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पदक

पदक

विभा शाम को अक्सर पास के पार्क चली जाया करती है .उसे छोटे बच्चों से बेहद लगाव है, सोचती है कितने प्यारे कितने मासूम, दौड़ते, भागते, मस्त हो कर दीन -दुनिया के ग़मों से बेखबर, बस चिंता है तो इस बात की सबसे पहले झूला किसको मिलेगा, कौन दौड़ कर अपनी माँ के हाथ लगा कर उसे छू कर फर्स्ट आएगा या आज कुल्फी खानी है या पॉप-कॉर्न...!

जब से बच्चे होस्टल में रहने लगे है और पति भी बिजनस के सिलसिले में बाहर जाते ही रहते है तो विभा के मन बहलाव की सबसे अच्छी जगह यह पार्क ही है ...अक्सर वह, एक लड़की जिसकी उम्र कोई बीस -बाइस वर्ष होगी, को देखा करती के वो बच्चो से कैसे घुल मिल रही है या कभी कुछ बता रही है. एक दिन वो उसे ऐसे ही गौर से देख रही थी उसने भी विभा की तरफ देखा और मुस्कुरा दी, उत्तर में विभा ने भी प्यारी मुस्कान से जवाब दिया ...

कुछ देर बाद वह उसके पास आ बैठी और पूछा"मैम आपको मैं रोज़ देखती हूँ, आपका घर पास में ही है क्या ?"

विभा ने हाँ में सर हिला दिया फिर उसके बारे में पूछा तो मालूम हुआ, उसका नाम रेवती है और वो एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती है फिर ट्यूशन भी पढ़ाती है .शाम को कुछ देर दिमाग को राहत देने के लिए पार्क में आ जाती है ...

जब स्कूल का नाम पता चला तो विभा ने पूछा कि क्या वो सनाया को जानती है ...सनाया, विभा के देवर की बेटी थी ...जैसे ही रेवती को मालूम हुआ के वो सनाया की बड़ी माँ है तो एक दम खड़ी हो कर विभा का हाथ पकड लिया और ख़ुशी से लगभग चीखती हुई सी बोली "अरे ! आप हैं उसकी बड़ी माँ !मुझे बहुत तमन्ना थी आपसे मिलने की ...!आपका क्या तरीका है पढ़ाने का, मै उसकी कायल हूँ और सनाया खुद भी कहती है उस में जो भी अच्छी आदतें हैं वो उसकी बड़ी माँ ने ही डाली हुई है !मुझे बहुत ही ज्यादा ख़ुशी हो रही है आपसे मिल कर".

विभा हंस पड़ी "अरे रेवती ! ऐसा कुछ नहीं है सनाया है ही इतनी प्यारी बच्ची, उसे हर कोई प्यार करता है "...

कुछ देर बाद बातें करने के बाद विभा अपने घर आ गयी पर आज उसे बहुत ख़ुशी महसूस हो रही थी और राहत भी, रेवती की बातें सुन कर .लग रहा था जैसे कोई पदक ही मिल गया हो ....नहीं तो अक्सर उसके जेहन में तो शक भरी आँखे और कुछ कड़वे बोल ही कानो में गूंजा करते थे ..."आपने क्या किया बच्चों के लिए ये तो हमारा बड़प्पन था, जो आपके पास हमने, हमारे बच्चों को रखा !"

विभा ने तो कभी अपने सर पर दायित्व लिया ही नहीं था कि उसने दूसरों के बच्चे अपने पास रखे थे उनको अपने बच्चे ही बताये थे ...अजीब सी मनस्थिति हो रही थी उसकी, खाना खाने का मन नहीं हुआ, उसने बहादुर से कुछ बना कर खा लेने को कहा और उसे भूख नहीं है आज कह कर बस फ्रिज में से दूध निकाल गर्म करके कप में डाल बाहर लान में ले आयी ...

लान में लगे झूले पर बैठ कर लान कि हरी भरी घास में अपने पैरों को सहलाती विभा न जाने कब छः साल पीछे पहुँच गयी, जब वो राघव, कान्हा, सनाया और वसुंधरा के पीछे भागम-भगाई खेला करती थी और उनको कभी कहानी -चुटुकुले सुनाया करती थी.....

विभा का परिवार पास के गाँव में था .राघव की पढ़ाई के लिए शहर में घर बना कर रहने लगे.छोटे कान्हा का जन्म हुआ . फिर सनाया को भी नर्सरी में दाखिला दिला दिया, सनाया जन्म से ही रक्त से सम्बन्धित एक ला-इलाज़ बीमारी से ग्रसित थी. तब हर महीने उसे खून चढाने की जरुरत होती थी .वैसे सामान्य बच्चों की तरह ही व्यवहार करती थी और पढ़ाई में भी अच्छी थी.

सभी की लाडली भी थी . शरीर में रोगों से लड़ने की ताकत कम होने की वजह से अक्सर बीमार भी हो जाया करती थी .सर्दियों में खांसी भी हुई ही रहती थी और रात को खांसी ज्यादा ही आती थी कई बार तो खांसते -खांसते उल्टी भी आ जाती थी. ऐसी ही एक रात को उसे खांसी शुरू हो गयी तो विभा जल्दी से उसे बाथरूम के वाश-बेसिन के पास ले जा कर खड़ा कर दिया की कहीं फिर से उल्टी ना आजाये कल की तरह, दिन भर काम बच्चों को संभालते -संभालते विभा थक भी जाती थी बेशक सहायता के लिए बहादुर था फिर भी तीन बच्चों की देख भाल करने से थकावट होना स्वाभाविक ही था उपर से नींद लगी ही हो तो ऐसे में जागना पड़े तो थोडा खीझ भी गयी वह ...पर बच्चे मन की बात बहुत जल्दी समझ जाते हैं और दो बूंदे आंसुओं की ढलक पड़ी सनाया की आँखों से ...विभा भी जोर से बोल पड़ी "अब रो क्यूँ रही हो "! सनाया थोड़ी सी सहमते बोली "नहीं बड़ी माँ !रो नहीं रही, ऐसे ही आँखों से पानी आ रहा है !"और विभा की ममता पिघल गयी, हाय इस मासूम सी बच्ची पर जोर से क्यूँ बोल पड़ी और गोद में उठा कर सीने से लगा लिया और उसके बिस्तर पर लेटा कर माथे को सहलाती रही जब तक की वह सो न गयी .

कुछ दिन बाद उसकी ननद गौरी का आना हुआ तो पता लगा, उनको, अपने बेटे के साथ उसकी कोचिंग के लिए दूसरे शहर जाना होगा और वो भी दो साल के लिए, वो अपनी बेटी वसुंधरा के लिए चिंतित थी की दो साल के लिए उसकी पढाई खराब होगी ....तो सरल ह्रदय विभा बोल पड़ी कोई बात नहीं दीदी मेरे पास छोड़ दो मैं संभाल लूंगी...थोड़ी सी न-नुकुर के बाद बेटी को छोड़ना ही पड़ा क्यूँ की कोई चारा भी नहीं था. फिर विभा की सास को भी साथ में आकर रहना पड़ा, क्यूँ कि कोई सहायता के लिए भी तो चाहिए उसे, बच्चों कि जिम्मेवारी कम तो नहीं होती आखिर !

अब चार बच्चों के साथ विभा का दिन शुरू होता राघव, वसुंधरा और सनाया को स्कूल भेजती और नन्हे कान्हा को संभालती. वो अभी छोटा था स्कूल के लिए .

राघव जहाँ बहुत जहीन, शांत लेकिन बेहद बातूनी था वहीं कान्हा तो बस कान्हा ही था नटखट, दूसरों को पीटने वाला यहाँ तक बाहर सड़क पर भी डंडा ले कर खड़ा हो जाता और आने जाने वाले बच्चों या बड़ों को पीट डालता और दिन में ना जाने कितनी बार शिकायतों की डोर- बेल उसको सुननी पड़ती ...अब बाहर का दरवाज़ा भी तो कितनी देर बंद किया जा सकता था ....वसुंधरा भी शरारती थी और पढने का कोई ज्यादा शौक नहीं था पर पढ़ लेती थी और चीखने का शौक था पर विभा की रौबीली आँखों से डरती थी ...सनाया तो हमेशा से बेहद शांत, बिन कहे ही समझ रखने वाली और पढाई में भी ठीक थी ....

विभा को लगता की बच्चियां कुछ उदास सी है और हो भी क्यूँ ना हो उदास आखिर जो बात माँ समझ सकती है वो और कौन समझ सकता था। यह देख उसने दोनों बच्चियों को अपने पास बैठा कर बोली "अच्छा सना और वसु मुझे तुम दोनों बताओ, तुम्हारे सर में कितने रंगों के बल्ब लगे हुए हैं "!और वे दोनों हैरान हो कर सर पर हाथ रख दिया और दोनों एक साथ हंस कर और लगभग उछलते हुए से बोल पड़ी "क्या !"

विभा बोली "हां बल्ब !अब जब तुम्हे कुछ चीज़ चाहिएगी तो हरा बल्ब जल जायेगा, और कोई बात पसंद नहीं है तो लाल या फिर मन में कोई बात है तो नीला बल्ब जल जायेगा और मुझे पता चल जायेगा ...!"

यह सुन दोनों हंस पड़ी "अरे, ऐसा भी कभी होता है क्या".विभा भी उनको दुलारते हुए बोली "तो मुझे कैसे पता चलेगा की तुम्हारे मन में क्या है, आज से जो भी बात है वो सब मुझे बताओगी और स्कूल की भी अपनी सहेलियों की भी और तुम दोनों को क्या चाहिए यह भी ".कह कर दोनों को अपने करीब करके गले से लगा लिया उन दोनों के चेहरे पर भी एक प्यारी सी मुस्कान के साथ ख़ुशी थी।

स्कूल से आने पर राघव तो अपने कपड़े बदल कर अखबार ले कर बैठ जाता। वसुंधरा अगले दिन के लिए बैग तैयार करने लग जाती पर सनाया सबसे पहले अपने कपड़े बदल कर हाथ मुँह धो कर खाना लेने उसके पास पहुँच जाती जहाँ उसकी दादी पहले से ही मौजूद होती की कही विभा अपने और पराये बच्चों में भेद तो नहीं कर रही ..लेकिन माँ को नहीं पता था कि बच्चियों और विभा ने अपने तार आपस में जोड़े हुए हैं अब कोई भेद भाव भी नहीं था किसी के मन में। आस पास के लोग जो उनको नहीं जानते थे वे कहते कि आज कल के ज़माने में चार बच्चों को जन्म कौन देता है और वो हंस पड़ती के सब भगवान् की मर्ज़ी है ...!"

अब चार बच्चों को देखना, उनको समझना भी मुश्किल होता है। घर में व्यवस्था कायम रखने के लिए कुछ नियम बना दिए गए सब बच्चों के लिए और पुरस्कार भी रखा गया। जो बच्चा अपना काम खुद करेगा अपना सामान कपडे और किताबें सहेज कर रखेगा, अपनी अलमारी भी साफ रखेगा और साथ में कोई भी झगड़ा या शोर शराबा नहीं करेगा उसके पॉइंट लिखे जायेंगे और महीने के आखिर में और मन पसंद खिलौना दिया जायेगा। तीनो बड़े बच्चे तो बहुत खुश भी थे और काम भी करते थे पर कान्हा नहीं बदला वो बिखेरा कर के बहादुर को आवाज़ लगाता, "बहादुर कचरा उठा ले !" अब बहादुर की क्या मजाल छोटे साहब का काम न करे ... तीनो बच्चों को उनकी मन पसंद के खिलौने दिला दिए जाते और कान्हा जिद कर के ले लेता ...

कान्हा जब सना या वासु को पीट देता तो विभा धमकाते हुए बोलती "आगे से तुम्हे कोई भी राखी नहीं बांधेगी, तुम्हारी वाली भी राघव के बाँध देगी" तो वो भी गाल फुला कर बोलता "मत बांधना! मैं खुद ही बाँध लूँगा...!"

कभी कहीं जाना होता तो मुश्किल होती क्यूंकि तीनो बच्चे ही कार में खिड़की के पास वाली जगह लेना चाहते थे। एक को तो बीच में बैठना होता ही था और ना बैठने की वजह भी बहुत बड़ी थी। जो भी खिड़की के पास बैठा, वो चिल्ला कार बोलता" मैं तो भई रामचंद्र हूँ"! दूसरी खिड़की वाला भी बोल पड़ता "हाँ भई ! मैं भी रामचंद्र हूँ "! और बीच वाला जोर से रो कर बोलता "नहीं ! मैं बूढ़ा बन्दर नहीं हूँ !."

विभा और उसके पति अतुल दोनों हंस पड़ते पर वो मुड़ कर कुछ घूर कर देखती तो सभी चुप हो जाते पर एक दबी हुई हंसी उसके कानों में पड़ती तो वो भी मुस्कान को रोक नहीं पाती......:)

आखिर बच्चे तो बच्चे है यहाँ भी भेद भाव नहीं किया जा सकता था तो अगली बार कहीं जाने लगे तो विभा ने तीनो बच्चों को बैठा कर कहा "तीन कागज़ के टुकड़े लाओ, उन पर अपने -अपने नाम लिखो और समेट कर डाल दो और एक उठा लो जिसका भी नाम आता है वही बीच वाली सीट पर बैठेगा फिर ऐसे ही आने के लिए भी एक नाम चुन लो जिसका नाम आएगा वही बीच वाली सीट पर बैठ कर आएगा, ये तरीका बच्चों को बहुत भाया।

जनवरी शुरू होते ही विभा सभी बच्चों को बता देती कि अब इम्तिहान में थोड़ा ही समय है तो सुबह पांच बजे उठना होगा। सभी बच्चे हाँ भर देते .........और वह पौने पांच ही उठ जाती जैसे ही बेड से उठती तो अतुल लगभग उसे खींचते हुए से बोलते "अरे सो जाओ और बच्चों को भी सोने दो, हो जायेंगे पास क्यूँ पीछे पड़ी हो नन्ही सी जानों के ! "

वो लगभग डांटते हुए से कहती "नहीं जी !शरीर का क्या है जैसा ढाल लो ढल जायेगा, यही दिन है पढ़ाई के ... "और वो चल देती उनको उठाने के लिए सभी को प्यार से सर पर हाथ रख कर पुकारती जाती और वो उठते जाते .

राघव चूँकि बड़ी क्लास में था उस पर ज्यादा मेहनत करनी पड़ती और सना -वसु पर कम, ये देख माँ को लगता के तो अपने बेटे को ही पढ़ा रही है उनको नहीं, जोर से बोल पड़ती "अरे ! सना -वसु तुम भी तो पढो देखो राघव पढ़ रहा है !"

आखिर विभा को बोलना ही पड़ता माँ ! मुझे पता है किसको कितना पढाना है ...

जब इम्तिहान होते तो लगता विभा को, उसकी खोपड़ी ही पिलपिली हो गयी। वह हंसती थी अगर उसके सर पर ऊँगली रखी जाये तो वह भी वहां धंस जाएगी ...बच्चों को अच्छे से पेपर की तैयारी करवाती और कहती अगर उनको कुछ याद ना आये तो गायत्री मन्त्र का जप कर लेना याद आ जायेगा !

ऐसे ही एक दिन जब वसु पेपर दे कर आयी तो उदास हो कर बोली "मामी जी, आज मैंने बहुत गायत्री मन्त्र का जाप किया पर उत्तर तो याद ही नहीं आया .. ! विभा हँसते हुए बोली "बेटा ये प्रश्नोत्तर तो तुमने तैयार ही नहीं किया था तो मन्त्र क्या करेगा !"

उन दिनों कान्हा भी स्कूल जाने लगा था पर वो पढ़ाई के नाम पर बहुत बदमाशी करता था .जब इम्तिहान होते तो विभा उसे कहती कि तेरे तो शिव जी रक्षा करेंगे मेरे पास भी कोई भी हल नहीं है। विभा को उस दिन बहुत हंसी आयी जब वो स्कूल से आकर बोला "माँ ! ये शिवजी कोई भी काम के नहीं है वो मेरे पास तो बैठे थे मुझे नीला -नीला सा दिखाई दे रहा था, मैंने उनसे सवाल का जवाब पूछा तो बोले बेटा घर पर पढ़ कर आया करो मुझे क्या पता"!

फिर रिजल्ट आता तो राघव के नम्बर सबसे ज्यादा आते और विभा को फिर से सुनना पड़ता इसका तो बेटा है ज्यादा पढाया है पर उसको पता था कि उसने सभी को एक जैसा ही समझा है। मन अन्दर से कट जाता जब वसु की माँ यानी उसकी ननद रिपोर्ट कार्ड ले कर उससे सवाल जवाब करने लग जाती कि इसमें नंबर कम क्यूँ है या ऐसे क्यूँ है ....पर अतुल तो उसे समझते ही थे वो बाद में उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर समझा देते के उसने कोई भी किसी के साथ गलत नहीं किया तो मन को छोटा मत करो। हाँ सनाया के माँ -पिता कभी शिकायत ले कर नहीं आये। लेकिन सनाया की माँ को धीरे -धीरे लगने लगा कि उनकी बेटी बीमार रहती है तो उसको, उनके साथ ही रहना चाहिये और गलत भी नहीं था उसका यह सोचना !

वसुंधरा दो साल रह कर अपने घर चली गयी। सनाया भी अपने माँ -पापा के साथ अपने नए घर में चली गयी अब उनके बच्चे थे एक दिन तो जाना था ही ! विभा भी क्या कर सकती थी पर जब छुट्टी के समय बच्चे आते तो विभा का मन और आँखे दोनों भर आते क्यूँ कि वो उस समय दोनों बच्चियों को भी याद करती थी।

अब उसके अपने बच्चे भी बाहर चले गए और घर में रह गए दो जन सिर्फ विभा और अतुल। अतुल को भी टूर पर जाना पड़ता है कई बार, तो विभा घर में, कमरों में गूंजती बच्चों की हंसी, शरारती खिखिलाहट ढूंढ़ ती रहती है और ...

सहसा उसे लगा कोई उसे पुकार रहा है तो अपनी सोच से बाहर आयी, देखा सामने बहादुर खड़ा है बोल रहा है "बीबी जी, मैं जाऊं क्या काम तो सब हो गया ...! विभा ने उसे जाने के लिए कहा और उठ कर दरवाज़ा बंद कर के अन्दर आ गयी। आज उसका मन कुछ हल्का सा था। जैसे कोई पदक ही मिल गया हो।

उपासना सियाग

upasnasiag@gmail.com

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