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खुशनसीब

"खुशनसीब"
तालियों की गड़गड़ाहट के बीच उस लेडी डॉक्टर ने अपना भाषण समाप्त किया। मैंने फटाफट कुछ पल अपने कैमरे में कैद कर लिये। जी नहीं,वह लेडी डॉक्टर चारु मेरी कोई नहीं थी। मैं तो यहाँ आई एम ए ऑडिटोरियम में पहली बार आया था फोटोग्राफर के रूप में। मेरी दस से पाँच बजे की ऑफिस की छोटी सी नौकरी से घर का खर्च,बच्चों की पढ़ाई,बाबू जी की दवा,ये सब नहीं चल सकते थे, इसलिये मेरे साहब ने अपने डॉक्टर दोस्त के जरिये मुझे यह पार्ट टाइम जॉब दिलवा दिया था। मंच से बोली जा रही सारी बात तो मेरी समझ में नहीं आ रही थी। लेकिन मुझे इतना ज़रूर समझ आ गया था कि इनके साथ बैठा डॉक्टर इनका पति था। मेरे मन में आया कि भगवान भी कितना पक्षपात करता है। किसी की झोली में फूल ही फूल डाल देता है और किसी के दामन में काँटे ही काँटे। ये दोनों कितने सुन्दर हैं। दोनों ही डॉक्टर हैं। बड़ी तगड़ी कमाई होगी दोनों की। एक हम हैं। एक नौकरी से पूरा नहीं पड़ता, इसलिये दूसरी पार्ट टाइम नौकरी कर रहे हैं। मेरी पत्नी इतनी पढ़ी लिखी भी नहीं है कि वह कहीं नौकरी करके भारी भरकम तनख्वाह घर में ला सके। फिर छोटी मोटी नौकरी के लिये अगर उसे घर से बाहर भेजें भी तो घर के काम कौन करेगा। मैं अपनी उधेड़बुन में ही था कि एक आवाज़ ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। सामने की सीट पर एक बड़ी उम्र का आदमी खड़े होकर बच्चों की तरह ताली पीट रहा था। सब लोग उसे ही देखने लगे थे। जब डॉक्टर चारु स्टेज से नीचे उतरी तो उस आदमी ने उसे ऐसे गले लगा लिया जैसे कि वह कोई छोटी बच्ची हो। डॉक्टर चारु ने मुस्कुराते हुए अपने आपको उससे अलग किया और सबसे मिलने लगी। थोड़ी देर बाद जब सब लोग खाना खा रहे थे,उस समय मैंने देखा कि डॉ चारु उस आदमी को अपने हाथ से खाना खिला रही थी। मुझे अब तो पक्का हो गया कि यह आदमी भले ही उम्र से बहुत बड़ा है, लेकिन इसका दिमाग बिल्कुल छोटे से बच्चे जैसा है। डॉ चारु की एक सहेली ने आकर उससे पूछा,"क्या अब भाई साहब हमेशा तुम्हारे ही साथ रहेंगे?"
"नहीं,भाई साहब का साथ तो हमें बस छह महीने के लिये मिला है।" खाना खिलाते खिलाते वह बोली,"मम्मी पापा की सड़क दुर्घटना में मृत्यु के बाद भाई साहब के लिये दुनिया में मैं और छोटे भैया ही तो रह गये हैं। छोटे भैया की यू एस में छह महीने की पढ़ाई बाकी है। उसके बाद वे भारत आ जाएंगे। फिर वे बड़े भैया को ले जायेंगे अपने साथ। सच पूछो तो मुझे बड़े भाईसाहब में अपने पापा का अक्स नज़र आता है। इन्हें देखकर मुझे लगता है कि जैसे मेरे पापा मेरे पास ही हैं।" कहकर वह अपनी आँखों में छलक आये आँसू पोंछने लगी।
"ओह! तो इनके जीवन में इतने दुख हैं, फिर भी ये हँसती रहती हैं।"मुझे अपनी सोच पर शर्म आने लगी। मुझे अपनी ज़िन्दगी की तकलीफें अब कम लग रही थीं। कम से कम मेरी तकलीफों पर ज़्यादा मेहनत करके विजय पाई जा सकती थी। पर इनके दुखों का तो निदान ही सम्भव नहीं था। न जाने क्यों,आज दादी माँ की बात याद आ गई। वे कहा करती थीं कि जीवन में जो कुछ मिले, उसे भगवान का प्रसाद समझकर ग्रहण कर लो, जीवन अपने आप सुन्दर हो जायेगा।

सन्ध्या गोयल सुगम्या

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