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संकलन







वो चर-चर में है, है वो अचर में भी
वो कण-कण में है, है वो गगन में भी
वो विधाता है संपूर्ण संसार का,
है वो मनुष्य मन में भी




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।। धन्यवाद ।।

परमेश्वर को धन्यवाद कर, मैं, निकिता राजपूत अपनी पुस्तक का आरंभ करती हूँ।

तत्पश्चात, मैं मातृभारती टीम का धन्यवाद करती हूँ जिससे मुझे मिलने का अवसर विश्व पुस्तक मेला 2020 में प्राप्त हुआ एवं अपने लेखन को पत्र के अतिरिक्त ई-पुस्तिका के रूप में प्रकाशित करने का मार्ग मिला।

अंत में मैं अपने परिवार, मित्रों, सहयोगियो एवं पाठको का धन्यवाद करती हूँ जिनसे मुझे सदैव प्रेरणा मिलती है।

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----इतिहास----

हो वारदात कोई या कोई घटना
सुखद हो सूचना या दुःखद परिकल्पना
इतिहास के पन्नो पर, है सभी को गडना
न भविष्य दिखेगा, न रहेगा वर्तमान
आने वाले कल में, सब इतिहास ही है बनना

कर संचय धन का, रचा भवन आलिशान ले
बवंडर-सा एकत्र होकर, रम जायेगा किसी काल में
लोभ-प्रलोभन;जाल माया के, हस्ती मानवता की ढाल ले
रोम-रोम खोजेगा वरना, महत्त्वता अपनी जान ले
न रहा कोई दिग्गज राजन, न रंक का अस्तित्व
कौरे कागज पर जैसे स्याही, चढ़ जाएगी तेरे मस्तिष्क

विश्वास यदि नहीं शब्दों पर मेरे, पाठन कर अतीत का
कहाँ अशोका, कहाँ चन्द्र, कहाँ विक्रमादित्य रहा!
गुण यदि कर्मों में होंगे, गर्व से याद किया जायेगा
भेद यदि वचनों होगा, केवल अतीत कहलाएगा

वाणी और पाणी का कृत है, नाम को विचार बनाने में
यदि होगी अभिमान की छाया, अर्धलिखा ही मिट जायेगा
तू इतिहास ही कहलाएगा

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---जीवन यात्रा---

बहुत असमंजस है जीवन में,
संबंध जिनका उचित-न अनुचित से
हल खोजना, मात्र एक भ्रम समान
पार कर जाना ही जिनका विराम

स्वयं को साबित कर दिखलाने जैसा
न कोई प्रतियोगी न इसका कोई इनाम
जूझकर निकलो या बेझिझक करो निवास
केवल चलते जाना है, मार्ग यह निरंतर, कर्म जैसा

उलझनो-सा पथ है, बिन बाधा-बिन रोकथाम
समझ, नासमझ-सी जान पड़ती
सम्मुख नयनों के सब, मगर फिर भी अनजान
लक्ष्य का भी ज्ञान है, मगर दूर भेदन से, तीर-कमान

दोष क्या है, क्या है समस्या?
पथिक चलता जाये ओर मंजिल की,
मगर पहुँचे न, जाने कैसी विपदा!
कदापि रटता जा रहा राहगीर कदम-कदम पर;
रुक जाना नहीं, रुक जाना नहीं
करने को अपनी जीवन यात्रा

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---सत्य---

क्यों विमुख होते हो सत्य से,
सत्य के मार्ग से, सत्य कथन से?
कभी भय है अपमान का,
कभी भय बने रहस्य सुरक्षा

असत्य न देता सम्मान, न दिलाए रहस्य सुरक्षा
पग चार भी न धर पाए असत्य
फिर क्या मिलता, छोड़ सत्यता?

सत्य ईश्वर, सत्य प्रेम, सत्य सृष्टि की संरचना
सत्य अडिग, सत्य निडर, सत्य संबंधों की संबंधता
सत्य पूजनीय, सत्य आदर, सत्य की न सीमितता

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---दुनिया---

वाकई बुरे है हम, क्योंकि जो दुनिया सहती है
वो कहते है हम
झूठे जग की भीड़ में, सच कहते है हम

प्यार-मोहब्बत बदनाम है
कह कर भी दुनिया, करती है
प्रेम के नाम को, बदनाम स्वयं ही करती है
रास नहीं आती जब वफ़ादारी,
क्यों बेईमानी के मोती गिनती है!
आखिर किस वजह से दुनिया,
ये सब कहती और सुनती है!

मर्द उच्च है नारी से, अबला की पहचान बताती है
फिर उसी अबला पर दुनिया, बल प्रयोग दिखाती है
नर-नारी समान है, फरेबी रंग बिखराती है
नारी का अपमान और नर सम्मान बढ़ाती है
क्यों समानता के अनलिखे खत पढ़ाती है!
आखिर किस वजह से दुनिया,
बेमतलब की बात बनाती है!

धर्म अनेक लेकिन एक समाज है
रूप अनेक लेकिन एक भगवान है
फिर क्यों जात गिनाती है!
एक कागज़ पर लिखने वाली, इन्सानी पहचान बनाती है
रूप-रंग, काया और माया, ईश्वर का वरदान है
ऊंच-नीच के भाव देकर, भिन्नता के मार्ग चलाती है
आखिर किस वजह से दुनिया,
स्वयं को बड़ा बताती है!
सब कुछ जान कर भी दुनिया, बस सहती ही रहती है

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---नहीं चाहती---

नहीं चाहती मैं लिखना, अपने इस अभद्र समाज पर
जहाँ द्वेष है, छिन्नता है, जहाँ भ्रष्टाचारी व भिन्नता है
नहीं चाहती मैं लिखना

कर में राखे प्रशंसा की माला, अधरो पर कीर्तन गुण वाला
धीर धरे न संवेदनशील कर्म में, मन में विष-सा कटाक्षी प्याला
नहीं चाहती मैं लिखना

कथन, वादन, श्रवण, चिंतन, भेद न देता दिखाई
व्यथा हो जब कोई नार की, नासमझ बन;कुल मर्यादा अडाई
नहीं चाहती मैं लिखना

दीर्घ आदर से कर्तव्य, महान कर्तव्य से समर्पण
समर्पण से ऊंची मर्यादा, न प्रथम मर्यादा से जीवन
तथापि नियम अपने बनाए, जीवन के ढंग सिखाए
नहीं चाहती मैं लिखना

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---विचार---

विचार निकल पड़े भ्रमण को,
जब आराम के मेरे समय आया
दिन भर की भाग-दौड में भटक कर,
जब रात्रि का चन्द्र था छाया
विचार निकल पड़े भ्रमण को

सरयू-सा गतिमान जगत ये, पवन वेग-सी अस्थिरता
है मन-सा स्पर्शहीन और जलधर-सा प्राणदाता
विचार निकल पड़े भ्रमण को

कहीं ग्राम-सा पग-पग बसता, कहीं मरूस्थल-सी धरा खाली
कहीं जन-जन से प्रीत लगाए, कहीं रिक्त पड़ी वृक्षों की डाली
विचार निकल पड़े भ्रमण को

कहीं योग्यता की गूंज उठती, कहीं विफलता का दर्द है
कहीं प्रयासो का संगम तो कहीं कहते, कर्म मानव का फर्ज है
विचार निकल पड़े भ्रमण को

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---संगम---

अंश-अंश में संगम है, मेरे भारतवर्ष में संगम है

यहाँ संगम है सरिताओं का, विविध-विविध भाषाओं का
कश्मीर से कन्याकुमारी तक, यहाँ संगम है वेशभूषाओं का

यहाँ हर ऋतु का पुष्प खिले, वृक्षों में लहराती हवाओं का
शरद-गर्म, पतझड और वर्षा, यहाँ संगम है जलवायु का

रंग गौरा-काला, गेहूँआ-बादामी, प्रत्येक रंग का जन मिले
यहाँ भेद रीति- रिवाज का, कभी ओणम, कभी दिवाली के दीप जले
हर चेहरा गुलाल हो जाता, वसंत ऋतु की जब पवन चले
होली का ये पर्व कहलाता, मुस्काती रंगीन धरा मिले

जल प्रपात नदी में मिलता, वो संगम का अलग ढंग है
यहाँ कण-कण में संगम अनेक, यहाँ संगम है पर्वत श्रृंखलाओं का
पीपल, तुलसी, वृक्ष, पुष्प आदि, यहाँ संगम है अमिट श्रद्धाओं का

ऐसा ही एक अद्भुत संगम, रचा अनेक रचनाओम का
भारतवर्ष के अनेक छोर से, ये संगम है कविताओं का

यहाँ अंश-अंश में संगम है, मेरे भारतवर्ष में संगम है
यहाँ अंश-अंश में संगम है, मेरा भारतवर्ष एक संगम है

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---बहुत सरल है---

कोई शीर्षक ढूंढ रही थी मैं,
रचना एक कविता की करने को
कतरा-कतरा सब जगह टटोल कर,
पाया नारी की ही रचना करने को

बहुत सरल है अपमान लड़की का,
मिल जाता कोई भी मत, मलिनता करने को
प्रश्न अनेको उठते मन में,
कदापि मिलता न हो विकल्प, सम्मानित करने को
कारण सोच ही रहती होगी,
वरना विधाता चयन न करता, संरचना कन्या की करने को

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---रचनाकार की वार्ता---

कवयित्री, "निकिता राजपूत" ने अपनी पुस्तक, 'गूंज' से अपने लेखन को पहचान दी। इसके पश्चात उन्होंने "संगम" की रचना की, जिसमें आप इन्हें कवयित्री एवं संयोजनकर्ता के रूप में पायेगा। ये दोनों पुस्तकें अमेज़न पर उपलब्ध है। इसी के साथ, यह पुस्तक (संकलन), उनकी तीसरी पुस्तक है। वर्तमान समय में प्रचलित सोशल मीडिया, इन्स्ताग्राम पर, आप इन्हें @nikitarajpoot के नाम से खोज सकते है।

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कामनाएं एवं आशीर्वाद........



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