अमर प्रेम -- 6 - अंतिम भाग Vandana Gupta द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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अमर प्रेम -- 6 - अंतिम भाग

अमर प्रेम

प्रेम और विरह का स्वरुप

(6)

तब राकेश हँसता हुआ बोला, “ देख हम सभी की ज़िन्दगी में ये क्षण आते ही हैं मगर हर कोई उसका डटकर मुकाबला नहीं कर पाता सिर्फ कुछ दृढ निश्चयी लोग होते हैं जो इस फेज से गुजर जाते हैं मगर बाकी की ज़िन्दगी अस्त व्यस्त हो जाती है......ऐसे में अगर वो इस रिश्ते को सिर्फ एक ऐसे रूप में लें जैसे राधा कृष्ण का था, जैसे वहाँ वासना का कोई स्थान नहीं था मगर रिश्ता इतना गहरा था कि जितना कृष्ण की पत्नियाँ भी कृष्ण को नहीं जानती थीं उतना राधा जानती थी..........इतना पवित्र, पावन रिश्ता हो और सबसे बड़ी बात ये दोनों को पता भी हो चाहे पति हो चाहे पत्नी, किसी का भी रिश्ता हो मगर पता दोनों को हो कि वो उसे चाहता है या चाहती है मगर उस चाहत में वासना नहीं है सिर्फ एक दूसरे को समझने की शक्ति है जो उनके अहसासों को समझते हैं, उनकी अनकही बातों को दिशा देने वाला कोई है उनके जीवन में, वो बातें जो कोई भी पति या पत्नी कई बार एक दूसरे से नहीं कह पाता वो एक अनजान जो उन्हें भावनात्मक स्तर पर समझता है उससे कह देता है और फिर वो अपने को कितना हल्का महसूस करने लगता है और ज़िन्दगी दुगुने जोश से जीने लगता है क्योंकि सिर्फ एक यही अहसास काफी होता है कई बार जीने के लिए कि कोई है जो उसे उससे ज्यादा समझता है, जिससे वो अपने दिल की उन सब बातों को कह सकता है जो अपने साथी से नहीं कह पाता .....इसी से ज़िन्दगी में आशा और उर्जा का संचार होने लगता है और ज़िन्दगी एक नयी करवट लेने लगती है..........बस सबसे बड़ी बात ये हो कि पति और पत्नी दोनों को एक दूसरे पर इतना विश्वास जरूर हो कि वो इस सम्बन्ध को अपनी मर्यादा से आगे नहीं लाँघेगा.....फिर देखो ज़िन्दगी कितनी हसीन हो जाएगी..... बशर्ते वहाँ भाव प्रधान हों वासना नहीं”...........कहकर राकेश चुप हो गया और विनीत खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, "बेटे, ये दुनिया अभी इतनी बोल्ड नहीं हुई है जिसने आज तक राधा कृष्ण के सम्बन्ध को नहीं स्वीकारा उस पर भी आक्षेप लगाती रहती है उसमे कहाँ ये उम्मीद करता है कि इस बात को स्वीकार करेगी............अरे ऐसे रिश्ते की आड़ में ना जाने कौन कैसे खेल खेल जाएगा..........वैसे मैं तेरी बात भी समझ रहा हूँ मगर सिर्फ मेरे समझने से क्या होगा............शायद तेरा ख्याल समाज को एक नयी दिशा दे मगर इतना बड़ा दिल कहाँ से लायेगा कोई ?जो सुनेगा हंसेगा या पागल कह देगा और वैसे भी कानून में भी इसे मान्यता नहीं मिलेगी............अभी सोच में इतने बदलाव नहीं आये हैं........अब मुझे ही देख, यदि तू कहे कि मैं तेरी बीवी को तुझसे ज्यादा जानता हूँ और जो वो महसूस करती है उसका मुझे ज्यादा पता है तो इतना सुनते ही मैं आग बबूला हो जाऊँगा और शायद कोई गलत कदम भी उठा लूं या तुझसे हमेशा के लिए नाता तोड़ लूं...........मैं ये मानता हूँ कि दूसरे के लिए कहना आसान है मगर व्यावहारिकता में लाना उतना ही मुश्किल..........जब मैं तेरी बात मानकर भी नहीं मानना चाहता तो सोच ये दुनिया कैसे इसे स्वीकार कर सकती है?” कहकर विनीत राकेश का मुँह देखने लगा और राकेश एक गहरी सोच में डूब गया और बोला, “ परिवर्तन के लिए एक बार तलवार का दंश खुद ही झेलना पड़ता है, गोली अपने सीने पर ही खानी पड़ती है. अब देख आज समाज ने कितने परिवर्तन स्वीकार कर ही लिए ना जैसे लिव इन रिलेशन हो या गे, धीरे धीरे सब स्वीकार्य कर ही लेता है समाज क्योंकि सब अपने मन के मालिक है और व्यस्क हैं तो कोई किसी पर उस हद तक दबाब बना ही नहीं पाता. बेशक कदम क्रांतिकारी है मगर सबके मन को एक बार सोचने पर मजबूर तो करेगा ही आखिर कौन चाहेगा कि आपसी ठंडेपन के कारण उनकी बसी बसाई गृहस्थी उजड़ जाए. कई बार कहा भी जाता है ना कि कुछ दिन एक दूसरे से दूर रहो और फिर महसूस करो कि तुम दोनों के जीवन में एक दूसरे के लिए कितनी अहमियत है बस उसी अहमियत का अहसास बिना दूर जाये भी बना रहेगा अगर रिश्ते को थोड़ी स्पेस देने लगें हम और अपने विचारों में थोडा खुलापन ला सकें और एक दूसरे को उसके अंदाज़ में जीने की थोड़ी सी स्वतंत्रता देने लगें मगर मर्यादा में रहकर ही तो देखना दुनिया में ज्यादातर घर कभी टूटें ही ना...उनके घरोंदे हमेशा आबाद रहें....... सिर्फ ज़रा सा सोच में परिवर्तन करने से और देखना एक दिन आएगा विनीत जब दुनिया इस बात को भी स्वीकारेगी और मुझे उस दिन का इंतज़ार है और देखना, हो सकता है इसकी पहल मुझे ही करनी पड़े” कहकर राकेश अपने विचारों की दुनिया में खो गया और उसे याद आ गयीं एक कविता जो उसने इस तरह पढी थी :

अभी अध्ययन का विषय है ये ………………

लिंग कोई हो
स्त्री या पुरुष
भावनायें, चाहतें
एक सी ही प्रबल होती हैं
और प्यास भी चातक सी
जो किसी पानी से बुझती ही नहीं
सिवाय अपने प्रेमी के
और घूम जाते हैं
ना जाने कितने ब्रह्मांड
एक ही जीवन में
अधूरी हसरत को पूर्ण करने की चाह में
मगर प्यास ज्यों की त्यों कायम
सागर सामने मगर फिर भी प्यासे
साथी है साथ मगर फिर भी एक दूरी
क्योंकि
साथी से रिश्ता देह से शुरु होता है
मुखर कभी हो ही नहीं पाता
स्वाभाविक छाया प्रदान करता रिश्ता
कभी जान ही नहीं पाता
उस उत्कंठा को
जो पनप रही होती है
छोटे - छोटे पादप बन उसकी छाँव में
मगर नहीं मिल पाता उसे
सम्पूर्ण पोषण
चाहे कितनी ही आर्द्रता हो
या कितनी ही हवा
ताप भी जरूरी है परिपक्वता के लिये
बस कुम्हलाने लगता है पादप
मगर यदि
उस छायादार तरु के नीचे से
उसे हटाकर यदि साथ में रोंप दिया जाये
और उसका साथ भी ना बिछडे
तो एक नवजीवन पाता है
उमगता है, उल्लसित होता है
अपना एक मुकाम कायम करता है
सिर्फ़ स्नेह की तपिश पाकर
जहाँ पहले सब कुछ था
और नही था तो सिर्फ़
तपिश स्नेह की …………
हाँ वो स्नेह, वो प्रेम, वो राग
जहाँ शारीरिक राग से परे
एक आत्मिक राग था
जहाँ प्रेम के राग के साथ
देहात्मक राग भी था

क्योंकि
जहाँ प्रेम होता है वहाँ शरीर नहीं होते
आत्मिक रिश्ता अराधना, उपासना बन रूह मे उतर जाता है
जीवन में नव संचार भरता है
क्योंकि
चाहिये होता है एक साथ ऐसा
जहाँ प्रेम का उच्छवास हो
जहाँ प्रेम की स्वरलहरियाँ मनोहारी नृत्य करती होँ
और कुम्हलायी शाखाओं को
प्रेमरस का अमृत भिगोता हो
तो कैसे ना अनुभूति का आकाश विस्तृत होगा
कैसे ना मन आँगन प्रफ़ुल्लित होगा
क्योंकि
जीवन कोरा कागज़ भी नहीं
जिसका हर सफ़ा सफ़ेद ही रह जाये
भरना होता है उसमें भी प्रेम का गुलाबी रंग
और ये तभी संभव है जब
आत्मिक राग गाते पंछी की उडान स्वतंत्र हो

और जहाँ शरीर होते हैं वहाँ प्रेम नहीं होता
दैहिक रिश्ता नित्य कर्म सा बन जाता है
क्योंकि
कोरे भावों के सहारे भी जीवन यापन संभव नहीं
जरूरी होता है ज़िन्दगी में यथार्थ के धरातल पर चलना
भावना से ऊँचा कर्तव्य होता है
इसलिये जरूरी है
दैहिक रिश्ते को आत्मिक प्रेम के लबरेज़ रिश्ते से विलग रखना
क्योंकि
गर दोनों इसी चाह मे जुट जायेंगे तो
सृष्टि कैसे निरन्तरता पायेगी
इसलिये प्रवाह जरूरी है
देहात्मक रिश्ते का अपनी दिशा में
और आत्मिक रिश्ते का अपनी दिशा में
और मानव मन
इसी चाह मे भटकता ढूँढता फ़िरता है
किसी एक रूप मे दोनो चाहतें
जो संभव नहीं जीवन के दृष्टिकोण से

वैसे भी प्रेम कभी दैहिक नहीं हो सकता
और वासना कभी पवित्र नहीं हो सकती
इसलिये दैहिक रिश्ता कभी प्रेमजनित नही हो सकता
हो सकता है तो वो सिर्फ़ आदान - प्रदान का माध्यम
या कर्तव्य कर्म को निभाती एक मर्यादित डोर

इसलिये चाहिये होता है
एक समानान्तर रिश्ता देह के साथ नेह का भी
चाहिये होता है
एक प्रेमपुँज जिसकी ज्योति से आप्लावित हो
जीवन की लौ जगमगा उठती है
मगर
ऐसे रिश्ते स्वीकार्य कब होते हैं ?
कैसे संभव है दो रिश्तों का समानान्तर चलना?
दैहिक रिश्ते जीवन यापन का मात्र साधन होते हैं
और आत्मिक रिश्ते ज़िन्दगी का दर्शन, अध्ययन, मनन और चिन्तन होते हैं
क्या स्वीकारेगा ये समाज समानान्तर रिश्ता
स्त्री हो या पुरुष …………दोनो का, दोनों के लिये ?

अभी अध्ययन का विषय है ये ……

राकेश द्वारा दिया विचार क्या समाज स्वीकार कर पायेगा?

क्या रिश्तों को इस रूप में नयी दिशा दी जा सकती है?

क्या आप अपने जीवन साथी की ज़िन्दगी में किसी और का प्रवेश भावनात्मक स्तर पर स्वीकार कर सकते हैं ?

अपनी गृहस्थी बचाए रखने के लिए ऐसे स्वस्थ परिवर्तन को मान्यता दी जानी चाहिए........जहाँ साथ रहना आसान भी ना हो और अलग भी नहीं होना चाहते हों उस स्थिति में क्या ये परिवर्तन सुखद नहीं होगा?

ये प्रश्न समीर को मथने लगे जो उस वक्त उसके लिए एक हँसी मज़ाक की बात थी आज सच सिद्ध हो रही थी जैसा समीर ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था आज वैसा उसके सामने था । उसे नहीं पता था कि राकेश की सोच उसके घर पर कभी दस्तक देगी और आज वो वक्त आ गया था जहाँ उसे निर्णय लेना था क्योंकि डिबेट आदि में कहा तो बहुत कुछ जाता है मगर ज़िन्दगी में उसे लागू करने का प्रतिशत नगण्य ही होता है, बस एक डिबेट जीतना ही वहाँ मकसद होता है और यहाँ एक पूरी दुनिया जीतनी थी समीर को, खुद को जीतना था,अपने अहम और स्वाभिमान से लडना था, अपना घर बचाना था और ऐसे निर्णय एक पल में लेने संभव भी कहाँ होते हैं मगर समीर तो एक ऐसे चक्रव्यूह में घिरा था जिसके दोनों तरफ़ उसे ही कटना था ।

फिर भी क्योंकि समीर एक बिजनेस मैन था इसलिये सब निर्णय भावनाओं में बहकर ही नहीं ले सकता था उसके लिये व्यवहारिक होना भी जरूरी था इसलिये अब समीर ने विचारना शुरू किया, “ जब से अजय आया है एक बार भी उसकी उपस्थिति के बिना अर्चना से नहीं मिला और ना ही अर्चना से कोई विशेष बात की उसने बल्कि जैसे और घर के सदस्य होते हैं उन्ही की तरह रहा और व्यवहार किया। कहीं से भी ऐसा नहीं लगा कि वो अर्चना के शरीर या उसकी सुंदरता से प्रभावित है या वो उसे पाना चाहता है” क्योंकि हर क्षण समीर की नज़र अजय का पीछा करती रही थीं और अजय ने कभी चोर निगाह से भी अर्चना को नहीं निहारा था ये समीर देख चुका था, आखिर समीर एक व्यवसायी बुद्धि का मालिक था नफा और नुकसान का अच्छा ज्ञान था उसे और जब ज़िन्दगी के नफे नुक्सान की बात हो तो भला घाटे का सौदा कैसे कर सकता था दूसरी तरफ़ अर्चना के अपने प्रति समर्पण और घर व बच्चों के प्रति स्नेह को भी जानता था, समझता था, वो समझ चुका था ऐसे हालात में अर्चना के लिये जीना कितना दुश्कर रहा होगा जहाँ वो दोनों में से किसी को भी खोना नहीं चाहती थी और इसीलिये अन्दर ही अन्दर घुटते हुए मौत के मूँह में पहुँच गयी थी और अब उसका इम्तिहान था, उसके अर्चना पर विश्वास, धैर्य,प्रेम और समर्पण की परीक्षा थी जिसमें उसे खरा उतरना था इसलिए समीर ने इस समानांतर रिश्ते पर अपनी स्वीकार्यता की मोहर लगा कर ना केवल अपने प्रेम और बड़े दिल का प्रमाण दिया बल्कि अपना घर भी बचा लिया।

अब अमर प्रेम के कोई कितने ही मायने ढूंढें, हर रिश्ते ने अपने प्रेम को अमर ही किया था किसी ने त्याग से तो किसी ने भाव से तो किसी ने मौन स्वीकृति देकर। शायद यही है अमर प्रेम की सार्थक परिभाषा प्रेमास्पद की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी मिला दो क्योंकि जीवन को जीने के सबके अपने दृष्टिकोण होते हैं वैसे ही प्रेम के अपने गणित। प्रेम की दिव्यता और सर्वग्राह्यता कभी प्रश्नचिन्ह नहीं बन सकती मगर एक जीवन का प्रमाण जरूर बन सकती है और उसे आज तीन किरदारों ने अपने अपने ढंग से परिभाषित कर दिया था, जाने कितने रिश्तों को प्रेम ने एक सूत्र में पिरो दिया था और अपने नाम को सार्थक कर दिया था क्योंकि आसान होता है अपने अस्तित्व को मिटाना मगर ज़िन्दगी की आँख में आँख मिलाकर जीना और प्रेम को भी उसका स्थान देकर जीवन गुजारना सबसे मुश्किल होता है और आज तीनो मुसाफिरों ने अपने अपने अंदाज़ में प्रेम को अमर कर दिया था।

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