कशिश
सीमा असीम
(24)
क्या लिखूँ मैं ? कविता या प्रेमपत्र ? दिमाग में तो राघव ही घूम रहे हैं तो राघव को ही लिख सकती है और कुछ ख्याल में ही नहीं आता मानों पूरी दुनियाँ को बिसरा कर सिर्फ राघव से नाता जोड़ लिया है या सिर्फ उनको हो अपना मान लिया है ! राघव क्या तुम मेरा मन नहीं पढ़ पाते ? क्या तुम्हें मेरे अलावा कोई और भी इस दुनियाँ में नजर आता है तो क्यों ? मुझे तो कोई भी नहीं दिखता ! सिर्फ तुम और तुम ही !
कैसे संभव होगा ऐसा कि वो सिर्फ मुझे सोचे ! सिर्फ मुझसे बात करे ! सिर्फ मेरे सिवा किसी और को न देखे ! शायद मैं स्वार्थी हो गयी हूँ लेकिन यह हमारे वश में नहीं है यह मेरी प्रकृति कहती है ! सब कुछ जैसे अपने आप से होते चले जाना ! उसका जी चाह रहा था कि वो ज़ोर से कहे कि वो राघव को प्रेम करती है और अब वो राघव की है और राघव सिर्फ उसके ! वो उनसे प्रेम करती है और प्रेम कोई छिपने की बात तो नहीं है न ! प्रेम तो खुशी देता है ! जीवन को उत्सव बना देता है फिर इसे जमाने से क्या छुपाना !
लेकिन राघव चाहते है कि मैं अपने प्रेम को छुपा दूँ ! क्या प्रेम उन्हें खुशी नहीं देता ? या उनके मन में कोई स्वार्थ की भावना है ? सिर्फ अपनी खुशी की कोई भावना ! राघव मैं तुम्हें सच में बहुत चाहती हूँ मैं नहीं जी सकती हूँ तुम्हारे बिना ! एक पल भी नहीं ! मुझे अपना बना लो सदा सदा के लिए ! हाँ यह सही है राघव से अभी जाकर कह के आती हूँ !! वो उठी और उसने अपने पाँवों में स्लीपर डाले तभी उसे ख्याल आया कमरे में मैडम हैं और उनकी चार आँखें फिर वो कैसे जा सकती है चलो डिनर के समय वो राघव से बात करेगी ! वहाँ भी कैसे कर पाएगी ? सब लोग होंगे ! उसने अपनी आँख बंद करते हुए सोचा, क्यों हो गया उसे प्रेम ? क्यों वो राघव के प्यार में गिर गयी ? अब कौन संभालेगा उसे ? कौन रास्ता दिखाएगा ! कैसे जिये और कैसे मर जाये ?
पारुल कागज लेकर पेन से ऐसे ही न जाने क्या क्या लिखती रही ताकि दिल बहला रहे और घबराहट थोड़ी कम लगे और आँखों से बहते हुए आँसू थम जाएँ लेकिन इन आंसुओं का क्या करें कि बस बहते ही जा रहे ! क्या प्रेम में हमारा मन हमारे वश में नहीं होता है वो यूं ही किसी के वश में हो जाता है जो भले ही हमारी तरफ ध्यान दे या न दे !
थोड़ी देर में डिनर के लिए जाना है और आँखें रो रो कर लाल हो गयी हैं ! क्या करूँ ? वो उठी और बाशरूम में चली गयी ! आँखों पर पानी के छींटे मारे ! बाहर से मेनका मैडम कुछ कह रही थी शायद ? उसने एक हाथ से टैब बंद की और दूसरे से अपनी आँखों को दबाकर आँख में भरा पानी निचोड़ा !
अरे पारुल इस समय नहाने गयी है ? वे कह रही थी !
नहीं नहीं बस हाथ मुंह धो रही हूँ !
चलो फिर जल्दी आओ खाना खाने चले बड़ी भूख लगी है !
जी आती हूँ मैडम !
खाने का समय हो गया ?
अरे बेटा वहाँ पहुचते पहुँचते हो जाएगा !
उसने तौलिया से अपना मुंह पोछा और बाहर आ गयी !
जी ठीiक है, चलिये !
अरे तेरी आँखें बड़ी लाल हो रही हैं उनकी पारखी आँखों ने उसकी प्रेम भरी बड़ी बड़ी आँखों में झाँकते हुए कहा !
पता नहीं शायद ठंड की बजह से !
हाँ यहाँ ठंड भी तो बहुत है !
कमरे से बाहर आते ही ठंड से हाथ ठंडे पड गए तो वो अपने दोनों हाथो को मसल कर गरम करने लगी !
क्यों क्या हुआ ? ठंड लगने लगी बाहर निकलते ही ?
जी, वो मुस्कुरा कर बोली ! ये भावनाए भी बड़ी अजीब होती हैं कब हमें रुला दे और कब हंसा दे कुछ कहा ही नहीं जा सकता कि उनके साथ भर का सोच कर ही चेहरे पर मुस्कान आ गयी है !
वे भी मुसकुराई ! पारुल को उनकी मुस्कान का अर्थ समझ नहीं आया लेकिन उनका इस तरह से मुस्कुराना अच्छा लग रहा था ! होटल का डाइनिग रूम आ गया था ! अन्य लोग आ गए थे राघव भी वही बैठे थे ! उन्हें देखते ही चेहरे पर मुस्कान आ गयी ! अभी राघव ने उसे नहीं देखा था वे और लोगों से बात करने में लगे हुए थे ! ये जादू कैसे और क्यों हो जाता है ? कैसे कोई अपनी जान बन जाता है कि एक झलक देखने भर से अटकी हुई साँसे आने जाने लगती हैं !
न जाने कैसे कोई साधारण सा चेहरा असाधारण लगने लगता है ? कैसे उसमें ईश्वर की छवि नजर आने लगती है ? कुछ समझ ही नहीं आता, कुछ भी नहीं !
वो बस उनको देखती ही रह गयी ! उनके बात करने के ढंग ही जुदा है, हर किसी को अपना समझ कर बात करते हैं और हर किसी को अपना समझ लेते हैं ! यह अच्छी आदत भी और बुरी भी ! वे उस तरह का व्यवहार करके कई बार अपनों को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं, उसे ऐसा ही महसूस हुआ था ! वो गलत भी हो सकती है !
अरे पारुल क्या सोच रही है ? तू सोचती बहुत है !
कुछ भी तो नहीं ! वो मुस्कुराइ !
फिर बैठती क्यों नहीं है ?
हाँ हाँ बैठ रही हूँ ! अपने ख़यालों की दुनियाँ से बाहर आते हुए उसने कहा !
मेनका मैडम, राघव, निरंजन सर, और उनके साथ आई उनकी प्रिय शिष्या प्रियंका जी ! जब वे उसे बुलाते हैं तो ऐसा लगता है मानों प्रिया प्रिया कहकर बुला रहे हो !यह सोच कर ही उसकी हंसी छुट गयी !
हे भगवान, ये गुरु शिष्य का रिश्ता भी न बड़ा अजीब है !
अभी सोच रही थी और अब हंसने लगी ! किस बात पर इतनी ज़ोर से हंसी आ गयी, भई हमें भी बताओ तो हम सब भी ज़रा हंस ले !
नहीं नहीं ऐसी कोई बात ! वो शर्माती हुई बोली !
उसने एक कुर्सी थोड़ी सी आगे को खींची और उसपर बैठ गयी ! मेज पर खाना लग गया था ! दाल फ्राई, मिक्स सब्जी, नान, मटर पुलाव और सलाद ! अच्छी खुशबू आ रही थी और भूख भी बहुत तेज लग रही थी ! वैसे कहते हैं जब मन चंगा तो कठोती में गंगा ! इस समय उसका मन बहुत ही खुश था और तब तक खुश ही रहता है जब तक वे सामने रहते हैं ! भले ही बात हो न हो लेकिन दिल को तसल्ली सी बनी रहती है न जाने क्यों और कैसे ?
वाकई खाना स्वादिष्ट था बिलकुल घर जैसा ! खाना खाने के बाद राघव तो उठकर चले गए पर वो और लोगों के साथ बैठी बातें करने लगी ! वो बातें तो कर रही थी उन लोगों के साथ लेकिन मन राघव के पीछे पीछे चला गया था !
क्या बहाना करे कैसे जरा देर को उठ कर राघव के कमरे मे जाये ? मन में भयंकर उथल पुथल मची हुई थी ! सब लोग बैठे हैं और वो बीच में से कैसे उठ कर चली जाये ! उसने अपने सर को झटका और मन में ही कहा, सोचने दो जिसे जो सोचना है !
वो उठी और सीधे राघव के कमरे में आ गयी ! वे अपने बैग में से कुछ निकालने का उपक्रम कर रहे थे !
अरे तुम आ गयी ! वे उसे देखते ही बोले !
हाँ ! उसने गर्दन झुकाते हुए कहा !
अब जाओ रात बहुत हो रही है ! अपने कमरे में जाकर सो जाओ !
मउझे कहीं नअःईन जाना !
क्या मतलब ?
हाँ मैं यही रहूँगी आपके साथ !
यह कैसे संभव है ?
तो संभव कीजिये ! मुझे तुमसे दूर नहीं जाना ! मैं तुम्हें प्यार करती हूँ और तुम सिर्फ मेरे हो !
मैं तुम्हारा हूँ लेकिन सिर्फ तुम्हारा नहीं !
क्यों ?
क्यों का तो कोई जवाब ही नहीं है !
तो मुझसे शादी करके सिर्फ मेरे हो जाओ न ! मैं तो सिर्फ तुम्हारी हो ही चुकी हूँ ! पारुल ने आगे बढ़कर राघव को अपने गले से लगाते हुए कहा !
अरे क्या कर रही हो, दरवाजा खुला हुआ है !
बंद कर दो दरवाजा ! पारुल ने अपनी बंद आँखों के साथ कहा ! मानों कोई नशा या मदहोशी सी उस पर छाती जा रही थी !
राघव ने उसे कसकार अपने सीने से लगाया और बोले, पारुल ऐसा नहीं हो सकता तुम जानती हो न फिर कैसी ज़िद !
मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ बस इतना ही जानती हूँ !
राघव खामोश ही रहे ! उस खामोशी में भी मधुर राग बजने लगे, कहीं दूर कोई गीत गा रहा था उसकी मधुर धुन कानों में रस घोल रही थी और वे दो जिस्म जरूर थे जो एक होने के लिए ही बने थे ! भले ही वे अलग थे पर अब एक जान हो चुके थे एक दूसरे के सुख दुख के साथी !
दूर से आती हुई गीत की मधुर धुन शांत हो गयी थी कमरे में शांति छा गयी पल भर को आया तूफान शांत हो गया था !
पारुल तुम अपने कमरे में जाओ वरना मेनका जी न जाने क्या क्या सोचेंगी !
वे कुछ नहीं सोचेंगी और अगर सोचती हैं तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता !
मुझे तो पड़ता है यार !
राघव तूम मुझसे शादी करने के लिए जल्दी करना मैं नहीं रह सकती हूँ तुम्हारे बिना !
शादी, बार बार शादी का नाम क्यों ले रही हो ?
प्रेम का चरम शादी ही तो है !
जब मैं बिना शादी के भी तेरा ही हूँ तो कैसी शादी ! मन के बंधन से बढ़कर कोई दूसरा बंधन नहीं होता !
लेकिन समाज ?
समाज कुछ नहीं करेगा !
सुनो, मेरा प्रेम अधूरा न रहने देना !
तुमने वो गाना नहीं सुना, कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता !
लेकिन मैं अपने प्रेम को मंजिल तक ले कर जाऊँगी !
मेरी प्रिय प्रेम की कोई मंजिल नहीं सिर्फ रास्ता ही है और चलते चले जाना है ! बहुत कठिन है सफर लेकिन चलना है बिना थके हुए ही !
मैं चलने से नहीं घबराती हूँ फिर भी कहीं तो हमें ठिठकना ही होगा !
उस दिन प्रेम की मौत हो जाएगी !
कैसी बातें कर रहे हो ?
यार समझा करो, कल को अगर कोई और लड़की मेरे जीवन में आ गयी तो क्या मैं उससे भी शादी कर लूँगा !
अरे राघव यह तुम क्या कह रहे हो ? क्या यही है तुम्हारे जीवन का मकसद और यही है प्रेम की परिभाषा ?
राघव ने कोई जवाब न देकर उससे कहा, जाओ, जाकर सो जाओ, अब रात बहुत हो रही है !
वो अपनी आँखों में आँसू भरकर मरे हुए कदमों और दर्द भरे तन को खींचती हुई कमरे से बाहर आ गयी !
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