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एकजुटता

एकजुटता

इस विघटनकारी समय में

सामाजिक एकजुटता

के नए आयाम

परिभाषित करती कहानी

एकजुटता

उस दिन मैं जयपुर से अपने शहर लौटने के लिए एयरपोर्ट की तरफ जा रहा था कि रास्ते में मेरे पिताजी के मित्र दिख गए, कॉमरेड शशि शेखर. जैसा उन्हें बचपन में देखा था, ठीक वैसी ही वेश-भूषा. सफेद धोती-कुर्ता, धूल-धूसरित पैरों में एक जोड़ी पुरानी चप्पल और कंधे से लटका एक झोला. काफी वर्षों बाद मैं उन्हें देख रहा था. उनके बाल पूरी तरह सफेद हो चुके थे. वे काफी बूढ़े और थके हुए लग रहे थे.

मैंने गाड़ी रोक कर उनका अभिवादन किया तो वे एकदम से अचकचा गए. पहचानने में थोड़ा वक्त लगा. लेकिन जब उन्होंने पहचाना तो स्नेह से मुझे गले लगा लिया. न जाने क्यों मेरी आँखें नम हो गईं. शायद पिता जी याद आ गए थे. उनके गुज़रे काफी वक्त हुआ. मुझे याद है कि पिताजी की पार्टी कार्यक्रमों में व्यस्तता और घर की दयनीय माली हालत के कारण जब मेरी उनसे नोक-झोंक हुआ करती थी, तो ये मुझे अकेले में समझाते थे कि पिता के साथ मुझे कम से कम सम्मान से तो पेश आना ही चाहिए. वैचारिक भिन्नता अपनी जगह है और पिता का स्थान अपनी जगह.

उन दिनों मैंने अपने पिता के विरुद्ध एक बगावत छेड़ रखी थी. मैं गरीबी और अभाव में घिसट-घिसट कर जीना नहीं चाहता था. मैंने व्यापार करके बहुत सारा धन कमाने का सपना देख रखा था. अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध फुटपाथ पर कपड़े बेचने से शुरुआत करते हुए मैंने पिछले बीस वर्षों में कपड़ों के होल-सेल का एक विशाल व्यापार खड़ा कर लिया था. कई शहरों के मॉल में मेरे फ्रैंचाईज़ी ब्रांड के शो रूम थे. मैंने करोंड़ों की संपति इकट्ठी कर ली थी. लेकिन मेरे इस मुकाम पर पहुँचने से पहले ही पिता जी लंबी बीमारी के बाद गुज़र गए थे. जब तक वे जीते थे, उनके साथ मैं हमेशा ही लड़ता रहा. इसीलिए शशि शेखर चाचा को देखते ही मेरी संवेदनाएँ जाग गई थीं और मैंने उन्हें अपनी कार में बिठा कर ही दम लिया. शायद इस भावना के पीछे एक दबी हुई इच्छा भी थी कि मैं उन्हें बता सकूँ कि मैंने ज़िंदगी में कितनी तरक्की कर ली है, जो पिता जी नहीं देख पाए थे.

पता चला कि जयपुर में आयोजित अग्रगामी लेखक संघ के राष्ट्रीय सम्मेलन में शिरकत करके आज लौटने के लिए वे ट्रेन पकड़ने जा रहे थे. मैंने जिद करके उनका अपने साथ हवाई जहाज का टिकट कटाया और सुरक्षा जाँच की प्रक्रिया पूरी करके हम लाऊंज में आ बैठे.

उन्होंने मेरे जयपुर आने का प्रयोजन पूछा तो मैंने बताया कि इन दिनों व्यापार थोड़ा मंदा होने के कारण मैं जयपुर की शो रूम को बंद करने आया था.

“दिलिप बेटे, यहाँ तुम्हारे कितने आदमी काम करते हैं?”

“एक मैनेजर और तेरह अन्य स्टाफ,” मैंने बताया.

“अब उन चौदह लोगों का क्या होगा?”

“होना क्या है? वे कहीं और काम ढूँढ लेंगे. ऐसा ही होता है. जब मैं अपना व्यापार ही यहाँ से समेट रहा हूँ तो फिर अब मेरा उनसे क्या काम?” मैंने हँसते हुए जवाब दिया.

बरसों से सुन रहा हूँ इन कॉमरेडों का ये मज़दूर कल्याण का राग. दुनिया कहाँ की कहाँ पहुँच गई, लेकिन इनका राग नहीं बदला. दुनिया के मज़दूरों की एकता का आह्वान कभी इनमें एकजुटता नहीं ला पाई. मैं जानता था कि मेरे पिता की तरह वे मुझे अपने कर्मचारियों को रातों-रात निकाल बाहर करने के लिए आड़े हाथों लेंगे.

“बेटे, तुमने अपनी कामयाबी की परिभाषा के अनुरूप काफी ऊँचाईयाँ हाँसिल कर ली. लेकिन तुमलोग भूल जाते हो कि तुम्हारी सफलता के साथ कई लोगों की ज़िंदगियाँ जुड़ी होती हैं.”

इतना कह कर वे खामोश हो गए. अपने पिता को याद किए भी मुझे काफी वक्त हो गया था. मैं चाहता था कि वे मुझे और भी कुछ नसीहतें दें और आज पिता की हो रही कमी को मुझे पूरी तरह महसूस करने का अवसर दें. लेकिन इसके बाद वे खामोश हो गए. मेरे पिता की कही बात मेरे जेहन में तैरने लगी जब एक दिन उन्होंने का था कि वे तभी तक मुझे नसीहत दे सकते हैं, जबतक उन्हें लगता है कि मैं उनकी बात समझ पाऊँगा...... तो क्या अब मुझे समझाने का कोई फायदा नहीं रहा? क्या मैं अपने रास्ते इतना आगे निकल गया हूँ कि चाचा जी को अब मुझसे कोई उम्मीद नहीं रही?

बोर्डिंग की उद्-घोषणा हो चुकी थी. मैंने उठते हुए उनसे साथ चलने को कहा. पहली बार हवाई यात्रा के कारण उन्हें हर कदम पर मेरे मार्गदर्शन और सहायता की ज़रूरत पड़ रही थी. मैंने उनके लिए खिड़की के पास वाली सीट ली थी और मैं चाहता था कि अपनी पहली उड़ान के अनुभवों को वे ज्यादा से ज्यादा रोमांच के साथ अपनी यादों में बसा सकें. लेकिन अपनी सीट पर बैठने के बाद वे अपने ख्यालों में खो गए. मैं बार-बार उन्हें बाहर के दृश्य दिखाने की कोशिश कर रहा था. लेकिन बिना किसी कौतुहल के वे उदास भाव से देखते और फिर अपने ख्यालों में खो जाते.

“किस सोच में डूबे हैं चाचा जी? क्या मुझसे नाराज़ है?” मैंने उनकी चुप्पी तोड़नी चाही,

उन्होंने एक लंबी सांस छोड़ी और नहीं में सिर हिलाकर मुझे आश्वस्त किया. मेरे बार-बार के आग्रह पर वे बोले, “सम्मेलन में देश की वर्तमान दयनीय और चिंताजनक स्थिति पर वृहद चर्चा हुई. वही सब कुछ सोच रहा हूँ. सोच रहा हूँ कि आखिर क्यों तुमको अपना व्यापार समेटना पड़ रहा है?”

“व्यापार में ऊँच-नीच तो होती ही रहती है चाच जी. परिस्थितियाँ जब अनुकूल हों तो बढ़-चढ़ कर कमाना और जब प्रतिकूल परिस्थितियाँ हों तो सबकुछ समेट कर शांति से अच्छे समय का इंतज़ार करना. व्यापारी बुद्धी यही कहती है. इस शो रूम से मुझे हर महीने लाखों का घाटा हो रहा है. जब फायदा नहीं हो रहा हो तो घाटा कम करना भी व्यापार का ही हिस्सा है.”

उन्होंने बस इतना ही कहा, “तुम तो काफी चतुर हो गए हो.”

जब रन-वे पर हवाई जहाज ने गति पकड़ी तो उन्होंने अपनी आँखें बंद कर लीं. जहाज के हवा में उड़ते ही उनके चेहरे पर घबराहट साफ देखी जा सकती थी. मैंने नीचे दूर होती धरती उन्हें दिखाना चाहा. लेकिन एक बार देखने के बाद उन्होंने अपनी नज़रें हटा लीं. वे काफी थके हुए दिखाई दे रहे थे. जहाज जब अपनी ऊँचाई हासिल करके स्थिर उड़ान पर कायम हुआ तो मैंने उनकी कुर्सी की पेटी खोली और सीट को पीछे धकेल कर जितना हो सकता था झुका दिया, ताकि वे आराम से सो सकें. उन्होंने आँखें बंद कर लीं.

जब विमान परिचारिकाएँ नाश्ता परोसने आईं तो मैंने मेनू में से चित्र दिखाकर उनसे पूछा कि क्या खाना पसंद करेंगे. उन्होंने चित्रों की ओर देखा और फिर मुस्कुरा कर कहा, “अभी भूख नहीं है.”

वे फिर से आँखें बंद करके सोने की चेष्टा करने लगे. मुझे अंदर ही अंदर बेचैनी हो रही थी कि जीवन में पहली बार और शायद अंतिम बार मिली हवाई यात्रा के अवसर से वे जरा भी प्रभावित नज़र नहीं आ रहे थे. मुझे इन सारे कॉमरेडों के प्रति कोफ्त होने लगी. गरीबी, अभाव, जुल्म और नाइन्साफी के जुमलों ने इनकी ज़िंदगियों को नर्क बना रखा है और इस नर्क से बाहर आने का रास्ता अनदेखा करके ये अपनी ही दुनिया में खोये रहते हैं. मैं सोचने लगा कि जिस दिन दुनिया से गरीबी मिट जाएगी, इन लोगों का क्या होगा? तब ये किस बात की लड़ाई लड़ेंगे?

अचानक खराब मौसम के बीच में से गुज़रते हुए जहाज डगमगाने लगा. वायूयान चालक (कैप्टेन) की आवाज़ सुनाई दी, जो कुर्सी की पेटी बाँधने का निर्देश दे रहा था. मैंने चाचा जी की कुर्सी की पेटी बाँध दी और उनसे कहा कि घबराएँ नहीं. अभी सबकुछ सामान्य हो जाएगा. थोड़ी देर तक डगमगाने के बाद जहाज स्थिर हो गया. मैंने चाचा जी की ओर देखा. उनके चेहरे पर पीड़ा झलक रही थी.

मैंने पूछा, “क्या हुआ चाचा जी? तबियत तो ठीक है न?”

“और कितनी देर में हमलोग पहुँच जाएँगे?”

“अभी पैंतालिस मिनट की उड़ान बाकी है.”

“पैंतालिस मिनट?” उन्होंने ऐसे कहा जैसे यह काफी लंबा समय हो.

“बस पैंतालिस मिनट में ही हमलोग अपने शहर में होंगे. आप आँखें बंद करके सो जाईये चाचा जी.”

“दरअसल मुझे पेशाब लगा है.”

मैंने हँसते हुए बताया कि हवाई जहाज में पेशाबघर की सुविधा होती है. उन्हें परेशान होने की ज़रूरत नहीं है. कुर्सी की पेटी बाँधे रखने का संकेत हट चुका था. मैंने आगे पीछे नज़र दौड़ाई. दोनों पेशाब घरों के ऊपर लाल रंग का संकेत था. शायद कोई अंदर था. मैंने सोचा वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते अंदर वाला व्यक्ति फारिग हो जाएगा. उनकी कुर्सी की पेटी खोलकर मैंने उन्हें पैसेज में आने के लिए कहा और खुद जाकर पैसेज में खड़ा हो गया. चाचा जी अभी किनारे वाले यात्री को लांघ कर पैसेज में आए ही थे कि अचानक जहाज फिर से डगमगाने लगा. जहाज के कैप्टेन का वापस अपनी-अपनी सीटों पर बैठने का निर्देश जारी होने लगा. एक विमान परिचारिका दौड़ी आई और हमसे बैठ जाने का आग्रह करने लगी.

मैंने किनारे बैठे यात्री को खिड़की वाली सीट पर बैठने का आग्रह किया, जिसे उसने खुशी-खुशी मान लिया. मैंने चाचा जी को किनारे वाली कुर्सी पर बिठाया और वापस अपनी बीच वाली कुर्सी पर बैठ गया.

मैंने गौर किया कि कुर्सी की पेटी बाँधे रखने के संकेत दिखने लगे थे, लेकिन शौचालय के ऊपर लगा संकेत लाल से हरा हो गया था. मेरे पास से तेजी से गुज़रती एक विमान परिचारिका को रोक कर मैंने जानना चाहा, “माफ कीजिएगा, लैवेटरी के ऊपर का संकेत हरा हो चुका है. क्या हम इसका इस्तेमाल कर सकते हैँ?”

“ओह, सॉरी सर. लगता है कैप्टेन से कोई भूल हो गई है. मैं अभी देखती हूँ,” कहकर वह लगभग दौड़ पड़ी.

थोड़ी देर बाद जहाज स्थिर हो गया. मैं इंतज़ार करने लगा कि कब कुर्सी की पेटी बाँधे रखने के संकेत हटेंगे और मैं चाचा जी को पेशाबघर तक ले जाऊँगा. अंततः संकेत हट गए. लेकिन आश्चर्य यह कि शौचालय के ऊपर का संकेत अब लाल हो चुका था.

“ये कैसा मजाक है? मैं तबसे देख रहा हूँ कि शौचालय के संकेत जब हरे होने चाहिए तो लाल हो जाते हैं और जब लाल होने चाहिए तो हरे हो जाते है. ऐसे में कोई शौचालय का उपयोग कैसे कर पाएगा?” मैंने पास से गुज़रती एक अन्य परिचारिका को रोककर पूछा.

मेरे आस-पास बैठे यात्री मेरी हाँ में हाँ मिलाने लगे. शायद कई लोग इसी उधेड़-बून में शौचालय नहीं जा पाए थे.

सारी बातें सुनकर परिचारिका ने खुद जाकर कैप्टेन से बात करने का आश्वासन दिया और तबतक हमें अपनी सीट पर ही बैठे रहने का आग्रह किया. पाँच मिनट बाद भी जब वह नहीं आई और न ही संकेत हरा हुआ तो मुझे गुस्सा आने लगा. मैंने परिचारिका को सहायता के लिए बुलाए जाने का संकेत बटन दबाया. कुछ देर बाद जब वह पहली वाली परिचारिका आई तो मैंने लगभग चिल्लाते हुए पूछा, “जब जहाज हवा स्थिर उड़ान पर है, कुर्सी की पेटी बाँधे रखने का संकेत हटा दिया गया है तो फिर यह लैवेटरी का संकेत लाल क्यों है? मेरे चाचा जी को जोर की लगी है. उन्हें जाना है और आपलोग मजाक बना कर रखे हैं.”

“आप कृपया शांत रहें सर. जरूर कोई बात होगी, तभी कैप्टेन ने संकेत हरा नहीं किया है. मैं पता करती हूँ. आप बस दो मिनट बैठें.,” वह अगले छोर पर जाकर इंटरकॉम पर कॉकपिट में बैठे कैप्टेन से बात करने लगी.

मैंने चाचा जी की कुर्सी की पेटी खोलने के लिए हाथ बढ़ाया. लेकिन वे खुद ही पेटी खोलकर जल्दी से खड़े हो गए. तभी फिर जहाज जोर से डगमगाया. वे वापस अपनी कुर्सी पर आ गिरे. तुरत ही कुर्सी की पेटी बाँधे रखने का संकेत दिखने लगा. लेकिन इस बार शौचालय का संकेत लाल ही बना रहा. कैप्टेन ने फिर से सबको अपनी जगह बैठे रहने का निर्देश प्रसारित किया.

खैर, गड़बड़ी सुधार ली गई थी. अब जहाज के स्थिर होने पर शौचालय जाया जा सकता था. मैंने चाचा जी को ढांढस बँधाया कि इस बार जहाज के स्थिर होते ही हम शौचालय चलेंगे. लेकिन उनके चेहरे को देखकर मैं परेशान हो गया. लगता था उन्हें पेशाब रोके रखने में काफी परेशानी हो रही थी. मैंने घबरा कर लगभग मिन्नत करते हुए पूछा, “थोड़ी देर और रोक पाएँगे न चाचा जी?”

उन्होंने भले ही सिर हिलाकर मुझे आश्वस्त करने की कोशिश की हो लेकिन मैं समझ सकता था कि उनकी स्थिति कितनी नाजुक थी. अगर वहीं कपड़े में ही पेशाब निकल गया तो उनको और मुझे कितनी शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी. जहाज स्थिर होने का नाम ही नहीं ले रहा था. समय बीतता जा रहा था. काफी वक्त गुज़रता जा रहा था. इधर जहाज हवा के उग्र थपेड़ों के बीच डगमगा रहा था और उधर मेरे धैर्य का बाँध थरथराने लगा था.

जैसे ही जहाज की उड़ान में थोड़ी स्थिरता आई, मैं अपनी सीट से उठ गया. चाचा जी को लेकर मैं पेशाबघर की ओर बढ़ा. अभी तक कोई संकेत बदले नहीं थे. हमें देखकर इस बार दूसरी वाली परिचारिका दौड़ी आई. उसके चेहरे पर नागवारी के भाव थे. लेकिन अपने स्वर को काफी संयत करके उसने कहा, “सर थोड़ा सा सब्र कर लीजिए. अभी संकेत बदलेंगे. तब अपनी जगह से उठियेगा.”

“मामला सब्र से बाहर होता जा रहा है, तभी तो हम इतना अधीर हैं,” मैंने ऊँची आवाज़ में कहा.

“बस दो मिनट और रुक जाईये सर. सुरक्षा नियमों का पालन कीजिए. हम जल्द ही सामन्य स्थिति के संकेत देंगे. तब तक आप दोनों बैठ जाएँ और कुर्सी की पेटी बाँधे रखें.”

मेरे गुस्से का पारा सातवें आसमान पर पहुँच चुका था, “संकेतों के साथ तो आप तबसे खिलवाड़ कर रहे हैं. सही समय पर सही संकेत दिया होता तो ये नौबत ही नहीं आती.”

कुछ लोग मेरे समर्थन में बोलने लगे. इसके पहले कि वह कुछ बोलती कैप्टेन का स्वर गूँजने लगा. वह बता रहा था कि अब हम अपने गंतव्य के निकट पहुँच चुके थे और थोड़ी ही देर में हवाई जहाज उतरने वाला था. वह फिर से सबको अपने-अपने स्थान पर बैठने और कुर्सी की पेटी बाँधने का निर्देश दे रहा था.

मैंने चाचा जी की तरफ देखा. वे मेरी ही ओर कातर दृष्टी से देख रहे थे. मैं समझ गया कि अब उनसे और बर्दाश्त नहीं होगा. मैं विमान परिचारिका की बातों को अनसुना करके चाच जी को लेकर शौचालय की ओर बढ़ा. विमान पर मौजूद दूसरी परिचारिका भी दौड़ कर आ गई और वे हमारा रास्ता रोककर हमें मनाने की कोशिश करने लगीं. एक सहयात्री हमारा पक्ष लेते हुए उनसे बहस करने लगा कि जब वे उड़ते हुए विमान में चहलकदमी कर सकती हैं तो इस बुजुर्ग के साथ उपस्थित हुई इस आपात स्थिति में ये लोग शौचालय तक क्यों नहीं जा सकते?

इस बहस के बीच लोगों के समर्थन के बल पर हमलोग शौचालय तक पहुँच गए. लेकिन द्वार बंद था. मुख्य विमान परिचारिका लगातार इंटरकॉम पर कैप्टन से संपर्क बनाए हुई थी. हमारे बार-बार द्वार ढकेल कर खोलने के प्रयास और चीख-चिल्लाहट के बीच बाध्य होकर कैप्टेन को अंदर से द्वार खोलना ही पड़ा. चाचा जी के अंदर जाने के बाद मैंने देखा कि रोकते-रोकते भी पेशाब की कई बूँदें नीचे गिर पड़ी थीं. एक विमान परिचारिका का ध्यान भी उस ओर गया. उसने झट से ढेर सारा टिशु पेपर वहाँ डाल कर जगह को सुखा दिया.

कैप्टेन विमान उतारने की जगह फिर से उसे उड़ा ले गया और शहर के चक्कर लगाने लगा. मैं इधर पूरे बहस के मूड में था और बार-बार पूछ रहा था कि क्योंकर ऐसा हुआ कि हर बार उल्टे संकेत दिए गए. मेरे पक्ष में कई लोग आ गए थे और मेरा हौसला काफी बढ़ा हुआ था. मुख्य विमान परिचारिका तकनीकी गड़बड़ी को दोषी ठहरा रही थी. लेकिन एक यात्री ने उसको धमकाते हुए कहा कि वह जानता है कि संकेतों का संचालन कॉकपिट में बैठे चालक अथवा सहयोगी चालक के अख्तियार में होता है. यह गड़बड़ी उन्हीं दोनों में से किसी की थी.

मैंने गुस्से में कहा कि मैं इस घटना की शिकायत करूँगा और देखूँगा कि दोषी को फिर से कोई विमान उड़ाने की इजाज़त नहीं मिले. सारी विमान परिचारिकाएँ सिर झुकाए खामोशी से खड़ी थीं और मैं एक विजेता की भांति हवा में अपने हाथ लहरा कर उन्हें धमका रहा था.

जब चाचा जी बाहर निकले तो दो परिचारिकाएँ उनको सहारा देकर उनकी सीट पर पहुँचा आईं. मैंने भी अपनी जगह बैठते हुए ऐलान किया, “अब इस वक्त हमदर्दी दिखाकर तुमलोग बच नहीं पाओगे. शिकायत तो मैं करके ही रहूँगा.”

तभी मैंने महसूस किया कि चाचा जी कुछ कहने की कोशिश कर रहे हैं. मैंने सुना वे पूछ रहे थे, “जरा-जरा सी बात पर तुमलोग क्यों इतना उग्र हो जाते हो?”

“यह ज़रा सी बात नहीं है चाचा जी. विमानन के क्षेत्र में ऐसी बातों को बहुत गंभीरता से लिया जाता है. जिन विमान चालकों के हाथ में तमाम यात्रियों की जान की जिम्मेदारी है, उनकी छोटी से छोटी गलती भी अक्षम्य है.”

लेकिन अबकी बार चाचा जी ने जो पूछा उसे सुनकर मैं आश्चर्य से उनका चेहरा देखने लगा. वे पूछ रहे थे, “तुम्हारे शिकायत करने से क्या उनकी नौकरी चली जाएगी?”

“किसी न किसी की नौकरी तो अवश्य जाएगी चाचा जी.”

“आजकल नौकरियाँ आसानी से मिलती कहाँ है? जिसकी नौकरी जाएगी उसका परिवार कैसे चलेगा? ........ इस संकट के दौर में हमें मामूली बातों को भूलकर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, हर रूप में एक दूसरे के साथ एकजुटता दिखानी चाहिए. तभी हम इस बुरे समय का सामना कर पाएँगे. लेकिन बेटे, तुम इन बातों को नहीं समझ पाओगे,” कहकर वे चुप हो गए.

उनकी आवाज़ में छुपा हुआ दर्द मुझे भीतर तक बींध गया. मैं बिल्कुल खामोश हो गया. विमान से उतरने के बाद मैंने उनके लिए टैक्सी कर दी और उनके पैर छूकर उन्हें उनके घर के लिए रवाना कर दिया.

उनकी टैक्सी के आँखों से ओझल हो जाने के बाद भी मैं अपने विचारों में डूबा वहीं खड़ा था कि मेरा फोन बज उठा. मेरे पार्टनर ने सूचना दी कि जयपुर के शो रूम का सारा माल खरीदने लेने के लिए एक पार्टी तैयार हो गई है. दाम उसने कम लगाया है, लेकिन इससे ज्यादा किसी और से मिलने की उम्मीद कम है. देर करने पर और अधिक घाटा होने की संभावना है.

सुनते ही मैं जोर-जोर से चिल्लाने लगा, “बंद नहीं होगा हमारा शो रूम. किसी भी स्टाफ की नौकरी नहीं जाएगी. जो भी घाटा होगा हम सारे कर्मचारियों के साथ मिल बाँट कर उठा लेंगे. सभी कर्मचारियों से बात करो. उनको समझाओ कि हमें एकजुटता के साथ इस मंदी से निपटना है. आखिर कितने दिनों तक रहेगी ऐसी स्थिति? समय तो एक दिन बदलेगा ही.”

बात खत्म करके मैंने देखा कई लोग फोन पर मेरा चिल्लाना सुनकर मुझे अजीब नज़रों से देख रहे थे. लेकिन अब मुझे उनकी कोई परवाह नहीं थी. मैंने साबित कर दिया था कि मेरी समझने की काबलियत अभी भी बाकी थी और मेरे पिता या चाचा जी को मुझसे नाउम्मीद होने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं थी.

-के. के. लाल

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