मैं मग़रिब की नमाज़ पढ़ के बैठा ही था कि शर्मा जी का फोन आ गया। शर्मा जी हमारे साथी अध्यापक हैं सर्वोदय बाल विद्यालय में। कहने लगे क्या कर रहे हो। मैंने कहा कुछ नहीं बस रूम पे पड़ा हूँ। शर्मा जी बोले मैं तो रावण दहन देखने जा रहा हूँ, मौजपुर-बाबरपुर में ही तो है रावण दहन, आपके यहाँ से बिल्कुल पास ही है, आप भी आ जाओ। मैंने क्षण भर को सोचा विद्यालय का काम तो बहुत पेंडिंग में पड़ा है लेकिन अगले ही क्षण मन में रावण दहन देखने की उत्सुकता जाग गयी। मैंने कहा ठीक है शर्मा जी आप आईये मेट्रो स्टेशन के पास फिर मुझे फ़ोन कॉल करिए तब तक मैं पेट की क्षुधा शांत कर लेता हूँ। ठीक आधे घण्टे बाद शर्मा जी पहुंच गए बाबरपुर-मौजपुर मेट्रो स्टेशन। मैं भी पहुँच गया पांच मिनट के वक्फे में, क्योंकि मेरे कमरे से पैदल मात्र पांच मिनट की दूरी पर है मेट्रो स्टेशन जहां पर रावण दहन होना था। खैर पहुंचे तो देखा सैकड़ों की तादाद में भीड़ इकट्ठा है लंकेश्वर दहन देखने के लिए। पगड़ीधारी, टोपीधारी, तिलकधारी, समेत लगभग सभी मानुष वहां उपस्थिति दर्ज कराए हुए थे। रोड खचाखच जाम। भीड़ इतनी की हवा भी मुश्किल से गुज़र सके। सड़क के किनारे बोरी बिछाए कुछ हस्तशिल्प कलाकार रंग-बिरंगी गदा और बच्चों के खेलने के समान भी बेच रहे थे। आइस क्रीम और चाट के ठेले भी लगे हुए थे। बच्चे, बूढ़े, युवक, युवतियां आदि सभी ब्रह्मांड के महाज्ञानी पुरुष रावण, मेघनाथ, तथा कुम्भकर्ण के पुतले के धू-धू कर जलने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
खैर अभी हम और शर्मा जी एक सुरक्षित जगह का जुगाड़ ही कर रहे थे जहां से बाधारहित इस समारोह का आनंद लिया जा सके और बाल भी बांका न हो। साथ ही बेतहाशा भीड़ में जेब और मोबाइल की सलामती की दुआ भी मन ही मन मांग रहे थे। तभी अचानक धूम-धड़ाक की आवाज़ आनी शुरू हो गयी और तीन पुतलों में से एक, शायद वह कुम्भकर्ण का पुतला था, सुलगने लगा। अभी पूरी तरह जल भी नहीं पाया था कि दूसरे ने आग उगलना स्टार्ट कर दिया। उसे देख कर रावण के पुतले में भी जोश आया और उसने अपने मुंह से आग की लपटें उगलना शुरू कर दी। भीड़ अपने हाथों में लिए मोबाइल और कैमरे से इस दृश्य को संजोने में जुट गई। हर तरफ कैमरे और मोबाइल खचाखच फोटो खींच रहे थे। मैंने और शर्मा जी ने पहले तो धधकते आग के शोलों के बीच उन पुतलों की फ़ोटो ली। फिर सेल्फी विद शर्मा जी एंड लंकेश्वर महाराज। बमुश्किल पंद्रह मिनट तक चले इस कार्यक्रम में सभी लोग मुस्कुराते हुए दिख रहे थे एक विजयी मुस्कान के साथ। लेकिन एक मुस्कान जो मुझे दिखी वह काफी रहस्यमयी थी। और वह मुस्कान थी लंकेश्वर महाराज की। पता नहीं क्यों स्वयँ जलकर भी वह हम लोगों का ही उपहास उड़ा रहा था मानो कह रहा हो मुझे जलाने वालों में एक भी अगर राम हो तो मुझे बताओ। मुझे तो जला दिया लेकिन अपने अंदर के रावण को कब जलाओगे? हर साल मेरे पुतले जलाने से तुम कभी भी बुराई पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते जब तक कि तुम खुद अपनी गिरहबान में झांक कर अपने अंदर के रावण को न ढूंढ लो। वह आश्चर्य चकित था कि उसे जलाने वालो में कोई भी राम न था। रावण को रावण ही जला रहे थे। उसे दुःख इसी बात का था।
भीड़ अब छंटने लगी थी। लोग धीरे-धीरे अपने घरों की ओर प्रस्थान कर रहे थे। प्रस्थान कर रहे थे अगले साल फिर से रावण दहन देखने की आशा लेकर। मैं और शर्मा जी भी अपने-अपने ठीहे की ओर बढ़ चले।