Facebook aur Teen Premi yugal - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

फेसबुक और तीन प्रेमी युगल - 2

फेसबुक और तीन प्रेमी युगल

अर्पण कुमार

(2)

डॉ. इला त्रिपाठी ने आगे अपनी मनोवैज्ञानिक व्याख्या जारी रखी, मित्रो, कई बार समाज के कुछ ग़लत तत्व फेसबुक पर फेक अकाउंट खोलकर आपको प्रलोभित करते हैं, अपने आकर्षण में आपको फाँसते हैं, आपका ई-मेल माँगते हैं और फिर क्रमशः एक अश्लील दुनिया की ओर आपका प्रस्थान होने लगता है। तमाम बंदिशों में जीनेवाले हमारे समाज में यह उन्मुक्तता आपको अच्छी लगने लगती है मगर तत्जन्य उपजी विभिन्न विकृतियाँ धीरे-धीरे आपके अंदर घर करने लगती हैं और किसी ड्रग-एडिक्ट की तरह आप उसके नियमित प्रयोक्ता हो जाते हैं। इसे एक स्वस्थ मानसिकता के लिए सही नहीं माना जा सकता।

डायस पर खड़ी होकर बोल रहीं डॉ. त्रिपाठी कुछ देर के लिए चुप हुईं। डायस के नीचे रखी दराज़ में से मिनरल वाटर का बोतल खोला और कुछ देर तक अपने गले को ठंडे पानी से तर करती रहीं। उन्होंने माइक को ऑफ नहीं किया था। संवेदनशील माइक ने मंच पर वक्ता के गले से नीचे उतरते पानी की आवाज़ को ऑडिटोरियम में पीछे बैठे लोगों तक पहुँचाया। सुदर्शन व्यक्तित्व की धनी डॉ. इला की त्वचा पारदर्शी थी। पानी को उनकी सुराहीदार गर्दन से उतरता हुआ देखा जा सकता था। कुछ अधेड़ किस्म के प्रोफेसरनुमा लोगों ने ख़ासकर हिंदी एवं संस्कृत के आचार्यों ने उस दृश्य का छककर पान किया।

काफ़ी देर से खड़े रहने के कारण डॉ. इला के पाँव थकने लगे थे। अभे-अभी पानी पीने के उपरांत उन्हें कुछ ऊर्जा मिली थी। उन्हॆं उपस्थित विशाल श्रोता-समूह के समक्ष अपनी बातें ज़ोरदार ढंग और संतुलित रूप से करनी थी। सो उन्होंने इस विषय पर अपनी बातें आगे बढ़ाते हुए कहना शुरू किया, मित्रो, फेसबुक किसी नशीली दवाइयों के लेने जैसी लत के समान हो रहा है। आप तो पहले क्या क्या पोस्ट करते हैं और फिर उसके लाइक्स को बढ़ाने के लिए हरदम कुछ न कुछ करते रहते हैं। आपको पता नहीं चलता, मगर थोड़ी थोड़ी देर में आपका उस तरफ़ रुख़ करने से आपकी एकाग्रता प्रभावित होती है। आप चिड़चिड़े होते चले जाते हैं और आपको इसका आभास ही नहीं होता। एक वर्चुअल दुनिया आपके आत्मविश्वास पर नियंत्रण रखने लगती है। अगर लाइक्स अधिक तो आप ख़ुश और कम तो आप दुःखी। आप एक अनजाने लक्ष्य के पीछे भागते रहते हैं और आपकी मानसिकता पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है। मुझे क़ैसर’-उल जाफ़री की ये पंक्तियाँ याद आ रही हैं :-

'ये कैसी रहगुज़र है, रोशनी तलवों में चुभती है

किसी ने तोड़ कर बिखरा दिया हो आईना जैसे'

ऐसा लगता है, जैसे अत्यधिक प्रयोग से विज्ञान की ये उपलब्धियां, अधिकांश लोगों को असफलता और निराशा के गर्त में ढकेल रही हैं। वरदान, अभिशाप में तब्दील होते जा रहे हैं। आप सभी, विद्यालय के दिनों से एक निबंध पढ़ते आए हैं विज्ञान : वरदान और अभिशाप। आप तब से इसे लेकर दोनों दृष्टियों से विचार करते आए हैं। फेसबुक या दूसरे कम्युनिटी साइट्स भी तो आख़िर उसी विज्ञान के विस्मयकारी टूल्स है। अब यह हमपर है कि हम इनका उपयोग कैसे करते हैं! या तो इसके ग़ुलाम हो जाएँ या फिर इसके उपयोग को लेकर कहीं-न-कहीं हम संयमित रहें।

अबतक दो भाषण पूरे हो चुके थे और दोनों वक्ताओं ने पर्याप्त समय लिया था। हॉल के श्रोताओं के भीतर धीरे धीरे थकान के चिह्न दिखने लगे थे। कुछ लोग हॉल से जाने भी लगे थे। जो बचे थे, उन्हें भाषण में कम अपने साथियों के नाट्य प्रदर्शन में अधिक रुचि थी। मंच पर अबतक अपनी बारी के इंतज़ार में बैठे डॉ. प्रेम शंकर उपाध्याय इन सभी दृश्यों का बारीकी से अवलोकन कर रहे थे। वे अपने विद्यार्थियों की श्रवण-क्षमता की सीमा से भली-भाँति परिचित थे। उन्हें अपनी बातों को संक्षेप में रखने में ही भलाई दिखी। उपाध्याय जी विद्यार्थियों के बीच अपनी बातें सूत्रों में बाँधकर कहने के लिए प्रसिद्ध थे। यहाँ भी बोलते हुए बीच बीच में वे कुछ सूत्र परोसने की कोशिश कर रहे थे। उन्हें भली-भाँति पता था कि अगर विद्यार्थी अपने नोटबुक में कुछ नोट कर नहीं ले गए, तो व्याख्यान के बाद उन्हीं यही लगेगा कि उपाध्याय का बच्चा कोरा गप्प दे गया। आदतन वे कुछ सूत्र प्रस्तुत करते गए और वहाँ बैठे विद्यार्थियों का समूह नोट करने लगा। मसलन…

* फेसबुक या कोई भी ऐसा कम्युनिटी साईट सूचना का एक त्वरित माध्यम है। सूचना सर्जनात्मक और विध्वंसक दोनों तरह की हो सकती है। अतः किसी सूचना पर प्रतिक्रियाशील होने से पूर्व हमॆं उसके स्रोत की विश्वसनीयता और उसके पीछे की असली मंशा को समझने की ज़रूरत है।

* आज किसी चित्र, वीडियो, आलेख आदि को सहजतापूर्वक लोगों के बीच कुछ सेकंडों में पहुँचा देने का काम फेसबुक जैसे ये कम्युनिटी साईट बखूबी कर रहे हैं। किसी कार्यक्रम में पहुँचने का निमंत्रण या उसके रद्द किए जाने की सूचना आदि इसके माध्यम से आसानी से और समय की बेहद संक्षिप्त इकाईयों में लोगों को दी जा सकती है।

* ये सामुदायिक वेबसाइट मूलतः परस्पर संवाद के लिए बनाए गए हैं। यहाँ कोई छोटा होता है न बड़ा। मगर हमारे यहाँ तो लोगों में अहं कूट कूट करके भरा है। मानो यह हमारे डी एन ए में शामिल हो गया हो। बेशक बड़े हों कि नहीं मगर जो स्वयं को बड़ा समझते हैं, वे विरले ही आपके पोस्ट को लाइक्स करेंगे। मगर आप हैं कि उनके हाथ में प्लास्टर लगने से लेकर उनके खांसने और उनकी सर्दी जुकाम से संबंधित पोस्ट को भी लाइक्स पर लाइक्स किए जा रहे हैं। ऐसे में आपके भीतर धीरे-धीरे अपने छोटेपन का ख़याल गहराने लगता है और आपके भीतर कुंठा का बीजारोपण शुरू हो जाता है। यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। आपको यथासंभव हर तरह की नकारात्मकता से बचना होगा।

डॉ.उपाध्याय ने ऐसी ही कई और महत्वपूर्ण बातें कीं। भाषण के अंत में उन्हें ख़ूब तालियाँ मिलीं।

वर्चुअल दुनिया और हमारा समाज विषयक आयोजित उस संगोष्ठी में जिसका अबतक ज़िक्र नहीं गया है, अब उसका ज़िक्र भी ज़रूरी है। वह और कोई नहीं वहाँ उपस्थित तीसरा प्रेमी जोड़ा था जो आगे से तीन पंक्तियाँ छोड़कर एक किनारे साथ-साथ बैठा हुआ था। दोनों पूरे कार्यक्रम को ध्यानपूर्वक सुन रहे थे और अपने हिसाब से नोट्स ले रहे थे। बीच बीच में महेश, एक निगाह स्मिता पर मार लिया करता था। स्मिता उसे अपनी ओर इस तरह देखता देख हलका सा मुस्कुरा देती थी। कभी अपनी डायरी पर झुकी-झुकी स्मिता स्वयं भी एक निगाह महेश की ओर फेंक देती। महेश एक ठंडी आह भरकर रह जाता। फिर दोनों झुककर अपने अपने हिसाब से उद्धरण लिखने लगते। पढ़ाई-लिखाई के बीच प्यार की यह लुकाछिपी दोनों को असीम आनंद से भर देती और दोनों जो काम कर रहे होते, उसमें एक खास उत्साह का रंग शामिल हो जाता। इस वक़्त इस सेमिनार को सुनते हुए दोनों किसी भी महत्वपूर्ण बात को अपने ध्यान से ओझल होने देना नहीं चाहते थे। दोनों एम.ए. पूर्वार्द्ध में पढ़ रहे थे। महेश हिंदी विभाग में और स्मिता समाजशास्त्र विभाग में अध्ययनरत थी। लगभग छह महीनों से इनकी दोस्ती जारी थी जो क्रमशः प्यार में बदलती चली जा रही थी। दोनों अपने अपने विभाग के सीरिअस टाइप के विद्यार्थी थे और उनके प्यार से कदाचित दूसरे मनचले प्रेमी युगलों को यह संदेश भी जा रहा था कि प्यार सिर्फ मौज़-मस्ती का नाम नहीं है, बल्कि इसमें रूमानीयत और अध्ययन, कल्पना और यथार्थ का मिला-जुला रूप भी शामिल हो सकता है। इसका मतलब यह भी था कि मल्टी-प्लेक्स सिनेमा, फेसबुक, ट्विटर और आर्कुट आदि के समय में ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों और गज़लों का दौर भी जारी था।

भाषण का दौर समाप्त हो चुका था। मंच से उद्घोषक ने उद्घोषणा कर दी थी। कुछ ही पलों में बहुप्रतिक्षित नाटक फेसबुक का मंचन होनेवाला था। मंच पर आगे का परदा चढ़ चुका था। पीछे से मेज़ें और कुर्सियाँ हटाई जा रही थीं। निर्देशक कई दिनों के इस रिहसर्ल में बोलते-बोलते इस कदर थक चुका था कि उसने एक आह भरते हुए अस्फुट अंदाज़ में मोनोलॉग किया...बस सब कुछ सही से निपट जाए।

फेसबुक, ट्विटर और आर्कुट को आधार बनाकर तैयार किया गया बैक-ड्रॉप लगा दिया गया था। ड्रेसिंग रूम का तापमान बढ़ चला था। कुछ मिनट पहले जो कलाकार कभी आवेश में तो कभी उद्विग्न भाव से बड़े से आदमकद आईने के सामने से गुजरते हुए चहलकदमी करते दिख रहे थे, अब वे मंच पर बढ़ जाने को तत्पर थे। सभी ने स्टेज के पाँव छुए और नज़रों ही नज़रों में एक-दूसरे को बधाई देते हुए अपनी अपनी निर्धारित भूमिका में आ गए। अब वे एक चरित्र मात्र थे।

परदा हट चुका था। चरित्रों पर रोशनी पड़ने लगी थी। इस नाटक में जानबूझकर ज़्यादा प्रोपर्टी नहीं रखी गई थी। नाटक में सभी आधुनिक तकनीक-प्रणालियों का इस्तेमाल किया गया था। पीछे के स्क्रीन पर वीडियो और वृत्त-चित्रों के कुछ हिस्सों को बीच-बीच में रन किया जाना था। इधर स्टेज के कभी दाएं तो कभी बाएं कोने पर संबंधित पात्रों के एकालाप/पात्रों के संवादों के माध्यम से नाटक को दृश्य-दर-दृश्य आगे बढ़ाए जाने की योजना थी।

नाटक काफ़ी सफल रहा। अंत में नाटक के निर्देशक घोष बाबू सहित सभी कलाकारों ने आपस में हाथ बाँधकर और स्टेज पर अर्द्धचंद्राकर खड़े होकर दर्शकों का अभिभावादन और धन्यवाद किया। दर्शकों ने खड़े होकर करतल ध्वनि से उनका उत्साहवर्धन किया। स्टेज पर खड़े दो मित्र कलाकार मनीष शर्मा और गौरव शुक्ला की आँखें दर्शक दीर्घा में बैठी अपनी-अपनी गर्ल-फ्रेंड्स को ढ़ूँढ़ रही थीं। चंद सेकंडों में मनीष की आँखें मेघना से और गौरव की आँखें ममता से दो-चार हुईं। इशारों-इशारों में दोनों का बुलावा आया और दोनों ड्रेसिंग रूम में पहुँच गई। ममता ने सभी के बीच में ही गौरव को अपनी ओर खींच लिया और उसके गले से चिपट गई। गौरव कुछ सकपकाया और झेंप गया, मगर बोल्ड ममता को शर्माना शुरू से ही कुछ दकियानूसी सा लगता था। गौरव को ममता की यह निकटता बहुत प्रिय लग रही थी, मगर उसके अंदर की सज्जनता कुछ झेंप रही थी। उसने धीरे से ममता की बायीं कान में कहा, डार्लिंग, सभी देख रहे हैं।

ममता ने उसके होंठों को चूमते हुए धीरे से कहा, देख लेने दो। ऐसी जीती-जागती फिल्म उन्हें कहाँ देखने को मिलेगी! मगर अंदर से भूखी शेरनी अपने शिकार को कुछ ठंडा देख उससे अलग हुए बिना उसे उसी हालत में अपने से चिपटाए हुए स्टेज के अंधेरे कोने में ले गई। और फिर देर तक दो साए एक-दूसरे में समा जाने को तत्पर दिखे। शिकार अब शिकारी बन गया था और शेरनी को उसकी इस आक्रामकता का इंतज़ार था। खुले में दोनों जोड़े जितना करीब जा सकते थे, चले गए। काफ़ी देर बाद जब दोनों अलग हुए, तो ममता ने कहा, आज, रात मेरे घर आ जाओ। मेरे मम्मी-डैडी दिल्ली गए हैं। आज मेरे यहाँ ही रुको। डिनर में गरमा-गरम गोश्त परोसूँगी। और उसे आँख मारती हुई आगे दोस्तों के बीच सहजतापूर्वक पहुँच गई। गौरव हक्का-बक्का बस सम्मोहित सा उसके पीछे आकर खड़ा हो गया। कितना मज़ा आ रहा था गौरव को यह सब करके मगर वह इसे ममता का अपने प्रति प्यार की संपूर्णता के रूप में देख रहा था। उसने ममता से उसकी दृष्टि जानने की कोशिश नहीं की। किसी लड़की के इतने पास आने का मतलब उसके लिए बस प्यार ही था। वह ममता को सदा के लिए अपनी जीवनसंगिनी बनाना चाहता था।

आज के नाटक में मनीष ने मार्क जुकरबर्ग का अभिनय किया था। वह अब भी एक गोरा-चिट्टा अमेरिकन लग रहा था। मेक-अप आर्टिस्ट ने अपना कमाल ख़ूब दिखाया था। कई दिनों के अभ्यास के बाद वह बीच-बीच में बोले गए अंग्रेज़ी के वाक्यों को पूरी तरह अमेरिकन उच्चारण के साथ बोल रहा था, जिसे वहाँ उपस्थित दर्शकों ने ख़ूब सराहा था। अमेरिकन एक्सेंट के साथ बोली जानेवाली हिंदी पर उसे ख़ूब तालियाँ मिली थी। वह अब भी भूरे बालों की हल्की लटों वाले विग में था। अपने होंठों को गोल कर, मनीष के ललाट पर हवा करती और उसके कृत्रिम लटों को हल्का उठाती हुई मेघना ने कहा, वाह रे मेरे अमेरिकन इंटरनेट उद्यमी, क्या ख़ूब लग रहे हो।

मनीष बिल्कुल अमेरिकी अंदाज़ में अपनी आँखों को मींचता हुआ मुस्कुराया। मेघना उसकी आँखों में अपना प्रतिबिंब देखना चाह रही थी मगर उसे वहाँ कुछ नहीं दिखा। मनीष के भीतर क्या चल पाता था, यह मेघना समझ नहीं पाती थी मगर वह मनीष पर अंधा विश्वास करती थी। उसने अपने प्रेम को किसी संशय से मुक्त रख रखा था। ऐसे ख़याल जब-तब उसके भीतर आते थे, मगर वह अपने भीतर उन्हें जगह नहीं देना चाहती थी। अपने कंधे उचकाते हुए वह आज मंचित नाटक पर और उसमें मनीष द्वारा किए गए अभिनय पर चर्चा करने में मशगूल हो गई।

वह दिनभर ममता के बारे में सोचता रहा। उसे लगा कि ममता उससे मज़ाक कर रही है। वह अपने दोस्तों के बीच भी उस दिन एकदम ख़ामोश बैठा हुआ था। रात में किसी कुँआरी लड़की के घर जाना उसे किसी रहस्य-लोक की घटना सा लग रहा था! उसे इस बाबत ममता से बात करने के ख़याल से बेचैनी हो रही थी। मगर यही कोई रात के साढ़े आठ बजे उसका फोन आ गया, कहाँ हो गौरव!

रंगमंच पर प्रभावी और सशक्त रूप में संवाद अदायगी करनेवाला गौरव के कंठ से अभी ठीक से आवाज़ नहीं आ रही थी। वह हकलाने लगा था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बोले, हाँ ममता, बताओ!

ममता के बच्चे, कहाँ हो, अभी तुरंत आ जाओं, एक भूखी शेरनी की दहाड़ सुन उसने यंत्रचालित सा अपनी बाइक उसके घर की मोड़ दी।

देर रात तक आज की इस गोष्ठी और नाट्य मंचन में शरीक हुए कई लोगों ने अपने-अपने वॉल पर इससे जुड़े कई चित्र और वीडियो अपलोड किए। विभिन्न समूहों में हाथों-हाथ उन्हें शेयर किए गए। उन चित्रों और वीडियों को सैंकड़ों लाईक्स मिले। ऑनलाईन रहे मित्रों ने एक-दूसरे से ख़ूब गपशप की। देर रात, स्थानीय टीवी चैनलों पर इसका कवरेज़ रहा। अगले दिन हिंदी-अंग्रेज़ी सभी अखबारों में इसकी सचित्र ख़बरें छपीं।

महेश और स्मिता दोनों विश्वविद्यालय में अंतर्विभागीय प्रेम-संबंध के उदाहरण थे। उनके दोस्त उन्हें छेड़ते हुए अभिनेता अनिल कपूर के अंदाज़ में कहते थे, तुम दोनों अलग-अलग जाति के ही नहीं हो, अलग-अलग विभागों के भी हो। तुम्हारा प्रेम अंतर्जातीय और अंतर्विभागीय प्रेम का एक झकास उदाहरण है।

वे दोनों हँसकर रह जाते। फिर सभी देर तक इधर-उधर की बातें करते रहते। एक शाम जब दोनों अकेले थे, महेश ने नम्रतापूर्वक अपना पक्ष रखा, प्रेम का तो पता नहीं, हाँ हम दोनों की दोस्ती उस दिशा में ज़रूर बढ़ रही है।

स्मिता, महेश की ओर प्यार भरी आँखों से देखती हुई उसकी सहमति में सिर हिलाते हुए कहने लगी, महेश बिलकुल सही कह रहा है। प्यार तो एक बहुत ही पवित्र अवधारणा और संवेदना है। क्या पता, हम दोनों उस रूहानी ऊँचाई पर खड़े हैं भी या नहीं!

महेश और स्मिता दोनों एक-दूसरे को समुचित स्पेस देने में यकीन रखते थे और इसलिए इनकी दोस्ती निरंतर प्रेम की ओर बढ़ती चली जा रही थी। एक शाम विश्वविद्यालय के करीने से कटे घास के बड़े से लॉन के एक कोने में बैठी स्मिता महेश से कहने लगी, मुझे कभी यह अंदेशा नहीं था कि तुमसे यह दोस्ती इस तरह प्रेम का रूप ले लेगी।

महेश भी मुस्कुरा बैठा। कहने लगा, मुझे भी इसका तनिक अनुमान नहीं था कि मुझे कोई इतनी सुंदर लड़की प्यार कर बैठेगी!

महेश कुछ मज़ाक की मुद्रा में आ गया था। स्मिता उसकी इस हरकत पर हँस कर रह गई। अचानक अपने होंठों की ओर झुकते महेश के होंठों को अपने दाएं हाथ की तीन उँगलियों के कोमल स्पर्श से छूकर बरज दिया। पश्चिम में सूरज डूब रहा था और आकाश की लाली, स्मिता के होंठों पर पसर रही थी। महेश को लगा, आकाश का सूरज डूब सकता है मगर उसके प्रेम का सूरज हमेशा चमकता रहेगा। महेश की आँखों में भी सुर्ख़ी उतर आई। उनके पीछे लगे फेंस पर एक गिलहरी बिलकुल महेश के कंधे से टिककर दाएं-बाएं देख रही थी। उसे सहलाने की नीयत से जब स्मिता अपनी उंगलियों को उसकी ओर ले गई, तबतक वह महेश की पीठ को सिहराती हुई आगे बढ़ गई। स्मिता के चेहरे पर एक स्मित फैल गई। गिलहरी चली गई थी, मगर स्मिता की दायीं हथेली महेश की कमर के पास घूम रही थी और आनंदातिरेक में महेश की सिहरन के साथ से वह स्वयं भी कहीं सिहर रही थी।

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