तक्सीम - 4 - अंतिम भाग Pragya Rohini द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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तक्सीम - 4 - अंतिम भाग

तक्सीम

प्रज्ञा

(4)

‘‘हां भई हम पे भरोसा कहां था तुझे कि ख्याल रखेंगे तेरी बीवी का? अब संभाल ले तू।’’

बेटे का मजाक उड़ाते हुए अम्मा ने कहा तो जमील, अब्बा के सामने जरा शर्माया पर जबान तक आए उसके शब्द बेसाख्ता निकल पड़े-‘‘अम्मा जीवन भर का साथ है मेरा-इसका, निभाना तो पड़ेगा न।’’

और जमील-सोनी की गोद में फिर एक बच्चा था। स्वस्थ और सुंदर।

‘‘देख सोनी बिल्कुल रौशन पर गयी है न बिटिया?’’

सोनी हैरान रह गई। अक्सर बच्चे की शक्ल देखकर मां-बाप यही देखते हैं कि एक-दूसरे में से किस पर गया है या फिर ननिहाल-ददिहाल में किस के चेहरे-मोहरे से मिलता है पर जमील... वो तो अलग सी ही बात कर रहा था। उसकी खुशी थम नहीं रही थी।

‘‘इसका नाम रौशनी रखेंगे सोनी... रौशन जैसी रौशनी। तू देखना खूब जतन करूंगा इसका मैं। थोड़ी बड़ी हो लेने दे, तुझे और इसे शहर ले जाऊंगा। वहीं पढ़ाउंगा, किसी अच्छे सकूल में। मदरसे नहीं भेजूंगा शमशेर खालू की तरह।’’

‘‘जाओ रहने दो पूरे खानदान में कोई लड़की बड़े शहर के अच्छे सकूल में गई भी है कभी?’’ इठलाते हुए सोनी ताना जरूर मारती पर भीतर से जानती थी कि जमील बात का पक्का है। फिर अपने छोटे से घर की कल्पना उसके मन में नई चंचलता भर रही थी।

बिटिया को छोड़ आए जमील का मन गांव में ही अटका रह गया। जब भी मौका पाता अनोखे को या कमरे में लौटने पर प्रकाश और सुनील को उसके छवि का बखान करके सुनाता।

‘‘अबे पगला गया है। हम भी बाप बने हैं कि तू निराला बना है?’’

सब उसे छेड़ते पर उस छेड़ में जमील को और आनंद आता।

जमुनापुरी की उस बस्ती मंे जमील ने ठीक-ठाक कमरा देखना भी शुरू कर दिया था। यों बस्ती कच्ची थी और गंदी भी पर काम के नजदीक तो थी। साइकिल से आने-जाने में ज्यादा समय नहीं लगता था उसे। आगे की योजना सोचकर अपने काम को भी उसने बढ़ा लिया। पुराना घरेलू सामान भी अब वह खरीदने और बेचने लगा। धंधे के कुछ लोगों से सही जान-पहचान हो गई थी तो उसकी हिम्मत बढ़ गई। पुराना फर्नीचर,कम्प्यूटर, टी. वी. ,टेपरीकाॅर्डर वगैरहा बिजली का सामान सब लेने लगा कबाड़ में। यों घरों को समयानुसार नया बनवाने वाले लोग पुरानी चैखटें, ग्रिल, घुन खाए या पानी में फूल गए दरवाजे, जाली की बेकार हो चुकी खिड़कियां आदि बिकवाने के लिए उसे ही बुलाते। लोग पुराने हर सामान से उकताकर नए सामान की ओर दौड़ रहे थे। अब भारी और टिकाऊ का नहीं हल्का और टीम-टाम के फर्नीचर का चलन था। पुराना टिकाऊ सामान जिसे करीबी रिश्तेदार भी लेना नहीं चाहते थे जमील उस समस्या का जल्द समाधान कर डालता। इससे उसकी साख भी बन रही थी और पैसा भी। अखबार, लोहा-लक्कड़ और प्लास्टिक अब भी वह खरीदता था पर अब समय के अनुसार अपने को बदलकर धंधे का विस्तार उसने कर लिया था और खुश था। जब भी घर जाता रौशनी के लिए अच्छे-अच्छे खिलौने और कपड़ों की खरीदारी करके ही जाता। अम्मा-अब्बा भी खुश थे।

इस बार गांव से आया तो उसका पक्का इरादा था अब कोई कमरा ठीक करके सोनी और रौशनी को यहां ले आएगा। बच्ची की नींव सही पड़ गई तो ही अच्छी रहेगी जीवन भर उसने सोचा। और फिर कमरा अनोखे और प्रकाश के बगल में ही लेगा। हारी-बीमारी के साथी तो ये ही थे उसके शहर में। सब सोचते हुए दोस्तों से जरूर सारी बातें साझा करता था जमील। अनोखे के साथ तो आना-जाना और काम की समान जगह होने के कारण चैबीस घंटे का साथ था ही उसका।

‘‘इस बार तू चलना अनोखे ईद पे मेरे संग गांव। कसम से यार घर में घुसते बस नाम बता दियो अपना फिर देखना कैसी खातिर होगी तेरी। सब जानते हैं तुझे।’’ जमील बोला।

‘‘ तो तूने सब बक दई है वहां।’’ ठेठ अंदाज में अनोखे ने कहा।

दोनों ने तेज ठहाका लगाया । अगले ही पल अनोखे बोला-‘‘ कहां फुर्सत होगी मुझे दीवाली पर। सौ काम होते हैं । साल भर का त्यौहार थका मारता है। घर पहुंचते ही सारे घर की पुताई में लग जाता हूं। बैठने नहीं देती तेरी भाभी जरा सी देर को। फिर काम पर नहीं लौटना है कैसे आंउगा तू ही बता?’’

‘‘ अरे बरेली से खतौली जरा सी दूर है। तू मेरे घर ईद मनाकर अपने यहां दीवाली मना लेना या लौटती बार घर आ जाना दोनों संग लौट लेंगे।’’

थोड़ी आना-कानी के बाद अनोखे मान गया। जमील ने सोचा संग ही सोनी और बेटी को भी लेता आऊंगा एक साथी होगा तो बड़ी सुविधा रहेगी।

सुबह काम पर जाते समय दोनों ने देखा रास्ते में बड़ी चहलपहल थी। पास जाने पर मालूम हुआ यहां माता की चैकी बिठाई जा रही है। कई उत्साही नौजवान माथे पर सुनहरी गोट की लाल चुन्नी बांधे टेंट वाले से काम करवाते हुए भागदौड़ में लगे थे। उनकी आवाजें खूब खुली हुईं थीं। पटरी और सड़क पर भी चैकी का सामान बिखरा पड़ा देखा उन्होंने। मुख्य सड़क से करीब होने के कारण ट्रैफिक वहां से तिरछा होकर गुजरने लगा। सबको खासी दिक्कत हो रही थी। पर धरम का काम था तो सबको असुविधा भी मंजूर। फिर लड़कों के हट्टे-कट्टे शरीर और गरजती आवाज ने किसी को शिकायत करने की कोई छूट भी नहीं दी थी।

शाम तक दोनों अपने उसी पुराने रास्ते से लौटे तब तक माता का भवन पूरा सजकर तैयार था। चार मेजों को जोड़कर माता का भवन सजाया गया था। बड़ी-सी, भड़कीले रंग वाली प्रतिमा के सामने माता का शेर भी विराजमान था। स्टीरियो पर तेज आवाज में भेंटे और भजन चल रहे थे। फिल्मी गीतों की चालू धुनों पर कुछ लड़के-बच्चे नाच रहे थे। उनका नाच भी फिल्मी ही था, जैसे वो बोल पर नहीं धुन पर ही थिरक रहे हों। अनोखे और जमील ने मां के अस्थाई मंदिर के आगे शीश नवाया पर साइकिल का हैंडिल नहीं छोड़ा। दिन भर के थके होने के बाद अभी खाना भी बनाना था और फिर अगले दिन काम पर जाने के लिए सोना जरूरी था उनका। वैसे भी चैकी, जागरण तो अब आए दिन की बात हो गई है। ‘रोज-रोज अगर इनमें जाने लगें तो काम क्या खाक करेंगे’- अनोखे नास्तिक नहीं था पर इस मामले में एकदम साफ था। चैकी से कमरा पास होने के बावजूद जमील के तीनों संगियों में से कोई भी वहां नहीं गया।

अगले दिन काम पर जाते हुए दोनोें ने देखा चैकी आज भी कल की तरह ही सजी है। हां झांकियां शायद और सजा दी गईं हैं। आज भीड़ कल से अधिक थी और स्टीरियो भी सप्तम सुर में बज रहा था। साथ में एक टेबल और लगा दी गई थी। नए देवताओं के रूप में गणेश, शिवजी के साथ विराजमान थे। दाएं-बाएं और सामने की छोटी सी जगह में भक्तों के लिए दरियां भी बिछा दी गई थीं। उन पर रखी चादरों से अंदाजा हो रहा था कि रात को कई लड़के यहीं सोए होंगे।

अब तो दोनों जने आते-जाते रोज ही माता के भवन में कोई न कोई नवीन परिवर्तन देखते। चैकी के भवन पर लगे बिजली के लट्टू खींचकर आगे बनी मस्जिद के करीब तक ले आए गए थे। पहले साधारण सा दिखने वाला भवन अब भव्य हो चला। रात में कई भजन-मंडलियां भी जुट जातीं ऐसा सुनील ने सबको बताया । सुनील तो चैकी की आरती में एक दिन शामिल भी हुआ। बस तभी से पड़ा था सबके पीछे-‘ देख लो रात को एक दिन आरती। इतने करीब में होने का कुछ तो फायदा उठा लो।’

अनोखे ने सोचा एक दिन सभी चल पड़ेगें साथ, वैसे भी चैकी का प्रोग्राम कुछ दिन आगे खिसक चुका था इसकी सूचना उसे भी मिल गई थी। शनिवार को शुरू हुई चैकी को कल हफ्ता पूरा होने वाला था। सुबह वहां से गुजरते हुए अनोखे और जमील ने देखा कि आज बात कुछ और ही है। आटे-आलू की बोरियंा, तेल के कनस्तर, मसाले भी चैकी के घेरे में पड़े हैं। और दो हलवाई बड़े-बड़े पतीलों-कड़ाहों को धोते पीछे की तरफ भट्टी सुलगा रहे हैं।

‘‘ले भाई आज तो भंडारा होगा। दोपहर में पूरी-आलू की सब्जी मिलेगी। हो सकता है हलवा भी।’’ अनोखे ने हंसते हुए कहा।

‘‘तू जा नहीं रहा था न चैकी में, तो लड़कों ने आज तुझे बुलाने का पक्का इंतजाम कर दिया।’’ जमील ने चुटकी ली। दोनों ने तय किया कि आज खाने के समय यहीं आ जाएंगे।

भंडारे के समय पहुंचे तो माहौल में अजीब-सी तनातनी के संकेत मिले। लाइन काफी लंबी थी और लाइन में लगे लोगों से ही पता चला-

‘‘ दिन मे बड़ी पुलिस आई थी मस्जिद के पास। एक दिन की चैकी तय होने के बाद अब हफ्ते से ऊपर इक्कीस दिन की चैकी बिठा दी गई है।’’ किसी ने बताया।

‘‘ इन ठलुओं को कोई काम-धंधा नहीं है क्या? इक्कीस दिन जमे रहेंगे यहां?... हमें तो काम से मिनट भर फुर्सत नही।ं भगवान को हम भी मानते हैं पर हमें फुर्सत नहीं मिलती पूजा-पाठ की। आज भंडारा खाने आए हैं, खाकर निकलेंगे काम पर।’’ अनोखे चुप न रह सका।

‘‘ हम भी तुम जैसे हैं भाई। पर असल बात ये है मस्जिद के ठीक बगल में माता का मंदिर बनाया है। और धीरे-धीरे मस्जिद की तरफ सरकते आ रहे हैं। अरे कहीं और बना लेते। ऐसे में न उनके भजन सुनाई पड़ेगे न इनकी अजान। घाल-मेल से दोनों को परेशानी होगी, दोनों भड़केंगे।’’ कोई बोला।

‘‘ हां, मस्जिद तो पक्की है और कितनी पुरानी भी मंदिर कहीं और बना लेते न।’’ जमील का ये कहना था कि आग लग गई। पास से गुजरते किसी सेवक भक्त के कानों में पड़ते ही धमाका हो गया।

‘‘हमारा खाकर हमें गाली देने वाला तू कौन है बे ?... हम क्यों सरकाए मंदिर? इतनी परेशानी है तो ले जाएं वो अपनी मस्जिद कहीं और। हमारा मंदिर यहीं बनेगा और जितने दिन चाहेंगे रहेगा। इनके बाप की नहीं हमारे बाप की जमीन है। गाड़ दिया है हमने तंबू ,दिखाए कोई उखाड़कर।’’

भक्त ने तैश में गुस्से, नफरत और अपने अधिकार का इज़हार किया। उसके कई संगी भी नज़दीक आ गए। अनोखे ने चुप रहने का इशारा किया जमील को। भला हुआ जो ये लड़के नहीं जानते थे कि जमील का धरम क्या है। जमील का मन रूकने का कतई न था पर अनोखे ने उसे रोके रखा। उधर मस्जिद के पास भी भीड़ जमा हो गई। कई लोग चैकी के शोर-शराबे और बदइंतज़ामी से गुस्साए हुए थे। दोनों तरफ तनातनी थी और बीच में भंडारे की भीड़। दोनों तरफ के लोग। मस्जिद के पास घिरे लोग अपने धर्म पर सीधे प्रहार के कारण तो आहत थे ही उन्हें आज की जुम्मे की नमाज़ की फिक्र भी थी। यहां भी नमाज के लिए भीड़ जुटनी शुरू हो रही थी। भंडारे की भीड़ से उन्हें नमाज़ अदा करने की जगह निकालने में मुश्किल आने लगी। बरसों से कभी ऐसा न हुआ था कि जुम्मे की नमाज़ में जगह कम पड़ी हो। पर लग रहा था आज ऐसा होगा। जमील ने सोचा आज खाने के बाद वो भी नमाज़ अदा कर लेगा पर माहौल की नब्ज़ तेज होती जा रही थी।

मस्जिद की तरफ से आए गुस्साए लोगों ने भंडारा जल्दी निबटाने की बात कही तो हवा में जहर फैल गया। बात भद्दी गालियों से होती हुई सीधे तौर पर साम्प्रदायिक रंग ले बैठी। अपने-अपने धरम की पैरवी में जिसके मन में जो आ रहा था वह बके जा रहा था। ‘हमारी मस्जिद पुरानी है... हमारा मंदिर यहीं रहेगा’- जैसे जुमले हवा में तैरने लगे। उत्तेजना के माहौल को भांपकर जमील ने वहां से निकल चलने के लिए अनोखे का हाथ दबाया। पर अनोखे नहीं हिला। थोड़ी देर में आग ठंडी पड़ी पर उसे सामान्य नहीं कहा जा सकता था। मस्जिद से आई भीड़ अभी वापिस लौटी ही थी कि माता के भवन के पास मांस का लोथड़ा फंेके जाने का शोर मच गया। पर अबकी बार ये शोर यों ही न थमा। चैकी के भ्रष्ट होने के साथ भक्तों का अहंकार आहत हुआ था। न किसी ने लोथड़े को देखा न तफ्तीश की और सैलाब मस्जिद की ओर बढ़ चला। इससे पहले कि लोग कुछ समझ पाते या सुरक्षित स्थान पर पहुंचते पत्थरबाजी शुरू हो गई। मामूली पत्थर नहीं भारी-भरकम ईंटंे। भंडारे की जगह लगी भीड़ में भगदड़ मच गई। कई बच्चे, आदमी और औरतें रौंदे चले जा रहे थे। लोग बेतहाशा भाग रहे थे... लोग बेमकसद मर रहे थे। धरम के नाम पर सब जायज था जैसे।

पत्थरबाज़ी जारी थी। भीड़ अंधी हो चली थी, मंदिर-मस्जिद भी दिख नहीं रहे थे बस भीड़ के दो चेहरे थे जो एक-दूसरे को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। पहले मारकर कौन जीतता है इसीकी सारी लड़ाई थी। दल-बल समेत पुलिस भी आ गई तब तक। माता अब भी संहार देखकर प्रसन्न मुद्रा में थीं। स्पीकर कहीं टूटा पड़ा था। मस्जिद के आगे क्रोशिए की टोपियां छितरी थीं, वजू के लिए पानी के जग दबी-दुचकी हालत में जहां-तहां पड़े थे। और कई शरीर कभी न उठ पाने की हालत र्में इंटों की गिरफ्त में़े थे। सड़क का सारा ट्रैफिक भयभीत दर्शकों की तरह सिमटा और सन्न था। सड़क के दूसरी तरफ भीड़ से बचकर भागे लोगों का जमावड़ा तमाशबीनों के साथ खड़ा था। सब अपनी जान बचने का शुक्र मना रहे थे और कई अपनों को ढूंढ पाने में असमर्थ होकर भय सेे चीख रहे थे। सड़क लहूलुहान थी। पत्तलें, पूरियां, सड़क पर धूल फांक रही थीं। सड़क पर पलट गए सब्जी के पतीलों से बही सब्जी खून की रंगत में तर थी। कितने ही लोग घायल, बेहोश पड़े थे। कफ्र्यू लगा दिया गया। पुलिस ने घटनास्थल की छान-बीन की। देर तक जारी इस तहकीकात का सच काफी दिन बाद सामने आया। कुछ बाहरी लोगों ने इस काम को अंजाम दिया था। जमुनापुरी का यह पहला दंगा था। टीवी चैनलों पर साम्प्रदायिकता की समस्या पर कुछ चर्चा हुई। नेताओं ने शंाति बनाए रखने की अपील की। ग्यारह लोग मारे गए थे। मारे गए और घायल लोगों को मुआवजे़ की रकम सरकार से मिलना तय हो गया था। मरे हुए और घायलों की लिस्ट बनाई जा चुकी थी... मुआवज़ा मृत व्यक्ति तीन लाख रूपये और घायल पचास हज़ार प्रति व्यक्ति।

सोसायटी में उस दिन कपूर साहब के घर सुबह से ही जमील की ज़रूरत आन पड़ी थी। एकदम अर्जेंट काम था। उसके आने के समय का हिसाब लगाकर मिस्टर कपूर ने गार्ड रूम में फोन लगाया-

‘‘ गार्ड, सुनो एक सौ दो नम्बर से बोल रहा हूं, जमील आए तो फौरन भेजना... सबसे पहले मेरे घर। समझे?’’

‘समझे’ शब्द की सख्ती समझकर गार्ड तुरंत बोला -‘‘सर जी, जमील और अनोखे का कुछ पता नहीं। कई दिनों से गायब हैं दोनों।’’

गौ-ग्रास लेने के लिए आने वाली गाड़ी टाइम से सोसायटी में घुस रही थी। तेज़ संगीत में गीत बज रहा था-‘‘ जय धरती मां... जय गऊ माता.... जय गऊ माता-जय गऊ माता।’’

समाप्त