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बयरी माँ

बयरी माँ

बयरी माँ गुजर गईं ।

उनके न रहने की खबर से धक्का सा लगा । यह खबर भी सीधे-सीधे नहीं मिली थी । अनायास गाँव का एक मित्र मिला था । बातों ही बातों में उसने बयरी माँ की मृत्यु का जिक्र कर दिया था । वह भी ऐसे ही-खासतौर पर मुझे बताने के लिए नहीं । मैं उनके दूर या निकट का कोई रिश्तेदार तो था नहीं कि मुझे उनकी मृत्यु की विधिवत सूचना दी जाती । मित्र तो यह भी नहीं जानता था कि बयरी माँ के बारे में मेरी कोई उत्सुकता हो सकती है ।

हम चार भाई थे । चारों में दो-दो साल का अंतर । बहन नहीं थी । मुझसे छोटा दूसरे नम्बर का भाई स्थायी रूप से मामाजी के घर रहता था । घर में उससे छोटा जो भाई था, वह मुझसे चार साल छोटा था । इसलिए सबसे बड़ा होने के नाते बहन वाले सारे काम मेरे कंधे पर थे । मुझसे अपेक्षा भी अधिक ही की जाती थी । जबकि मैं उठा-पटक के कामों में शुरु से ही कमजोर रहा हूँ ।

घरेलू रोजमर्रा के मुख्य काम थे-झाड़ू लगाना, बर्तन माँजना, पानी भरना, चक्की से अनाज पिसवाकर लाना और कभी-कभी खाना पकाना । तब मैं छठी-सातवीं में पढ़ रहा था । बारह-तेरह साल की उम्र होगी । मुझे पानी भरना अच्छा नहीं लगता था । लेकिन पीने का पानी तो भरना ही था । पास में एक झीरा था लेकिन उसका पानी पीने योग्य नहीं था । मजबूरी में नहाना-धोना तो वहाँ हो जाता था । लेकिन पीने का पानी तो जुटाना ही था ।

जब कोई आत्मीय गुजर जाता है तो वह स्मृति की सतह पर आकर जीवित हो उठता है । मेरे भीतर भी बयरी माँ जीवित हो गई थीं । वैसे प्रकट में उनसे मेरा कोई नाता नहीं था । बयरी माँ के साथ गाँव की याद चली आयी और गाँव के साथ वहाँ गुजरे बचपन की । बचपन के साथ पानी के लिए अपनी जद्दोजहद की ।

मुझे सबसे अधिक कोफ़्त पानी भरने में ही होती थी । तब तक कुछ आत्म गौरव का भाव भी पैदा हो चुका था । अक्सर लड़कियाँ और महिलाएँ ही पानी भरती थीं । उनके बीच मुझे अजीब सा लगता था । मैं सहमा सा रहता । वैसे दूसरे के घर से कुछ भी क्यों न लेने जाना हो, मुझे बेहद संकोच से भर देता था ।

बर्तन माँजना फिर भी अच्छा लगता । शायद इसलिए कि बर्तन घर पर बैठे-बैठे माँजे जा सकते थे, इसके लिए बाहर जाना नहीं पड़ता था । नम्बर नहीं लगाना पड़ता । झिड़की नहीं खानी पड़ती थी । मिट्टी के चूल्हे पर भोजन पकाया जाता था । लकड़ी और कंडे जलावन के रूप में प्रयुक्त होते । भोजन के बाद चूल्हे में राख़ बची रहती, इस राख से बर्तन माँजे जाते थे । राख़ को पहले थोड़ा पानी से गीला कर पूरे बर्तन पर फेरा जाता । वैसे अक्सर बर्तन, पहले ही झूठन फेंकने के बाद, थोड़ा गीला रहता ही था । बाद में थोड़ी और राख़ ले एकदम साफ-झकाझक कर लिया जाता । राख़ से माँजने के बाद गीलेपन का नामोनिशान भी नहीं रहता । थाली और परात पर जब राख़ गीली रहती, तब उस पर तर्जनी से अंग्रेजी के मनचाहे शब्दों की स्पेलिंग बना-बना कर याद करता रहता था । इस तरह कठिन शब्दों की स्पेलिंग भी पक्की हो जाया करती थी । गीली राख से चित्र, शब्द और अक्षर बखूबी बनते । इस समय थाली और परात पट्टी या कापी का पन्ना बन जाती और तर्जनी तूलिका, पेम या पेन का काम करने लगती । इसी तरह हिंदी के शब्द और छोट-छोटे वाक्य भी लिख लिया करता था । यह एक तरह का खेल होता । इसमें मन खूब रमता. चित्रकला के लिए भी थाली या परात कैनवास का काम करती । तरह-तरह की फूल-पत्तियाँ और चेहरे बनाता और मिटाता रहता था ।

तब गाँव में पानी के तीन स्रोत थे-एक नल, दूसरा देवा बा का कुआँ और तीसरा खोदरे की झीरियाँ ।

गर्मियों में पानी की खूब आफत पड़ती थी । नल कम आते थे, तब देवा बा के कुएँ से पानी भरकर लाना पड़ता था । देवा बा का कुआँ सबसे दूर पड़ता था । यह कुआँ पूरब की ओर मनावर के रास्ते पर खोदरे और मसाण पार करके आता था । मसाण के पास से गुजरने में डर लगता था । दूसरा डर यह था कि कहीं देवा बा वहाँ मौजूद न हो । वे अक्सर नशे में धुत रहते थे । घर के सामने ही कलाली थी । वहाँ उनको कई बार विकराल रूप में देख चुका था । उनका चेचक के अमिट दागों से भरा चेहरा और सुर्ख आँखें डरावनी लगती थीं । कहीं उनसे सामना न हो जाए! आखिर उनकी बाड़ी में ही तो कुआँ है ।

देवा बा का कुआँ खूब उँडा था । कुएँ में से बाल्टी से पानी खींचना होता था । हमेशा डर लगा रहता कि कहीं पानी भरी बाल्टी हाथ से छूट न जाए । कहीं पाँव फिसलने से मैं कुएँ में गिर ही न पड़ूँ । चिकने पत्थरों पर पानी फैलने से फिसलन और बढ़ जाती थी । बहुत सावधानी से रस्सी से बंधी बाल्टी छोड़नी और खींचनी होती थी । कुएँ के भीतर एक अद्भूत संसार था । नीर-कंचन पानी में एक बड़ा कछुआ तैरता नजर आता । चंचल चमकीली मछलियाँ तो अक्सर दिखती ही रहती थीं । कभी-कभार एक-दो छोटी-छोटी सुन्दर चमकीली चंचल मछलियाँ तो बाल्टी में भी चली आती थीं । मैं उन्हें वापस कुँए में डाल दिया करता था ।

जिस पत्थर पर बाल्टी की रस्सी चलती थी, उस पर निशान पड़ चुके थे । उन निशानों को देखकर हिन्दी में पढ़ा और अनेक बार दोहराया हुआ दोहा याद हो आता- ‘करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान । रसरी आवत जात के, शिल पर परत निशान ।’ कवि ने अपनी बात को कितनी सटीक उपमा व्दारा स्पष्ट किया था । मन ही मन मैं इस उपमा की सराहना करता ।

पीतल की पानी से भरी घुंडी को सिर पर चढ़ाना मेरे जैसे बच्चे के लिए आसान नहीं था । कभी कोई चढ़़ाने वाला मिल जाता तो ठीक, नहीं तो यह मेरे लिए बहुत मुश्किल काम था । अचरज होता कि हनुमान जी कैसे संजीवनी बूटी के लिए पहाड़ ही उठाकर ले आए थे । कहीं यह कपोलकल्पना तो नहीं । सिर पर चढ़ाने की कोशिश में एक-दो बार घुंडी हाथ से फिसलकर नीचे भी जा गिरी थी । उस पर टीचे भी पड़ गये थे ।जब देवा बा के कुएँ का पानी खुट जाता, तब पानी का अंतिम विकल्प बचता था-खोदरे की झीरियाँ । खोदरे का पानी ऊपर तो सूख जाता था, लेकिन रेत के नीचे भीतर पानी बना रहता था । खोदरे के बीच में दो-तीन गोलाकार झीरियाँ बना ली जाती थी । डोला पानी उलछ देने पर साफ पानी आ जाता । छाल्ये से घुंडी या किसी बड़े बर्तन में पानी भरकर घर लाया जाता था ।

हमारा गाँव एक प्रगतिशील गाँव है । उस समय गाँव की आबादी तीन-चार सौ से अधिक नहीं होगी । लेकिन आज से चालीस साल पहले वहाँ पानी की पाइप लाइन बिछ चुकी थी । नल का पानी उदा बा के कुएँ से पाइप के जरिए मोटर से छोड़ा जाता था । यह कुआँ पश्चिम में टेमरियापुरा के रास्ते पर था । यह सिर्वी समाज का निजी प्रयास था । लेकिन उसका कोई खास फायदा हमें नहीं मिलता था । सुविधाएँ सामाजिक-आर्थिक हैसियत पर निर्भर होती हैं । अमीरों और प्रभावी लोगों को जो सुविधाएँ बिन माँगे मिल जाती हैं, गरीबों को माँगने पर भी नहीं मिलतीं । नल केवल सीर्वियों के घरों तक सीमित थे । हम वहाँ से नम्बर लगाकर पानी भर सकते थे । हम गाँव के लगभग बाहर भील मोहल्ले मे रहते थे ।

नल आते ही हड़कंप सा मच जाता । मन्ना दादा, गेंदी माँ और बयरी माँ के घर नजदीक पड़ते थे, जहाँ नल लगे थे । नल अक्सर स्कूल के समय के आसपास आता । पानी भरकर स्कूल जाने की जल्दी होती थी । मन ही मन झुँझलाता । प्रयास यही रहता कि जल्दी से जल्दी पानी भरूँ और स्कूल पहुँचूँ ।

नल आने की खबर तत्काल आग की तरह फैल जाती थी । मैं घुंडी लेकर चल देता या कहूँ कि घर से ठेल दिया जाता था । मन्ना दादा और गेंदी माँ के यहाँ खूब भीड़ होती थी । वे अपना पानी भरने के बाद ही अन्य को पानी भरने देते थे । मेरा नम्बर आने में काफ़ी देर लगती थी । जल्दी करने वालों को झिड़क भी दिया जाता था । वहाँ कभी-कभी मेरे पीछे आने वाले भी आगे पानी भर लिया करते थे और मैं उनका विरोध भी नहीं कर पाता था ।

बयरी माँ का घर अपेक्षाकृत दूर ज़रूर था, पर वहाँ सुकून से पानी भरा जा सकता था । कम से कम मेरा तो यही अनुभव था । बयरी माँ बहुत सहृदय थीं । वे मुझे खड़ा देख अपना पानी भरना छोड़ कर मुझे पानी भर लेने का कह देती थीं । जैसे उन्हें मेरी तकलीफ का भान पहले से ही हो । मैं मन ही मन निहाल हो जाता उनकी इस अनुकम्पा पर । यदि कोई मुझसे आगे नम्बर लगाने की कोशिश करता तो बयरी माँ उसे झिड़क कर परे हटा देतीं । बिना कहे घुंडी भी मेरे माथे पर चढ़वा देती थीं ।

मेरे सब दोस्तों की दादियाँ थीं, लेकिन मेरी दादी नहीं थी । उनको अपनी दादियों से लाड़-दुलार मिलता था । मैं इससे वंचित था. पिता जब छोटे ही थे, उनकी माँ शांत हो गई थी । उनका बचपन बिना माँ के ही गुजरा था । उनकी माँ मेरी दादी थीं । उन्हें मैंने कभी देखा नहीं था । उनका कोई फोटो भी नहीं था । मुझे बयरी माँ में अपनी दादी की झलक नज़र आती । मैं कल्पना करता था कि मेरी दादी निश्चित ही बयरी माँ जैसी ही सहृदय रही होंगी ।

गाँव में पानी भरते-भरते मेरा बचपन बीत गया । अब पानी भरना पत्नी के हवाले है । घर में नल है । पानी के लिए प्रायः कोई जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती । इस नगर में नदी की कृपा बनी हुई है । नल खूब चलते हैं । लोग अपने वाहनों को पानी से खूब धोते हैं । बेशकीमती पानी को बेकार बहाते रहते हैं । पीने योग्य पानी गटरों में यूँ ही बहता रहता है । कोई ध्यान ही नहीं देता । बेकार बहता पानी देख मन में बेचैनी होने लगती है । कोफ़्त होती है ।

मुझे अफ़सोस है कि आज तक मैं उनका मूल नाम नहीं जानता । उन्हें बयरी माँ कहना तब भी मुझे खटकता था और आज भी । उन्हें कम सुनाई देता था । इसलिए उनके बहरेपन को आधार बना कुछ संवेदनहीन लोगों ने उनका नाम ही बयरी माँ पटक दिया था । बाद में यही नाम उनकी पहचान बन गया था । जैसे उनका अपना कोई नाम हो ही नहीं । उन्हें लोग भले ही बयरी माँ कहते हों, पर मेरे अंतर्मन की आवाज साफ-साफ वही सुन पाती थीं । उनके कारण ही तब मेरे कष्ट कुछ कम हुए थे । मुझे उनका आभार व्यक्त करना चाहिए था । बड़ा हो जाने पर उनसे मिलना था । पर मैं तो नौकरी मिलते ही गाँव से उड़ आया था । उस घोंसले को ही भूल गया, जहाँ से मैंने उड़ने का हौसला पाया था । उन्हें याद करते हुए अनायास आँखों में पानी आ गया ।

तब से अब तक गाँव में कितना ही पानी बह चुका है । गाँव ने खूब उन्नति की है । प्रत्येक टापरी तक पक्की सीमेंटेड सड़कें पहुँच चुकी हैं । शमशान घाट पक्का हो चुका है । लेकिन जिन्दा लोगों के लिए पेय जल की बेहतर व्यवस्था नहीं हो सकी । आठवीं में पढ़ते भतीजे को आज भी बाहर से पानी लाना पड़़ता है । लगता है जैसे आज भी बचपन पानी का पीछा कर रहा है ।

सुना है शब्द नहीं मरते हैं । ब्रह्मांड में मौजूद रहते हैं । कोई तार तो अभी भी होगा जो मेरे भावों को बयरी माँ तक पहुँचाएगा । मुझे पूरी उम्मीद है कि मेरे शब्द भी उन तक ज़रूर पहुँचेंगे ।

“मेरे बचपन के दुखों को कम करने में आपने बहुत मदद की । बिना नाक-भौं सिकोड़े मुझे सहर्ष पानी भरने दिया । आप मेरे माथे पर पानी से भरी भारी घुंडी चढ़ाती रहीं । आपका मैं बहुत-बहुत आभारी हूँ । सुन रही हो न बयरी माँ ।”

गोविन्द सेन

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