बड़ी दीदी
शरतचंन्द्र चट्टोपाध्याय
प्रकरण - 5
सुरेन्द्र को अपने घर गए हुए छः महिने बीत चुके हैं। इस बीच माधवी ने केवल एक ही बार मनोरमा को पत्र लिखा था। उसके बाद नहीं लिखा।
दर्गा पूजा के समय मनोरमा अपने मैके आई और माधवी के पीछे पड़ गई, ‘तू अपना बन्दर दिखा।’
माधवी ने हंसकर कहा, ‘भला मेरे पास बन्दर कहां है?’
मनोरमा उसकी ठोड़ी पर हाथ रखकर कोमल कंठ से बड़े सुर-ताल से गाने लगी,
‘सिख अपना बन्दर दिखला दे, मेरा मन ललचाता है।
तेरे इन सुन्दर चरणों में कैसी शोभा पाता है?’
‘कौन-सा बन्दर?’
‘वही जो तूने पाला था।’
‘कब?’
मनोरमा ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘याद नहीं? जो तेरे अतिरिक्त और किसी को जानता ही नहीं।’
माधवी समझ तो पहले ही गई थी और इसलिए उसके चेहरे का रंग बिगड़ता जा रहा था। तो भी अपने को संयत करते बोली, ‘ओह, उनकी चर्चा करती हो। वह तो चले गए।’
‘ऐसे सुन्दर कमल जैसे उसे पसंद नहीं आए?’
माधवी ने मुंह फेर लिया। कोई उत्तर नहीं दिया। मनोरमा ने बड़े प्यार से उसका मुंह हाथ से पकड़कर अपनी ओर घुमा लिया। वह तो मजाक कर रही थी। लेकिन माधवी की आंखों में मचलते आंसुओं को देखकर हैरान रह गई। उसने चकित होकर पूछा, ‘माधवी, यह क्या?’
माधवी अपने आप को संभाल न सकी। आंखों पर आंचल रखकर रोने लगी।
मनोरमा के आश्चर्य की सीमा न रही। कहने के लिए कोई उपयुक्त बात भी न खोज सकी। कुछ देर माधवी को रोने दिया, फिर जबर्दस्ती उसके मुंह पर से आंचल हटाकर उसने दुःखी स्वर में पूछा, ‘क्यों बहन, एक मामूली-सा मजाक भी बर्दास्त नहीं हुआ?’
माधवी ने आंसू पोछते हुए कहा, ‘बहन, मैं विधवा जो हूं।’
इसके बाद दोनो काफी देर तक चुपचाप बैठी रही। फिर चुपके-चुपके रोने लगीं। माधवी विधवा थी। उसके दुःख से दुःखी होकर मनोरमा रोने लगी थी, लेकिन माधवी के रोने कार कारण कुछ और ही था। मनोरमा ने बिना सोचे-समझे जो मजाक किया था कि ‘वह तेरे अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता,’ माधवी इसी के बारे में सोच रही थी। वह जानती थी कि बात बिल्कुल सच है।
बहुत देर के बाद मनोरमा ने कहा, ‘लेकिन काम अच्छा नहीं हुआ।’
‘कोन-सा काम?’
‘बहन, क्या यह भी बताना होगा? मैं सब कुछ समझा गई हूं।’
पिछले छः महिने से माधवी जिस बात को बड़ी चेष्टा से छिपाती चली आ रही थी, मनोरमा से उसे छिपा नहीं सकी। जब पकड़ी गई तो मुंह छिपाकर रोने लगी। और एकदम बच्चे की तरह रोने लगी।
अन्त में मनोरमा ने पूछा, ‘लेकिन चल क्यों गए?’
‘मैंने ही जाने के लिए कहा था।’
‘अच्छा किया था-बुद्धिमानी का काम किया था।’
माधवी समझ गई कि मनोरमा कुछ भी समझ नहीं पाई है, इसलिए उसने धीरे-धीरे सारी बातें समझाकर बता दीं। फिर बोली, ‘मनोरमा, अगर उनकी मृत्यु हो जाती तो शायद मैं पागल हो जाती।’
मनोरमा ने मन-ही-मन कहा, ‘और अब भी पागल होने में क्या कसर रह गई है?’
मनोरमा उस दिन बहुत दुःखी होकर घर लौटी और उसी रात अपने पति को पत्र लिखने लगी-
‘तुम सच कहते हो-स्त्रियां का कोई विश्वास नहीं। मैं भी अब यही कहती हूं। क्योंकि माधवी ने आज मुझे यह शिक्षा दी है। मैं उसे बचपन से जानती हूं। इसलिए उसे दोष देने को जी नहीं चाहता। साहस ही नहीं हो रहा। समूची नारी जाति को दोष दे रही हूं। विधाता को दोष दे रही हूं कि उन्होंने इतने कोमल और जल जैसे तरल पदार्थ से नारी के ह्दय का निर्माण क्यों किया। उनके चरणों में मेरी विनम्र प्रार्थना है कि वह नारी ह्दय को कठोर बनाया करे, और मैं तुम्हारे चरणों पर सिर रखकर तुम्हारे मुंह की ओर देखती हुई मरूं। माधवी को देखकर बहुत ही डर लगता है। उसने मेरी जन्म-जन्मांतर की धारणाएं उलट-पुलट दी हैं। मेरा भी अघिक विश्वास न करना और जल्दी आकर ले जाना।’
उसके पति ने उत्तर में लिखा-
‘जिसके पास सौदर्य है, गुण है, वह उसका प्रदर्शन करेगा ही। जिसके ह्दय में प्रेम है, जो प्रेम करना जानता है वह प्रेम करेगा ही। माधवी की लता आम के वृक्ष का सहारा लेती है। संसार की यही रीति है। इसमें हम-तुम क्या कर सकते हैं। मैं तुम पर अत्यधिक विश्वास करता हूं। इसके लिए तुम चिन्तित मत होना।’
मनोरमा ने अपने पत्र को माथे से लगाकर और उनके चरणों में प्रणाम करके लिखा--
‘मुहंजली माधवी-उसने वह किया है जो एक-विधवा को नहीं करना चाहिए था। उसने मन-ही-मन एक और आदमी को प्रेम किया है।’
पत्र पाकर मनोरमा के पति मन-ही-मन हंसे। फिर उन्होंने मजाक करते हुए लिखा---
‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि माधवी मुंहजली है, क्योंकि उसने विधवा होकर मन-ही-मन एक और आदमी को प्रेम किया है। यह तुम लोगों के नाराज होने की बात है कि विधवा होकर सधवाओं के अधिकार में हाथ क्यों डाला? मैं जब तक जीता रहूंगा तब तक तुम्हारे लिए चिन्ता की कोई बात नहीं है।’ यदि ऐसी सुविधा तुम्हें मिल तो कभी मत छोड़ना खूब मजे से किसी आदमी के साथ प्रेम कर लो, लेकिन मनोरमा, तुम मुझे चकित नहीं कर सकी हो। मैंने एक बार एक लता देखी थी। लगभग आधा कोस जमीन पर रेंगती-रेंगती अंत में एक वृक्ष पर चढ़ गई थी। अब उसमें न जाने कितने पत्ते और कितनी पुष्प मंजरियां निकल आई हैं। जब तुम यहां आओगी, तब हम दोनों उसे देखने चलेंगे।’
मनोरमा ने नाराज होकर इस पत्र का कोई उत्तर नहीं दिया।
लेकिन माधवी के आंखो के कोनों मे लालिमा छा गई थी। उसका हर समय फूल की तरह खिला रहने वाला चेहरा कुछ गंभीर हो गया था। काम-धन्धे में उतना जी नहीं लगता था। एक प्रकार की कमजोरी-सी आ गई थी। आज भी उसमें उसी प्रकार की सबकी देखभाल करने और सबसे प्रति आत्मीयता पूर्ण व्यवहार करने की इच्छी पहले जितनी ही है। बल्कि पहले की अपेक्षा वढ़ गई हैं, लेकिन अब सारी बातें पहले की तरह याद नहीं रहती। बीच-बीच में भूल हो जाती है।
अब भी सब लोग उसे बड़ी दीदी कहते हैं। अब भी सब लोग उसी कल्पतरू की ओर देखते है, उसी के सामने हाथ फैलाते हैं
और इच्छित फल प्राप्त कर लेते है। लेकिन अब वह कल्पवृक्ष उतना सरल नहीं हैं। पुराने आदमियों को बीच-बीच में आशंका होने लगती है कि कहीं आगे चलकर यह सूख न जाए।
मनोरमा रोजाना आती है और-और बातें तो होती हैं, लेकिन यही बात नहीं होती। मनोरमा समझती है कि माधवी को इससे दुःख होता है। अब इन बातों की आलोचना जितनी न हो उतना ही अच्छा है। मनोरमा यह भी सोचती है कि किसी तरह यह अभागी यह सब भूल जाए।
सुरेन्द्र अच्छा होकर अपने पिता के घर चला गया है। विमाता उस पर नियंत्रण रखना कुछ कम कर दिया है। इसी से सुरेन्द्र का शरीर कुछ ठीक होने लगा है, लेकिन वह पूरी तरह ठीक नहीं हो पाया है। उसके अंतर में एक व्यथा है। सौंदर्य और यौवन की आकांक्षा और प्यास अभी तक उसके मन में पैदा नहीं हुई है। यह सब बाते वह नहीं सोचता अब भी वह पहले की तरह लापरवाह है। आत्म-निर्भता उसमें नहीं है, लेकिन किस पर निर्भर रहना चाहिए, वह यह नहीं खोज पाता। खोज नहीं पाता क्योंकि वह अपना काम आप कर ही नहीं पाता। अब भी अपने काम के लिए वह दूसरों के मूंह की ओर देखता रहता है, लेकिन अब पहले की तरह किसी भी काम में उसका मन नहीं लगता। सभी कामों में उसे कुछ-न-कुछ कमी दिखाई देती है। थो़ड़ा बहुत असंतोष प्रकट करता है। उसकी विमाता यह सब देख सुनकर कहती है, ‘सुरेन्द्र अब बदल गया हा।’
बीच में उसे ज्वर हो गया था। बहुत कष्ट हुआ। आंखों में आंसू बहने लगे। विमाता पास ही बैठी थी। उन्होंने यह नई बात देखी तो उसकी आंखों से भी आंसू बहने लगे। बड़े प्यार से उसके आंसू पोंछ कर पूछा, ‘क्या हुआ सुरेन्द्र बेटा?’
सुरेन्द्र ने कुछ बताया नहीं।
उसने एक पोस्ट कार्ड मंगाया और उक पर टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा ‘बड़ी दीदी, मुझे बुखार चढ़ा है, बहुत कष्ट हो रहा है।’
लेकिन वह पत्र लेटर बोक्स तक नहीं पहुंचा। पहले उसके पलंग पर से जमीन पर गिरा पड़ा। उसके बाद जो नौकर उस कमरे में झाड़ देने आया, उसने अनार के छिलको, बिस्कुट टुकडों और अंगूर के डंठलों के साथ वह पत्र भी बुहार कर फेंक दिया। सुरेन्द्र ह्दय की आकांक्षा धूल में मिलकर, हवा में उड़कर, ओस में भीगकर, ओर अंत में धूप खाकर एक बबूल के पेड़ के नीचे पड़ी रह गई।
पहले तो वह अपने पत्र के उत्तर की मूर्तिमती आशा की टकटकी लगाए रहा, उसके बाद हस्ताक्षरों की, लेकिन बहुत दिन बीत गए, उत्तर नहीं आया।
इसके बाद उसके जीवन में एक नई घटना हुई। यद्यपि नई थी लेकिन बिल्कुल स्वभाविक थी। सुरेन्द्र के पिता राय महाशय बहुत पहले से इसे जानते थे और इसकी आशा कर रहे थे।
सुरेन्द्र के नाना पवना जिले के बीच के दजें के जमींदार थे। बीस-पच्चीस गावों में उनकी जमींदारी थी। लगभग पचास हजार रुपये सालाना कि आमदनी थी। उनके पास कोई लड़का-बच्चा नहीं था, इसलिए खर्च बहुत कम था। उस पर वह एक प्रसिद्ध कंजूस थे। यह इसलिए वह अपने लम्बे जीवन में ढेर सारा धन इकट्ठी कर सके थे। यहा राय महाशय इस बात कि निश्चित रूप से जानते थे कि उसकी मृत्यु के बाद उनकी सारी धन-सम्पति उनके एकमात्र दोहित्र सुरेन्द्रनाथ को ही मिलेगी। ऐसा ही हुआ भी। राय महाशय को समाचार मिला कि उनके ससुर मृत्यु शैया पर पड़ हैं। वह लड़के के लेकर तत्काल पवना चले गए, लेकिन उनके पहुंचने से पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया था।
बड़ी धूमधाम से उनका श्राद्ध हुआ। व्यवस्थित जमींदारी और अधिक व्यवस्थित हो गई। अनुभवी, बुद्धिमान, पुराने वकील राय महाशय की कठोर व्यवस्था में प्रजा और भी अधिक परेशान हो उठी। अब सुरेन्द्र का विवाह होना भी आवश्यक हो गया। विवाह कराने बाले नाइयों के आने-जाने से गांव भर में एक तूफान-सा आ गया। पचास कोस के बीच जिस धर में भी सुन्दर कन्या थी, उस घर में नाइयों के दल बार-बार अपनी चरणधूल पहुंचाकर कन्या के माता-पिता को सम्मानित और आशान्वित करने लगे।
इसी प्रकार छह महीने बीत गए।
अंत में विमाता आई और उसके रिश्ते-नाते के जितने भी लोग थे, सभी आ गए। बन्धु-बान्धवों से घर भर गया।
इसके बाद एक दिन सवेरे तुरही बजाकर ढोल-ढक्के की भीषण आवाजों और करतालों की खनखनाहट से सारे गांव को गुंजायमान कर सुरेन्द्रनाथ अपना विवाह कर लाया।
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