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हूक - 1

हूक

(1)

आज मेरी सुबह कुछ जल्दी हो गई कुछ देर बाहर लान में टहलती रही फिर चाय की तलब लग आई अख़बार अभी आया नहीं था, सोचा चाय बना लूँ तब तक आ ही जायेगा, अभी सब सो रहे थे एक कप चाय बना कर मै लान में ही चली आई, अब तक अख़बार आ गया था, उठा कर मै सरसरी निगाह से खास खबरें देखने लगी, हेड लाइंस देखने के बाद पेपर पलटा तो अंदर के पन्ने पर छपी खबर पर निगाह रुक गई धक से हो गया दिल ---

यह खबर पढ़ कर दो बरस पहले की सारी बातें चलचित्र सी घूम गई ----

दो बरस पहले की तो बात है अचानक माँ की बहुत याद आई और मैने मायके जाने की जिद कर ली माँ से मिले बहुत दिन हो भी गया था, टिकट नहीं कन्फर्म हुआ तो मै बाई रोड ही चल दी ---सफर लंबा था कभी किताब पढ़ती तो कभी साथ साथ भागते पेड़ों को निहारती फिर सोचती जिंदगी भी तो भाग रही है उतार चढ़ाव भरे इन रास्तों पर सच ही तो है, ऐसे ही जिंदगी के रास्ते भी सीधे नहीं होते, टेढ़े मेढ़े हो कर कभी संकरे हो जाते है तो कभी बहुत सहल जिसके हिस्से जो आये, हम सब को उन्ही से होकर गुजरना पड़ता है ! न जाने किस उधेड़बुन में उलझा रहा मन कि पता ही न चला इतना लंबा सफर कैसे कट गया कब समय बीत गया गया अब बस पहुँच ही गये थे, एक लम्बे अरसे बाद मायके जा रही थी ! ड्राइवर से पहले से कह रखा था जैसे ही जिले की चौहद्दी छूना मुझे बता देना, एक एक जगह देखनी थी अपना बचपन खोजना जो था जो यही कहीं छोड़ गई थी, और कितना कुछ आँखों में कैद करना था जो बाकी दिनों के लिए संबल होगा, पता नहीं अब फिर कब आना हो -- शहर में गाडी घुसते ही पीठ सीधे कर के बैठ गई चौदह साल का लम्बा अरसा बीत गया था, कितना कुछ बदल गया होगा ? पर कुछ भी तो नहीं बदला वही सड़कें वही गलियां उसी सिन्धी चौराहे पर चाय की वैसी ही छोटी सी दूकान, जहाँ पहले की तरह ही मिटटी के कुल्ल्हड़ में चाय सुड़कते ठहाके लगाते चार पांच वकील जिनके काले कोट का रंग भी धूसर पड़ गया था, उनके पीछे निरीह सा खड़ा मोवक्किल जो शायेद सोच रहा था न जाने कितने का बिल होगा वकील साहेब तो अपनी अंटी ढीली करने से रहे मन ही मन सोचते हुए मुस्करा रही थी मै !, फुटपाथ पर सब्जी की छोटी छोटी ढेरी लगाये पास के गाँव के छोटे खेतिहर किसान जो रोज अपनी भाजी तरकारी बेच कर ही चुल्हा बारते है ग्राहकों से मोलभाव में व्यस्त हैं, पुरानी दीवानी के चौराहे पर सौ साल का इमली का बूढा पेड़ अभी भी तना था, पर पन्द्रह साल पहले के जवान चेहरों की त्वचा पकी और बाल खिचड़ी नजर आये, चड्डा आंटी का बेटा जैसे चड्डा अंकल में तब्दील होता जा रहा था ! चेहरे बदल रहे थे पर शहर नहीं रास्ते सड़कें सब वैसी उसी तरह जैसा मै इन्हें छोड़ गई थी -----

ये शहर इसके रास्ते कैसे भूलते मुझे यहाँ इस शहर में मेरी नाल जो गड़ी है नानी कहती थी जहाँ नाल गड़ी हो वो जगह बार बार बुलाती है एक अजीब सा खिचाव होता है वहां, फिर यह तो मायका है माँ और मायका एक दुसरे के पूरक है, जब तक माँ है मायके का मोह अधिक रहता है, मेरे स्कूल से लेकर कालेज तक के स्वर्णिम दिन यही तो गुज़रे है, वो सब कुछ याद करती जा रही थी और मन भीगता जा रहा था, अचानक कुछ देख कर चौंक उठी " जरा गाडी एकदम धीरे कर दो " ड्राइवर से कहा और उसके पास आने का इंतजार करने लगी वो पास आ गई घुटनों तक ऊँची स्कर्ट और टाप पहने शुक्र है मोज़े घुटनों तक थे खूब ढेर सारा मेकअप थोपे, कंधे पर पर्स लटकाए, ऊँची एडी की सैडिल पहने टक टक करती चली आ रही वो लड़की बिमला ही थी ....

लड़की क्या वह पैंतीस साल की भरी पूरी औरत ही तो थी, शायेद अभी तक विवाह नहीं किया था, अचानक उसकी नजर मुझ पर पड़ी कुछ देर पलक झपकती रही फिर चहक उठी -" अरे नीरू जिज्जी कब आई हमको अब खबर भी नहीं करती आने जाने की जब अम्मा नहीं रही आप भी रिश्ता तोड़ ली न ? " -- " अरे नहीं हम तो अभी बस आये है अभी तो घर भी नहीं पहुंचे तुम्हे देखा तो गाडी रोक ली " --- अभी आप रहेंगी न आपसे ढेर बात करनी है " ---- " नहीं बस दो चार दिन ही अकेले ही आये है न जी घर पर ही अटका है पर मायके आये बगैर रहा नहीं गया तुम आओ न घर " कह कर ड्राइवर को चलने का इशारा किया --- " आती हूँ जिज्जी " कह कर वह अस्पताल वाली रोड पर मुड़ गई, पलट कर उसे देखा और मन ही मन बडबडाई अजीब है कैसा रूप बनाई है कोई टोकता भी नहीं, न अपना शरीर देखती है न उमर क्या अजीब पहनावा है, ख़ैर हमे क्या, तब तक घर आ गया --

बरसों बाद मायके की मिटटी हवा के स्पर्श से एक हूक सी उठी और आँखों से बहने लगी --
संध्या हो रही थी इस घर की बेटी मायके आई थी पूरे चौदह बरस बाद मानो राम का बनवास पूरा हुआ हो पर एक ही साम्य है -वहां भी बाबा दशरथ न थे और यहाँ भी सूना था |

इस मिथिला की जानकी अपने बाबा के घर का द्वार खटखटा रही थी पर आज जनक नहीं है उसे अपने अंकवार में भरने को अंदर माँ है भाभी है कालबेल पर ऊँगली रख कर पल भर को सोचने लगी, ”अरे दीदी अबहीं आई का ? भले आया बहिनी बस हम जाय वाला रहे गाय गोरु के सानी पानी होई गय अब चला जाईत तो तोहार दरसन बिहान भिनसारे होत अब कुछ दिन तो रहना बच्ची जल्दी न जाना,, अम्मा बहुत दुबराय गई है जब से भाभी भईया गये तबही से “,,, यह मथुरा भईया हैं ये बचपन से इसी घर में है नदी पार से आते हैं रोज सुबह से शाम तक रहते हैं घर का अंदर बाहर की सब ज़िम्मेदारी इन पर ही है नौकर नहीं घर के सदस्य है यह, तभी बाहर की हलचल सुन भाभी की आवाज़ आई कौन आया है " दरवाज़ा खोलो न बहू जी " --- " खुला तो है मथुरा भईया " कहती हुई बाहर आ गई,,,, अचानक मुझे सामने देख उनका मुंह खुला रह गया शब्द मानो गले में अटक गए मारे ख़ुशी के लिपट गई "बीबी आप आ गई " कहती जा रही थी और बार बार चिपका लेती चूम लेती " अच्छा मेरा मुंह जूठा मत करो भाभी और देखो अगर फिर से बीबी बोला तो वापस चली जाउंगी " कह कर मै हंस रही थी और दोनों आँखों से आंसू लगातार बहते जा रहे थे --- " अम्मा कहाँ है भाभी ? " –कहती हुई मै बाबा के कमरे की ओर चल दी अम्मा से मिलने का उछाह पल भर को किसी और की तरफ देखने ही नहीं दे रहा था

माँ को चार साल से नहीं देखा था इस अरसे में काफी कमजोर हो गई है माँ, दोनों बड़े भाइयों के आपसी मनमुटाव ने अम्मा को मानो तोड़ कर रख दिया है, बड़े भाई अम्मा के पास है और उनसे छोटे अलग रहने लगे,,, बाबा के बाद सारा निजाम बदल गया अम्मा भी और मेरा आना जाना भी बाबा के बिना घर अच्छा नहीं लगता यहाँ हर पेड़ पौधे में उनकी छुअन बसी है ...घर का हर कोना उनकी याद समेटे है किताबों और डायरियों में उनकी ही महक है | अम्मा से मिल कर उनसे से लिपट कर उनके स्नेह की ऊष्मा ले सहज हुई तो देर रात तक बतियाते रहे हम माँ बेटी -- न जाने कितनी बातें थी जो माँ को बतानी थी मुझे भी तो सब कुछ जानना भी था पूछना था सब के बारे में, अचानक बिमला का ख्याल आ गया -- " अम्मा मौसा कैसे है?"" कौन मौसा ? कहाँ से अभी याद आ गए तुमको कभी पहले फोन पर भी नहीं पूछा "-- " माँ - आज आते समय बिमला मिली थी " आँखों के सामने उसकी तस्वीर घूम गई उसके बारे में सब कुछ जानने की प्रबल उत्कंठा हुई -- " दरोगा बहुत बीमार है जैसी करनी वैसी भरनी भोगना तो पड़ेगा ही न सुगना को तो मार डाले कलपा कलपा के खुद तो मौज किये सारी जिंदगी अब फूट फूट के निकलेगा ही " माँ बडबडा रही थी मेरे समझ में कुछ नहीं आ रहा था क्या बोल रही है अच्छा अब तुम सो जाओ थक गई होगी माँ ने मेरा हाथ सहला कर कहा | पर नींद मानो कोसों दूर थी और मै अतीत में भटक रही थी | सुगना मौसी माँ के मायके के गाँव की थी दूर के रिश्ते में चचेरी बहन लगती थी उनका ब्याह जगन्नाथ मिसिर से हुआ था, तीन बेटियाँ थी उनकी – सीमा, सुधा, बिमला ! मौसी कलकत्ता में रहती थी कभी काज प्रयोजन में आती तो तीनो बेटियों को गुड़ियों जैसा सजा कर लाती –खुद भी बड़े ठसके से रहती, खूब चटक साड़ी, भर हाथ चूडियाँ आगे पीछे सोने के कड़े लगा कर पहनती तो मोहल्ले टोले की औरतें देख देख कर सिहाती, कोई कोई अपनी जलन उगल ही देती और बात ही बात में मुंह बिचका के पूछ लेती “ डिजाइन तो बहुत सुंदर है यही चौक वाले सोनार से बनवाई हो का सुगना ?” ----“ नाहीं भाभी अब ऐसन डिजाइन इधर कहाँ बनी ई तो सीमा के बाबू जी अबकी धनतेरस पर बनवाये कहने लगे तीन तीन बिटिया है हर तीज त्यौहार दो चार गहना बनवाते रहेंगे तो बियाह तलक तीनो के लिए इतना हो जाएगा कि सर से पैर तक पीली हो कर बिटिया ससुराल जायेंगी “ मौसी मुस्करा दी मुंह में पान भरा था बोलते बोलते अचानक पान की पीक साड़ी पर टपक गई, मौसी झट कमर में खोसा रुमाल निकाल के रगड़ने लगी, माँ सब देख सुन रही थी अचानक बोल पड़ी “ ऐ सुगना बड़ी फूहर हो तुम जाओ जा के धो के आओ कितनी बार कहा जब सहूर नहीं तो काहे पान खाती हो कोऊ डाक्टर तो कहे नहीं उठ जल्दी नहीं तो एक हाथ पड़ जाएगा “ माँ से मौसी का बड़ा प्रेम था माँ बड़ी थी न उनसे वह तुरत ही उठ कर चली गई सब औरतों के जाने के बाद मैने सुगना मौसी को माँ से कहते सुना “ कहाँ बहिनिया वै कबके गहना गढ़ावे वाले ई तो हम घर गृहस्थी के खर्च से कतरब्योंत कर के तनीतुनि बचाय के बनवाये अब तुमसे का छुपाना दस ग्राम में चार बन गये जब तक घिस के तांबा झलकी तब तक हमहूँ कहाँ रहब “ मौसी माँ से झूठ नहीं बोलती थी कभी अक्सर अकेले में बतियाती और आंचल से आँख पोंछती जाती |

फ़ोर्स में थे मौसा लेकिन पता नहीं किसने उनका नाम दरोगा रख दिया गाँव घर में अब सब उनको दरोगा या दरोगा मिसिर बुलाते थे पहले तो वह चिढ़े पर बाद में दरोगा जी सुन कर मुस्करा देते, पता नहीं क्या ओहदा था उनका, शायेद स्टोर कीपर थे इसीलिये उनकी कमाई अच्छी थी तनख्वाह के साथ नम्बर दो का घपला भी जरुर करते होंगे, इसीलिए जल्दी जल्दी जगह जगह तबादला होता रहता उनका, इन दिनों कलकत्ता में थे, मौसी और बेटियां भी साथ ही रहती, ऊँचे चौरस बदन के गोरे चिट्टे मौसा जबान के बड़े खराब थे गाली उनके मुंह पर रहती फौज की नौकरी की बड़ी ऐंठ थी उनमे कुछ तो आवाज़ बुलंद और कुछ हनक बनाने के लिए भी जोर से बोलते थे पर हमारे घर आने पर अपने पैजामे में ही रहते यहाँ नहीं चलती थी उनकी नौटंकी

सुगना मौसी पक्के रंग और मोटे नैन नक्श की थी उस पर तीन तीन बिटिया भी कोख से जन दी उन्होंने, लेकिन उनका एक मजबूत पक्ष था वह थी उनकी जायजाद और पक्का घर, इसी से उनका खूंटा गहरा धंसा था जिसे दरोगा मिसिर चाह के भी नहीं उखाड़ पा रहे थे वरना बेटे की लालसा तो जब तब हिलोरें मार ही जाती, मौसी को यही गम घुन की तरह खाए जा रहा था पर कभी जाहिर नहीं किया तीनो बेटियों को बड़े लाड़ प्यार से पाला था मुझसे बड़ा स्नेह रखती थी करीब पच्चीस तीस साल हो गए थे उनके देहांत को आखिरी बार अपनी शादी में मिली थी तब यह बिमला आठ बरस की रही होगी, उसके दो तीन बरस बाद वो नहीं रही, पता नहीं अचानक क्या हुआ, अम्मा से तब पूछा था तो बस इतना ही बोली तन का रोग डाक्टर हकीम ठीक कर सकते है पर मन का संताप प्राण ले कर ही जाता है, माँ की मृत्यु के समय सबसे बड़ी सीमा चौदह पन्द्रह साल की थी तीनो बहनों में दो दो बरस का अंतर था | सीमा पढने में बहुत कमजोर थी पर सुधा अपनी कक्षा की तेज़ छात्राओं में थी समझदार भी बहुत थी सीमा एकदम माँ का प्रतिरूप थी मोटी भी थी मौसी सुघर थी पर बिटिया एकदम लौधड सिलबिल्ली सी, कच्ची गिरहस्थी थी लेकिन सीमा ने संभाल ली थी और छोटी सी उमर में छोटी बहनों के लिये माँ की जगह ले ली उसने अब चौका चुल्हा भी वही करती दोनों बहनों की पढ़ाई लिखाई पर भी ध्यान देती खुद का मन भी नहीं लगता और फुरसत भी नहीं थी, सुधा थोडा बहुत हाथ बटाती जरुर लेकिन अपनी पढ़ाई में लगी रहती गेहुएं रंग की सुधा सुंदर थी पर सबसे खुबसुरत थी बिमला बिलकुल गुडिया जैसी और रंग तो मैदे जैसा सफ़ेद माँ बाप बहनों सबकी दुलारी थी, अब माँ तो रही नहीं पर बहने बहुत ध्यान रखती थी, बाद के कुछ एक सालों बाद मौसा नौकरी से रिटायरमेंट लेकर यही इसी शहर में आ गए थे इसी कारण जब मायके आते तो मुझे भी हाल चाल मिल जाता कभी कभी मिल भी आते, वही दो तीन घर छोड़ कर फूला बुआ भी रहती थी फूला बुआ निसंतान थी दोनों प्राणी अकेले रहते और मस्त रहते बुआ मुझसे बहुत प्यार करती वह, उन से भी यहाँ आने पर सब हाल समाचार मिल जाता | पर इस बार एक लम्बे अन्तराल के बाद आने पर न जाने क्यों सब सहज नहीं लग रहा था, इतनी उलझन थी कि सोने की लाख कोशिश के बाद भी नींद नहीं आ रही थी मेरे बार बार करवट बदलने से माँ जग गई –कुछ देर तो बस मुझे देखती रही, नाईट बल्ब की नीली हल्की रोशनी में भी मुझे माँ की वात्सल्य भरी आँखें दिख रही थी “ तुम अभी सोई नहीं नीरू सो जाओ बिटिया “ कह कर माँ ने अपना एक हाथ मेरे उपर रखा और थपकने लगी न जाने कब कितने सालों बाद मै एक गहरी नींद सो गई ---सुबह बहुत देर से आँख खुली दिन चढ़ आया था, ”अरे अम्मा इतनी देर हो गई हम सोते रह गये जगाया क्यों नहीं ? “ देर तक सोने का आज दुःख हुआ क्योंकि समय कम था और काम बहुत थे – चाय का कप लेकर बालकनी में खड़ी हो गई बाहर देखते हुए, मन में बहुत कुछ चल रहा था उन तीनो बहनों को लेकर -

माँ और भाभी की आधी अधूरी बातों ने मेरी जिज्ञासा और बढ़ा दी थी ...अरे मै फूला बुआ को कैसे भूल गई वो तो चलता फिरता टेलीविजन है उनसे पूछना होगा,,,,

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