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प्यार बनाम गणित


एक खूबसूरत, चुस्त-दुरुस्त और कुछ कुछ सम्मिश्र संख्या जैसे दिखते लड़के को अपनी ओर घूरते देख घबरा गई। मेरे दिल के समुच्चय में एक नया अवयव दाखिल हुआ... और भावनाओं के फलन का प्रतिबिंब समुच्चय भी अपना सा जान पड़ा। ऐसा लगा कि दोनों ओर जिंदगी की अनंत श्रेणी में शायद सीमा बिंदु आ गया... पता चला कि उसका विषय भी गणित, तभी तो दिल के सामीप्य में प्यार का अंतराल दाखिल हुआ..!
अब परिमेय सँख्यायों के समुच्चय में एक अपरिमेय अवयव घुसपैठ करने की कोशिश में था..जो रातों को नींद के बन्ध से मुक्त कर अपसारी अनुक्रम को अभिसारी अनुक्रम बना सीमाबिन्दु तक पहुंचना चाह रहा था।
परिवार रूपी दूरीक समष्टि तक बात पहुँच चुकी थी.. और साक्षात्कार की तिथि तय हो चुकी थी।

"हाँ तो आपकी हॉबिज़(शौक) बताइए?" भावी ससुर जी ने प्रश्न उछाला...!
"घर के काम कर लेती हो या सिर्फ पढ़ने में रह गयी?" भावी सासू माँ का सवाल था...!
"बड़े घर में रहने की आदत है, छोटे घर में रह लोगी?" भावी जिठानी कुछ शंकित दिख रहीं थीं...!
"वाह भाभी! खिचड़ी कब से पक रही थी? मुझे भनक कैसे नहीं लगी?" भावी देवर ने प्रश्न और आश्चर्य के साथ स्वीकृति की मोहर लगा दी...!
"................" भावी पतिदेव ने मौन रहकर आँखों ही आँखों में सारे उत्तर दे दिये...!
मैं मन ही मन प्रश्नों को आरोही क्रम में व्यवस्थित करने का प्रयास करते हुए सोच रही थी कि किस प्रश्न का उत्तर पहले दूँ... मेरे बोलने के पहले ही मुझे एक सुशील और शर्मीली बहू की उपाधि मिल चुकी थी..!

"हाँ तो जीजाजी अब आप अपने बारे में बताइए?" मेरे भाई अर्थात मेरे भावी पति के भावी साले भला क्यों पीछे रहते? मैंने पहले ही समझा दिया था कि ध्यान रखना.. "सारी खुदाई एक तरफ और जोरू का भाई एक तरफ.." तो श्रीमान जी ने बिल्कुल हलाल होने वाले बकरे की तरह के भाव से सर झुकाकर कहा कि.. " पूछिए, आप क्या जानना चाहते हैं?"
"सर्वप्रथम बताइए कि आपके दिल का समुच्चय एकल है या अनन्त?" भाईसाहब भी गणित के विद्यार्थी रह चुके थे।
"अजी अभी तक तो रिक्त समुच्चय ही था.. कुछ दिनों से एक अवयव प्रविष्ट होने से एकल समुच्चय है और मैं कसम खाकर कहता हूँ कि ताउम्र एकल ही रहेगा.." इनका जवाब सुन इकलौती साली महोदया यानी कि मेरी प्यारी छोटी बहना उचक पड़ी.. "वाह जीजाजी! फिर मेरे भानजे भानजी कहाँ रहेंगे? क्या जिज्जी अकेली ही सारा बोझ उठाएगी?"
"अरे मेरी साली साहिबा... आपकी जिज्जी को मेरी धर्मपत्नी तो बन जाने दीजिए फिर तो उनका सारा बोझ मैं ही उठाऊंगा..." इन्होंने नज़रों से मेरा वजन तौलते हुए कहा.. आवाज़ भर्रा गयी थी, शायद वजन का भारीपन कल्पना पर भारी पड़ गया था।
'अंत भला तो सब भला' को चरितार्थ करते हुए तमाम प्रिय और अप्रिय सवाल-जवाब की मिसाइलें नेस्तनाबूद करने के बाद बात पक्की हो गयी थी। दोनों परिवार एक दूसरे को मूर्ख बना देने वाले भाव से सीना ताने युद्ध के मैदान में डटे होने के बावजूद सन्धि प्रस्ताव मंजूर कर चुके थे। प्रेम विवाह था जो प्रायोजित होने जा रहा था और प्रायोजक भी सन्तुष्ट हो चुके थे।

और फिर..... हम दोनों मुख्य पात्र और गणित के गूढ़ साधक तब से आज तक इस शोध में लगे हैं कि दो धन और दो ऋण तो धन होते हैं किंतु विवाह का गणित तो पूर्णरूपेण तभी सफल होगा जब एक धन और एक ऋण मिलकर एक धन बनाएं.... अभी तक तो सफलता नहीं मिली...!

किसी को मिली क्या.....?????

©डॉ वन्दना गुप्ता
मौलिक
(14/09/2018)

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