भदूकड़ा - 17 vandana A dubey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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भदूकड़ा - 17

’कौशल्या, जाओ रानी तुम देख के आओ तो बड़की दुलहिन काय नईं आईं अबै लौ.’ छोटी काकी अब चिन्तित दिखाई दीं. हांलांकि नहीं आने का कारण सब समझ रहे थे, फिर भी उन्हें आना तो चाहिये था न! रमा ने चाय का पतीला दोबारा चूल्हे पे चढा दिया, गर्म करने के लिये. एक तो वैसे ही चूल्हे की चाय, उस पर बार-बार गरम हो तो चाय की जगह काढ़े का स्वाद आने लगता है. रमा पतीला नीचे उतारे, उसके पहले ही सामने की अटारी से कौशल्या बदहवास सी, एक सांस में सामने की अटारी की सीढ़ियां उतरती, और रसोई की सीढ़ियां चढ़ती, दौड़ती आई. ’छोटी काकी, रमा जीजी बड़की जीजी कछु बोल नहीं रहीं.’

सब दौड़े. बड़के दादाजी तक खबर पहुंचाई गयी. रमा ने कुन्ती के मुंह पर पानी के छींटे मारे. कौशल्या ने तलवे मले जब जा के कुन्ती को होश आया. होश आते ही बुक्का फ़ाड़ के रोने लगी... ’हाय रे मेरी कुमति... बुलाओ सुमित्रा को हमें माफ़ी मांगनी है... बुलाओ जल्दी..’ सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे. ’कोई नहीं बुलायेगा छोटी बहू को’ बड़के दादाजी की आवाज़ गूंजी.

’जितनी नाटक-नौटंकी होनी है, सब यहीं होगी. किसी को कोई खबर नहीं हो पाये. जाओ सब अपना-अपना काम देखो. कुछ नहीं हुआ इसे.’ सब जैसे आईं थीं, लौट गयीं अपना-अपना काम देखने. कुन्ती को काटो तो खून नहीं.

उधर ग्वालियर पहुंच के सुमित्रा को समझ में ही न आये कि क्या करे, कैसे करे. राम-राम करते उसने नयी गृहस्थी जमाई. तिवारी जी सुबह से अपने स्कूल जाते, रह जाती अकेली सुमित्रा और तीन बच्चे. बच्चे भी उन सबको याद करते रहते जिनके सहारे उनका जीवन चलता था. यहां न खेलने को कुछ, न दौड़ने भागने को खेत-खलिहान. खैर.... जीवन चल निकला था जैसे-तैसे. तिवारी जी ने यहां आने के बाद पहला काम किया सुमित्रा का इंटर का फ़ॉर्म भरवाने का. पढ़ने लिखने की शौकीन सुमित्रा जी अब अपनी किताबों में व्यस्त हो गयीं. साल निकल गया त्यौहारों पर गांव जाते और पढ़ाई करते. इंटर की परीक्षा सुमित्रा ने ठीक-ठाक नम्बरों में पास कर ली तो तिवारी ने बी.ए. का फ़ॉर्म भरवा दिया. साथ ही बीटीसी का फ़ॉर्म भी भरवाया. ये सारे काम बड़के दादाजी की सलाह पर हो रहे थे. उनक कहना था कि बहू को आगे पढ़ाओ और नौकरी करने दो. आगे समय कैसा होगा पता नहीं. तब बीटीसी (बुनियादी प्रशिक्षण) एक साल का होता था और उसके बाद सरकारी मास्टरी पक्की! सीधे अपॉइन्टमेंट होता था. ये एक साल कब निकल गया, पता ही नहीं चला सुमित्रा जी को. उनका जीवन भी अब तमाम गुड़तानों के बिना, सीधा-सहज चल निकला था. शुरु-शुरु में बार-बार घरवालों की याद आती थी, गांव जाने की हूक उठती थी, फिर धीरे-धीरे गांव जाने की हूक कम होती गयी, याद बाकी रह गयी.बच्चे भी शहर के स्कूलों में पढ़ने लगे थे. बार-बार गांव जाना अब वैसे भी सम्भव न था. हां , तिवारी जी ज़रूर हर पन्द्रह दिन में एक चक्कर गांव का लगा आते थे.

उधर, सुमित्रा के बीटीसी करने की खबर ने कुन्ती को जैसे चंडी ही बना दिया. दनदनाती हुई बैठक में पहुंची, जहां बड़के दादाजी कुछ लोगों के साथ बैठे थे. कुन्ती ने न लोगों की परवाह की, न दादाजी की. सीधे बोली-

“मुझे आपसे कुछ ज़रूरी बात करनी है. या तो आप भीतर आयें, या फिर आप सब तशरीफ़ ले जायें’

हक्के-बक्के से बैठकियों ने दूसरा ऑप्शन चुनने में ही ख़ैरियत समझी, और सिर झुकाये, कुन्ती की बगल से होते हुए बाहर चले गये.
(करमशः )