चौपड़े की चुड़ैलें - 2 PANKAJ SUBEER द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

चौपड़े की चुड़ैलें - 2

चौपड़े की चुड़ैलें

(कहानी : पंकज सुबीर)

(2)

क़स्बे के जवान होते लड़कों के लिए चौपड़ा मुफीद जगह थी दिन काटने की। चौपाल पर बूढ़ों का कब्ज़ा था और मंदिर के पीछे के मैदान पर जवानों का। तो लड़कों ने अपना अड्डा बनाया नागझिरी और चौपड़े में । गरमी के दिनों में तो वहाँ हम्मू ख़ाँ भी होता था। लम्बी और मेंहदी के रंग में रँगी दाढ़ी, सिर पर गोल जालीदार टोपी, टोपी से झाँकते मेंहदी में रंगे बाल, बड़ी मोहरी का सफेद पायजामा और उस पर गोल गले का सफेद कुरता। कुरते की जेब से लटकते तम्बाख़ू-सुपारी की थैली के बंद। आँखों में गहरा सुरमा। मुँह में हमेशा दबा हुआ पान। उँगली के सिरे पर लगा हुआ चूना, जिसे बीच-बीच में चाटने की आदत। हाथ में हमेशा एक लाठी। उम्र यही कोई पैंतालीस से पचास के बीच। हम्मू ख़ाँ और इन जवान हो रहे लड़कों के बीच अजीब सा रिश्ता था। लुकाछिपी का। एक अकेला हम्मू ख़ाँ और जवान होते कई सारे लड़के। हम्मू ख़ाँ इनको लौंडे-लपाटी कहा करता था। दिन भर डंडा लेकर घूमता रहता था बाग़ में। दिन में यह लड़के हिम्मत करके चौपड़े में कूद कर नहा भी लेते थे, हम्मू ख़ाँ से परमीशन लेकर। अब तो नहाने की कोई मनाही नहीं थी, असल में अब तो रखवाले ही चले गए थे। रखवाले मतलब वह साँप जो पहले दरारों में रहते थे। चौपड़े के पानी की केवल हवेली वालों के लिए रक्षा करने वाले जा चुके थे। अब तो कोई भी नहा सकता था उस पानी में। हालाँकि चौपड़े में क़स्बे वाले अब भी नहीं नहाते थे, बल्कि वह तो चौपड़े की ओर जाते भी नहीं थे मगर, लड़कों को कौन रौकता। लड़के चकमा देकर आम भी उड़ा ले जाते थे। कभी-कभी ऐसा लगता था कि हम्मू ख़ाँ को भी पता था कि लड़के आम उड़ा ले जाते हैं लेकिन, वह अनभिज्ञ बना रहता है। कई बार तो वह लाठी लेकर उस पेड़ के नीचे ही खड़ा रहता, जिस पेड़ पर कोई लड़का चढ़ा होता और कई बार यह भी होता कि वह कनखियों से देखता हुआ निकल जाता। शायद चुड़ैलें भी इसी प्रकार से इन लड़कों को खेलता देख कर चुपचाप निकल जाती होंगी, और शायद नागझिरी के साँप भी।

बात उस समय की है जब चुड़ैलों का प्रकोप चौपड़े पर बढ़ा हुआ था। बात उन दिनों की भी है जब यह लड़के देह की तरफ से परिवर्तित हो रहे थे। जिज्ञासाओं के पहाड़ अपनी छाती पर लाद कर घूमते थे। जिज्ञासाएँ जिनका कोई समाधान नहीं था। सवाल थे लेकिन, उन सवालों का कोई उत्तर नहीं था। जिनके पास उत्तर थे वह लोग इन लड़कों को उत्तर बताने के लिए तैयार नहीं थे। लड़के अपनी देह में ऊगते प्रश्नों को सहलाते रहते थे। चौपड़े के पानी में तलाश करते थे कि कहीं कोई गंध दिन में बची हो चुड़ैलों की। नहा कर चौपड़े की कोठरियों में बने चबूतरों पर लेट जाते। चबूतरों में से कभी-कभी कोई गंध आती भी थी, धीमी-धीमी। गंध अजीब सी होती थी। लड़कों ने इससे पहले यह गंध नहीं सूँघी थी। जिस दिन भी गंध आती उस दिन लड़के चबूतरे के पत्थर पर पेट के बल लेट कर, नाक को पत्थर पर टिका कर गहरी-गहरी साँसें भर सूँघते रहते उस गंध को। अपने अंदर, गहरे, बहुत कहरे उतारते रहते उस गंध को। पत्थर के बीचों-बीच से आती थी वह गंध। जब तक चौपड़े में रहते तब तक कपड़ों से कोई राब्ता नहीं होता इनका। नहाने से पहले उतारे हुए कपड़े, तब ही पहनते जब वापस चौपड़े से निकलने का समय हो जाता। और निकलने का कोई तय समय तो था नहीं। जब सूरज उतरने लगे, तब निकल लो। निकल लो, क्योंकि अब चुड़ैलों का समय हो रहा है। बचपन अभी कुछ दिनों पहले ही विदा हुआ था, इसलिए डर तो था मन में। अँधेरा होने से पहले ही निकल कर भाग जाते थे चौपड़े से। जब तक चौपड़े में रहते तब तक, इधर-उधर पड़ी हुई कुछ काँच की बोतलों और कुछ अजीब से सामानों को उठाते और उनसे राब्ता पैदा करने की कोशिश करते। लड़कों को कुछ पता नहीं था कि यह सब क्या हो रहा है? यह जो देह में अँखुए से फूट रहे हैं यह अँखुए आखिर हैं क्या? तलाश जारी थी सत्य की। तो रात भर जहाँ चुड़ैलों का साम्राज्य रहता था, वहीं दिन में इन भूतों का डेरा उस चौपड़े में जमा रहता था। नागझिरी का वह बाग़ पूरी तरह से अतृप्त आत्माओं के चंगुल में आ चुका था, दिन में भी और रात में भी।

एक गरमी का मौसम बीत कर दूसरा आने तक, लड़कों और हम्मू ख़ाँ के बीच कुछ संवाद शुरू हो गए थे। लड़के अब हम्मू ख़ाँ के आम चुराते नहीं थे, बल्कि उन आमों की रखवाली करने में भी हम्मू ख़ाँ का साथ देते थे। लड़कों के जीवन से कच्ची कैरियाँ और आम खाने के मौसम अब जा चुके थे। अब पेड़ों पर लगी कैरियाँ उनको ललचाती नहीं थीं। लेकिन और भी अब बहुत कुछ ऐसा था जो उनको ललचाता था। लेकिन जो ललचाता था वह कैरियों की ही तरह पत्तों में छिपा था। सामने ही नहीं आता था। लड़के पत्तों का हटा-हटा कर तलाशते थे कि क्या है, जो ललचा रहा है लेकिन.....। बचपन अब पूरी तरह से बीत चुका था। लड़के अब हिम्मत करके हम्मू ख़ाँ से पूछ भी लेते थे कि चाचा आपने कभी देखी हैं यहाँ की, चौपड़े की चुड़ैलें ? कैसी हैं वह चुड़ैलें ? आप तो रात-बिरात भी जब आँधी चलती है, तो बाग़ में आते हो टपकी हुई कैरियों को बीनने। हम्मू ख़ाँ, चुड़ैलों का नाम आते ही चुप हो जाते थे। कुछ कहने की कोशिश करते, फिर कुछ सोचकर चुप हो जाते। उनकी सुरमे से भरी आँखें मिंचमिंचाने लगतीं। हम्मू ख़ाँ उन लड़कों के साथ अब कुछ ऐसी बातें भी कर लेते थे, जिनको सुनकर लड़कों के मन में रस उतरता था। हम्मू ख़ाँ के पास तो क़िस्सों का भंडार था। क़िस्से जो नीली फिल्मों की तरह नीले-नीले थे। हम्मू ख़ाँ कभी-कभी लड़कों को यह नीले क़िस्से भी सुना देते थे। लड़कों के दिलो-दिमाग़ पर एक नशा सा तारी होने लगता था इन क़िस्सों को सुनकर। एक और, एक और, और हम्मू ख़ाँ एक के बाद एक नीले क़िस्से सुनाते जाते। लड़के एक-दूसरे की तरफ देख-देखकर मुस्कुराते रहते और सुनते रहते। हम्मू ख़ाँ को पता था कि यह उमर क्या माँगती है। इस उमर में क्या सुनने की इच्छा होती है। हम्मू ख़ाँ पूरे क़िस्सागो थे, इतना रस लेकर, इतनी जीवंतता के साथ क़िस्से सुनाते थे कि लड़कों को लगता था जैसे उनके सामने ही क़िस्सा चल रहा है।

एक दिन जब गरमी की चिलचिलाती दोपहर में लड़के हम्मू ख़ाँ को घेर कर बैठे थे, तो एक बार फिर से चुड़ैलों का ज़िक्र निकल आया। लड़के ज़िद पर अड़ गए चुड़ैलों के बारे में जानने को लेकर। हम्मू ख़ाँ बहुत देर तक सोचते रहे फिर बोले -देखोगे चुड़ैलों को ? है इतना दम ? लड़के एकदम सकपका गए। यह तो उन्होंने सोचा ही नहीं था। हम्मू ख़ाँ ने फिर कहा -क्यों डर गए, सूख कर गले में आ गई? मियाँ बात करना आसान है और आमने-सामने देखना अलग बात है। जवान-जहान लौंडे हो, चुड़ैलों से डरते हो? अब आगे से कोई मत छेड़ना चुड़ैलों की बात। लड़कों को भी बात लग गई। उस समय तो चले गए लेकिन, ठान ली कि अब तो चुड़ैलों को देखना ही है। आठ दस लड़के हैं, कुछ भी हुआ तो सब एक साथ टूट पड़ेंगे। योजना बनी कि जब शाम थोड़ी उतर जाएगी और रात आने को होगी, तब चुपचाप जाकर एक पेड़ पर चढ़ जाएँगे सारे और बिना आवाज़ के पेड़ों पर लटके रहेंगे। कोई भी आवाज़ नहीं करेगा। जब तक कोई भी एक इशारा नहीं करेगा तब तक पेड़ से उतरेगा भी नहीं कोई। ज़रा भी ख़तरा होगा तो एक साथ कूद-कूद कर भाग लेंगे सारे के सारे। देखेंगे कि कोई चुड़ैल आती है तो ठीक नहीं तो घंटे-दो घंटे के बाद उतर कर आ जाएँगे।

लगभग पूरे चाँद की रात थी। लड़के आम के पेड़ों पर टँगे हुए थे। पत्तों में दबे-छिपे। जब रात होने को थी तो सबसे पहले रास्ते की तरफ से एक साया उभरा। लड़कों ने दम साध लिया। चौपड़े तक आते-आते साया हम्मू ख़ाँ बन गया। लड़कों ने राहत की साँस ली। हम्मू ख़ाँ ने आकर इधर-उधर देखा। चौपड़े में झाँका और फिर चौपड़े की मुँडेर से टिकी हुइ खटिया को बिछा दिया। हम्मू ख़ाँ अपनी खटिया पर लेटे हुए थे। नागझिरी के बाग़ में सन्नाटा फैला हुआ था। पत्ता भी खड़के तो उसकी भी आवाज़ आ जाए। झींगुरों की चिकमिक सन्नाटे को तोड़ती हुई गूँज रही थी। लड़के साँस थामे हुए थे, पता नहीं किस तरफ से चुड़ैलें आ जाएँ? रात और गहरी हुई। क़स्बे की रातें वैसे भी जल्दी हो जाती हैं। और यह तो फुरसत का समय था। खेत में कोई काम था नहीं। एक फसल कट के बिक चुकी थी और दूसरी को बोने में अभी समय था। हम्मू ख़ाँ के कारण लड़के और सन्नाटे में थे, चुड़ैल होती तो उतर कर भाग भी जाते। लेकिन हम्मू ख़ाँ के कारण एक राहत यह हो गई थी कि अब अगर कुछ भी होता है तो कम से कम यहाँ पर हम्मू ख़ाँ तो हैं ही उनको बचाने के लिए।

अचानक हवेली की तरफ से आती हुई पगडंडी पर तीन साए उभरे। झाड़ियों के झुरमुट के बीच से। हम्मू ख़ाँ ने धीरे से खाँसा। तीनों साए धीरे धीरे झाड़ियों के बीच से होकर इस तरफ ही आ रहे थे। चौपड़े की तरफ। आहिस्ता-आहिस्ता। हम्मू ख़ाँ खटिया पर उठ कर बैठ गए। लड़के दम साधे हुए थे। तीनो साए इसी तरफ बढ़ते आ रहे थे। आकर वह तीनो साए ठीक हम्मू ख़ाँ के सामने खड़े हो गए। दो साए कुछ दूर चौपड़े की सीढ़ियों के पास खड़े हो गए और तीसरा साया जो दोनो से कुछ भारी दिख रहा है, वह हम्मू ख़ाँ के पास तक आ गया। यही हैं चुड़ैलें ? पहनावा तो चुड़ैलों का ही है। हम्मू ख़ाँ की आवाज़ आई -सलाम बाई जी साहब, बैठिए। उत्तर में कोई आवाज़ नहीं आई, भारी साया खटिया पर बैठ गया। अचानक नागझिरी के पास से जाते हुए रास्ते पर भी पाँच-छह साए प्रकट हुए। वह भी इस ओर ही आ रहे थे। चाँद इतना तो खिला ही था कि सब कुछ दिखाई दे। यह साए पहनावे के हिसाब से चुड़ैल नहीं थे, भूत थे। यह भी वहीं आकर खड़े हो गए। खटिया के पास। चुड़ैलों ने चेहरे ढँक रखे थे, लेकिन भूतों के चेहरे खुले हुए थे। तेज़ चाँदनी में पहचान भी आ रहे थे वह चेहरे। कुछ-कुछ। पहचान में इसलिए आ रहे थे क्योंकि पहचाने हुए थे। जो लड़के पेड़ों पर लटके थे, उन्होंने देखा कि कुछ पिता हैं, कुछ चाचा हैं, कुछ बड़े भाई हैं और हाँ मामा भी। कुछ भूतों के हाथों में कुछ बोतलें भी थीं।

भूत हम्मू ख़ाँ के पास खड़े थे, हर भूत कुछ पैसे अपनी जेब से निकाल कर हम्मू ख़ाँ को दे रहा था। लड़के अपने लोगों को हम्मू ख़ाँ को पैसे देते देख कर हैरत में थे। हम्मू ख़ाँ ने पैसे हाथ में लेकर उनको गिना और मुंडी हिला कर इशारा कर दिया। भूत चौपड़े की सीढ़ियों की ओर बढ़ गए। सीढ़ियों पर खड़ी चुड़ैलों ने भूतों को आते देखा तो वह भी सीढ़ियों की ओर बढ़ गईं। धीरे-धीरे उतरते हुए भूत और चुड़ैलें चौपड़े के अंदर गुम हो गए। हम्मू ख़ाँ ने हाथ में रखे पैसे खटिया पर बैठी तीसरी चुड़ैल की ओर बढ़ा दिए। चुड़ैल ने पैसे लेकर उनको अपने हाथ में पकड़े हुए एक थैले समान बटुए में रख लिया और फिर उस बटुए को खटिया के सिरहाने रख दिया। हम्मू ख़ाँ उसी प्रकार से कुछ झुक कर खड़े हुए थे। कुछ देर तक दोनो उसी अवस्था में रहे। फिर खटिया पर बैठे साए ने अचानक हम्मू ख़ाँ को खटिया पर अपने पास खींच लिया। लड़कों की साँसें तेज़ हो गईं। यह सब तो क़िस्सों में ही सुना था। लेकिन चुड़ैल के साथ? चाँद आसमान पर खिला हुआ था। नीचे खटिया पर का मौसम धीरे-धीरे बदल रहा था। चुड़ैल की चादर खटिया के नीचे गिर गई थी और हम्मू ख़ाँ का कुरता पायजामा भी उस चादर के पास ही कहीं पड़ा हुआ था। खटिया के नीचे कपड़ों का एक ढेर सा बन गया था। और ऊपर ? ऊपर अब कोई कपड़े नहीं थे, सब नीचे फेंके जा चुके थे। दो शरीर थे जो केवल चाँदनी पहने हुए थे। या शायद यूँ कि चुड़ैन ने हम्मू ख़ाँ को पहना हुआ था और हम्मू ख़ाँ ने चाँदनी को। दिन भर आम के बाग़ में उदास सी पड़ी रहने वाली हम्मू ख़ाँ की खटिया अब जीवंत हो उठी थी। अब हम्मू ख़ाँ भी नहीं थे, और चुड़ैल भी नहीं थी। अब वह स्त्री और पुरुष थे। लड़के देख रहे थे कि किस प्रकार चौपड़े की एक चुड़ैल हम्मू ख़ाँ को पुरुष बना रही थी। और कल्पना कर रहे थे कि बाक़ी की दो चुड़ैलें भी जो उनके चाचा, पिता, मामा, भाई को लेकर चौपड़े के अंदर गईं हैं, वहाँ भी वह चुड़ैलें उनको पुरुष बना रही होंगी। लड़के दम साधे आम के पेड़ पर टँगे थे, हम्मू ख़ाँ की हिलती-डुलती पीठ पर चाँदनी ठहरने की कोशिश कर रही थी और चौपड़े के अंदर चुड़ैलों के खिलखिलाने, झनझनाने और खनखनाने की आवाज़ें धीरे-धीरे तेज़ होती जा रही थीं।

***