नाख़ून - 2 Vijay Vibhor द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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नाख़ून - 2

लेकिन नहीं, माँ को तो घर में बहू चाहिए थी। बे–मन शादी के लिए हाँ कर दी थी। फिर शादी में खुद की किसी भी तरह की पसंद को थौपा भी नहीं था माँ–बाप पर। उनकी पसंद का लत्ता–कपड़ा, उनकी पसंद अनुसार खर्च चलाना, उनकी ही पसंद की हुई लड़की से शादीय सब कुछ तो उनकी ही पसंद का था।
कहीं ऐसा तो नहीं कि माँ ने पास–पड़ौस में जो अच्छे दहेज की उम्मीद जताई थी..... नहीं–नहीं..... ऐसा नहीं होगा..... अरे हो भी सकता है..... आख़िर इंसान का लालची मन कुछ भी करवा सकता है।
दिमाग पर बोझ लिए–लिए ही न जाने कब पेट में चूहे दौड़ने लगे। चुहे दौड़ते भी क्यूँ न सुबह भी तो कुछ खाया नहीं था। फिर घड़ी की तरफ नज़र दौड़ाई तो दोपहर हो चुकी थी और लंच का टाईम भी ऊपर जा चुका था। उसने जल्दी से अपने बैग में से लंच बॉक्स निकाला। टिफिन खोला तो वह भी खाली था। उसे याद आया कल शाम को घर पहुँचने पर टिफिन बैग से निकालना ही भूल गया था और आज सुबह तो खाना बना या नहीं यह मालूम ही नहीं था । वह तो ट्रेन में बैग गोदी में रखा था, तो टिफिन बैग में रखा है यह ध्यान रह गया। उसने टिफिन बंद किया और बैग में रख दिया। जेब में हाथ मारा तो सुबह को बचा हुआ एक बीस का नोट ही पड़ा था। अब इसे भी खर्च कर दिया तो जेब बिल्कुल खाली हो जाएगी। यही सोचकर उसने एक गिलास पानी पिया और फिर से अपनी कुर्सी में जा धसा। खाली पेट काम में मन तो लगना नहीं था, सोचते–सोचते वह अतीत के ख्यालों में खो गया।
सात–आठ तारीख को तनख्वाह मिलती थी। शादी से पहले सारी की सारी तनख्वाह माँ के हाथ में रख देता था। माँ भी कभी–कभार ही उससे खर्चे पानी के लिए पूछती थी। पूरा महीना वह किसी तरह ओवर टाइम वगैरह करके निकाल लेता था । घर देरी आने का कारण पूछने पर माँ से ट्रेन छूटने का बहाना बना देता। लेकिन शादी के बाद उसने इस नियम में एक बात बदल ली थी। अब वह पाँच सौ रूपए अपने खर्चे के लिए रखने लगा था, ताकि नई नवेली पत्नी को किसी चीज की जरूरत हो तो माँ–पिता जी से पैसे माँगने न पड़ें। शादी के बाद से समय से घर आने लगा था। कभी–कभार पत्नी के पसंद का कुछ खाने को भी ले आता था। इस तरह से पत्नी को समझने के लिए उसके साथ भी कुछ समय गुजार जाता था।
इसीलिए शादी के बाद ठीक समय पर आफिस से निकलने का यह नियम भी उसके मालिक ने ही बनवाया था। इस संसार में हर तरह का इंसान है। आपके जीवन में कोई–न–काई इंसान फरिश्ते के रूप में आ ही जाता है । बस हमारे नज़रिये में उसे समझने की शक्ति या काबि़लियत होनी चाहिए। मालिक भी मेरे जीवन में एक तरह से फरिश्ते की ही रूप में आए हैं, ऐसा उनके द्वारा मेरे प्रति व्यवहार दर्शाता है। नहीं तो कौन मालिक ऐसा होगा जो ऑफिस की घड़ी में पाँच बजते ही सब काम छोड़ कर जल्दी से ट्रेन पकड़ने के लिए स्वयं कहता हो और काम बचा होने पर भी कहता हो कि, “तेरी नयी–नयी शादी हुई है। अभी कुछ समय अपनी पत्नी को भी दे । वह तुम्हारे घर के माहौल से परिचित नहीं है। यह तुम्हारी ड्यूटी बनती है कि तुम उसे अपने घर के माहौल में ढालो। उसे उसके मायके की याद न आने पाए यह तुम्हारा कर्तव्य बनता है।”
मालिक कितना सुलझा हुआ मिला है। मालिक ने उसको दाम्पत्य जीवन के बहुत ही सुक्ष्म–सुक्ष्म पहलुओं से अवगत करवाया था। जब कभी ऑफिस में काम कम होता या नहीं होता तो मालिक उसे अपने व दूसरों के दाम्पत्य जीवन के अनुभवों को सुनाता और उन अनुभवों की व्याख्या करते हुए जीवन को सरल–सहज रूप से जीने के उपाय बताता था। गृहस्थ जीवन को समझने में मालिक ने बहुत सहायता की थी। वह कहते थे, “नई–नई पत्नी को आप जितना समय दोगे, आपस में एक दूसरे को समझने में उतनी ही आसानी रहेगी। जब आप ठीक से एक दूसरे के पसंद–नापसंद को जान लेते हैं और उसके अनुसार दोनों अपने व्यवहार, पसंद आदि में परिवर्तन कर लेते हैं तो गृहस्थ जीवन स्वर्ग के समान लगता है। एक दूसरे को समय न दे पाने के अभाव में आपसी समझ और सामंजस्य नहीं बन पाता और गृहस्थ जीवन नरकमय लगता है। शादी का अर्थ मात्र शारीरिक सुख लेना नहीं है अपितु एक दूसरे के प्रति अपने को समर्पित करना है।”
लेकिन आज, आज तो सुबह की घटना ने ओर अब खाली टिफिन ने उसकी स्मरण शक्ति व समझ को ही कुंद कर दिया था।
ऑफिस की घड़ी ने शाम के पाँच बजने के संकेत दिए तो वह ख्यालों की दुनिया से बाहर आया। उसका दिल जोर–जोर से धड़कने लगा और मन में तूफान उठने लगा, ‘उफ! अब फिर घर जाना पड़ेगा। उसी घर जहाँ..... लेकिन जाना तो था ही, नई नवेली पत्नी जो वहाँ थी। वह सोचकर चिंतित हो रहा था कि सुबह के माहौल को देखते हुए पत्नी ने सारा दिन कैसे बिताया होगा। वह तो उस माहौल से बचकर यहाँ आफिस में आ गया और वह बेचारी वहीं रह गयी उस कलहपूर्ण माहौल में। सोचकर उसने जल्दी से कम्प्यूटर ऑफ किया, फाईले समेटी और एक लम्बी सांस ले कुर्सी छोड़कर बैग उठाया और निर्जीव कदमों से ऑफिस से बाहर निकला।
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सड़क पर काफी चहल–पहल थी । सब अपने काम निपटा कर अपने–अपने घरों की ओर लौट रहे थे। लेकिन उसके लिए तो ऑफिस से स्टेशन के बीच दस मिनट का पैदल रास्ता आज कुछ ज्यादा ही लम्बा हो गया था। सुबह की घटना को वह किसी भी तरह से भुला नहीं पा रहा था। माथे पर छलक आये पसीने को पौंछता हुआ, वह भी सड़क पर लगभग रेंग रहा था। अन्य कामगारों की भांति पक्षी भी अपने घोंसलों की तरफ उड़े चले जा रहे थे। अचानक पक्षियों का चहचहाट ने उसका ध्यानाकषर्ण किया। उसने नज़र उठाकर पक्षियों की तरफ देखा। ‘काश! वह भी पक्षी होता, कितने खुश लग रहे हैं ये सब । कभी व्यर्थ एक–दूसरे से लड़ते नहीं देखा इन पक्षियों को। जब भी मिलकर चहचहाते हैं तो लगता है जैसे कोई मधुर संगीत बज रहा हो। लेकिन आदमी है कि.....।’ इसी उधेड़–बुन में स्टेशन आ गया । उसने समय देखा तो पहली ट्रेन छुट जाने का समय हो गया था । दस मिनट का रास्ता आज उससे आधे घण्टे में तय हो पाया था।
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प्लेटफार्म पर पहुँचा तो उसकी ट्रेन के सहयात्रीयों के जाने–पहचाने चेहरे अभी–भी वहाँ नज़र आ रहे थे। उनकी आपसी चर्चा से मालूम पड़ा कि आज ट्रेन पौना घण्टे देरी से आ रही है। ‘उफ यह समय? रास्ते में चलते–चलते कितनी उधेड़–बुन चल रही थी दिमाग में, घर की तरफ जाने को कदम भी साथ नहीं दे रहे थे। जितनी देर से स्टेशन पहुँचा था उस हिसाब से तो यह ट्रेन छुट जानी चाहिए थे। खैर कोई बात नहीं शायद होनी को कुछ ओर ही मंजूर हो।’ यह सोचते हुए उसने जेब में हाथ डाला और सुबह का बचा हुआ बीस का नोट निकाल कर वैंडर से एक छोटी कोल्ड–ड्रिंक और बिस्कुट का पैकेट खरीद लिया। इधर–उधर नज़र दौड़ाई तो कुछ दूरी पर एक बैंच पर बैठने के लिए जगह भी मिल गई । बैठकर उसने कोल्डड्रिंक का ढक्कन खोला ओर लम्बी–सी एक घूंट भरी। घूंट की शीतलता उसके मुँह से लेकर सीने को शीतल करती चली गयी। दिमाग में भी एक झनझनाहट–सी चली। एक–दो–तीन–चार कई घूंट लगातार उसने अपने हलक के नीचे उतार ली । एक तीखी ढकार ने उसकी आँखों व दिमाग के तार से झंकझोर दिए। सुबह से खाली पेट में भी थोड़ी सी शीतलता महसूस हुई। बिस्कुट का पैकेट खोला और चार–पाँच बिस्कुल खा गया। एक–दो घूंट कोल्ड–ड्रींक की ओर भरकर वह कुछ देर आँखों को बंद कर बैठ गया । बंद आँखों के आगे दादा ससुर व मालिक की छवी उभर आयी।
दादा जी के कहें एक–एक शब्द को उसने टटोलना शुरू किया और उसका दिमाग इन शब्दों पर आ कर अटक गया, ‘देखो अवतार! तुम हमारे घर के दामाद हो, सिर–माथे । बस एक बात गाँठ बांध लो, सारा जीवन तुम्हें अपनी समझबूझ से चलना है। तुम्हारी शादी का अस्तित्व तुम्हारे परिवार और तुम दोनों से है न कि किसी दूसरे के दखल से।.....’
उसे अपने मालिक की कही एक बात ओर याद आयी, “देखो अवतार! यह दुनियाँ बड़ी ही शातिर है। यदि साधारण भाषा में कहूँ तो ढोल है ढोल। यह अपनी सुविधानुसार दोनों तरफ से बजती है। जो आस–पास वाले तुम्हें अपने शुभचिंतक से लगते हैं, यदि उनके व्यवहार का सहज भाव से आंकलन करो तो कई बार वह हमारे भले के लिए न होकर हमें उलझाने वाला होता है। उन लोगों में तुम्हारे माता–पिता भी हो सकते हैं और ईष्ट–मित्र भी । कई बार यह काम ससुराल पक्ष वाले भी करते हैं। ध्यान रखो पत्नी के साथ तुम्हारा अपना व्यवहार ही पत्नी को तुम्हारी अर्धागिंनी बना सकता है या फिर उसे बोझ बना सकता है। वह बेचारी सिर्फ अग्नि फेरे लेकर तुम अंजान के साथ सिर्फ एक भरोसे पर आती है कि यह पुरुष मुझे समझेगा। पहले तो पति को ही अपने व्यवहार से पत्नी का भरोसा जीतना होता है। जब पत्नी को यकीन हो जाएगा तभी वह पति की बाहों में स्वयं को सुरक्षित महसूस करेगी।..... कभी कुछ ऐसा–वैसा हो भी जाए तो एक बार तो पत्नी का पक्ष जरूर लेना। माता–पिता तो तुम्हारे हैं ही वह तुम्हें चाहते हैं, यदि तुम्हारे साथ उनकी कुछ अनबन हो भी जाए तो वह तुम्हें नहीं बल्कि तुम्हारी पत्नी को निशाना बनाएंगें।..... याद रखो बच्चे माता–पिता के लिए नाखूनों के जैसे होते हैं। जिस प्रकार हम नाखून बढ़ जाने पर नाखूनों को काटते हैं न कि पूरी अंगुली ही काट देते हैं, उसी प्रकार माता–पिता भी अपने बच्चों को डाँटते तो हैं, लेकिन उन्हें अपने से अलग नहीं कर पाते।”
अवतार अब दादा जी व मालिक की कही बातों पर मंथन करने लगा । अरे दादा जी ठीक ही तो कह रहे थे, ‘मेरी शादीशुदा जिन्दगी का अस्तित्व तो मेरी अपनी समझबूझ से है । किसी दूसरे के दखल से मैं मज़ाक ही बनकर रह जाऊंगा।.....’ नहीं–नहीं मैं किसी के लिए मज़ाक नहीं बनना चाहता । मैं अपनी शादीशुदा जिन्दगी के फैसले खुद करूंगा। अपनी शादीशुदा जिन्दगी में किसी तीसरे का दखल कतई नहीं चाहे वह मेरे माता–पिता हों या फिर ससुराल वाले ही क्यों न हों.....’ मालिक भी तो ठीक ही कह रहे थे, बच्चे माता–पिता के लिए नाखूनों के जैसे होते हैं। जिस प्रकार हम नाखून बढ़ जाने पर नाखूनों को काटते हैं न कि पूरी अंगुली ही काट देते हैं उसी प्रकार माता–पिता भी अपने बच्चों को डाँटते तो हैं, उन्हें अपने से अलग नहीं कर पाते।’
दोनों की बातों का निचोड़ निकालने पर उसके दिमाग पर से एक बहुत बड़ा बोझ–सा उतर गया। टेªन के आने की भी उद्घोषणा हो गयी थी। उसने जल्दी–जल्दी बिस्कुट और कोल्ड–ड्रिंक खत्म की, खाली रैपर और खाली बोतल को कूडे़दान में डालकर अपनी शादीशुदा जिंदगी के अस्तित्व की रक्षा हेतु एक बड़े निर्णय को मूर्तरूप देने के लिए ट्रेन की तरफ बढ़ चला।