रिश्ते -ज़रूरत या ईश्वरीय देन A A rajput द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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रिश्ते -ज़रूरत या ईश्वरीय देन

बहुत दिनो से सोच रहा था कि आज कल के रिश्तों में वो बात क्यूँ नहीं हैं जिस रिश्तों की कहानी मैं अपने पापा माँ या फिर दादादादी से सुनता था ...क्यों अब लोगों की रिश्ते निभाने की चाह समाप्त होने लगी है और धीरे धीरे एकलता की और बढ़ रहे है ।सच कहु तो एसा लगता है जैसे इंसानो ने इलेक्ट्रॉनिक्स साधनो से एक नई रिश्तों की शुरुआत किया है। ऐसा क्या हो गया है कि अब रिश्तों का महत्व कम हो गया है या कहूँ तो आने वाले समय में समाप्त ही न हो जाये?!!!


रिश्तों की शुरुआत आख़िर क्यों हुई थी ? रिश्तों के साथ इंसान इतने सदियों तक क्यों रहा ? आख़िर ये रिश्ते है क्या? ऐसे कई सवाल है जिनके उत्तर ढूँढे उससे पहले ये समझने की कोशिश करते है की रिश्ता का अर्थ है क्या?और इसकी शुरुआत कैसे हुई?

किसी धार्मिक उत्तर से अच्छा है की इसका व्यावहारिक उत्तर ढूँढा जाये।


जब मानव का उदभव इस धरती पर हुआ तब आज के जितना आसान नहीं था ख़ुद को जीवित रखना।तब न तो सिर ढकने के लिए छत थी न तन ढकने के लिए वस्त्र। न कोई शस्त्र था और न कोई सरकार जो आपको अपना नागरिक घोषित करके संरक्षण दे।मानव जब अकेले ही रहता था तो उसे बहुत ही अधिक परेशानी उठानी पड़ी थी ।फिर चाहे वो ख़ूँख़ार जानवरो से ख़ुद की रक्षा करनी हो या फिर मौसम से ख़ुद को बचाना हो।


तब शायद किसी बुद्धिमान मानव ने अन्य अपनी तरह दिखने वाले मानवो को अपने साथ रहने के लिए प्रेरित किया हो और उन्होंने साथ में रहकर शिकार या कुछ ऐसा किया हो जो पहले असंभव रहा हो ।और शायद यही से साथ रहने की परंपरा की शुरुआत हुई हो।

धीरे धीरे उनके साथ मानवों की संख्या बढ़ती गई हो और इतने बड़ी संख्या को नियंत्रित करने के लिए जो सबसे बुज़ुर्ग होता उसे मुखिया चुन लेते हो।

एक संगठन की शक्ति तभी होती है इन उससे जुड़ा हर व्यक्ति उसे अपना माने ।शायद इसी सोच की वजह से परिवार की धारणा ने जन्म लिया हो ।

जब एक माँ गर्भ धारण करती है तो ९ महीने तक उसे धारण करती है और प्रसव के समय की पीड़ा सहन करने के पश्चात् अपने संतान को स्नेह देती है और उसके लिए अपना सब कुछ त्याग देती है और ये सब देखकर माँ दर्जा सबसेऊपर रखा गया।

और इस तरह से रिश्तों का जन्म हुआ।


तो अगर देखे तो रिश्तों का जन्म कही न कही ज़रूरत से या यूँ कहूँ की उस समय की परिस्थिति से लड़ने के लिए हुई थी जो आगे जाकर समाज का अभिन्न अंग बन गया।यहाँ ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’ बात महसूस होती हैं।


तो फिर आज के समय में क्यों रिश्तों का महत्व कम होने लगा हैं? क्या अब मानव समाज को रिश्तों की ज़रूरत नहीं है या फिर मानव समाज ने कुछ और तरीक़ा ढूँढ लिया है ? जो भी हो इतना तो स्पष्ट है कि रिश्तों की जो दुर्दशा आज के समय में हो रही है आने वाले समय में और भी अधिक भयावह हो सकता है।

आये दिन अख़बारों में ख़बर होती है कि एक पुत्र ने अपनी बूढ़ी माँ की हत्या कर दी ,पिता ने पुत्री के साथ ग़लत किया,भाई ने सम्पत्ति की लालच में अपने भाई की हत्या की आदि।हर रिश्तों में गिरावट आ रही है।

सोचिए ऐसा क्यों?