Facebook aur Teen Premi yugal - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

फेसबुक और तीन प्रेमी युगल - 1

फेसबुक और तीन प्रेमी युगल

अर्पण कुमार

(1)

इधर फेसबुक पर बने रहना एक फैशन हो गया है। मैं भी उस फैशन का शिकार हूँ। बच्चों और बीवी के साथ समय न बिताकर इस वर्चुअल कम्युनिटी सेंटर पर अपना समय बिताता हूँ। यह ग़लत है, मगर क्या कीजिए एक लत है। जिस तरह धूम्रपान और शराब की आदत होती है, उसी तरह ऑनलाइन रहना की भी एक व्यसन है, डॉ. कोठारी शहर के जाने-माने मीडिया विशेषज्ञ थे। विश्वविद्यालय के ऑडिटोरियम में आज वर्चुअल दुनिया और हमारा समाजविषय पर परिचर्चा का आयोजन किया गया था। डॉ. कोठारी के अतिरिक्त, मनोवैज्ञानिक डॉ. इला त्रिपाठी एवं शिक्षाविद डॉ. प्रेमशंकर उपाध्याय जैसे कुछ महत्वपूर्ण वक्ता इस विषय पर अपने विचार अभी रखनेवाले थे। कार्यक्रम की रूपरेखा में स्वयं आर्ट्स फैकल्टी के डीन डॉ. शिवशंकर श्रीवास्तव ने पूरी रुचि ली थी। कार्यक्रम को रोचक, संवादपरक और सार्थक बनाने की पूरी कोशिश की गई थी। विश्वविद्यालय प्रशासन और विद्यार्थी-संघ ने कदम से कदम मिलाकर इस महत्त कार्यक्रम को इसकी परिणति तक पहुँचाई थी। जान-बूझकर इस कार्यक्रम को देर शाम में रखा गया था ताकि किसी विद्यार्थी को इसके नाम पर क्लास बंक करने का कोई बहाना न मिल जाए। अधिक से अधिक संख्या में विद्यार्थी इस कार्यक्रम में भाग लें और सिर्फ़ भाषणबाज़ी से लोग बोर न हो जाएं, इनका ध्यान रखते हुए कार्यक्रम के अंत में अंतर महाविद्यालय स्तर पर इसी विषय को लेकर एक नाटक का मंचन भी किया जाना था। नाटक का नाम रखा गया था फेसबुक। मगर नाटक के मंचन में अभी कुछेक घंटों की देरी थी। अभी तो भाषणबाज़ी ज़ारी थी। हॉल में बैठे कई श्रोता बाज़ाब्ता कलम-डायरी सहित महत्वपूर्ण बिन्दुओं को नोट करते जा रहे थे। प्रिंट और इलेक्ट्रौनिक मीडिया जगत के कई पत्रकार वहाँ उपस्थित थे। डॉ. कोठारी की बुलंद आवाज़ आगे जारी थी, साथियो, हमॆं संतुलित रूप से अपने व्यक्तित्व का विकास करना है। हम देश के एक जिम्मेदार नागरिक हैं। हमें यहाँ सक्रिय कुछ ग़लत मानसिकता वाले लोगों के दुष्प्रचार से भरे पोस्ट के प्रभाव में नहीं आने की ज़रूरत है।

श्रोता समूह में मेघना वर्मा अपनी सहेली ममता चौधरी के साथ कुछ सट कर बैठी हुई थी। दोनों सहेलियाँ भाषण सुन रही थीं मगर उनके बीच परस्पर चुहल का दौर भी जारी था। यह कुछ ऐसा था कि झमाझम बारिश में पेड़ भीग रहे हों और साथ में तेज चलती हवा से वे झूम भी रहे हों। दोनों लड़कियाँ एक-दूसरे से सटकर कार्यक्रम के बीच-बीच में बातें किए जा रही थीं और दबी आवाज़ में हँसती जा रही थीं। उनका यूँ धीरे-धीरे हँसना, रुकना और फिर हँसना कुछ ऐसे था जैसे बूँदा-बाँदी शुरू होती हो और फिर रुक जाती हो। जब आसपास के लोग इन दोनों की बातचीत से कुछ डिस्टर्ब होते तो वे इनकी ओर घूर कर देखते। ऐसे में ये दोनों सकपकाकर चुप हो जातीं। मगर चुप रहने की यह अवधि कुछ ही देर के लिए होती। मेघना तो फिर भी थोड़ा डरती थी मगर अपूर्व सुंदरी ममता चौधरी का आत्मविश्वास देखने लायक था। उसे अपनी शर्तों पर अपना जीवन जीने की आदत थी। उसे इन भाषणों में बहुत रुचि नहीं थी फिर भी वक्ताओं पर उपकार करने की मुद्रा में उन्हें सुने जा रही थी। उसे तो फेसबुक पर हो रहे नाटक में भाग लेना था, मगर ऐन चार दिन पहले नाटक के निर्देशक से उसके रोल को लेकर उसका कुछ ऐसा झगड़ा हुआ कि उसने स्वयं को इस नाटक से अलग कर लिया। मेघना और ममता के ब्यॉय फ्रेंडक्रमशः मनीष शर्मा और गौरव शुक्ला कुछ ही देर में शुरू होनेवाले फेसबुक नाटक में भाग लेनेवाले थे। इसकी तैयारी कोई डेढ़ महीने से की जा रही थी। भाषण के कार्यक्रम के ठीक बाद नाटक का मंचन था। मगर अभी तो वक्ताओं में दो अन्य लोगों का बोला जाना शेष था।

मेघना ने अपनी दाईं कलाई पर बँधी घड़ी की ओर नज़र दौड़ाई। शाम के चार बजने वाले थे। उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें खींच आईं। वह अपनी सहेली की ओर परेशान नज़रों से देखती हुई बोली, यार ममता, आज तो घर पहुँचते-पहुँचते बहुत देर हो जाएगी। अभी तो दो दो लोग बोलने के लिए और बचे हुए हैं। और इसके बाद नाटक का मंचन होगा। तुम मेरी मम्मी को तो जानती ही हो। ज़रा सी देर हो जाने पर कैसे सिर पर पहाड़ उठा लेती है।

ममता ने जान-बूझकर चुटकी ली, तो चली जाना। इन दोनों भाषणों को सुनकर चली जाना। नाटक में क्या रखा है! कभी और देख लेना!

मेघना ने आँखें तरेरते हुए अपनी सहेली को डपटा, देख ममता, मेरा जी मत दुखा। मैं पहले से ही दुखी हूँ। और हाँ, यह भी सुन लो, मैं यह भाषण-वाषण सुनने नहीं आई हूँ। यह इडियट मनीष है न, वही उल्टी-सीधी हरकते करता रहता है। और उसकी ज़िद...तौबा रे तौबा। वह अगर इतना पीछे न पड़ता, तो मैं क्या मेरी जूती भी इधर का मुँह नहीं देखती।

कुछ देर पॉज लेकर उसने फिर कहना शुरू किया, डियर, ये सारी बातें जो मंच से कही जा रहीं हैं न, ये सब तो हमें भी पता हैं। मेरी जान! महत्व तो लाइफ में इनको ढालने का है। तुम्हीं बताओ, क्या आज फेसबुक और ट्विटर के वर्चुअल पन्नों को हमारे जीवन से हटाया जा सकता है! ये हमारे जीवन के अब उतने ही आवश्यक पार्ट्स हो गए हैं, जितनी की कभी बुक्स हुआ करती थीं। हममें से हरेक का एक बड़ा समय इनपर गुजरता है। लाख टके का सवाल यह है कि हम वहाँ क्या करते हैं! जीवन के इस सागर में पत्थर, सीप और रत्न सभी कुछ हैं। हमें कब और क्या लेना है, यह हमें ही डिसाइड करना है। पहले हर बात में किसी न किसी बुक का रेफरेंस हुआ करता था,, मगर आज उसका महत्व चाहे कम न हुआ हो, उसकी मोनोपोली निश्चय ही कमी है।

ममता कुछ देर के लिए निरुत्तर हो गई। मगर सहेली हो या प्रेमी, उसे छेड़ने में बड़ा मज़ा आता था। उसे मौक़ा मिल गया । उसने तुरंत लपक लिया उसे और अपनी आँखें नचाते हुए मेघना से कहा, तो मेरी फूल सी दोस्त, क्या अब सचमुच किताबों का जमाना लद गया? तो अब तुमने मनीष को देने वाली किताबों में चुपके से लाल गुलाब रखना बंद कर दिया होगा। नहीं!

मेघना की जगह कोई और होती तो घबरा जाती या शर्मा जाती, मगर मेघना अपनी सहेली की आक्रामकता को ख़ूब समझती थी। उसकी मारक अदा और अप्रकट होशियारी से भलीभाँति परिचित थी। इन सबसे निपटने में वह उस्ताद थी। ममता को प्यार से बरजती हुई बोली, ज़्यादा सयानी मत बन ममता की बच्ची! तू जैसी ख़ुद है न, औरों के लिए भी वैसा ही सोच लेती है। वो अंग्रेजी में क्या कहते हैं… 'A leopard cannot change its spots. तू भी कभी अपनी सोच से परे जाकर कुछ नहीं देख सकती। क्यों मैंने कुछ ग़लत कहा मेरी शिकारी सखी!

मेघना और ममता के बीच ऐसी तीखी नोंक-झोंक चला करती थी। दोनों सहेलियाँ एक-दूसरे पर प्रहार करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ा करती थी। अब बारी ममता की थी। वह भला ऐसे कैसे हार मान जाती! मेघना की ठुड्डी को पकड़ती और दबाती हुई उसने अपने आक्रामक अंदाज़ में कहना शुरू किया, ममता मेरी जान, हाँ, मैं शिकारी हूँ, यह तुमने बिल्कुल राइट कहा। मगर, मुझे किसी लड़के को पटाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। लड़के मेरे पीछे ठीक वैसे ही आते हैं, जैसे फूलों के पीछे भँवरे। मैं भला क्या कर सकती हूँ। अंग्रेजी की विद्वान मेरी दोस्त, आज मैं तुझे हिंदी का एक खाँटी मुहावरा सुनाती हूँ। एक अनार, सौ बीमार। तो लड़कों के लिए, मैं, वही अनार हूँ। रही बाता गौरव की, तो यह मान ले कि उसकी किस्मत अच्छी है कि उसे मैं इतना भाव देती हूँ। मक्खी की तरह भिनभिनाते लड़कों के बीच उसे मैंने चुना है। ही मस्ट बी प्राउड ऑफ हिमसेल्फ। एक अल्ट्रा मॉडर्न लड़की ने उसे इस लायक समझा।

यह कहकर, ममता ने अपने उन्नत वक्ष को कुछ और ऊँचा कर दिखाया। अपने चेहरे को मेघना की आँखों के सामने कर दिया और इठलाती हुई बोली, देख, देख, मेरे थाउजैंड डॉलर चेहरे को।

और फिर मेघना को देख, ममता ने अपनी दाईँ आँख धीरे से दबा दी। दोनों सहेलियाँ हँस पड़ीं। मेघना को मालूम था कि ममता को अपनी सुंदरता का जबर्दस्त ग़ुमान है। उसने मन ही मन सोचा, लड़के भी कैसे फुद्दु होते हैं! बस शहद देखकर पीछे पड़ जाते हैं। उस शहद में दंभ और चालाकी के कितने ज़हर मिले हुए हैं, उन्हें इनसे कोई मतलब नहीं होता। वे तो जैसे हर सूरत में शहद चाटने को तत्पर रहते हैं। फ़िर इस चाहे इस शहद के सेवन से उन्हें शहीद ही क्यों न होना पड़े! ख़ैर, उसने अपने सिर को एक झटका दिया और वापस अपनी दुनिया में लौट आई। उसे इसका कोई शौक नहीं था कि ममता की तरह वह लड़कों को यूँ अपने पीछे घुमाती फिरे। वह तो बस मनीष को चाहती थी और उससे विवाह के सपने देखा करती थी। वह तो बस अपना घर बसाना चाहती थी और उस घरौंदे में मनीष के साथ मान-मनुहार करती यह ज़िंदगी जीना चाहती थी। उसकी आँखों में रूमानियत का आकाश, दूर तक फैला हुआ था। वह आकाश दूर किसी वृक्ष की फुनगी पर टिका नज़र आता और जब वह वहाँ पहुँचती, तो वही आकाश किसी और वृक्ष के कंधे पर बैठा दिखता। मेघना एकबारगी डर जाती। क्या वह इस आकाश को कभी छू पाएगी! कहीं मनीष भी तो आकाश नहीं हो जाएगा! वह अपनी इस सोच की तपिश में पसीने-पसीने हो उठती।

मेघना और ममता के स्वभाव में ज़मीन-आसमान का अंतर था, मगर दोनों की दोस्ती को इससे कुछ ख़ास अंतर नहीं पड़ता था। उसके लिए ब्यॉय फ्रेंड की संख्या, ऊँच-नीच का कोई मानक नहीं था। मेघना जानती थी, वह जैसी है, वैसी ही रहेगी। और ममता भी अपना मिज़ाज क्यों बदलेगी! हरेक का अपना स्वभाव होता है। बस मामले को शांत करने की गरज़ से बोली, ओके, मेरी रानी मधुमक्खी, मैं अपनी बात वापस लेती हूँ।

मित्रता का निर्वहन करने के लिए, मज़ाक मज़ाक में कभी कोई कड़वी बात भी कह देनी पड़ती है तो कभी बिना किसी, सहज भाव से, अपने दोस्त के आगे झुक जाना भी पड़ता है। मेघना, मित्रता के इस सत्व को अपने स्वभाव में उतार चुकी थी।

ममता फर्स्ट इयर में राजहंस कॉलेज की साल भर पहले मिस कॉलेज़ रह चुकी थी। लड़के उसके एक इशारे पर लट्टू की तरह नाचते थे। छह फुट की छरहरी ममता अपनी कमर बलखाती हुई जिधर घूम जाती, कॉलेज़ के सभी लड़कों की निगाहें उधर मुड़ जातीं। मगर ममता की निगाहें इसके पार कहीं देख रही थीं। वह अपने करिअर पर बड़ी फोकस्ड रहती थी। उसके सपनों में मुंबई की माया-नगरी अक्सरहाँ आया करती थी। वह वहाँ की फिल्मों में काम करना चाहती थी। अपने को सँभालना और किसी भावनात्मक उहापोह से स्वयं को बचाए रखना उसे आता था। वैसे भी अपने रंगीन मिज़ाज के अनुरूप वह किसी एक के प्यार के साथ बँधकर नहीं रह सकती थी। उसे ख़ुद पर और ख़ुद की सुंदरता पर बड़ा नाज़ था। वह उसका इस्तेमाल सीढ़ियाँ चढ़ने के लिए करना चाहती थी। उसे यूँ प्यार-व्यार के भावुक और मूर्खतापूर्ण चक्करों में ज़िंदगी के बेहतर पलों को ज़ाया नहीं करना था। एक दिन प्यार की परिभाषा देते हुए उसने मेघना से कहा, दिमाग जिसे मूर्खता कहे और दिल जिसे पागलपन समझे, प्यार एक वैसी ही संकल्पना है।

मेघना क्या बोलती, बस हँसकर रह गई। वह मनीष से प्यार करती थी और उसे एक अद्वितीय अनुभूति मानती थी। वह जानती थी, ममता उसपर कोई व्यंग्य नहीं कस रही, बल्कि अपने भीतर की कशमकश को अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रही है।

मगर हर तरह से प्रैक्टिकल ममता को भी टाइम-पास के लिए ही सही, एक ब्यॉय फ्रेंड की ज़रूरत थी। उन दिनों गौरव उसकी इस ज़रूरत को पूरी कर रहा था। ममता को इसकी कोई परवाह नहीं थी कि गौरव का प्यार उसके लिए एक सच्चा प्यार है अथवा नहीं। उसके पास आम लड़कियों वाली सारी अदाएं थीं मगर वह इन अदाओं का व्यावसायिक दोहन करना चाहती थी। इधर, गौरव उसकी हर अदा पर मरता था। वह उससे सच्चा प्यार करता था और उसके लटकों-झटकों को स्वयं के लिए विशिष्ट मानता था। रंगमंच के स्टेज़ पर हर तरह के अभिनय में दक्ष गौरव को ममता के अभिनय के पीछे का यह छलावा शायद नहीं दिख पा रहा था। सावन के अंधे को जिस तरह चारों ओर हरा ही हरा दिखता है, वैसे ही गौरव को ममता के प्रेम में सबकुछ अच्छा-अच्छा ही दिख रहा था। और ऐसा हो क्यों नहीं, जिस मादकता और गर्माहट से वह उससे मिलती थी, वह अपने को इस पृथ्वी का सबसे खुशकिस्मत लड़का मानता था। उसे क्या मालूम था, ममता की महत्वाकांक्षा के हाईवे पर वह एक मोर्टेल मात्र है।

मेघना पटर-पटर किसी वाचाल बच्ची की तरह बोले जा रही थी, कितनी काम की बातें हम पल-भर में जान लेते हैं। मज़े की बात यह कि अपने विश्वविद्यालय के समूह ने फेसबुक पर ही तो इस सूचना को फ्लोट किया। तभी यहाँ इस प्रोग्राम में इतने लोग जमा हो पाए। और हाँ, नाटक-वाटक में मेरी कोई रुचि नहीं है। यह तो तू भी जानती है। यह तो मैं बस मनीष की खातिर यहाँ बैठी हुई हूँ। उस बेचारे का दिल न दुख जाए, इसलिए। हॉल की नीम-रोशनी में ममता ने मेघना के गालों को लाल होते हुए देखा। वह मुस्कुराकर रह गई।

ममता सोचने लगी, गौरव के जिक्र से उसका तो यह हाल नहीं होता। मन ही मन एक कौंध उसके भीतर उपजी। मेघना उससे कितनी अलग है। मगर तत्क्षण ममता के अंतःकरण ने उसे दुरुस्त किया, तुम मेघना से कितनी अलग हो। तुम दूसरी लड़कियों से बहुत आगे की सोच रखती हो!

मन ही मन ममता ने प्रतिवाद किया। होने दो। मैं जैसी हूँ, ठीक हूँ। क्या अपने करिअर की चिंता करना स्वार्थी होना है! क्या मैंने एकबार भी गौरव को शादी का वादा किया है! शादी तो ख़ैर बहुत दूर की बात है, मैंने क्या उससे एक बार अपने प्यार का इज़हार भी किया है!

उसका अंतर्मन एक बार फिर उसके सामने था। लेकिन वह तो इस आस में ही तुम्हारे आगे-पीछे करता है। वह तो तुम्हारी चुप्पी को तुम्हारा हाँ मानकर बैठा हुआ है।

वाचाल और हाज़िरजवाब ममता ने पलटते ही कहा, तो क्या इसमें भी मेरी गलती है!

उसके अंदर से फिर किसी नचिकेता ने सवाल किया, तो फिर उसे तुम ही मना कर दो। उसका दिल जो कल टूटना हो, वो आज ही टूट जाए। ऐसा न हो कि उस बेचारे को कल ऐसा झटका लगे कि वह किसी लायक न बचे।

कहीं न कहीं सकपकाती ममता ने स्वयं को संभाला और कुछ हिचकते हुए मगर पूरी अदा से अपनी मासूमियत को बचाते हुए अपनी अंतर्चेतना को जवाब दिया, तो मैं क्या करूँ। वैसे किसी का दिल इतना कमज़ोर भी नहीं होना चाहिए। और उसमें भी लड़के का...हरगिज़ नहीं।

ममता की तंद्रा तब भंग हुई जब मेघना ने उसे टोका, ममता की बच्ची! ये अपने आप से क्या बातें किए जा रही हो!

घबराहट या कहें कुछ झेंप में ललाट पर आ गई अपनी लट को ममता ने एक खास अदा से पीछे की ओर किया और अपने भीतर चल रही उठापटक को विश्वासपूर्वक दबाती हुई सहज भाव से बोली, क्यों, कुछ भी तो नहीं। तुम्हें ऐसा क्यों लगा!

मेघना ने ज़्यादा कुरेदना ठीक नहीं समझा। बस एक मारक मुस्कान मारकर रह गई। वैसे भी, इस समय, वह मनीष के बारे में ज़्यादा सोचना चाह रही थी। वह फिलवक़्त ड्रेसिंग रूम में क्या कर रहा होगा! कैसा दिख रहा होगा! क्या मेक-अप करनेवाली लड़कियाँ उसके एकदम पास तो नहीं चली जाएँगीं!

उसके मानस-पटल पर असुरक्षा बोध के घने श्यामवर्णी बादल का एक टुकड़ा आ उभरा। पलभर को उसे लगा, एक बार जाकर देख आए। फिर उसने ख़ुद को ही समझाया...इतना भी शक करना ठीक नहीं है! उसे कहाँ-कहाँ तुम अपने पल्लू से बाँध कर रखोगी! वैसे भी वह तुम्हारा ब्यॉय फ्रेंड है, कोई हसबैंड नहीं। उसके चेहरे पर लाली की एक रेखा कौंध पड़ी। दिल की सुरंग में कहीं बैठी सच्चाई की रोशनी ने बाहर झाँका, हसबैंड नहीं है तो क्या हुआ, होनेवाला तो है!

फिर स्वयं से ही सवाल किया, और अगर उसने धोखा दे दिया तो!

उसने दाँत पीसते हुए स्वयं को समझाया, दे के तो दिखाए! ज़िंदा नहीं छोड़ूँगी कमबख़्त को।

उसकी मुट्ठियाँ अपने आप भींच गईं।

ममता ने देखा और अनदेखा किया।

दोनों सहेलियों ने एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्कुरा दिया। दोनों शायद एक-दूसरे के भीतर चल रहे इस आत्म-संवाद के खेल को अच्छी तरह समझ रही थीं।

ममता ने कहा, देखो, अब डॉ इला त्रिपाठी बोलेंगी। ढलती उम्र में भी क्या पटाखा लगती है यार!”

मेघना ने उसे बरजा, तू भी न ममता, हद करती है। वह हमें पढ़ाती है।

ममता को मज़ा आने लगा, तो क्या हुआ डार्लिंग! उसका मन नहीं करता होगा! और क्या ऐसी मिसरी पर चींटों ने बिना रेंगे छोड़ा होगा!मेघना को अचानक तेज की हँसी आई, मगर किसी तरह उसने उसे काबू करते हुए स्वयं को भाषण पर केंद्रित करने की कोशिश की।

मंच पर डॉ. इला त्रिपाठी ने भली-भाँति मोर्चा संभाल लिया था। उनकी आवाज़ में एक खनक, मिठास और आत्मीयता थी। फेसबुक पर लंबे समय तक चिपके रहने के मनोवैज्ञानिक पहलू की ओर इशारा करते हुए डॉ. इला त्रिपाठी बतला रही थीं, प्यारे विद्यार्थियो, अगर हम फेसबुक पर लगातार बैठे रहें तो हम वर्चुअल दुनिया को ही वास्तविक मान लेते हैं। हमारी आँखें और कमर तो शीघ्र जवाब दे ही देंगी, हमारे अंदर कई ऐसी चीजें विकसित होने लगेंगी, जिसका हमॆं अभी आभास नहीं है। एक तरफ़ वास्तविक समूह में हमारा आत्मविश्वास खोने लगता है तो दूसरी तरफ़ अपने पोस्ट पर कम और दूसरे पर अधिक लाइक देखकर, सापेक्षिक वंचना का प्रभाव कहीं न कहीं हमारे अवचेतन पर पड़ना शुरू हो जाता है।

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