अपना जाबांज पंजाब Radheshyam Kesari द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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अपना जाबांज पंजाब

पंजा
बहुत ही संयोग के बाद 18 जनवरी 2020 को पंजाब प्रांत को नजदीक से देखने का अवसर प्राप्त हुआ यह संभव हो पाया अमूल्या हर्ब्स के टूर के बदौलत।
हमने वहां के खेतों में लहलहाती गेंहू,गन्ने की पैदावार को देखा, चौड़ी सूंदर साफ सड़के, दूर दूर तक गांव देखा, खूबसूरत कुड़ी और सरदार देखे, शहर देखा, शानदार तलवार, पगड़ी और शानदार हवेलियों को देखा। बड़े बड़े फार्म हाउसों के बीच मकान और सड़के देखी। बाज़ारों में कुल्फी,लस्सी के साथ ही चूड़ा,
पगड़ी,तलवार, जूती और परांदे देखे। सड़कों पर घोड़ों वाली बघ्घी भी देखी। होटलों में खाने के रीत रिवाज,लज़ीज़ व्यंजन मक्के की रोटी और सरसों का साग,खांटी पंजाबी ज़ुबान देखी। भांगड़ा डांस,
गिदद्दा और फोक डांस देखा।
पंजाब के अमृतसर में बाघा- अटारी बार्डर पर शानदार देशभक्ति,जलियांवाला बाग की शहादत, स्वर्ण मंदिर में श्रद्धा सेवा और समर्पण देखा।नमूने में पूरा पंजाब ऊर्जा और उत्साह से लबरेज़ मिला। वाह पंजाब!
20 जनवरी 2020 को अमूल्या हर्ब्स द्वारा पंजाब अमृतसर टूर अचीवर्स को भारत-पाकिस्तान सीमा की बार्डर बाघा अटारी पर प्रतिदिन होने वाली रिट्रीट परेड में भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
इस अवसर पर भारतीय सीमा की सुरक्षा में लगे हुए सीमा सुरक्षा बल( BSF) के सुरक्षा प्रहरियों द्वारा भारतीय तिरंगे के अवतरण के लिए होने वाली अभूतपूर्व परेड हुईं। साथ ही पाकिस्तानी सीमा के जवानों ने भी अपने झंडे को उतारा। इस परेड को देखने वाली हज़ारों की भीड़ ने जवानों का ताली ,हूटिंग,ओर हिंदुस्तान जिंदाबाद जैसे जोशीले नारों द्वारा अपने जवानों का उत्साह बर्धन भी किया। इस अवसर पर करीब 400 अमूल्यन्स ने भाग लिया। इस पूरी यात्रा में अमूल्या हर्ब्स का पूरा मैनेजमेंट, सभी सीनियर्स,और हमारे मैनेजिंग डायरेक्टर भी मौजूद थे। ग़ाज़ीपुर से अल्ताफ़ हुसैन अंसारी के नेतृत्व में डॉ. ओंकारनाथ सिंह,डॉ एस. बदूद, डॉ विनोद कुमार कोलकाता से आबिद अली, बिहार पटना(हाजीपुर) से दिलीप जी स्वामीकांत जी,निर्भय जायसवाल , जमानियां से जितेंद्र कुमार,कृष्णकुमार जी, प्रदीप कुमार, डॉ अमानतुल्लाह जी, के साथ साथ खुद मैं था।वास्तव में यह यात्रा एक तरह से दार्शनिक और देशभक्ति से ओतप्रोत होगी क्यों कि कल की यात्रा, विश्व प्रसिद्ध अमृतसर स्थित सिख धर्म का पवित्र तीर्थस्थल स्वर्णमंदिर और देश के लिए शहीद हो गए जवानों की धरती की मिसाल जलियांवाला बाग के मिट्टी को नमन करने का अवसर भी प्राप्त हुआ।
21 जनवरी 2020 को होटल हॉलीवुड (अमृतसर) से नास्ता करने बाद सुबह 9 बजे के बाद टूरिस्ट गाइड सरदार इंद्रजीत सिंह के साथ हम सभी अमूल्यन्स शहीद धरती जलियाँवालाबाग़ को नमन करने निकल पड़े। गाइड के बताने के अनुसार जो हमने देखा अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के पास का एक छोटा सा बगीचा है जहाँ 13 अप्रैल 1919 को ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड डायर के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज ने गोलियां चला के निहत्थे,शांत बूढ़ों, महिलाओं और बच्चों सहित सैकड़ों लोगों को मार डाला था और हज़ारों लोगों को घायल कर दिया था। यदि किसी एक घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर सबसे अधिक प्रभाव डाला था तो वह घटना यह जघन्य हत्याकाण्ड ही था।इसी घटना की याद में यहाँ पर स्मारक बना हुआ है। इस स्मारक में लौ के रूप में एक मीनार बनाई गई है जहाँ शहीदों के नाम अंकित हैं। वह कुआँ भी मौजूद हैं जिसमें लोग गोलीबारी से बचने के लिए कूद गए थे। दीवारों पर गोलियों के निशान आज भी देखे जा सकते हैं.
इस दुखद घटना के लिए स्मारक बनाने हेतु आम जनता से चंदा इकट्ठा करके इस जमीन के मालिकों से करीब 5 लाख 65 हजार रुपए में इसे खरीदा गया था। सन 1997 में महारानी एलिज़ाबेथ ने इस स्मारक पर मृतकों को श्रद्धांजलि दी थी। 2013 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन भी इस स्मारक पर आए थे। विजिटर्स बुक में उन्होंनें लिखा कि "ब्रिटिश इतिहास की यह एक शर्मनाक घटना थी।"
बैसाखी के दिन 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में रोलेट एक्ट,अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों व दो नेताओं
सत्यपाल और सैफ़ुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी के विरोध में एक सभा रखी गई, जिसमें कुछ नेता भाषण देने वाले थे। शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था, फिर भी इसमें सैंकड़ों लोग ऐसे भी थे, जो बैसाखी के मौके पर परिवार के साथ मेला देखने और शहर घूमने आए थे और सभा की खबर सुन कर वहां जा पहुंचे थे। करीब 5,000 लोग जलियाँवाला बाग में इकट्ठे थे। ब्रिटिश सरकार के कई अधिकारियों को यह 1857 के गदर की पुनरावृत्ति जैसी परिस्थिति लग रही थी जिसे न होने देने के लिए और कुचलने के लिए वो कुछ भी करने के लिए तैयार थे।
जब नेता बाग़ में पड़ी रोड़ियों के ढेर पर खड़े हो कर भाषण दे रहे थे, तभी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर कुल 90 ब्रिटिश सैनिकों को लेकर वहां पहुँच गया। उन सब के हाथों में भरी हुई राइफलें थीं। सैनिकों ने बाग़ को घेर कर बिना कोई चेतावनी दिए निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलानी शुरु कर दीं। 10 मिनट में कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं। जलियाँवाला बाग़ उस समय मकानों के पीछे पड़ा एक खाली मैदान था। वहां तक जाने या बाहर निकलने के लिए केवल एक संकरा रास्ता था और चारों ओर मकान थे। भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में कूद गए, पर देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से पट गया।जिसे
शहीदी कुआं कहते हैं।
अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है, जबकि जलियाँवाला बाग़ में कुल 388 शहीदों की सूची है। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते है जबकि अनाधिकारिक आँकड़ों के अनुसार 1000 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए। इस घटना के प्रतिघात स्वरूप सरदार उधमसिंहने 13 मार्च 1940 को उन्होंने लंदन के कैक्सटन हॉल में इस घटना के समय ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर मायकल ओ ड्वायर को गोली चला के मार डाला। उन्हें 31 जुलाई 1940 को फाँसी पर चढ़ा दिया गया।
पंजाब की धरती ने हमेशा मुग़ल सलतनत और अंग्रेजी हकूमत के ख़िलाफ़ संघर्ष किया है। अगर आपको भारतीय स्वतंत्रता का इतिहास देखना है, तो आपको पंजाब प्रांत का भ्रमण करना होगा। हम सौभाग्यशाली हैं कि आज अमूल्या हर्ब्स ने मेरा इस सपने को पूरा कर किया।
जलियांवाला बाग देखने बाद गाइड इंद्रजीत सिंह ने हमें स्वर्ण मंदिर दिखाने ले गए, स्वर्णमंदिर चूँकि सिख धर्म का विश्व प्रसिद्ध धर्म स्थल और सभी धर्मावलंबियों के लिए समान रूप दर्शनीय है, इस लिए मंदिर में प्रवेश से पहले कुछ नियम और कायदे की जानकारियों से अवगत कराया जिन्हें सभी श्रद्धालुओं को मानना अनिवार्य है।
जैसा कि गाइड इंद्रजीत ने हमे बताया कि स्वर्ण मंदिर को हरमंदिर साहिब या दरबार साहिब भी कहा जाता है। इसका निर्माण काल दिसम्बर 1588-सितंबर 1604 तक चल कर पूरा हुआ।
स्वर्ण मंदिर, अमृतसर रेलवे स्टेशन से लगभग 3 किमी की दूरी पर स्थित है। स्वर्ण मंदिर के अंदर कलात्मक सौंदर्य और गहरी शांति का उल्लेखनीय संयोजन है। यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक
सिक्खका हृदय यहाँ बसता है।
स्वर्ण मंदिर की वास्तुकला हिन्दू तथा मुस्लिम निर्माण कार्य के बीच एक अनोखे सौहार्द को प्रदर्शित करती है। स्वर्ण मंदिर की सर्वोत्तम वास्तु-कला नमूने के रूप में माना जा सकता है। संगमरमर की दीवारों पर चित्रकारी, मीनाकारी में पशु ,पक्षियों, फूल , पत्तियां प्रकृति, और महापुरुषों की कृतियां बनाई गई है जो अद्भुत हैं।
दुनिया भर के सिक्ख अमृतसर आना चाहते हैं और श्री हरमंदिर साहिब में अपनी अरदास देकर अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं।
गाइड इंद्रजीत ने स्वर्णमंदिर के इतिहास के बारे में बताया है कि सन 1589 ने गुरु अर्जुन देव के एक शिष्य शेखमियां मीर ने सरोवर के बीच में स्थित वर्तमान स्वर्ण-मन्दिर की नींव डाली। मन्दिर के चारों ओर चार दरवाज़ों का प्रबन्ध किया गया था। यह गुरु नानक के उदार धार्मिक विचारों का प्रतीक समझा गया। मन्दिर में गुरु-ग्रंथ-साहिब की, जिसका संग्रह गुरु अर्जुन देव ने किया था, स्थापना की गई थी। सरोवर को गहरा करवाने और परिवर्धित करने का कार्य बाबू बूढ़ा नामक व्यक्ति को सौंपा गया था और इन्हें ही ग्रंथ-साहब का प्रथम ग्रंथी बनाया गया।
स्वर्ण मंदिर,अमृतसर 1757 ई.
में वीर सरदार बाबा दीपसिंह जी ने मुगल आक्रांताओं के अधिकार से इस मन्दिर को छुड़ाया, किन्तु वे उनके साथ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उन्होंने अपने अधकटे सिर को सम्भालते हुए अनेक शत्रुओं को मौत के घाट उतारा। उनकी दुधारी तलवार मन्दिर के संग्रहालय में सुरक्षित है। स्वर्ण-मन्दिर के निकट बाबा अटलराय का गुरुद्वारा है। ये छठे गुरु हरगोविन्द के पुत्र थे, और नौ वर्ष की आयु में ही सन्त समझे जाने लगे थे। उन्होंने इतनी छोटी-सी उम्र में एक मृत शिष्य को जीवन दान देने में अपने प्राण दे दिए थे। पंजाब-केसरी महाराज रणजीत सिंह ने स्वर्ण-मन्दिर को एक बहुमूल्य पटमण्डप दान में दिया था, जो संग्रहालय में है।
पूरा अमृतसर शहर स्वर्ण मंदिर के चारों तरफ बसा हुआ है। स्वर्ण मंदिर में प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु और पर्यटक आते हैं। अमृतसर का नाम वास्तव में उस सरोवर के नाम पर रखा गया है जिसका निर्माण
गुरु राम दास ने स्वयं अपने हाथों से किया था। यह गुरुद्वारा इसी सरोवर के बीचोबीच स्थित है। इस गुरुद्वारे का बाहरी हिस्सा सोने का बना हुआ है, इसलिए इसे 'स्वर्ण मंदिर' के नाम से भी जाना जाता है। सिखों के चौथे गुरू रामदास जी ने इसकी नींव रखी थी। कुछ स्रोतों में यह कहा गया है कि गुरुजी ने लाहौर के एक सूफी सन्त मियां मीर से दिसम्बर, 1588 में इस गुरुद्वारे की नींव रखवाई।
स्वर्ण मंदिर को कई बार नष्ट किया जा चुका है। लेकिन भक्ति और आस्था के कारण सिक्खों ने इसे दोबारा बना दिया। इसे दोबारा 17 वीं सदी में भी महाराज सरदार जस्सा सिंह अहलुवालिया द्वारा बनाया गया था। जितनी बार भी यह नष्ट किया गया है और जितनी बार भी यह बनाया गया है उसकी हर घटना को मंदिर में दर्शाया गया है। अफगा़न हमलावरों ने 19 वीं शताब्दी में इसे पूरी तरह नष्ट कर दिया था। तब महाराजा रणजीत सिंह ने इसे दोबारा बनवाया था और इसे सोने की परत से सजाया था। तब से इसे स्वर्ण मंदिर कहा जाता है। हैदराबाद के सातवें
निज़ाम-मीर उस्मान अली खान इस मंदिर को सालाना दान दिया करते थे।
हरमंदिर साहिब परिसर का नक्शा और गुरुद्वारे का नक्शा खुद गुरु अर्जुन देव जी ने 400 वर्ष पहले खुद तैयार किया था। यह गुरुद्वारा शिल्प सौंदर्य की अनूठी मिसाल है। इसकी नक्काशी गुरुद्वारे के चारों ओर दरवाजे हैं, जो चारों दिशाओं (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण) में खुलते हैं। उस समय भी समाज चार जातियों में विभाजित था और कई जातियों के लोगों को अनेक मंदिरों आदि में जाने की इजाजत नहीं थी, लेकिन इस गुरुद्वारे के यह चारों दरवाजे उन चारों जातियों को यहां आने के लिए आमंत्रित करते थे। यहां हर धर्म के अनुयायी का स्वागत किया जाता है।
श्री हरिमन्दिर साहिब परिसर में दो बड़े और कई छोटे-छोटे तीर्थस्थल हैं। तीर्थस्थल जलाशय के चारों तरफ फैले हुए हैं। इस जलाशय को अमृतसर, अमृत सरोवर और अमृत झील के नाम से जाना जाता है। पूरा स्वर्ण मंदिर सफेद संगमरमर से बना हुआ है और इसकी दीवारों पर सोने की पत्तियों से नक्काशी की गई है। हरिमन्दिर साहिब में पूरे दिन गुरबाणी (गुरुवाणी) की स्वर लहरियां गूंजती रहती हैं। सिक्ख गुरु को ईश्वर तुल्य मानते हैं। स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करने से पहले वह मंदिर के सामने सर झुकाते हैं, फिर पैर धोने के बाद सी‍ढ़ि‍यों से मुख्य मंदिर तक जाते हैं। सीढ़ि‍यों के साथ-साथ स्वर्ण मंदिर से जुड़ी हुई सारी घटनाएं और इसका पूरा इतिहास लिखा हुआ है। स्वर्ण मंदिर एक बहुत ही खूबसूरत इमारत है। इसमें रोशनी की सुन्दर व्यवस्था की गई है। मंदिर परिसर में पत्थर का एक स्मारक भी है जो, जांबाज सिक्ख सैनिकों को श्रद्धाजंलि देने के लिए लगाया गया।
यहां गुरु का लंगर में गुरुद्वारे में आने वाले श्रद्धालुओं के लिए खाने-पीने की पूरी व्यवस्था होती है। यह लंगर श्रद्धालुओं के लिए 24 घंटे खुला रहता है। खाने-पीने की व्यवस्था गुरुद्वारे में आने वाले चढ़ावे और दूसरे कोषों से होती है। लंगर में खाने-पीने की व्यवस्था शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समि‍ति‍ की ओर से नियुक्त सेवादार करते हैं। वे यहाँ आने वाले लोगों (संगत) की सेवा में हर तरह से योगदान देते हैं। घंटे लंगर चलता है, जिसमें कोई भी प्रसाद ग्रहण कर सकता है। पता चला कि वर्तमान में 50 से 60 हजार लोग प्रतिदिन चलने वाले लंगर में भोजन ग्रहण करते है।त्योहार के अवसर पर यह संख्या लाखों तक पहुंच जाती है। माना यहां तक जाता है कि यह लंगर रसोई दुनिया की सबसे बड़ी रसोई है।
श्री हरिमन्दिर साहिब में अनेक तीर्थस्थान हैं। इनमें से बेरी वृक्ष को भी एक तीर्थस्थल माना जाता है। इसे बेर बाबा बुड्ढा के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि जब स्वर्ण मंदिर बनाया जा रहा था तब बाबा बुड्ढा जी इसी वृक्ष के नीचे बैठे थे और मंदिर के निर्माण कार्य पर नजर रखे हुए थे।
स्वर्ण मंदिर सरोवर के बीच में मानव निर्मित द्वीप पर बना हुआ है। पूरे मंदिर पर सोने की परत चढ़ाई गई है। यह मंदिर एक पुल द्वारा किनारे से जुड़ा हुआ है। झील में श्रद्धालु स्नान करते हैं। यह झील मछलियों से भरी हुई है। मंदिर से 100 मी. की दूरी पर स्वर्ण जड़ि‍त, अकाल तख्त है। इसमें एक भूमिगत तल है और पांच अन्य तल हैं।इसमें एक संग्रहालय
और सभागार है। यहाँ पर सरबत खालसा की बैठकें होती हैं। सिक्ख पंथ से जुड़ी हर मसले या समस्या का समाधान इसी सभागार में किया जाता है।
स्वर्ण मंदिर परिसर में स्थित सभी पवित्र स्थलों की पूजा स्वरूप भक्तगण अमृतसर के चारों तरफ बने गलियारे की परिक्रमा करते हैं। इसके बाद वे अकाल तख्त के दर्शन करते हैं। गुरुद्वारे के बाहर दाईं ओर अकाल तख्त है। अकाल तख्त का निर्माण सन 1606 में किया गया था।
यहाँ दुखभंजनी बेरी नामक एक स्थान भी है। गुरुद्वारे की दीवार पर अंकित किंवदंती के अनुसार कि एक बार एक पिता ने अपनी बेटी का विवाह कोढ़ ग्रस्त व्यक्ति से कर दिया। उस लड़की को यह विश्वास था कि हर व्यक्ति के समान वह कोढ़ी व्यक्ति भी ईश्वर की दया पर जीवित है। वही उसे खाने के लिए सब कुछ देता है। एक बार वह लड़की शादी के बाद अपने पति को इसी तालाब के किनारे बैठाकर गांव में भोजन की तलाश के लिए निकल गई। तभी वहाँ अचानक एक कौवा आया, उसने तालाब में डुबकी लगाई और हंस बनकर बाहर निकला। ऐसा देखकर कोढ़ग्रस्त व्यक्ति बहुत हैरान हुआ। उसने भी सोचा कि अगर में भी इस तालाब में चला जाऊं, तो कोढ़ से निजात मिल जाएगी।
उसने तालाब में छलांग लगा दी और बाहर आने पर उसने देखा कि उसका कोढ़ नष्ट हो गया। यह वही सरोवर है, जिसमें आज हर मंदिर साहिब स्थित है। तब यह छोटा सा तालाब था, जिसके चारों ओर बेरी के पेड़ थे। तालाब का आकार तो अब पहले से काफी बड़ा हो गया है, तो भी उसके एक किनारे पर आज भी बेरी का पेड़ है। यह स्थान बहुत पावन माना जाता है। यहां भी श्रद्धालु माथा टेकते हैं।
परंपरा यह है कि यहाँ वाले श्रद्धालुजन सरोवर में स्नान करने के बाद ही गुरुद्वारे में मत्था टेकने जाते हैं। जहां तक इस विशाल सरोवर की साफ-सफाई की बात है, तो इसके लिए कोई विशेष दिन निश्चित नहीं है। लेकिन इसका पानी लगभग रोज ही बदला जाता है। इसके लिए वहां फिल्टरों की व्यवस्था है। इसके अलावा पांच से दस साल के अंतराल में सरोवर की पूरी तरह से सफाई की जाती है। इसी दौरान सरोवर की मरम्मत भी होती है। इस काम में एक हफ्ता या उससे भी ज्यादा समय लग जाता है। यह काम यानी कारसेवा (कार्य सेवा) मुख्यत: सेवादार करते हैं, पर उनके अलावा आम संगत भी इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती है।
अकाल तख्त के पास ही शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समि‍ति‍ का कार्यालय है, जहां सिखों से जुड़े कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते हैं।
श्री हरिमन्दर साहि‍ब के चार द्वार हैं। इनमें से एक द्वार गुरुराम दास सराय का है। श्री गुरु रामदास सराय में गुरुद्वारे में आने वाले लोगों के रहने लिए इस सराय का निर्माण सन 1784 में किया गया था। यहां 228 कमरे और 18 बड़े हॉल हैं। यहाँ पर रात गुजारने के लिए गद्दे व चादरें मिल जाती हैं। एक व्यक्ति की तीन दिन तक ठहरने की पूर्ण व्यवस्था है।
इस तरह से स्वर्णमंदिर घूमने के बाद हम 28 जनवरी 2020 को अपनी निजी बसों द्वारा जीरकपुर पहुंचे इसके बाद बस द्वारा अम्बाला कैंट पहुंच कर वापसी की की ट्रेन द्वारा अपने गृह नगर वाराणसी सकुशल पहुंच गए।
डॉ. राधेश्याम केसरी
(रूबी मैनेजर,अमूल्या हर्ब्स)
9415864534