बेशक बदल जाएँ मगर अन्दर काटती चींटियों से नहीं होते ये मुक्त....... मैं कोई नहीं थी या मैं कोई भी हो सकती हूँ, हर स्त्री के अन्दर की कोई एक स्त्री जो चुप है, खामोश है मगर फिर भी बोल रही है, चिंगाढ रही है फिर माध्यम चाहे कोई भी हो तो मैंने भी चुन ही लिया एक माध्यम..........कलम का.
कहानियाँ हर बच्चे का प्रिय शगल. हर कहानी में खुद को देखने की चाहत और फिर अंत सुखद. यही उद्देश्य रहा हमेशा से कहनियों का और हम विचरते रहे उन्ही ख्वाबों की खोहों में कि जो कहानियों में देखा सुना पढ़ा वो ही सच होता है अंतिम सच.........लेकिन हकीकत के धरातल पर जब कलम हाथ में आई तो हर विसंगति का अंत सुखद कहीं मिला ही नहीं. न्याय की बाट जोहते चालीस वर्ष भी बीत गए तो बड़ी बात नहीं.......देर से मिला न्याय भी अन्याय ही है....को सार्थक करते हुए तब जाना दिखाना होगा आइना, निकालना होगा पाठक को उस तिलिस्म से बाहर और रखवाना होगा उसका पाँव जमीनी हकीकत पर. बस सफ़र शुरू हो गया.
सफ़र शुरू करना आसान है लेकिन सफ़र में चलते चले जाना बिना परेशां हुए संभव ही नहीं उस पर अंत तक पहुँचते पहुँचते हिम्मत का जवाब दे जाना भी उसी का एक पहलू होता है तो गुजरना था मुझे भी उसी में से और गुजर रही थी. मिले बहुत से शहर गाँव और मोहल्ले जहाँ कुछ देर रुकी, प्यास बुझाई और आगे चल दी क्योंकि मंजिल नहीं है वो मेरी मगर इसी रुकने को किसी ने अपनत्व की आहट समझा तो किसी ने हाथ आया रसगुल्ला जिसे गड्पा जा सकता है. कहानी और हकीकत की महीन सी लकीर को जो नहीं जान पाते वो ही शर संधान करते हैं लग गया तो तीर नहीं तो तुक्का. यूँ ही नहीं कदम रखा था जानने लगी थी हर बहकी नज़र के पैगामों को जो कभी कविता के माध्यम से तो कभी दबे - ढके शब्दों की खोल उढ़ाकर पेश किये जाते थे तो जरूरत थी उन्हें समझाने की बताने की.......... जिस फूल की तलाश में भटक रहे हो वो मैं नहीं..........मित्रता तक ही रखो अपना मायाजाल......... तो चल दिए कुछ पीछे पीछे तो कुछ ने झटक कर दामन आगे का रुख किया और सफ़र मेरा चलता रहा.
हाँ, तो बात है नाम की. तुम्हारा तब तक नाम भी नहीं जानती थी जब तक अपनी पहचान भी नहीं बनायीं बेशक तुम साहित्यिक इतिहास के जगमगाते सितारे थे तो क्या हुआ ? होते रहे....... सबकी अपनी सोच होती है. मैं कौन थी से ज्यादा अहमियत इस बात की थी कि तुम कौन थे और कैसे अपनियत से मिले कि पहली ही बार एक रिश्ता सा कायम हो गया.........स्वस्थ दोस्ती का.
मेरी पहली कहानी किताब का विमोचन, तुम्हें भेंट करना और फिर चार दिन बाद ही तुम्हारी बेचैन प्रतिक्रिया का मिलना मेरे अन्दर के तारों को झनझना गया. एक पाँव जमीं पर तो एक आसमान पर पहुंचा गया जब तुम्हारा फोन आया
“निशि जी, मैं प्रणय बोल रहा हूँ, शब्दबोध का संपादक”
“ओह ! नमस्कार प्रणय जी “
“मेरा अहोभाग्य, जो आपका फोन आया “
“जी, मैंने आपका संग्रह पढ़ा और पढ़कर यूँ लगा जैसे मेरी ही ज़िन्दगी को बयां किया हो, मेरे मन की सूखी डाल पर मानो ओस की बूँद गिरी हो और मैं उसे खुद में समेटने को व्याकुल हो उठा कहीं हाथ से छिटक न जाए “
“ओह प्रणय जी.........आपको कौन सी कहानी सबसे ज्यादा पसंद आई ?”
“आपके द्वारा लिखी ‘ देहरी पर ठिठका प्रेम ‘. प्रेम पर बहुत दिनों बाद कुछ ऐसा पढ़ा कि खुद को रोक नहीं पाया आपको फ़ोन करने से. नाराज तो नहीं हैं न, कहीं असमय आपको परेशां किया हो मगर क्या करूँ आपकी कहानी ने राख में भी शोले भड़का दिए “
ख़ुशी और असमंजस में फंसी मैं सिर्फ इतना ही कह पायी........” बहुत बहुत शुक्रिया प्रणय जी........आप जैसे सुधीजनों के सानिध्य में ही कुछ सीख पाऊंगी. इसी तरह हौसला अफजाई करते रहिएगा. “
“जी बिलकुल, नमस्कार “
एक औपचारिक और अनौपचारिकता के बीच फंसी बात ने मेरे मन में उमंगों का सागर लहरा दिया. हाँ, मैं भी कुछ कर सकती हूँ, हाँ, दुनिया सुनती है मुझे भी, पढ़ती है, अब मेरा भी नाम होगा, मेरी भी एक अलग पहचान होगी. रात किलकारी भरती रही और मैं जागती आँखों से स्वपन के संसार में विचरण करती रही.
ज़िन्दगी धीरे - धीरे आकार लेती रही जहाँ प्रसिद्धि की ओर एक - एक कदम आगे बढ़ता रहा. इसी बीच कभी कभार प्रणय से बातचीत होती रही. एक बड़ा संपादक आपसे बात करे तो ये हर्ष और गर्व दोनों की बात ही है ऐसा लगता मुझे. एक दिन तुम्हारे एक सम्पादकीय में तुम्हारे द्वारा लिखा प्रेम पर सम्पादकीय पढ़ा जहाँ तुमने अपनी वेदना को शब्द दिए थे.....
“ मैं आदिम सभ्यता का वो नपुंसक हूँ जो प्रेम का गणित प्रेम के रहते न जान पाया और अब अंधेरों की दुल्हन ने किया है श्रृंगार मेरी बेचैनियों का. प्यासा पनघट हूँ जिसके चौबारे पर रोज छनकती थीं कभी पायल की स्वरलहरियां, जिसके किनारों पर रोज कुहुका करती थीं कोयल सी बोलियाँ, जिसकी रग रग में सिर्फ प्रेम का सागर ठाठें मारता था उसी को मैंने नज़र अंदाज़ किया और आज ठूंठ सा बैठा हूँ किनारों को पछीटते हुए.” जाने क्या था उन पंक्तियों में झकझोर गया मुझे . ओह ! ये तो प्रेम का प्यासा कोई दरवेश गलती से यहाँ आ गया है और अब चुकता कर रहा है ब्याज सहित अपनी बेरुखी की कीमत.
मुझे अपनी पत्रिका में प्रमुखता से स्थान देने लगे, मेरी पहचान बनना लाजिमी था एक साहित्यिक पत्रिका में स्थान मिलना वो भी हर अंक में मेरे लिए गौरव की बात थी. मेरे पाँव तो जमीन पर पड़ने से इनकार करते थे लेकिन मैं उन्हें यथार्थ के धरातल से कभी उठने नहीं देती थी क्योंकि मेरी तीसरी आँख हमेशा मुझे सचेत करती रहती थी. एक ऐसे महामायाजाल में प्रवेश किया था जहाँ जरा सी फिसलन मेरी ख्याति के आसमान को धूमिल कर सकती थी इसलिए सतर्क रहना लाजिमी था. इस बीच प्रणय और मेरे बीच बातचीत का दौर जारी रहा.
नहीं जानती थी कुछ भी तो तुम्हारे बारे में सिवाय इसके कि कभी रौशन थी तुम्हारी भी बगिया और एक ही झटके में पतझड़ उम्र भर के लिए आकर ठहर गया, तुम्हारा तुमसे सब कुछ छीन कर, तुम्हें भरी दुनिया में बिलकुल तनहा करके. एक कंधे से भी महरूम करके. दुःख हुआ था जानकर एक ही पल में जब किसी की सारी दुनिया ही उजड़ जाए तो उसका क्या हाल होगा एक सहानुभूति ने अपनी जगह बना ली थी.
“ बीवी बच्चे सब एक एक्सीडेंट में ख़त्म. भरी दुनिया में अचानक कंगाल होना देखा है कभी..... मुझे देख लेना निशि, शायद समझ सको,कैसे एक ही पल में मेरी आँखों के सामने मेरा सब कुछ लुट गया था और मैं बेबस सा सिर्फ देखता ही रह गया. जानती हो अब मेरी आँख के सारे आंसू ख़त्म हो चुके हैं, ये दुनिया, इसके उजाले मेरे किसी काम के नहीं, घबराता हूँ उजालों की दुनिया से, आखिर किसके लिए रुख करूँ उजालों की तरफ, कौन है जो मुझे देखकर मुस्कुराए, मेरी तरफ हाथ बढ़ाये, जो थे सब चले गए मुझे तनहा छोड़कर वहां जहाँ से वापसी की कोई राह नहीं होती. तन्हाई की गहरी अंधियारी खोह में भटकता एक आदमकद हूँ मैं जिसके लिए रौशनी और अँधेरे में कोई फर्क नहीं “ कहा था एक दिन तुमने और मेरे पास तुम्हें सांत्वना भरे शब्द देने के सिवा और कुछ नहीं था इसलिए सिर्फ इतना ही कह पायी :
“जीना होगा तुम्हें”
“किसके लिए ?”
“अपने लिए “
“ ये जीना नहीं है मृत्यु है मेरी. मैं रोज अपनी लाश को कंधे पर ढोकर एक शमशान से दूसरे ( मकान से ऑफिस ) शमशान तक लेकर जाता हूँ और फिर उसी तरह ढोकर वापस लाता हूँ. बेताल की तरह नहीं है मेरे पास कोई कहानी सुनाने को, लगता है मैं वो शापित बेताल हूँ जिसकी मुक्ति के लिए नहीं है कोई प्रयास करने वाला, मुझे वापस उसी शाख पर जाना ही होता है जिस पर जाने से मैं बहुत घबराता हूँ . बस खुद से ही डरने लगा हूँ, अपनी नफरत से बेजार हूँ “.
“खुद से नफरत..... आखिर क्यों ?”
“ हाँ, हो जाती है खुद से भी नफरत जब हकीकत का धरातल तुम्हें मुंह चिढाता हो. तुम्हारे में से तुम्हारा सब छीन लेता हो. मैं वो झाडफानूस हूँ जिसमे अब कोई रौशनी नहीं क्योंकि वक्त रहते मैं समझ ही नहीं पाया आखिर मेरी प्राथमिकता क्या है, एक नाम के पीछे भागता रहा घर और बच्चों को इग्नोर करके. आज सब कुछ है, नाम है पहचान है मगर आज मैं अपनी ही कब्र में अकेला जिंदा चिना हुआ हूँ, आखिर किसके लिए किया मैंने ये सब. सिर्फ अपने लिए न! तो मुझे खुश होना चाहिए था न ! देखिये आज शिखर पर होकर भी कितना तनहा हूँ मैं तो क्या है औचित्य जीवन का ? मेरे जीने का ? चाहता हूँ सब कुछ छोड़कर भाग जाऊँ कहीं मगर फिर लगता है ‘कहाँ जाऊंगा खुद से भागकर’. अब मेरे जिस्म को नहीं मेरी रूह को छेद रही हैं मेरी तनहाइयों की सुईयां जिनसे निजात कैसे पाऊँ कुछ समझ नहीं पा रहा . क्या आप बता सकती हैं कोई राह ?”
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