औघड़ का दान
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग-6
दस-बारह क़दम चल कर वह झोपड़ी के प्रवेश स्थल पर पहुंची तो उसने कुछ अजीब तरह की हल्की-हल्की गंध महसूस की। वह कंफ्यूज थी कि इसे खुशबू कहे या बदबू। डरते हुए मात्र पांच फिट ऊंचे प्रवेश द्वार से उसने अंदर झांका तो बाबा वहां भी नहीं दिखे। हां पुआल का एक ऐसा ढेर पड़ा था जिसे देख कर लग रहा था कि इसे सोने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। उसके ऊपर एक मोटी सी पुरानी दरी पड़ी थी जो कई जगह से फटी थी। एक तरफ एक घड़ा रखा था जो एल्युमिनियम के एक जग से ढका था। दूसरी तरफ भी कुछ सामान बिखरा पड़ा था जो तंत्र-मंत्र से संब़द्ध लगता था। पक्की मिट्टी का एक तसला सा बर्तन भी था, जिसमें भभूति का ढेर लगा हुआ था।
लगभग दस गुणे पंद्रह की वह झोपड़ी जिसमें जगह-जगह मकड़ियों ने जाले बना रखे थे कुछ अजीब सी चीजों और अजीब सी गंध या सुगंध से भरा था। जो पुआल का बिस्तर था उसके कोने पर बाबा का कपड़ा एक मटमैले रंग का अंगौछा और एक करीब-करीब लंगोट जैसा कपड़ा पड़ा था। सारा दृश्य देख कर सोफ़ी को यकीन हो गया कि वह सही जगह पहुंच गई है, यही बाबा का डेरा है। उसे राहत महसूस हो रही थी। और साथ ही प्यास भी लगी थी मगर पानी का तो यहां नामोनिशान नहीं था। घड़े में न जाने क्या था। फिर बाबा की इज़ाज़त के बिना कुछ छुआ भी नहीं जा सकता था।
बाबा की अनुपस्थिति अब उसे खलने लगी थी। यह सोच वह परेशान हो उठी कि कहीं उसे खाली हाथ बाबा के दर्शन के बिना ही न लौटना पड़े। झोपड़ी के संकरे रास्ते से वह दो क़दम उल्टा ही पीछे चल कर बाहर आ गई। गर्मी, धूल उसे अब ज़्यादा तकलीफदेह लग रही थी। पसीने को बदन पर उसने रेंगता हुआ महसूस किया। खासतौर से सलवार के अंदर जाघों से घुटनों की तरफ जाता हुआ। कहने को मौसम विभाग बारिश की संभावना रोज ही बता रहा था, लेकिन बारिश छोड़ो, बादल भी नज़र नहीं आ रहे थे। सशंकित मन लिए वह स्कूटी के पास आ कर खड़ी हो गई। वहां की छाया उसे कुछ सुकून दे रही थी। लेकिन पंद्रह मिनट बाद भी बाबा न दिखे तो उसकी परेशानी बढ़ने लगी। बीतते एक-एक पल बहुत भारी हो रहे थे, और जब पौन घंटा से ज़्यादा बीत गया तो सोफ़ी ने भारी मन से वापस चलने का निर्णय ले लिया।
प्यास से उसका गला बुरी तरह सूख रहा था। उसने स्कूटी को स्टैंड से उतारा ही था कि करीब पचास मीटर की दूरी पर उसे एक आदमी अपनी तरफ आता दिखाई दिया। वह एकदम रुक गई और उस आदमी पर एकदम नज़र गड़ा दी। वह एकदम मस्त चाल से करीब-करीब झूमता हुआ सा चला आ रहा था। जब वह करीब आ गया तो सोफ़ी ने बहुत राहत महसूस की और बुदबुदाई यह बाबा जी ही लग रहे हैं। जैसा सब ने बताया था बिल्कुल वैसा ही तो है हुलिया। कमर से नीचे झूलती जटाएं। रंग गहरा सांवला, ऊंचाई सवा छः फिट। बदन बेहद मज़बूत कसा हुआ। पहलवानों जैसा। छाती हाथ पैर सब बड़े-बड़े काले बालों से भरे हुए थे। और कपड़े! कमर में एक पतली सी डोरी सी चीज में काले कपड़े के दो टुकड़े एक आगे और एक पीछे लटक रहे थे। जिसे न तो लंगोट कह सकते थे और न ही कोपिन। बाबा के दहिने हाथ में लकड़ी का एक बड़ा कुंदा था जो जमीन तक लंबा था, बाबा उसे खींचते हुए लिए आ रहे थे।
सोफ़ी के सामने से बाबा मात्र दस क़दम की दूरी से आगे निकल गए और लकड़ी उस सुलगती आग पर डाल दी। फिर उसे जलाने की गरज से बैठ गए और कुछ पतली लकड़ियों, जलते कोयलों को लकड़ी की ऊंचाई तक कर दिया जिससे मोटी लकड़ी आग पकड़ सके। बाबा आग में फूंक मार-मार कर कुंदे में आग पकड़ाने की कोशिश करने लगे। बाबा उकड़ूं बैठकर फूंक मार रहे थे। बाबा सोफ़ी के सामने से निकलने से लेकर आग के पास बैठने तक ऐसे बिहैव कर रहे थे, मानो सोफ़ी वहां है ही नहीं। वहां अकेले वही हैं।
इधर सोफ़ी अलग पशोपेश में थी। जब से बाबा सामने से निकले तब से वह हाथ जोड़े खड़ी उन्हें निहारे जा रही थी। जीवन में पहली बार किसी शख्स या बाबा को वह इस रूप में इस तरह अकेले विराने में देख रही थी। डरी सहमी थी इस लिए अपने शरीर की थर-थराहट साफ महसूस कर रही थी। बाबा के शरीर पर उसकी नज़र ऊपर से नीचे तक सेकेण्ड भर में दौड़ गई थी जब वह सामने से निकले थे।
जितनी देर हो रही थी वह उतनी ही ज़्यादा व्याकुल हो रही थी। जीवन में पहली बार वह इस अनुभव से गुजर रही थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि बाबा से कैसे मुखातिब हो। पंद्रह मिनट से ज़्यादा बीत गए थे उसे हाथ जोड़े खड़े हुए और बाबा थे कि उन्हें होश ही नहीं था। वह उठे तो लकड़ी सुलगा कर ही उठे। मगर सोफ़़ी की हालत जस की तस ही रही। बाबा ने उसकी तरफ देखा ही नहीं और उठ कर एक बार मद्धम स्वर में जय महाकाल बोला और चले गए झोपड़ी के अंदर।
सोफी का असमंजस और बढ़ गया। समझ में नहीं आ रहा था क्या करे क्या न करे। प्यास, थकान अलग पस्त किए जा रहे थे। खीज कर उसने निर्णय लिया जो भी हो एक बार बात कर ही लेती हूं। जो होगा देखेंगे। उसने जल्दी से चप्पल उतारी और सीधे झोपड़ी के दरवाजे पर जा खड़ी हुई। अंदर की कुछ आहट लेने के बाद बडे़ याचनापूर्ण स्वर में बोली,
‘बाबा जी’... कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला तो उसने थोड़ा तेज़ स्वर में पुनः कहा ‘बाबा जी.... मुझ पर कृपा कीजिए मैं बहुत परेशान हूं।’
इस बार अंदर से बाबा जी की भारी भरकम आवाज़ सुनाई दी।
‘जानता हूं क्या परेशानी है तुझे।’
फिर शांति छा गई तो सोफ़ी ने पूछा बाबा जी मैं ‘अंदर आ जाऊं ?’ अंदर से बाबा की वही भारी आवाज़ ‘आ जाओ।’ यह सुनते ही सोफी चली गई अंदर और बाबा के पैरों के पास हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई। उसकी नजरें अपने पैरों की आस-पास की ज़मीन देखती रहीं। क्योंकि बाबा अपने पुआल के बिस्तर पर निर्विकार भाव से चित्त लेटे हुए थे। उनका वह सूक्ष्म कपड़ा भी एक तरफ हटा हुआ था। उनके शरीर का कोई अंश ढका नहीं था। आंखें उनकी बंद थीं।
कुछ क्षण खामोशी के बाद फिर गुर्राए ‘लड़का ..... लड़का .... लड़का । महाकाल क्या अब तू यह दुनिया बिना लड़कियों के ही चलाएगा। अपनी सृष्टि का स्वरूप बदलने की मंशा बना ली है क्या? हर कोई बस लड़का मांगने आ जा रहा है, लड़की के बारे में बात ही नहीं करता कोई। क्यों तुझे भी लड़का चाहिए ना?’ बाबा ने आंखें बंद किए-किए ही पूछ लिया सोफ़ी से, तो पहले तो वह आश्चर्य में पड़ी कि मन की बात कैसे जान ली बाबा ने, एकदम हकबका उठी। हकलाती हुई बोली,
‘जी... बाबा जी... यदि अब लड़का नहीं हुआ तो मेरी ज़िदगी नर्क बन जाएगी। मेरा शौहर मुझे छोड़ देगा।’
‘तुझे वह नहीं छोड़ पाएगा। महाकाल से प्रार्थना करूंगा कि वह तेरी मनोकामना पूरी करे। उसके पास से कोई निराश नहीं लौटता। तू भी नहीं लौटेगी। मगर, बाबा जो कहेगा वह कर सकेगी?’
बाबा की बात सुन कर बेहद उत्साहित सोफ़ी बोली,
‘बाबा जी आपकी सारी बात मानूंगी...। मुझे इस बार बेटा चाहिए बाबा जी बेटा।’
‘तुझे इस बार बेटा ही मिलेगा। यह कहते हुए बाबा उठ खड़े हुए। एकदम निर्वस्त्र। उनका वह सूक्ष्म वस्त्र पुआल के बिस्तर पर ही पड़ा रहा। उसने उनका साथ नहीं दिया।
सोफी झुकी-झुकी नजरों से देखती रही उन्हें। वह अंदर ही अंदर पहले ही की तरह सहमी तो थी ही लेकिन अब शरीर के अंदर कुछ और क्रिया के शुरू होने का अहसास भी कर रही थी। इसी बीच बाबा ने अपने पुआल के बिस्तर की तरफ इशारा कर कहा,
‘लेट जा वहां पर।’
सोफी को बाबा की यह बात न अनचाही लगी और न ही चौंकाने वाली। उसका दुपट्टा जो कुछ देर पहले तक उसके सिर को ढके हुए था। अब कंधों पर पड़ा था वह। बाबा की बात सुनते ही वह लेट गई। इस क्रम में उसका दुपट्टा अपनी जगह से हट गया और उसकी भारी छातियों का काफी हिस्सा दिखने लगा था। उसने आँखें बंद कर ली थीं। भाव-भांगिमा ऐसी कि जैसे सब कुछ समर्पित कर दिया हो बाबा को। कर दिया उनके हवाले वह जो उचित समझें करें। आखिर उसे एक बेटा चाहिए जो बदल देगा उसके जीवन का रुख। अंत कर देगा उसके पीड़ादायी जीवन का।
कुछ ही क्षण में उसने महसूस किया कि बाबा उसकी कमर के पास बैठ गए हैं तो उसने आँखें खोल दीं। बाबा को बैठा देख उसने उठना चाहा तो उन्होंने बाएं हाथ से इशारा कर उसे लेटे रहने को कहा, बाबा के दाहिने हाथ की मुट्ठी बंधी हुई थी। उसमें कुछ था। बाबा कुछ बुदबुदा रहे थे। फिर उन्होंने बाएं हाथ से ही उसका कुर्ता ऊपर तक उलट दिया, ब्रेजरी का कुछ हिस्सा दिखने लगा था। मगर वह स्थिर रही । अब बाबा हाथ में ली भभूत को उसकी छाती के मध्य जहां धड़कन होती है वहां से लेकर उसकी विशाल नाभि तक लगाते एवं फिर कुछ बुदबुदाने के बाद पेट पर फूंकते। उनकी फूंक बेहद गर्म थी। इसके बाद बाबा आंखें बंद किए ही उठ खड़े हुए और सोफ़ी के शरीर के चारो तरफ चक्कर लगाने लगे। एकदम परिक्रमा करने की तरह। और सोफ़ी उन्हें एक टक घूमते हुए देखती रही।
वास्तव में सोफ़ी अब न सहम रही थी, न परेशान हो रही थी, बाबा को उत्सुकता के साथ देखे जा रही थी। बाबा उसके एकदम करीब होकर चक्कर काट रहे थे। और सोफ़ी उन पर से बार-बार नज़र हटाने की कोशिश करती लेकिन असफल हो जाती। वह आंखें बंद भी नहीं कर पा रही थी। अंततः बाबा कई चक्कर लगाने के बाद सोफ़ी के ठीक सिर के पीछे खड़े हो गए। सोफ़ी उनके पैरों को अपने सिर से छूता हुआ महसूस कर रही थी। अचानक बाबा ने ऊंचे स्वर में जय महाकाल कहा और हाथ में शेष बची भभूत को हवा में उछाल दिया। भभूत नीचे गिरने लगी तो सोफी आंखें मिच-मिचाने लगी। इसी बीच बाबा उसके बाएं तरफ ठीक कमर के पास बैठ गए। सोफ़ी का कुर्ता अभी भी ऊपर को उठा हुआ था। बाबा को बैठा देख सोफी ने जैसे ही फिर उठने का प्रयत्न किया तो बाबा ने लेटे रहने का इशारा हाथ से ही करते हुए कहा,
‘अब मैं पुत्र की मनोकामना पूर्ण होने की प्रक्रिया को संपन्न करने जा रहा हूं, तुझे कोई ऐतराज तो नहीं।’
प्रक्रिया के संपन्न होने की बात कहने के लहजे और बाबा की शारीरिक भाव-भंगिमाओं का आशय सोफ़ी लगभग समझ गई थी। उसने बिना एक क्षण गंवाए, साफ-साफ कहा,
‘आप प्रक्रिया संपन्न करें बाबा जी, मुझे बस पुत्र चाहिए, जीवन का सुकून चाहिए। इसीलिए तो आई हूं।’
सोफी कुछ ऐसे बोल गई जल्दी से जैसे कि प्रश्न जानती थी पहले से और उत्तर तैयार रखा था। उत्तर देते ही सोफी ने अपनी आंखें बंद कर ली थीं। और प्रक्रिया के संपन्न होने की प्रतीक्षा करने लगी। उसे उम्मीद थी कि बाबा तेजी से पूरी करेंगे सारी क्रिया-प्रक्रिया। लेकिन बाबा तो पूरे आराम से निश्चिंत भाव से उसके बगल में बैठे थे। और देख रहे थे उसकी विशाल गहरी नाभि को, उनकी आंखों में इस वक़्त आने वाले भावों को देह की भाषा पढ़ने के विशेषज्ञ भी नहीं पढ़ सकते थे।
कुछ क्षण बाद बाबा ने अपने दाहिने हाथ की तीन उंगलियां उसकी नाभि पर तिरछे एंगिल से ऐसे रखीं जैसे कोई चरण स्पर्श करता है। बाबा की बीच वाली मोटी ऊंगली नाभि के बीचो-बीच गहराई में प्रविष्ट कर रही थी। सोफी को बाबा का हाथ इतना गर्म लग रहा था जैसे कि उन्हें 103, 104 डिग्री बुखार हो। बाबा का यह तपता स्पर्श सोफी में अजीब सी तड़फड़ाहट पैदा कर रहा था। ऐसी तड़फड़ाहट उसने जुल्फी द्वारा उस जगह न जाने कितनी बार स्पर्श या चूमने पर भी नहीं महसूस की थी। जब उसने पहली बार स्टूडेंट लाइफ में ही किया था तब भी नहीं।
***