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गाली की धिक्कार

भारी कदमों के साथ वह आगे बढ़ा। जीवन में यह पहला अवसर नहीं था जब वह अपमानित हुआ या मानसिक प्रताड़ना के दंश ने उसके आंतरिक मन को कटिले तारो से खरोचा हो ,पर आज का दिन और मन दोनो भारी था। अंधेरे को पार कर वह तालाब के किनारे लगे स्ट्रीट लाइट के प्रकाश में आया, दृष्टि को जूम करके अपने मन की तरह उजाड़ और मरुस्थलीय पृष्ठ भूमि की खोज करने लगा परन्तु चारों ओर पिकनिक का माहौल था लोग अपने अपनो के साथ अपनी दुनिया में व्यस्त थे। वह चुपचाप एकांत कोने में बैठकर अपने मन के विचारों को टटोलने लगा। अपने विचारों की जीवंत दुनिया बनाकर उसमें अपने किरदार को स्थापित कर उसी विचार में जीने का प्रयत्न करने लगा। बाहर की दुनिया से ज्यादा हिंसा तो आंतरिक दुनिया में है। बाहर की दुनिया में हो रही ये भौतिक हिंसा मन के अंदर होने वाली आंतरिक हिंसा का अंश मात्र प्रतीत होती है

किसी समय ईशा को क्रूरतापूर्वक क्रुस पर चढाया गया था परन्तु शब्दों का क्रुसिफिक्सन आज भी जारी है। अपने हो या पराए शब्दों का कील बनाकर, शब्दों के क्रास पर ,शब्दों के हथौड़े से, हमें ठोक देते हैं और ऐसा ठोकते है कि हम उस दर्द की अभिव्यक्ति शब्दों से नहीं कर पाते। शब्दों का मौन और दर्द की पीड़ा जब आपस में टकराती है तब अन्तर द्वन्द की ऐसी सुनामी उठती हैं जो मन और शरीर के सारे विभागों में एक टीस पैदा कर देती है टिस मतलब रुक रुक कर उठने वाला एक तेज दर्द। आज उसे लोहे, लकड़ी,पत्थर से बने हथियार व्यर्थ मालूम पड़ते थे बेकार ही बदनाम हैं बेचारे। अरे इन शब्दों और अक्षरों को घिसकर, पीटकर और गलाकर बनाए गए हथियार का प्रहार जब होता है तब न ही उस दर्द की अभिव्यक्ति होती है और न ही कोई चिकित्सक उसका इलाज कर पाता है।

वह लौटा घर के रास्ते पर, रास्ते में फिर अंधकार, लाइब्रेरी और उसके सामने वाले नाले पर अव्यवस्थित पत्थर के टुकड़े जो मानो उसके जीवन की अव्यवस्थित कड़ियों का प्रतिनिधित्व कर रही है। सामने वो दो पेड़।

घुप्प अंधेरे में पेड़ के पास एक छवि दिखी ध्यान से देखा तो एक सुन्दर स्वर्णमयी युवती, क्षण- क्षण जिसकी आभा विभिन्न रंगों में परिवर्तित हो रही थी। स्पष्टता और अस्पष्टता के मिश्रण से बनी इस छवि का पूर्ण चित्रांकन वह नही कर पा रहा था। सबसे विचित्र उसके वस्त्र थे जिसके रंगों और प्रारुप का निर्धारण उसके लिए असंभव था। और अचानक युवती बोली-" मैं 'गाली' हूँ, जिसे तुमलोग अपशब्द भी कहते हो, मानसिक हिंसा का वह बाण, वह घातक शस्त्र जो अंतरात्मा को चीर देती है। मेरा रुप सुन्दर है क्योंकि मैं शब्दों से बनीं हूँ, मेरे कपड़े अव्यवस्थित और अजीब है क्योंकि ये तुम लोगो ने पहनाए हैं। मेरी आभा बदलती है क्योंकि तुम लोगो के मन के भाव भी बदलते रहते हैं। "और अंत में उसने कहा - मैं तुम्हारे पास आ-आ के थक गई हूँ इसलिए आज तुम्हे ये गाली धिक्कारने आई है ये एक गाली की धिक्कार है तुम्हे और तुम्हारे जीवन को।

जब जीवन को गाली भी धिक्कार दे तब सुनने और कहने की पराकाष्ठा खत्म हो जाती है और वह अपने कदमों को पुनः उसी तरफ मोड़ लेता है जहाँ से वह आया था।


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