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मैं वो दिन कैसे भूल सकती थी । जिस दिन ने मेरी रातों की नींद उड़ा दी थी। वह दिन फिर से मेरी आंखों के सामने तैर गया। जब मैं अपनी बूआ के घर बूआ की बेटी की शादी मे आई थी। और सरजीत अपनी बूआ के घर बूआ से मिलने आए हुए थे।दोनों की बूआओं का घर अगल- बगल था। सरजीत बैठे अपनी बूआ के मंझले बेटे की पत्नी से बतिया रहे थे। मैं भी सरजीत की भाभी को भाभी बुलाती थी। मैं भी दोपहर को भाभी से बतियाने आ जाया करती थी।
उस दिन मैं आई तो एक अजनबी को बैठा देखकर वापस मुड़ी ही थी कि भाभी ने आवाज लगा दी।
" मंहेन्दरड़ी ए...ए पाच्छी क्यातैं मुड़ै सै ? आज्या नै चा पीवांगे।"
"ना भाभी फेर आज्यांगी मैं"
मैं अजनबी लोगों से बात करना कम ही पसंद करती थी। इसलिए वहां से खिसकना चाहती थी।
"ए घरकी आज्या नै चा बणरी सै।"
मैं भाभी के प्रस्ताव को ठुकरा न सकी । सरजीत को सरसरी सी नजर से देखा और आकर चारपाई पर बैठ गई।
"यू मेरा देवर सै रिश्ता करादयुं के इसकै तेरा?" भाभी ने मेरी टांग खींची।
"भाभी?" मैंने भाभी को घूरकर चुप रहने का इशारा किया।
"हीहीही... हांसु थी मैं तो"
भाभी खीखी करते हुए हंसकर रसोई में चाय बनाने चली गई।
अब सरजीत और मैं अकेले थे। सरजीत मुझे घूरते रहे और मैं उन्हें इग्नोर सा कर इधर उधर देख रही थी। सरजीत बतियाना चाहते थे किसी बहाने से और हिम्मत करके पूछ ही लिया।
"तु.....तु ....तुम कौन सी क्लास में.... पढ़ती हो"
सरजीत मुश्किल से बोल पाये थे।
"जी अभी दसवीं के एग्जाम दिये हैं"
मैंने गर्दन झुकाये झुकाये ही जवाब दिया।
"आगे..... क्या .....करोगी?"
सरजीत ने हिम्मत करके फिर प्रश्न पूछा।
"जी पढ़ना चाहती हूं पर.........."
"पर क्या?"
सरजीत ने जिज्ञासा से पूछा।
"घर वाले रिश्ता देख रहे हैं। गांव मे बाहरवीं का स्कूल नहीं है और बाहर घर वाले भेजना नहीं चाहते।"
मेरी आंखों से न चाहते हुए भी आंसू छलछला आये थे । मैं दूसरी तरफ मुहं करके आंसूं पोंछ लेना चाहती थी। मगर सरजीत की नजरों से अपने आंसू छिपा न पायी थी।
तभी भाभी चाय बनाकर ले आई । सब लोग चाय पीने लगे। तभी बूआ ने आकर मुझे पुकारा -" महेंद्र ए , कित्त मरग्गी ए।"
"हां बूआ"
"बेटी मन्नै किमे काम करवादे नै?"
"आऊं सूं बूआ"
"आपका नाम ? लड़कों के जैसा
?" सरजीत ने विस्मय से पूछा।
"जी...वो तो बस ऐसे ही.......।" मैं कुछ नहीं बता पाई।
सरजीत से बातें करके मुझे भी अच्छा लगने लगा था। मैं सोचने लगी थी मैं खामख्वाह ही सभी लड़कों को बूरा सोचती थी।अच्छे लड़के भी बहुत होते हैं। ये कितना हंसमुख लड़का है और कितने सलीके से बात कर रहा है। मेरी लड़कों के संदर्भ में धारणा बदलने लगी थी।
कुछ तो उम्र का ये पड़ाव ही ऐसा होता जब विपरीत लिंग के दो व्यक्ति एक दुसरे के प्रति आकर्षित हो ही जाते हैं। यही हुआ सरजीत और मेरे साथ भी।
अब हम दोनों एक दुसरे को देखने का बहाना ढूंढने लगे थे।तीन चार दिन तक ऐसे ही चलता रहा। सरजीत दो दिन के लिए आये थे और चार दिन हो गए थे।वापस जाने का मन ही नहीं कर रहा था।इधर मुझे भी भाई लेने आ गया था। मैं भाभी को बाय बोलने आई थी । भाभी तो महज बहाना था दरअसल बात कुछ और ही थी। मैं सरजीत को एक बार और देख लेना चाहती थी।भाभी घर पर नहीं थी सरजीत बैठे अखबार पढ़ रहे थे।
"भाभी कित्त सै?"
सरजीत ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा। मैंने नीले रंग का पटियाला सूट डाल रखा था।हल्का सा आंखों में काजल, लंबी चोटी को घूमाती हुई बिल्कुल अल्हड़ सी लग रही थी। वो मुझे अपलक देखते रहे। उनका यूं देखना मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लग रहा था।
"अरे भाभी कित्त सै?"
मैंने दोबारा प्रश्न दोहराया।
"भाभी तो बाहर गई सै।"
मैं वापस मुड़ी ही थी कि सरजीत धीरे से बोले।
" सुण!"
"के कहवै था?"
मैं जैसे इसी इंतज़ार में थी कि सरजीत मुझे पुकारे। मैं अंदर ही अंदर खुश थी। और मुड़कर मुस्कुराकर सरजीत की ओर देखकर बोल पड़ी।
"बूरा ना मानै तो एक बात कहूं,आज तैं ब्होते सुथरी लागै सै। मेर गैल ब्याह करले तेरे सारे सुपने पूरे कर दयूंगा।"
सरजीत एक ही सांस में सबकुछ कह गये। और मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा।
मैं कुछ नहीं बोल पायी थी । सरजीत के एकदम शादी के प्रपोजल से अंदर तक कंपकंपा सी गई थी। बिना कुछ बोले ही मैं वहां से भाग आई थी।
"आज नींद क्यूं कोनी आवै? कदे मन्नै भी..सरजीत से..........? ना ना मैं बी जम्मा बावळी हूँ। कुछ बी सोचण लागज्याऊं हूं।
धीरे धीरे मैं भी सबकुछ भूलकर स्कूल जाने लगी थी। गर्मियों की स्कूल की छुट्टियां हो गई थी। मां कहीं काम से बाहर गई थीं । मैं घर पर अकेली थी। हमारे परिवार की एक लड़की जो मेरी रिश्ते में भतीजी थी, मुझे बुलाने आई। मैं जब उनके घर गई तो वहां चार- पांच लोगों को बैठे देखा। भाभी घुमावदार बातें करने लगी। मैं चूल्हे पर दूध रखकर गई थी तो जल्दी से घर आ जाना चाहती थी। जैसे ही मुडक़र वापस दरवाजे तक पहुंची। भाभी ने फिर आवाज दे दी ताकि वो लोग मुझे अच्छे से देख सकें। और फिर रिश्ता तय हो गया और पता चला ये तो वही लड़का है जो.......। जब शादी के बाद मिले तो इनकी मुस्कराहट छिपाये नहीं छिप रही थी।
मैं बिस्तर से उठकर खड़ी हो जाती हूं। सरजीत मुझे बैठने के लिए इशारा करते हैं। मैं फिर भी सकुचाई सी खड़ी रहती हूं मानो मुझे कुछ सुनाई ही न दिया हो। सरजीत हाथ पकड़ कर खींच लेते हैं और मुझे अपने पास बैठा लेते है। मैं सरजीत से थोड़ी दूर सरक कर असहज सी बैठ जाती हूँ। थोड़ी देर कमरे में खामोशी छाई रहती है। घड़ी की टिक टिक रात की खामोशी को चीरकर दो बजने का इशारा दे रही है।
ये धीरे से पास आकर बोले- "हां महेंद्र जी ! ठीक सै ? मैं मोनू बुला सकूं सूं तन्नै ।"और मैंने हां में गरदन हिला दी थी।
"जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा था तो देखता ही रह गया था। तुमने मेरे प्रपोजल का कोई जवाब नहीं दिया था।मगर तुम्हारी मुस्कराहट से मुझे हां का जवाब मिल गया था।"
एमके कागदाना©
फतेहाबाद हरियाणा