प्रेस नोट की राम कहानी
यशवन्त कोठारी
इस क्षण भंगुर जीवन में सैकड़ो प्रेसनोट पढ़े। कई लिखे।छपवाये, मगर पिछले दिनो एक ऐसे प्रेस नोट से पाला पड़ा कि समस्त प्रकार के विचार मन में आ गये। मैंने अखबारों की नौकरी तो नहीं की मगर प्रेस नोट वाले नेताओं, अफसरो, उ़द्योगपतियों के बारे में जानकारी खूब हो गई। अक्सर प्रेस नोट लेकर अखबारों के दफतरो में दौड़ पड़ने वालो से भी मुलाकाते हो ही जाती है। सच पूछो तो बहुत से नेता तो केवल प्रेस नोट केबल पर ही बड़े नेता बन गये। उन्हे जनता से कोई लेना देना नहीं। इसी प्रकार बड़े अफसर अपना फोटो और अपने समाचारों का प्रेसनोट नहीं छपने पर जनसम्पर्क कर्मी का जो हाल करते है वो भी किसी से छुपा नहीं। डेस्क पर बैठे उपसम्पादक को अक्सर प्रेसनोट के पीछे बहुत कुछ भुगतना पड़ता है। लेकिन मैं तो एक प्रेसनोट का किस्सा सुनाता हू।
हुआ यो कि एक वरिप्ठ बुजुर्ग कवि मित्र को वृद्धावस्था में एक पुरस्कार मिल गया। ष्शाल, फूलमाला की व्यवस्था उन्हीं के धन से की गई थी। वे चाहते थे कि इस कार्यक्रम का प्रेसनोट बनाकर सचित्र छपने हेतु भेज दिया जाये।मुझे अनुज शिप्य मान कर उन्होने यह प्रेसनोट लिखने-छपाने का आग्रह किया। मैं इन दिनों फालतू आदमी हू सो तुरन्त हां कर दी।
मैंने अपने हिसाब से वरिप्ठ कवि महोदय का जीवन-चरित्र लिखा फोटो चिपकाया, प्रेसनोट की छायाप्रतियां बनवाई, सुविधा के लिए एक अग्रेश ण पत्र भी लिखा और लिफाफे बनाकर सिन्दबाद की यात्रा पर चल दिया।
एक प्रमुख अखबार में कुछ परिचय निकालने की गरज से मैंने एक वरिप्ठ सेवा निवृत्त सम्पादक से डेस्क पर फोन करवा दिया मगर डेस्क के उपसम्पादक व्यस्त थे मैं सुरक्षा कर्मी को प्रेसनोट दे आया। मगर नोट का एक अक्षर भी नहीं छपा।
दूसरे दिन मैंने फिर तकादा किया। उपसम्पादक से बात हुई। बोले समाचार-सम्पादक से पूछो। समाचार सम्पादक ने मेरी और कोई ध्यान नहीं दिया। वे कुत्ते ने कडाही चाटी नाम के सचित्र समाचार का पेज बनाने में व्यस्त थे। वे और पेजमेकर ने मेरे बजाय कुत्ते के समाचार पर ही ध्यान दिया।
मैंने तीसरे दिन भी प्रयास किया, क्योंकि वरिप्ठ कवि महोदय अपना फोटो-समाचार देखने को लालायित थे। इस बार मैंने एक अन्य समाचार पत्र में प्रयास किये। सम्पादकजी बड़े भले आदमी थें बोले यार इस में समाचारत्व कहां है। मैंने उन्हें समझाया कि एक बुजुर्ग कवि से सम्बन्धित मामला है, वे बोले इन कवि-कलाकारों के पास कोई काम-धाम तो होता नहीं। बस सम्पादक के पीछे पड़े रहते है। ये कहकर वे कम्प्यूटर पर सच का समना के फोटो देखने में व्यस्त हो गये। मैं उपेक्षित, अपमानित सा लौट आया।
मैं प्रेसनोट की गति को सदगति में नहीं बदलना चाहता था, मैं एक अन्य अखबार में प्रेसनोट देने गया। वहा स्थिति अच्छी थी, मैरे सीधे प्रेसनोट को पूरे ध्यान से पढ़ने के बाद मुझे एक प्रश्नोत्तरी दी गई,जिसका जवाब देना था। मेरे जवाब से असंतुप्ट समाचार सम्पादक ने प्रेसनोट को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। मैं सोचने लगा इस पत्रकारिता जगत में जहां पर रोज समाचार -रोपण हो रहा है, जहां पर रोज प्रथम पृप्ठ पर सचित्र प्रकाशन के पैकेज खरीदे और बेचे जा रहे है वहां पर बेचारे कवि के अभिनन्दन के चार लाइनो के प्रेसनोट की कौन चिन्ता करता। सम्पादक, संवाददाता, मालिको के पास अन्य सैकड़ों जरूरी काम हैं। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी परिचित सेवानिवृत्त सम्पादक और मैंने मिलकर फिर प्रेसनोट में दिनांक बदली और छपाने चल पडा। विचार आया कि में जिन्दगी में सैकड़ों प्रेसनोट छपा डाले, एक कवि पर चार लाईन नहीं छपा पाया तो धिक्कार हैं।
भगवान रूपी सम्पादक ने मेरी सुनली।
इस बार प्रेसनोट को इन्टरनेट इमेल से भेजने का निश्चय किया गया, और प्रेसनोट इन्टरनेट पर जारी हो गया। मेरी खुशी का पारावार नहीं रहा। मगर सर जी असली समस्या ये है कि प्रेसनोट के प्रकाशन की गुणवत्ता क्या है ? नेताजी के प्रेसनोट और एक बूठे कवि के प्रेसनोट के प्रकाशन के पीछे कौन सी बाजारू शक्तियां काम कर रही है। सोचे। और समझे। यदि संभव होता बदलती पत्रकारिता, बदलती राजनीति और बदलती बाजारू शक्तियों पर विचार करें।
बात एक मामूली प्रेसनोट की नहीं है। सर जी ये जीवन की बदलती परिस्थितियो पर विचार करने की जद्दो जहद है। आखिर एक प्रेसनोट के छपने, छपाने नहीं छपने या सायास छपने के अन्दर की बात क्या है। क्या यह सम्भव नहीं कि मिडिया केवल गुणवत्ता पर ध्यान दे। लेकिन गुणवत्ता के तो पैकेज मिल रहे है। क्या किया जा सकता है। समरथ को नहीं दोस गुसाई।
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यशवन्त कोठारी
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