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स्टार्ट अप


मुझे उसके हाव - भाव वैसे नहीं लगे जैसा मैं सोच कर गया था और उसका कमरा भी कोठे वाली जैसा नहीं। कमरे में टीवी, फ्रिज और एसी भी। जिस आत्मविश्वास से वो कांच के गिलास में पानी करते पर रखकर लाई वो और भी चौंकाने वाला था।

"समाजसेवी, पीएचडी या पत्रकार?" उसका प्रश्न सुन भौंचक रह गया।

"उत्सुक इंसान....पर आपको कैसे...?"

"बाबू..इतने नार्मल इंसान देखे हैं कि एब्नार्मल की पहचान आसान हो गई है।" वो मुस्कुराते हुए बोली।

"मैं एब्नार्मल..!!"

"हां...हां... बाबू, तुम्हारे चेहरे की शालीनता और कुलीनता तुम्हें असामान्य बनाती है। यहां ऐसे लोग नहीं आते। मैं यहां कैसे आई? निकलना चाहती हूं या नहीं? यही सब सवाल है ना...?"

" हाँ..हाँ....वो....."मै अकबक हो गया और वो खिलखला उठी।

"13 साल की थी, मेरे बाप से किसी की दुश्मनी थी शायद । वहीं निकालने के लिए मुझे उठा कर यहां छोड़ दिया या शायद बेच दिया। 4-5 दिन खूब रोई, फिर किसी सेठ ने मुझे पसंद कर लिया। वो सेठ इतना गन्दा दिखता था कि मैंने उसके सामने उल्टी कर दी। मुझे तैयार होने कमरे में भेजा। शायद ईश्वर खुश थे, मैं भागने में कामयाब रही। सामने एक दुकान वाले को मुझ पर दया आ गई या फिर उसे मेरी नियति पता थी और मुझे सच देखने भेज दिया। मैं खुशी - खुशी घर पहुंच गई। बाबा को पता चल चुका था कि मैं यहां हूं, शायद पहुंचाने वाले ने ही बताया होगा। माई - बाबा ने हाथ जोड़ लिए। कहा - जहां से आई हो वहीं चली जाओ, मर जाओ , अब यहां जगह नहीं तुम्हारे लिए।खूब रोई पर वो नहीं माने। "

थोड़ी देर खामोश हो गई वो।

"फिर..?"

"मुझे पढ़ने का बहुत शौक था, सरकारी स्कूल जाती थी। मुझसे दो कक्षा आगे का एक लड़का मुझे देख कर मुस्कुराता रहता। लगा कि शायद वो कुछ मदद करें। वो सड़क पर‌ ही मिल गया। बोला - तुम किस गंदी जगह से आई हो, सबको पता है। तुम्हें बात भी नहीं करना चाहता।"

"फिर क्या बाबू, अब आखिरी उम्मीद थी हमारे स्कूल की मैडमजी। मुझे बहुत प्यार करती थी वो। कहती थी - मन लगाकर पढ़ो सुधी। उनसे लेकर प्रेमचंद, शरतचंद्र, टैगोर और बहुत सी लेखकों की किताबें पढ़ी थीं।"

क्षण भर सन्नाटा रहा, शायद वो अतीत में चली गई थी। मैं गौर से उसके चेहरे को देख रहा था।

"क्या देख रहे हो कि मैं रो तो नहीं रही ? हां..हां...हां..बाबू, सब यही सोचेंगे मेरे बारे में कि लड़की रोएगी। मैडमजी का घर गांव से थोड़ी दूर कस्बे में था, दो बार गई थी उनके घर। जानते हो.! घर का दरवाजा किसने खोला?

"......."

"उसी सेठ ने जिसके सामने मैंने उल्टी की थी।वो मैडमजी का पति था."

ठंडी आह भरी उसने।

"इतना तो अब तक समझ चुकी थी कि मेरा अब कोई नहीं और कहीं भी मजदूरी का काम भी करूं तो मेरे साथ करता होता, ये समझने लगी थी थोड़ा - थोड़ा। यूं कहो कि देह की कीमत समझ गई थी। फिर......पता नहीं कैसे घूम फिर कर पांव यहीं आ गए। मुझे सुरक्षित जगह यही लगी....अब ये मत पूछना कि मैंने गले में पत्थर बांध नदी में छलांग क्यूं नहीं लगा दी।"

थोड़ी देर सन्नाटा पसरा रहा। मैं उसकी आंखों में कुछ ढूंढने का प्रयास कर रहा था, जो कि सपाट लग रहा था।

"यहां किन - किन तकलीफों से गुजरी और कैसी परिस्थितियों का सामना किया?" मैंने खामोशी तोड़ने हेतु प्रश्न पूछा।

वो अट्टहास करते हुए बोली - पहली बार अगर मैं यहां से भाग नहीं पाती तो तकलीफ या समझौता होता। लौट कर आने के बाद मैं देह की कीमत समझ गई थी। अब उसी को कमाई का जरिया बनाना था, आखिर हर कोई देह की ही तो कमाई खाता है।"

"देह की कमाई...!!"

"और क्या... कोई मजदूर मजदूरी करता है तो किस माध्यम से, देह ही ना..। तुम भी ऑफिस जाओगे पढ़ - लिखकर , या व्यापार करोगे। दिमाग के साथ देह की भी जरूरत तो होगी ना....? सरकार भी तो इसे देह - व्यापार कहती है।"

मैं हैरान था उसकी इस देह की कमाई की परिभाषा से।

" तो क्या सोचा है? यहीं इसी नर्क में रहना है?"

" क्या बाबू, हर किसी को उसकी कार्यस्थली नर्क ही लगती है, जब तक अपना बॉस खुद न बन जाएं। अब मैं अपनी बॉस खुद बनूंगी।"

"कैसे?"

"अरे ..!! ये टीवी, सीडी, स्मार्टफोन, फ्रिज नहीं देखा मेरे कमरे में..!! हर कमरे में ये नहीं होता। मौसी मतलब मेरी बॉस को मुझसे मोटी कमाई होती है, तभी दिया है। हुआ यूं कि एक बार एक ग्राहक मुझसे इतना प्रभावित हुआ कि अपने विदेशी दोस्तों को मेरे पास लाने लगा‌ । लेकिन इन गोरे - कालों का तरीका हमसे अलग है , तो उनसे मोटी कमाई के लिए उसके तरीके सीखने लगी टीवी, फोन से।"

"ओह..!! तो अब?"

"तो अब मैं अपना बिजनेस शुरू करूंगी, वो क्या कहते हैं ..स्टार्ट अप...." ये कहकर वो खिलखिलाई।

"उन विदेशियों और हमारे यहां भी सबको इस पर लुटाने के लिए पैसे बहुत हैं। ये 'कुलीन' इन बदनाम गलियों में नहीं आना चाहते। इसलिए ये जगह छोड़कर किसी अच्छे इलाके में घर जहां वो आसानी से आ - जा सकें और मैं भी होटलों में जा सकूं और कुछ दिन की ग्रूमिंग क्लास । बाकी के लिए गूगल तो है ही।"

अब मैं उसका मुंह देखे जा रहा था ,मानो कोई फिल्म देख रहा होऊं।

"ऑल द बेस्ट.." ये कहकर मैं निकलने लगा तो वो सामने खड़ी हो गई।

"रुको...!" कहकर एकदम पास आ गई, फिर झटके से पीछे हो गई। मैं कुछ समझ नहीं पाया।

"नहीं, तुम्हें छू नहीं सकती। " कहकर मेरे पैरों से कुछ फीट की दूरी पर धरती को प्रणाम कर लिया।

"तुम बहुत पवित्र हो.....एकदम एब्नार्मल, ईश्वर तुम्हें खुश रखें।" इस बार उसकी आंखें गीली थी, शायद मेरी भी।

चार साल बाद पेरिस में एक काम के लिए गया तो वो भी उस बिजनेस पार्टी में थीं। एकदम बदली हुई। मैं पेशोपेश में था कि वो है भी या नहीं, अगर है तो मुझे पहचानेगी भी या नहीं?

"ए बाबू..!!" उसका स्वर सुन आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी हुई।

"पहचाना..?"

"हां, लगता है आपका बिजनेस खूब चल रहा है..?" मैंने थोड़े शरारती अंदाज में कहा।

"हा ...हा..... बाबू ये ऐसा व्यापार है, जिसमें घाटे की संभावना न के बराबर है।"


भारती कुमारी


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