कालबीज़ - 1 Divyanshu Tripathi द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कालबीज़ - 1

स्थान - दिल्ली

"करीब 1 घण्टे पहले दिल्ली के इस इलाके में 13 लोगों की मौत की खबर सामने आई है। पुलिस वाले अभी अभी मौका -ए - वारदात पर पहुँचे है, उनकी छानबीन अभी भी जारी है। पुलिस वालों को पूरा यकीन है कि ये मामला आत्महत्या का ही है। आस पास वालों के अनुसार वो घर वैसे तो हँसता खेलता था मगर फिर भी बाकी मोहल्ले से थोड़ा कट के ही रहता था। उनकी गतिविधियां भी इस तरह की नहीं थी जिससे इस बात का अंदाज़ा लग सके की ऐसा कुछ घटित हो जाएगा। उन्होंने ऐसा कदम क्यों उठाया इस बाबत कुछ भी कहना अभी तो जल्दबाज़ी ही होगी मगर सूत्रों के अनुसार वो कुछ तंत्र विद्या कर रहे थे।पुलिस की जांच पूरी होने तक हम किसी नतीजे तक नहीं पहुंच सकते मगर पुलिस के अनुसार उनके पास पैसे की किल्लत थी जिस कारण उन्होंने ऐसा कदम उठाया।कैमरा मैन आकाश के साथ मैं नेहा हमसफर न्यूज़।"

आज दिल्ली का वह इलाका सुबह सुबह उस खौफनाक मंजर को देखकर दहल चुका था। किसी को भी ऐसी किसी बात का अंदेशा नहीं था। आस पास के लोग तो इतना डर चुके थे कि कइयो ने तो अपना घर छोड़ने का इरादा बना लिया था। बात भी कुछ ऐसी ही थी। 13 लोगों ने उस घर मे रात के अंधेरे में आत्महत्या कर ली थी।

थोड़ी देर बाद पुलिस की गाड़ियां उस स्थान पर पहुंच चुकी थी।खबर इतनी बड़ी थी कि पुलिस वालों ने उस स्थान पर आने में ज्यादा समय नहीं लगाया। शहर के एसएसपी खुद इस मामले की पड़ताल करने आए थे। बाहरी लोगों को उस स्थान से दूर ले जाकर पुलिस वालों ने उस स्थान को सील कर दिया था और अंदर जाकर उस स्थान की तहकीकात करने में जुट गए थे।

घर के अंदर बहुत ही गंदी बदबू आ रही थी और उन सभी 13 लोगों की लाश सड़ चुकी थी । उन लाशो की बदबू ने पुलिसवालों को परेशान कर दिया था मगर उन्होंने अपने मुँह पर मास्क लगाया और और आगे बढ़े। घर काफी बड़ा था लगभग छह कमरे थे।घर में रखे हुए सामानों से पता चल रहा था कि वह काफी पैसे वाले थे। वो लोग एक एक कमरे की पूरी गहनता से छान बीन कर रहे थे। ताज्जुब की बात यह थी कि घर के पांच कमरे बिल्कुल साफ थे उनका कोई सामान बिखरा हुआ नहीं था और ऐसे लग ही नहीं रहा था कि उस स्थान पर कुछ हुआ हो लेकिन जो आखिरी का कमरा था जो कि बाकी कमरों के हिसाब से काफी बड़ा था उसी कमरे में 13 लोगों की लाशें पड़ीं थी और उस स्थान पर खून बिखरा हुआ था।

कमरे में 13 हवन कुंड रखे हुए थे। उन हवन कुंड में आधे कटे 3 नींबू रखे हुए थे जो कि अंदर से लाल थे।सभी लाशो के पास एक एक हवन कुंड रखा हुआ था। देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे मरने से पहले उन सभी लोगों ने कोई अनुष्ठान किया हो । उन सभी लाशों पर वामावर्त स्वास्तिक बना था। पुलिस वाले भी ये खौफनाक मंजर देखकर दहल गए थे।

पुलिस वालों ने ये ध्यान दिया कि वह 13 लाशें एक गोल घेरा बना रहीं थी और गोल घेरे के बीच एक डायरी रखी हुई थी। उस डायरी के चारो तरफ खून से कुछ अक्षर लिखे गए थे उन अक्षरों का मतलब किसी को नहीं पता था। पुलिस वालों ने उस डायरी को उठाया। उस डायरी में कुछ अजीब अजीब चित्र बने हुए थे और कुछ शब्द भी लिखे हुए थे। हर एक पेज पर एक तारीख लिखी हुई थी और एक चित्र बना हुआ था । पुलिस को कुछ समझ नही आ रहा था कि आखिर यहां पर चल क्या रहा था। उस कमरे को देख कर लग रहा था कि ये इस घर का पूजा घर था मगर आश्चर्य की बात ये थी कि उस कमरे में भगवान की सभी फ़ोटो और मूर्तिया उलट कर रखी हुईं थी। कमरे में कुछ भी अस्त व्यस्त नहीं था जिससे यह लगे कि वहां पर किसी भी बाहरी इंसान का घर में दाखिला हुआ है।अब उन लोगों को भी लगने लगा था कि मामला इतना सरल नहीं है जितना दिख रहा है।

तभी वहां पर मौजूद एक पुलिस वाले की नजर उस कमरे की ऊपरी दीवार पर पड़ गई। वह पुलिसवाला उस दृश्य को देखकर भय से कांप उठा था। उसकी भय से भरी आखों को देखकर उसके साथियों ने भी ऊपरदेखा तो उसकी आंखें आश्चर्य और भय से भर गई। वो सभी उस क्षण कुछ भी सोचने या कहने की स्थिति में नही थे।

स्थान : संगम नगरी प्रयाग।

इस समय संगम नगरी प्रयाग का दृश्य बहुत ही अलौकिक था। कुंभ के इस पावन पर्व मैं आस्था की डुबकी लगाने पूरे संसार से लोग शहर में उमड़ पड़े थे। सभी बड़े संत महात्मा साधु इस समय इस प्रयाग की धरती पर पधार चुके थे।

उन सभी संत महात्माओं के साथ इस पीढ़ी के सबसे सिद्ध पुरुष विश्व ऋषि श्री अंजनिराम देव भी इस अलौकिक पर्व के साक्षी बनने आ गए थे। उनकी ख्याति दूर दूर तक थी। कुछ तो उनको स्वयं ईश्वर का अंश मानते थे।

उनके प्रति लोगो की आस्था को देखकर प्रशासन ने उनके लिए मेले में काफी बड़ा स्थान दिया था मगर उन्होंने अपने लिए एक छोटी सी कुटिया का निर्माण करा रखा था जहां इस समय वह ध्यान में लीन थे और उनकी कुटिया का द्वार बंद किया गया था ताकि उनको कोई परेशान ना करे। दो तीन शिष्य उनकी कुटिया के बाहर ही खड़े थे।

तभी अचानक से कुटिया के अंदर से स्वामी जी की आवाज़ आई।

" आखिरकार जिस चीज़ का डर था मुझे वही होने के संकेत मिल रहे हैं। घोर अनर्थ हो जाएगा।"

सभी शिष्य उनकी बात सुनकर भयभीत हो गए क्योंकि उनको पता था कि उनके गुरुदेव के मुख से निकला कोई भी शब्द मिथ्या नही होता था।

कुछ देर तक कुटिया के अंदर से कोई आवाज़ नही आई। सभी ने अंदर जाकर गुरुदेव का हाल चाल जानने की सोची मगर फिर उनके कदम ठिठक गए क्योंकि ध्यान के समय गुरुदेव की आज्ञा के बिना कोई भी उनके कुटिया में प्रवेश नही कर सकता था।

कुछ देर तक कुटिया में कोई हलचल नही हुई। बिल्कुल शांति फैली रही कि तभी अचानक से कुटिया का दरवाजा बहुत तेज़ी से खुला और गुरुदेव बड़े ही तेज़ कदमो से चलते हुए कुटिया से बाहर आये और आगे बढ़ते गए। सभी उनको विस्मय से देख रहे थे। सभी भक्तगण और शिष्य उनकी तरफ दौड़े मगर गुरुदेव ने एक बार भी पीछे मुड़कर नही देखा और आगे बढ़ते गए और उनके पीछे पीछे उनके शिष्यों और भक्तो का हुजूम भी साथ चलता गया।

ऋषि अंजनिराम के मुखमण्डल पर हमेशा ही एक मुस्कान विद्यमान रहती थी जिसको देखकर उनके भक्तगण तृप्त हो जाते थे। आज वो सदैव विद्यमान रहने वाली मुस्कान उनके चेहरे से गायब हो चुकी थी। वो तेज़ी से अपनी कुटिया के थोड़े दूर पर ही बने संत ज्ञानदेव के आश्रम के तरफ बढ़े जा रहे थे। थोड़ी ही देर में वो उनके आश्रम के अंदर प्रवेश कर चुके थे।

संत ज्ञानदेव की कुटिया के अंदर कुछ छोटी छोटी कुटिया और बनी हुईं थी। इन छोटी कुटिया में धार्मिक कर्म कांड हो रहे थे। इन्ही छोटी कुटियों में से एक कुटिया में संत ज्ञानदेव ध्यान में लीन थे। अंजनिराम देव उनकी उसी कुटिया की ओर बढ़े चले जा रहे थे। संत ज्ञानदेव के शिष्यों ने अंजनिराम देव को आते हुए देखा तो उनको प्रणाम किया और फिर उनसे थोड़ी दूर हटकर रास्ते से हटकर खड़े हो गए। इस वक्त अगर कोई और उनके गुरु के शिविर में प्रवेश करने जाता तो उसको वे लोग अवश्य रोकते मगर अंजनिराम देव को रोकने का साहस उनमे नही था।

अंजनिराम देव अब कुटिया के अंदर प्रवेश कर चुके थे और ज्ञानदेव के बगल मे स्थित छोटे से तख्त पर बैठ चुके थे। उनके मुखमण्डल की भंगिमा बता रही थी कि वो अपनी बात शीघ्र अतिशीघ्र बताना चाह रहे थे मगर ज्ञानदेव की ध्यान मुद्रा को खण्डित करना उनकी मंशा नही थी। अंजनिराम को अधिक समय इंतज़ार नही करना पड़ा। ज्ञानदेव ने शायद कुटिया में किसी के होने का एहसास कर लिया था और उन्होंने अपनी आँखें खोली और सामने अंजनिराम देव को पाया।

"अंजनिराम देव। आप यहाँ। ", संत ज्ञानदेव ने धीमे स्वर में बोला।

"जी ज्ञानदेव जी। मैं आपके ध्यान को इस तरह खण्डित नही करना चाहता था। मगर कुछ ऐसी विषम परिस्थितियों ने जन्म ले लिया है कि आपसे विचार विमर्श करना अति आवश्यक हो गया है।", अंजनिराम देव के मुखमण्डल उनके शब्दो की व्याकुलता को साफ प्रदर्शित कर रहे थे।

"आप काफी अधीर प्रतीत हो रहे है अंजनिराम देव। आप बताएं कि बात क्या है ?"

अंजनिराम देव ने कुछ पल अपनी दिमाग मे विचरते अनेको विचारों को एकत्रित किया और फिर बोले।

"आपको अगर आज से 10 वर्ष पहले की हमारी उस वार्तालाप का स्मरण हो तो आप को मेरी इस बात को समझने में सरलता होगी। अगर आपको स्मरण हो तो आज से 12 साल पहले हरिद्वार के कुंभ में उस अप्रत्याशित घटना के बाद हमने भविष्य में आने वाले एक महा संकट की गणना की थी। "

संत ज्ञानदेव को वो घटना पूरी तरह स्मरण थी मगर उसका इस तरह से अंजनिराम द्वारा वर्णन करना उनके दिमाग को असहज कर रहा था क्योंकि वो घटना कोई आम घटना नही थी। उसके स्मरण मात्र से आज भी वो भयभीत हो उठे थे।

"जी अंजनिराम जी। मुझे वो घटना पूरी तरह स्मरण है और हमारे द्वारा की गई वो गणना भी । मगर उस घटना का आज फिर से उल्लेख करने का औचित्य समझ नही आया।"

"आज की मेरी की गई गणना ऐसी है ही उस घटना का स्मरण हो गया।"

"आप स्पष्ट रूप से अपनी बात बताएं।", अंजनिराम देव की मुख मण्डल की व्याकुलता अब ज्ञानदेव के मुख पर भी विराजमान हो चुकी थी।

" मैं आपको स्पष्ट रूप से बताता हूँ। हरिद्वार में 12 साल पहले हुई उस घटना के पश्चात हमारे द्वारा की गई उस गणना के अनुसार जिस विनाश की आशंका हमको थी मैं उसी के विषय मे दिन रात गणना करता रहता हूँ। ग्रहों की चालों पर मैंने अपना ध्यान केंद्रित किया है। इधर बीच पृथ्वी पर आई तमाम मानवीय और ग़ैरमानवीय आपदाओं की संख्या में आई भीषण बढ़ोतरी का कारण इन्ही ग्रहों की बदली हुई चाल है। पिछले कुछ मास में इन ग्रहों के चालो में तीव्र बढ़ोतरी आई है। इन्हें देखकर ऐसा अंदेशा हो रहा है कि इन ग्रहों की चाल किसी एक घटना के घटित होने के लिए लिए बदल रही है।"

"किसी एक घटना के घटित होने के लिए ग्रहों की चालों में तीव्रता आई है ?", संत ज्ञानदेव ने विस्मय भरी दृष्टि से देखते हुए अंजनिराम की बातों को बीच मे काटते हुए कहा।

"जी ज्ञानदेव । इन सभी ग्रहों की चाल किसी एक घटना के घटित होने के लिए बदल रही है या फिर कोई अलौकिक शक्ति इसे बदल रही है क्योंकि बिना एक विशिष्ट नक्षत्र के संसार मे कोई भी घटना घटित नही होती है और जिस घटना का अंदेशा इन ग्रह चालो से मुझे हो रहा है ये इस पृथ्वी पर जन्म लेने वाले किसी पाप के स्तम्भ के समान होगा जो इस पृथ्वी का और सम्पूर्ण मानव जाति का अंत सुनिश्चित करेगा। अधर्म और पाप के साम्राज्य के अध्याय की शुरुआत करेगी ये शक्ति।"

"आपकी बातों से मुझे इस पाप के स्तंम्भ की शक्तियों का अंदेशा हो रहा है। मगर ग्रह चालो की चाल जब ऐसे अस्त व्यस्त होने लगी आपने मुझे तभी सूचित क्यों नही किया। " , संत ज्ञानदेव की मुख पर चिंता की लकीरें भविष्य में कुछ अनहोनी के घटित होने का संकेत दे रही थी।

"मैं कई दिनों से इन ग्रह नक्षत्रों के पर नज़र रख रहा था। मैं अभी तक इन ग्रहों की बदली हुई गति को समझने का प्रयास कर रहा था। मैं इनके चालो पर नज़र रखकर इनके उस भविष्य में होने वाली घटना की गणना करने का प्रयास कर रहा जिसमे आज जाकर में सफल हो पाया हूँ।"

"आप अपनी गणना से किस निष्कर्ष पर पहुंच पाए है ?"

अंजनिराम ने अपने हाथों में पकड़े कागज़ को खोला और बोलना प्रारंभ किया।

" मेरी गणना के अनुसार इन ग्रहों की चाल एक खास किस्म की अलौकिक शक्ति को जन्म देने को बदल रहीं हैं। मैं प्रारंभ में समझ नही पाया मगर इन सभी ग्रहों की चाल ठीक उसी तरह व्यवस्थित हो रही है जैसे द्वापरयुग में दुर्योधन के जन्म के समय हुए थे। आपको बताने की आवश्यकता नही होगी कि वो किस तरह उस समय आर्यव्रत में समूचे पाप का स्तंम्भ बनकर आया था। उसके पापो ने आर्यव्रत में किस तरह विनाश का बवंडर मचाया था ये भी बताने की आवयश्कता नही है मुझे।"

अंजनिराम देव के कथनों ने ज्ञानदेव के भीतर भय का संचार कर दिया था। वो अब समझ चुके थे कि इस समूचे ब्रह्मांड पर पाप का कितना बड़ा साया मंडरा रहा था। उसके इस पृथ्वी पर जन्म लेते ही समूचे ब्रह्मांड का विनाश होना तय था।

कुछ पलों तक उस कुटिया में शांति पसर गई । अंजनिराम देव और संत ज्ञानदेव दोनों के मुखमण्डल पर चिंता और भय के भाव स्पष्ट रूप से दिख रहे थे। कुछ देर पश्चात ज्ञानदेव बोले।

"आपकी गणना कभी गलत साबित नही हुई है अंजनिराम देव।"

"इसी बात का भय तो मुझे भी है ज्ञानदेव जी। क्योंकि अगर मेरी गणना सत्य साबित होती है तो ये इस ब्रह्मांड पर आई सभी विपत्तियों से लाख गुना ज्यादा घातक साबित होगी क्योंकि ये विपत्ति मानवो से उनका विश्वास, उनकी आस्था, उनकी प्रेरणा उनसे हमेशा के लिए छीन लेगा और किसी इंसान से अगर आप उसका विश्वास छीन लेंगे तो आप उससे उसकी जीवन जीने का कारण छीन लेंगे।"

"अगर ऐसा है तो फिर हमें भी अपने स्तर पर इस अलौकिक शक्ति को इस ब्रह्मांड का विनाश करने से रोकने के अपने कार्यो में तीव्रता लानी होगी । आगे आने वाले दिन मनुष्य जाति के लिए अत्यंत ही कठिन होने वाले हैं। समस्त काली शक्तियां अब अपने चरम पर होंगी। मनुष्य को उनसे भयभीत ना होकर उनका सामना करने को तैयार रहना होगा।"


स्थान - वाराणसी (काशी विश्वनाथ मंदिर)

पंडित बिशंभर नाथ शुक्ला आज सुबह से अति व्यस्त थे। इस मंदिर के मुख्य पंडित होने के कारण उनके ऊपर काफी भार वैसे ही था उसके ऊपर आज माघ महीने का पहला सोमवार होने के कारण श्रद्धालुओं की भीड़ भी बहुत अधिक थी। इस भारी भीड़ को व्यवस्थित करके सभी को महादेव के दर्शन का समुचित अवसर देना बड़ी चुनौती थी। वो स्वयं मंदिर के मुख्य शिवलिंग पर श्रद्धालुओं को जल्द से जल्द दर्शन करा कर आगे भेजने की जिम्मेदारी संभाले हुए थे। बेल पत्रों, गंगाजल, फूलमालाओं, फलों , भभूत , दूध इत्यादि को शिवलिंग से हटाकर आगे आने वाले श्रद्धालुओं के लिए जगह बनाना स्वयं में बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी। मगर शुक्ला जी स्वयं महादेव के बहुत बड़े भक्त थे और इसे भी महादेव का आशीर्वाद समझ कर इस कार्य को बड़ी तल्लीनता से कर रहे थे।

ऐसे पावन अवसर पर अमूमन इतनी भीड़ होना आम बात थी। मंदिर के 1 km दूर से श्रद्धालुओं की लंबी लंबी कतारें महादेव के दर्शन कर अपने जीवन की समस्त विपदाओं के समाप्त होने का आशीर्वाद माँगने की लालसा उन्हें देश के हर कोने से काशी विश्वनाथ के दर्शन करने लाई थी। उसी एक कतार के काफी आगे एक दंपति अपने एक पुत्र और पुत्री के साथ लगभग 1 घण्टे से महादेव के दर्शन करने को लालायित 'हर हर महादेव' के जयकारे लगाते हुए आगे बढ़े जा रहे थे।

वो लोग काफी सालों से वाराणासी में ही रह रहे थे। उनका पुत्र जयंत 10 वर्ष और पुत्री 12 वर्ष की थी जिसका नाम रुचि था। उन दंपति का नाम अमृतोष त्रिपाठी और और वैदेही त्रिपाठी था। उनका परिवार काफी धनाढ्य था और समय समय पर वो लोग दान दक्षिणा देने में कोई कसर नही छोड़ते थे। पिछले कुछ महीनों से रुचि की तबियत में खराबी आई थी। उसने खाना पीना लगभग छोड़ दिया था और वो काफी हिंसक प्रवति की हो गई थी। उसके कहे अनुसार एक बूढ़ा आदमी है जो साये की तरह उसके साथ लगा रहता है। वो बूढा आदमी और किसी को तो दिखाई नही देता था मगर रुचि के बदले हावभाव और हिंसक प्रवति उसके पूरे परिवार को अब उसकी बातों पर भरोसा करने को विवश कर रहे थे। धनाढ्य होने के चलते रुचि के ऐसे व्यवहार के कारण को जानने में उन्होंने कोई कसर नही छोड़ी थी। देश के बड़े से बड़े विशेषज्ञ लोगो के पास जाकर उन्होंने रुचि का इलाज करवाया मगर उससे अभी तक कोई प्रतिकूल प्रभाव नज़र नही आया था। रुचि के अनुसार वो बूढा आदमी उसके शरीर पर कब्ज़ा करना चाहता था। बच्चे के मुँह से ऐसी बातों पर विश्वास करना कठिन था मगर अब उस परिवार के पास उसकी बातों को मानने के अलावा और कोई रास्ता नही था।

आज वो काशी विश्वनाथ इसी मंतव्य से आये थे। यहां के प्रमुख पंडित बिशंभर नाथ शुक्ला जी की ख्याति बहुत दूर तक थी। ऐसी अलौकिक शक्तियों को जानने और समझने में इन्होंने कई वर्ष बिताये थे और अभी भी लोगो को इन शक्तियों से जन मानस की रक्षा करने में पीछे नही हटते थे। मंदिर के मुख्य पंडित होने के कारण उनसे व्यक्तिगत भेंट करना लगभग असंभव ही होता था। मगर कुछ नही से कुछ सही की सोच रखकर वो लोग आज विश्वनाथ मंदिर में आये थे पंडित जी को अपनी परेशानियों से अवगत कराने। उन्होंने अपनी बेटी के साथ हो रही उन असाधारण घटनाओं को एक कागज पर लिखकर पंडित जी से मदद मांगने का विचार किया था। महादेव के दर्शन दीर्घा में अगले श्रद्धालु वही लोग थे। वैदेही ने वो पर्ची अपने हाथ मे पकड़ ली और महादेव के दर्शन करने आगे बढ़ चले।

वैदेही ने शवलिंग पर बेलपत्र, दूध, जल , फूल , इत्यादि अपर्ण किये और आगे बढ़ते बढ़ते पंडित जी के हाथों भभूत लगवाते हुए उनके हाथ मे वो पर्ची थमा गई। पंडित जी ने उस पर्ची और वैदेही को एक क्षण देखा मगर फिर श्रद्धालुओं की भीड़ ने उनका ध्यान उस और आकर्षित कर दिया। उन्होंने वो पर्ची अपने कुर्ते में डाली और आने कार्य मे तल्लीन हो गए।

वैदेही ,रुचि को लेकर कुछ दूर ही आ पाई थी कि अचानक से रुचि ने एक झटके से अपना हाथ वैदेही के हाथों से छुड़ा कर महादेव के उस मुख्य शिवलिंग की और दौड़ पड़ी और भीड़ को काटते हुए कुछ ही क्षणों में शिवलिंग के पास लगे लोहे के घेरे के ऊपर से कूद कर पंडित बिशंभर नाथ जी के समक्ष पहुंच चुकी थी। इससे पहले की पंडित जी कुछ समझ पाते रुचि ने अपने दाएं हाथ की अनामिका उंगली को वहां रक्खे त्रिशूल से काटकर शिवलिंग पर अर्पित कर दिया। उस दृश्य को देखकर दर्शनार्थियों की भीड़ में डर और दहशत फैल गया। सभी दर्शानार्थी भय से तीतर बितर होने लगे और बदहवासी में इधर उधर भागने लगे। पंडित बिशंभर नाथ के आंखों के समक्ष ये भयावह दृश्य इतनी तेज़ी से घटा की कुछ क्षणों के लिए उनका दिमाग सुन्न पड़ गया था। रुचि शिवलिंग की तरफ देखकर जोर से चीखीं और फिर बेहोश होकर वहीं गिर पड़ी। वैदेही और अमृतोष दहशत में रुचि की तरफ भागे और उसको वहां से बाहर निकालकर मंदिर के बाहर भागे। शिवलिंग अब दूध और जल की जगह रक्क्त से नहाया हुआ था। पंडित बिशंभर शुक्ला उस शिवलिंग को और उसके पास गिरी उस उंगली को भय से एकटक देखे जा रहे थे।


स्थान - अज्ञात

ये अजीब सा स्थान किसी भी मानव सभ्यता से काफी दूरी पर था। एक ऐसा स्थान जहाँ पर पहुँचने को आपको किसी खास इंसान की मदद की आवश्यकता हो जिसको खुद से ढूंढ पाना दुर्गम हो। ऐसा स्थान जहाँ पर आपके होने का अर्थ एक खास मंतव्य को पूरा करने का हो। एक ऐसा मंतव्य जो आपको बाकी मानवो से अलग पहचान और ताकत दे सके।

आज इस स्थान पर देश के नामी उधोगपति, खिलाड़ी, फिल्मी सितारे, राजनेता, लेखक, चिंतक, आदि सभी उपस्थित थे। इन सभी बड़े नामो के ऐसी एक जगह एकत्रित होने का अर्थ कुछ खास ही था।

तभी उस स्थान पर उन सभी लोगो के पीछे से एक इंसान के उस स्थान के अंदर आने की कदमो की आहट ने वहां मौजूद सभी लोगो का ध्यान उसकी और आकर्षित किया । वो इंसान पूरे शरीर पर भभूत लपेटे था और काले रंग का धोती-कुर्ता पहना हुआ था। उसके हाथों में एक बड़ा सा लोहे का मटका था। सभी लोगो ने उसको देखकर बड़ी श्रद्धा से उसकी तरफ अपना शीश झुकाया और लोहे के मटके को एकटक देख रहे थे।

उस आदमी ने उस मटके को आगे एक मेज पर रखा और उन सभी की तरफ देखकर बोला।

"आप सभी लोगो का आज इस स्थान पर स्वागत है। इस दिन का आप सभी को बड़ी बेसब्री से इंतज़ार था ये बात मुझे भलीभांति ज्ञात है। मैं आचार्य शुक्र आप सभी का स्वागत करता है।"

सभी लोगो ने आचार्य शुक्र की तरफ श्रद्धा से सर झुकाया और एकटक उस लोहे के मटके पर देखने लगे।

"आप सभी के इस कीमती समय को और नष्ट ना करते हुए इस प्रक्रिया का आरंभ करते हैं। इस लोहे के मटके में मौजूद वस्तु में वो अलौकिक शक्ति मौजूद है जो इस दुनिया को जीने का एक नया मार्ग दिखाएगी । ये शक्ति इस संसार को ईश्वर द्वारा फैलाये गए धर्म, सत्य और नीति के आडंबरों से परिचित करवा कर इन सभी आडम्बरों को इस संसार से खत्म कर देगी। मगर इस कार्य के लिए इसे कई माध्यमों की आवश्यकता है जो इसके कार्य को कर सके। क्या आप बनेंगे वो माध्यम ? क्या आप करेंगे अपनी आत्मा को इस शक्ति के अधीन ? क्या आप करेंगे एक नए युग की शुरुआत ?"

वहां मौजूद सभी विशिष्ट जनों ने हामी भरकर अपना मंतव्य स्पष्ट रूप से दिखा दिया था।

आचार्य ने उन सभी के मुख को एक बार गौर से देखा और बोले।

"तो आइए शुरू करते है ये प्रक्रिया। इस प्रक्रिया की शुरुआत आप सभी जनों के रक्क्त से होगी।आप सभी लोग यहां रक्खी इस कटार से अपने शरीर मे बह रहे रक्क्त कि कुछ बूंदे इस मटके में समर्पित करेंगे । इसके बाद ये शक्ति स्वयं अपना चुनाव करके किसी एक को अपने इस महान कार्य के लिए चुनेगी।"

आचार्य का इतना कहना ही था कि वहां मौजूद सभी लोगो ने एक एक करके अपने रक्क्त की कुछ बूंदे उस मटके में डाली और वापस अपने स्थान पर आकर खड़े हो गए।

कुछ देर तक उस स्थान पर कोई हलचल नही हुई, ना ही मटके में ना ही वहां पर मौजूद लोगों के मध्य।

"अब आप सभी लोग इस मटके के चारो तरफ घेरा बना कर खड़े हो जाइए। "

आचार्य के आदेशानुसार सभी लोग उस मटके के चारो तरफ घेरा बनाकर खड़े हो चुके थे। कुछ ही समय पश्चात उस मटके में से एक हल्का धुंआ बाहर आने लगा और वो मटका धीरे धीरे गर्म होने लगा था। कुछ ही पलों बाद धुंआ सफेद से काला हो चला था और मटका अब अत्याधिक गर्म हो चुका था। वहां मौजूद सभी लोग विस्मय भरी नजरों से उस मटके को देख रहे थे जो कि अब अत्याधिक गर्म होकर उस लकड़ी की मेज़ को जला कर राख बना चुका था और अब वो मटका हवा में तैर रहा था। कुछ ही क्षणों बाद उस मटके से निकलते हुए धुंए ने एक खास तरह की आकृति की शक्ल ले ली थी और हवा में उन लोगो द्वारा बनाये गए घेरे के ऊपर मंडरा रही थी।

" अब वो समय आ गया है जब ये शक्ति अपने माध्यम को चुनेगी और इस संसार में अपने राज्य की स्थापना करेगी। "

सभी लोग उस धुंए से बनी आकृति को बहुत ध्यान से देख रहे थे और उसे खुद को उसका माध्यम चुने जाने की दुआ माँगने लगे। मगर चुनाव तो किसी एक का ही होना था। कुछ समय पश्चात उस आकृति ने अपना चुनाव कर लिया और वो वहां मौजूद एक शख्स के अंदर प्रवेश किया।

वो शख्स कोई और नही इस देश के गृहमंत्री थे।

स्थान : वाराणसी ( अमृतोष और वैदेही त्रिपाठी का घर)

बाबा विश्वनाथ मंदिर में सुबह के हुए उस प्रकरण ने पूरे परिवार को दहला कर रख दिया था। मंदिर से बाहर निकलकर अमृतोष और वैदेही रुचि को चिकित्सक के पास ले गए थे जहां पर उसके हाथ की मरहम पट्टी हुई और उसको बाकी दवाइयां देकर घर भेज दिया गया था।

उस घटना के बाद पंडित बिशंभर नाथ शुक्ला जी अपने कमरे में गए और नहा धोकर आराम करने की कोशिश की मगर रह रह कर रुचि द्वारा त्रिशूल से अपने ही हाथों की उंगली काटकर शिवलिंग पर अर्पित कर देने का वो भयावह दृश्य उनके नेत्रों के समक्ष आ जाता था और उनकी नींद फिर से टूट जाती थी। कुछ देर पश्चात वैदेही द्वारा वो पर्ची दिए जाने की बात उनकी मस्तिष्क में कौंधी थी और उन्होंने उसे निकालकर पढा और मामले की गम्भीरता को समझ कर वो इस समय अमृतोष और वैदेही के घर पर मौजूद थे। बाहर बहुत जोरो की बारिश हो रही थी।

पंडित बिशंभर नाथ ने रुचि से बात करनी चाही थी मगर इस समय वो किसी से भी बात करने के स्थिति में नही थी इसी कारण वो रुचि के माँ बाप से मिलकर उसके आज के प्रकरण के पीछे के कारण को जानने का प्रयास कर रहे थे।

"रुचि के ऐसे हिंसक स्वाभव के पीछे का कारण क्या हो सकता है ?", पंडित जी ने अमृतोष और वैदेही से पूछा।

" इस बारे में हम भी कुछ ज्यादा नही जानते है पंडित जी। रुचि हमेशा से ही हमारी लाडली रही है। हमने उसके पालन पोषण में कोई कमी नही रखी है और उसने भी पहले कभी ऐसा व्यवहार नही किया था। वो तो हमेशा ही खुश मिजाज रहने वाले बच्चो में से ही थी। मगर इधर एक महीने से अचानक ही इसके हाव-भाव और व्यवहार में बड़ा परिवर्तन आया है। "

पंडित बिशंभर नाथ उनकी बातों को सुनकर एक पल को किसी सोच में डूब गए। वैदेही और अमृतोष ने कुछ बोलना चाहा मगर उससे पहले वो ही बोल दिए।

"क्या रुचि से आप लोगो ने पूछा कभी की वो ऐसा व्यवहार क्यों कर रही है। उसके विद्यालय में या आस पास कोई ऐसी घटना घटी हो जिससे उसके ऊपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा हो।"

" आपको हमारी बात पर शायद यकीन ना हो मगर रुचि कहती है कि एक बूढ़े आदमी का साया उसके साथ हर समय रहता है। वो साया उसके ऊपर धीरे धीरे अपना कब्जा बना रहा है। उसे रुचि का शरीर चाहिए और वो ………….."

वैदेही के आगे कुछ बोलने से पहले ही रुचि के कमरे से आई रुचि की उस दर्दनाक चींख ने सभी को भयभीत कर दिया।

वैदेही और अमृतोष रुचि के कमरे की तरफ बढ़े मगर पंडित बिशंभर नाथ ने उन्हें रोकने का इशारा देकर कहा।

"अगर अभी आपके द्वारा कहे गए कथन में सत्यता है तो मुझे अभी रुचि के कमरे जाकर उसका निरीक्षण करना होगा। आप लोग यही रुके। थोड़ी देर मैं आप लोगो को में बुला लूंगा।"

अमृतोष और वैदेही ने एक पल एक दूसरे को देखा फिर हामी भरकर पंडित जी के इस प्रस्ताव पर मुहर लगाई। बिशंभर नाथ सीढ़ियों पे चढ़कर रुचि के कमरे की तरफ बढ़ चले थे।

कुछ ही पलों में वो रुचि के कमरे के बाहर थे। उन्होने एक बार नीचे वैदेही और अमृतोष को देखा और फिर झटके से रुचि के कमरे का दरवाजा खोल कर कमरे में दाखिल हो चुके थे।

कमरे के अंदर बिल्कुल अंधेरा था। अजीब बात ये थी कि कमरे के बाहर जलते हुए बल्ब की रोशनी भी कमरे में प्रवेश नही कर पा रही थी। ऐसा लग रहा था कि कोई अदृश्य परत उस कमरे को घेरे हुए था। पंडित बिशंभर नाथ अपने हाथों से दीवारों को छू छू कर आगे बढ़े जा रहे थे। उन्होंने कमरे के बल्ब को जलाने की कोशिश की और वो बल्ब जला भी मगर फिर भी कमरे में कोई रौशनी नज़र नही आ रही थी। वो थोड़ा और आगे बढ़े तो उन्हें उस कमरे की जमीन पर किसी के घिसटने की आवाज़ सुनाई दी। उन्होंने अपने आस पास पैरों से हलचल की मगर उन्हें किसी के होने का एहसास नही हुआ। वो थोड़ा और आगे बढ़े ही थे कि वो घिसटने की आवाज़ अब कमरे की ऊपरी दीवार से आ रही थी। उन्होंने चौंक कर ऊपर देखा मगर उस अंधेरे में उन्हें कुछ नज़र नही आया। मगर अब वो घिसटने की आवाज़ बहुत तेज़ी से अपना स्थान बदल रही थी। पंडित बिशंभर नाथ के मन मे अब भय की हल्की सी लहर दौड़ चुकी थी। उन्होंने कमरे के बाहर जाने का प्रयास किया मगर अब वो आवाज़ एक साये का रूप धर चुकी थी और उनके पैरों को खींचकर उसने उनको जमीन पर गिरा दिया था। बिशंभर नाथ कराह उठे मगर उनकी आवाज़ उस कमरे से बाहर नही जा सकी थी।

उन्होंने आस पास छूकर देखा तो उन्हें अहसास हुआ कि वो रुचि के बिस्तर के बगल में गिरे हुए थे। उन्होंने उठने की कोशिश की की तभी बिस्तर के नीचे से उसी साये की एक धीमी सी रुदन उन्हें सुनाई पड़ी। उन्होंने चौंक कर उस और देखा तो एक काला साया उनकी तरफ धीरे धीरे बढा चला आ रहा था। उस साये की सफेद आँखे उस अंधेरे में चमक रही थी औऱ वो साया अब उनके मुँह के बिल्कुल करीब आ गया था। उसी समय बाहर कड़की उस बिजली ने खिड़की के रास्ते कमरे में कुछ पलों के लिए रौशनी कर दी और बिशंभर नाथ उस साये के चेहरे को देख चुके थे। वो साया कोई और नही वैदेही और अमृतोष का बेटा जयंत था।

बिशंभर नाथ के ऊपर अब भय पूरी तरह से हावी हो चुका था । उन्होंने अपने शरीर का पूरा जोर लगाकर उठने की कोशिश की मगर जयंत ने उनके सर को पकड़कर नीचे की और धकेला। उस छोटे से शरीर मे इस अप्रत्याशित शक्ति को देखकर बिशंभर नाथ भयभीत हो गए थे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण बल लगाकर उसके हाथ को हटाया और आगे बढ़ने की कोशिश की तभी पीछे से जयंत बोला।

"कैसे हो बिशंभर ? तुम्हारे अपने भगवान पर किये गए उस झूठे विश्वास के कारण हुई उस लड़की की मौत भूल चुके हो या अभी भी याद है।"

क्रमशः