सुब्रहमण्य भारती और भारतीय चेतना
यशवंत कोठारी
भारतीयता का सुब्रहमण्य भारती की कविताओं से बड़ा निकट का संबंध रहा है। वास्तव में जब सुब्रहमण्य भारती लिख रहे थे, तब पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ जन-आन्देालन की शुरूआत हो रही थी और भारती ने अपनी पैनी लेखनी के द्वारा राष्ट्री यता और राष्ट्र वाद की अलख जगाई थी। यही कारण था कि सुब्रहमण्य भारती के बारे में महात्मा गांधी ने लिखा-
‘मुझे सुब्रहमण्य भारती की रचनाओं जैसी कृतियां ही वास्तविक काव्य प्रतीत होती है, क्योंकि उनमें जन जन को अग्रसर करने की प्रेरणा है, जीवन की ज्योति जगाने की शक्ति है।’
भारती का जीवन काल मुश्किल से 39 वर्पो का रहा। परन्तु इस अल्प जीवन काल में ही भारती कवि, लेखक, पत्रकार तथा देशभक्त के रुप में सफल हो गये।
भारती ने तमिल भापा में वहां के निवासियों के विचारों में एक नवीन चेतना भर दी। उनकी कविताओं ने एक नये युग का प्रवर्तन किया। भारती ने तमिल भापा के माध्यम से सुदूर दक्षिण में राष्ट्र वाद की अलख जगाई।
सुब्रहमण्य भारती का जन्म 11 दिसम्बर 1812 को तिरूनेलवेली जिले के एट्टयपुरम गांव में चिन्नस्वामी अय्यर के घर हुआ। माता का निधन उनके जन्म के पांच वर्प बाद ही हो गया। भारती को मैटिक की परीक्षा में प्रवेश नहीं मिल पाया। लेकिन शुरू से ही स्कूल में भारती ने अपनी काव्य प्रतिभा से सहपाठियों तथा अध्यापकों का दिल जीत लिया। 12 वर्प की अवस्था में ही तरूण भारती को जमीन के दरबारी उत्सव में ‘भारती’ की उपाधि दी गयी। क्योंकि उनकी विद्वता तथा काव्य प्रतिभा ने सब का मन मोह लिया था।
भारती ने कुछ समय बनारस में भी बिताया। बनारस में रहकर भारती ने संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त किया। इलाहबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने एन्टेंस परीक्षा पास की। 1901 में भारती पुनः एट्टयपुरम् लौट आये। कुछ समय उन्होंने जमींदार के यहां काम किया। लेकिन शीघ्र ही वे स्वदेश मित्र नामक दैनिक पत्र के सह-सम्पादक बन गये। अपने कार्य में भारती ने शीघ्र ही प्रवीणता प्राप्त कर ली और विवेकानन्द, अरविन्द घोप,बाल गंगाधर तिलक जैसे विचारकों के वाक्यांश लेकर लेख लिखने लगे। अनुवाद करने लगे। लेकिन भारती की प्रतीभा बहुमुखी थी। कांग्रस के समर्थन में उन्होंने लेख लिखे। बंगाल विभाजन पर उनकी कविता ‘बंगाल तुम्हारी जय हो’ ने छपते ही तहलका मचा दिया।
1905 में वे विवेकानन्द की मानसपुत्री सिस्टर निवेदिता से मिले और उनमें आध्यात्मिक परिवर्तन हुए। वे जाति भेद तथा नारी मुक्ति के लिए कार्य करने लग गये।
देशभक्ति के गीतों की उनकी पहली पुस्तक स्वदेश गीत संसार
‘1908 ’ तथा ज्ञान भूमि ‘1909’ में छपी। 1906 में भारती महिलाओं की पत्रिका ‘चक्रवर्तिनी’ के सम्पादक बने।
भारती साहित्य, पत्रकारिता और राजनीति के क्षेत्र में जम गये। इसी समय ‘इडिया’ नामक पत्र का उन्हें सम्पादक बना दिया गया। दिसम्बर, 1907 में भारती ने राष्ट्र वादी प्रतिनिधियों के साथ कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में भाग लिया। 1907 में ‘भारत’ तथा ‘यंग इंडिया’ के सम्पादक बने।
भारती की कविताओं में प्रबल राष्ट्र वाद और भारतीयता थी। इस कारण वे ब्रिटिश हुकूमत की आंखों में चुभ रहे थे। गिरफतारी से बचने और सम्पादन के काम को सुचारु रुप से चलाने के लिए वे सितम्बर, 1908 में पांडिचेरी चले गये। भारती की पुस्तकों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
आगे के कुछ वर्प भारती के लिए घोर निराशा और संकट के रहे। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और कविता के द्वारा विचार व्यक्त करते रहे।अपनी अधिकांश श्रेप्ठ रचनाएं भारती ने इन्हीं दिनों में लिखीं। अब भारती की कविताओं में वेदान्तिक्ता, मानवतावाद तथा वसुधैव कुटुम्बकम की छवि दिखने लगी।
नवम्बर, 1918 में भारती पांडिचेरी से वापस आ गये। 1919 में उनकी महात्मा गांघी से भेंट हुई। 1920 में वे पुनः स्वदेश मित्र के सम्पादक बने। 1921 में जून में वे बीमार पडे़ और 11 दिसम्बर, 1921 को 39 वर्प की आयु में व स्वर्ग सिधार गये।
भारती की पुरानी सनातन परम्परा, वेदान्तिक मानववाद तथा भारतीय संस्कृति के विभिन्न परिदृश्य भारती की रचनाओं में बार बार मुखर हुए हैं।
उ नके लोकप्रिय राष्ट्र गीतों में भारत माता को एक ऐसी माता के रुप में चित्रित किया गया है जो सबकी जननी है।कवि उसे चिरनिद्रा से जगाता है और पढ़ने वाले को लुभाता है, वह मां की महिमा के गीत गाता है।
स्वतंत्रता, देशभक्ति तथा विद्रोही स्वर की भारती की कविताओं ने तमिल समाज में तहलका मचा दिया था। उनका कहना था कि वेदों को नया रुप दो, व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन का नित्य नवीनीकरण करो।
भारती की रचनाओं को पढ़ने से पता लगता है कि भारती रूढ़िवादी नहीं थे, वे परम्परावादी भी नहीं थे, वे विद्रोह और ओज के कवि थे। अपनी प्रसिद्ध कविता भारत देशम् में वे कहते हैं-
भारत देश नाम भयहारी, जन जन इसको गायेंगे
सब ष्शत्रुभाव मिट जायेंगे।
स्वतंत्रता के व्यापक सन्दर्भे को रेखांकित करते हुए वे अपनी कविता स्वतंत्रता में कहते है-
हे स्वतंत्रता हरिजन लोंगो और चर्मकारों को।
हे स्वतंत्रता आदिवासियों, दलित बंजारों को।।
ऐसा विराट सांस्कृतिक स्वतंत्र अनुप्ठान कोई प्रखर राप्टीय चेतना के कवि के द्वारा ही संभव है:
भारत माता की महिमा का गान वे इन स्वरों में कहते है।
धवल धाम अधिपति हिमालय की
तीरात्मा पुत्री है हमारी मां
खंडित हो हिमाचल तो भी रहेगी वह
सदा कीर्ति के तन को धारण करेगी वह।
बाद में जाकर भारती का स्वर वेदों और अध्यात्म में डूब गया। वे परम् तत्व की वंदना, प्रेम की महिमा, सर्व धर्म समभाव जैसी कविताएं लिखने लगे।
भारती प्रखर गद्यकार भी थे। नारी चेतना, समाज में व्याप्त विसंगतियों पर उन्होंने हजारों लेख लिखे। उन्होंने नारी के बारे में लिखा- जहां नारी है वहीं कलाएं हैं। औा कला मानवता का दिव्यता की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न नही तो और क्या है?
भारतीय संस्कृति का बीज ष्शब्द-रस नामक लेख में वे लिखते हैं-
और हे मानव! तुम क्या चाहते हो?
तुम तो इस लीला के केन्द्र, असंख्य जीवों में एक
शाश्वत के मध्य स्थित वर्तमान।
भारती की रचनाओं पर विचार करते समय के राजनीति घटनाक्रम पर भी विचार किया जाना आवश्यक है। वह समय ऐसा था जब पूरा देश आंग्ल समाज का गुलाम था चारों तरफ नवजागरण का उफान आने को था। औरत आदमी भारतीयता को भूल कर विदेशी सत्ता का दास बन गया था।
पूरे समाज में एक कुंठा, निराशा और अन्धकार छा गया था। इसी समय पूरे देश में अलग अलग कवियों, पत्रकारों, लेखकों ने देश की जनता के जागरण का काम शुरु किया। अरविन्द घोप, बाल गंगाधर तिलक, आदि काम कर रहे थे। महात्मा गांधी का वर्चस्व कायम नहीं हुआ था। अंग्रेज दमन कर रहे थे। ऐसे समय में राप्टवाद की बात करना, भारतीयता की बात करना, राष्ट्र भक्ति की बात करना या मां भारती के लिए गीतों की रचना करना बड़ा मुश्किल काम था। भारती ने यही मुश्किल काम दक्षिण में कर दिखाया।
वे नव सामाजिक चेतना के प्रबल पक्षधर थे। सामाजिक, लौकिक जीवन में भारतीयता की प्राण प्रतिप्ठा में उनका योगदान उल्लेखनीय है। वे सच्चे अर्थो में मानवतावादी थे। भारती राप्टीय एवं मानव एकता के अपने समय के सशक्त प्रहरी थे। देश को वे शक्ति का एक प्रति रुप मानते थे।
प्रेम को वे आद्यश्क्ति मानते थे। भारती के चिन्तन का सिद्धान्त उनकी प्रसिद्ध कविता नगाडे़ में एक बार फिर मुखर हुआ -
तू बजा धू का स्वर गूंजे,
ज्ग में समत्व का भाव जगे,
सुख उमड़े, जग में समस्त
तू बजा एकता गूंज उठे,
कल्याण विश्व का हो अनन्त।
पूरे विश्व के कल्याण की भावना के साथ साथ प्रखर भारतीय चेतना के कवि थे सुब्रहमण्य भारती।
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यशवंत कोठारी ,८६लक्ष्मी नगर ,ब्रह्मपुरी बाहर ,जयपुर-३०२००२ मो-९४१४४६