Tukda-Tukda Jindagi - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

टुकड़ा-टुकड़ा ज़िन्दगी - 1

टुकड़ा-टुकड़ा ज़िन्दगी

प्रियंका गुप्ता

भाग - १

ढोलक की थापों के साथ बन्ना घोड़ी गाने वाली का सुर भी तार-सप्तक नापने लगता था। बीच-बीच में कहीं सुर धीमा पड़ता तो नसीबन खाला की हाँक...अरे, सुबह कुछ खाया-पीया नहीं क्या लड़कियों...? बिल्कुल ही मरी आवाज़ निकल रही तुम सब की...। भला ऐसे भी गाया जाता है क्या...? अरे, थोड़ा जोश लाओ...जोश...। शादी का घर है भई, लगे भी तो कि जश्न का माहौल है...।

गाने वाली का कलेजा फुँक जाता...। हुँह, बड़ी आई...खुद तो फटे बाँस सी आवाज़ है, फिर भी ऐंठ देखो ज़रा...। पर प्रत्यक्ष में बोलती कोई नहीं थी। बर्रे के छत्ते में भला कौन हाथ डालने की ज़ुर्रत करता...? इससे अच्छा ऊँचा सुर पकड़ ही लो...। एक के थक जाने पर सुर की डोर किसी दूसरे के हाथ सौंप दी जाती...पर मज़ाल है, नसीबन खाला के रहते ये महफ़िल जल्दी ख़त्म हो सके...।

इधर लड़कियाँ गाने-बजाने में लगी थी, उधर नसीबन खाला अपनी सलमा बाजी को पकड़े बैठी थी। जब-जब आलिया उनकी निगाहों के आगे से गुज़रती, वे झुक कर पान की पीक कोने की नाली में थूकती और एक लम्बी साँस भरती...बेचारी बच्ची, कौन जानता था कभी कि ये फ़ैज़ान की शादी में इस तरह खुशी-खुशी शामिल भी होगी और सब काम भी करेगी...। इसे हम देखती हैं न बाजी...दिल भर आता है...। जितने अरमान इसने सँजोए थे न, उससे ज्यादा हमने देखे थे सपने इसे और फ़ैज़ान को लेकर...। पर खुदा की मर्ज़ी के आगे किसकी चली है...? पर सच्ची कहते हैं बाजी, आज इसे ऐसे देख कर हज़ार-हज़ार दुआएँ निकल रही हैं इसके लिए...। खुदा इसे हर खुशी बख़्शे...।

सलमा बाजी सहमति में सिर तो हिलाए जा रही थी, पर मन-ही-मन खुश भी थी। अच्छा हुआ, जो भी हुआ...। आलिया की माँ से उनकी कभी पटरी नहीं बैठी। वैसे आलिया ने कभी भी बड़ों के बीच बोलने की बदतमीज़ी नहीं की थी, बल्कि सबके साथ उसका व्यवहार अच्छा ही रहता था, उनके साथ भी...पर वे कभी भूल नहीं पाती थी कि आलिया फ़ातिमा की बेटी है...। कहने को फ़ातिमा उनकी सगी छोटी बहन थी, पर उन्हें तो हमेशा दुश्मन ही लगी...और दुश्मन की बेटी से वो कभी दिल का नाता नहीं जोड़ पाई थी...। अब ये बात और थी कि इस बाबत वो कभी किसी से कहती नहीं थी, पर समझने वाले खुद ही समझ जाते थे कि फ़ातिमा और आलिया दोनो ही उनकी आँख में कंकर की तरह खटकते थे। हाँ, नसीबन की बात अलग थी...। वो तो न तीन में, न तेरह में...। मुँहफ़ट ज़रुर थी, पर दिल की बहुत साफ़...। उसे आलिया शुरू से बहुत पसन्द थी अपने बेटे फ़ैज़ान के लिए...। तीनेक साल के रहे होंगे दोनो बच्चे, जब एक दिन मायके में उन्हें साथ खेलते देख नसीबन ने ऐलान कर दिया था...आपा, याद रखना...आलिया मेरी अमानत है तुम्हारे पास...। एक दिन ले जाऊँगी इसे...अपने फ़ैज़ान के लिए...। भला फ़ातिमा को क्यों ऐतराज़ होता...। पूत के पाँव तो पालने में ही दिख जाते हैं...। फ़ैज़ान का जहीन दिमाग...गोरा-चिट्टा रंग...बिल्लौरी-हरी आँखें...और सबसे बड़ी बात, सारे बच्चों में से आलिया की तरफ़ उसकी खास मोहब्बत...इतना काफ़ी था भविष्य में उन दोनो को लेकर सपने सजाने के लिए...।

बच्चे बड़े होते गए तो घर में इस बारे में होती चर्चाएँ उनके कानों तक भी पहुँचने लगी थी। आलिया तो फ़ैज़ान के आगे कभी कुछ सोच ही नहीं पाती थी। फ़ैज़ान का भी मानो यही हाल था। जवानी की दहलीज़ तक आकर भी बच्चे आपस में इतनी मोहब्बत रखते थे, ये क्या कम खुशी की बात थी। फ़ैज़ान शुरू से ही आज़ाद ख़्याल था...। अनपढ़-गँवार बीवी उसे नहीं चाहिए जो सिर्फ़ चूल्हे-चौके तक ही सीमित रहे...। सो उसकी ख़्वाहिश के मद्देनज़र आलिया को भी स्कूल में दाखिल करा दिया गया था। फिर फ़ैज़ान मियाँ कॉलेज पहुँचे तो आलिया के लिए भी सिफ़ारिश करा दी...उसके अब्बू के पास...। अब्बू ने पहले तो ना-नुकुर की...स्कूल तक तो ठीक, पर उनके खानदान में कभी इतना भी नहीं पढ़ी कोई...। घर ही में बचपन रहते एक मौलवी साहब आकर इतना पढ़ा जाते थे कि वक़्त-ज़रुरत लड़की चिठ्ठी लिख-पढ़ ले...बस्स...। आलिया को तो फ़ैज़ान के कारण इतनी छूट भी मिल गई थी कि वो बारहवीं तक स्कूल जा सके...। पर कॉलेज...न-न...बिल्कुल नहीं...।

पर फ़ैज़ान ने कभी अपनी ख़्वाहिशों के लिए ‘ना’ सुनना सीखा ही नहीं था...। पिता की रईसी और उनके एकलौते चश्मो-चिराग़ होने की वजह से उसे ज़रुरत भी नहीं थी कि किसी का इंकार सुने...। फिर आलिया के अब्बू भी भला कैसे इंकार कर सकते थे...? उनकी भी सारी शानो-शौकत फ़ैज़ान के अब्बू नासिर मियाँ की वजह से ही तो थी...। साढ़ू भाई होने के अलावा वे नासिर भाई के बिजनेस में तीस फ़ीसदी के पार्टनर भी तो थे...। अपने पति पर नसीबन की अच्छी-खासी पकड़ थी। तो जिस घर की लाडली एक दिन उनके घर कि ज़ीनत बन कर आने वाली थी, उसे मरा-टूटा कैसे रहने दिया जा सकता था...? सो शौहर को हर तरह से समझा-बुझा कर आखिरकार नसीबन ने बहनोई को उनके बिजनेस में साझेदार बनवा ही दिया। गाहे-बगाहे वो वैसे भी फ़ातिमा की मदद करती रहती थी।

तो फिर थोड़ी हील-हुज़्ज़त के बाद ये तय पाया गया कि आलिया लड़कियों के कॉलेज में दाखिला लेगी। वैसे फ़ैज़ान की इच्छा तो ये थी कि जिस कॉलेज में वो जा रहे, आलिया भी वहीं उनके साथ पढ़े, पर इतनी ढील भी नहीं मिली थी उनको...। इस बात के विरोध में तो उसके अब्बू भी आलिया के अब्बू के साथ मिल गए...। सो फ़ैज़ान मियाँ मन मसोस कर रह गए...। बस दिल में तसल्ली थी तो इतनी कि जब कभी भी आलिया किसी सब्जेक्ट के किसी हिस्से पर अटकती, बेधड़क उनकी मदद लेने आ धमकती...। वैसे अटकना कोई ज़रूरी नहीं था, बिना अटके भी मदद ली जा सकती थी...और ज्यादातर तो ऐसे ही ली भी जाती थी...।

जब कभी आलिया फ़ैज़ान के पास अपनी किताबें सम्हाले आती, उनकी धड़कन बढ़ जाती...। किताबों के उस पार भी एक नन्हा-सा दिल बहुत तेज़ धड़कता है, इस बात का बखूबी अन्दाज़ा था उन्हें...। उनके कमरे में स्टडी-टेबिल के सामने वाले हिस्से में तो उनकी कुर्सी थी, पर एक कुर्सी उसके बगल में पर्मानेण्टली रखी रहती थी...आलिया के लिए...। आलिया जब उस पर बैठती, तो अक्सर दोनो के घुटने आपस में टकराते रहते...। कॉलेज में दिन भर लड़कियों का साथ रहता था, पर उस टकराहट से जो चिंगारी-सी निकलती, वो न तो उन्होंने किसी के साथ महसूस की थी, न आलिया के महसूस करने का सवाल ही था...। मौका पाकर किसी किताब को खोल कर वे दोनो लोगों के बीच इस तरह रख लेते कि उसके नीचे से बड़ी आसानी से आलिया की हथेली अपनी चौड़ी हथेली के बीच ली जा सकती थी। ऐसे में मन्द-मन्द मुस्कराती आलिया जानबूझ कर अपना हाथ हिलाती, जैसे छुड़ाना चाह रही हो और वे और भी कस के उस हाथ को अपनी जकड़ में ले लेते...।

दिल तो दोनो का इससे आगे भी कुछ करने का करता था, पर दोनो अपनी-अपनी सीमाएँ पहचानते थे। एक अलिखित था समझौता था जैसे...। जब कभी समझौता टूटता-सा लगता, आलिया की मुस्कराहट और भी कातिलाना हो जाती और वो धीमे-धीमे गुनगुनाने लगती...सिर्फ़ अहसास है ये, रुह से महसूस करो...प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो...। ये गाना जैसे फ़ैज़ान को सोते से जगा देता...नहीं, अभी नहीं...। एक दिन तो उसे दुल्हन बन उनकी बाँहों में आना ही है...तब तक तो दोनो ही सब्र करेंगे...। इस मामले में आलिया के जज़्बातों का पूरा ख़्याल था उन्हें...।

वो दिन अच्छे से याद है उन्हें, जब आलिया ने बड़ी शालीन दृढ़ता से उन्हें रोक दिया था...नहीं फ़ैज़ान, अभी नहीं...। माना हम आपकी अमानत हैं, पर अभी इस अमानत के रखवाले अब्बू-अम्मी हैं...और हम अपने अब्बू-अम्मी को शर्मिन्दा नहीं देख सकते...। बात उनकी समझ में भी आ गई थी, और उस दिन के बाद से उन्होंने कभी उस बारीक रेखा को पार करने का सोचा भी नहीं...।

पढ़ाई ख़त्म होते ही दोनो को एक-दूसरे का हो जाना है, इस बात पर दोनो परिवारों के साथ-साथ उन दोनो को भी पूरा यक़ीन था...। पर ऊपरवाला भी अक्सर ऐसे यक़ीनों पर बड़ी ज़ोर से ठहाके लगाता है...। सब कुछ ऐसा ही मनचाहा होता, अगर सारा न आई होती कॉलेज में...। आलिया को देख कर फ़ैज़ान के दिल में बाँसुरी बजती थी, पर सारा के लिए तो जैसे पूरा ऑर्केस्ट्रा ही बज उठा...।

ज़हीन, नाजुक-सी सारा जब अपनी बड़ी-बड़ी पलकें उठाती तो फ़ैज़ान मियाँ का दिल उनके सीने से निकल कर सीधे वहीं अटक जाता। दिल तो सारा का भी पहली ही मुलाकात में उसके पहलू से निकल कर फ़ैज़ान मियाँ के कॉलर पर जा टिका था। दोनो चुपके-चुपके एक-दूसरे को निहारते, एक-दूसरे को ताड़ कर रास्ता बदल कर अचानक ही आमने-सामने आ जाते...। पर ये लुका-छिपी ज्यादा दिन नहीं चली...। एक दिन आखिर फ़ैज़ान मियाँ ने ही पहल कर दी, जब उन्होंने सीधे ही सारा को ‘आई लाइक यू’ बोल दिया...। डायरेक्ट लव-शव की बात बोलना थोड़ा रिस्की लगा उन्हें...। पर सारा कहाँ कम थी...। उनके ‘लाइक यू’ के बदले ‘लव यू’ बोलने में उसने ज़रा भी देर नहीं की...। इस ‘लाइक’ के ‘लव’ में बदलते ही आलिया के लिए फ़ैज़ान की नज़रे-इनायत भी बदल गई...। अब अक्सर उसकी मदद करने के लिए फ़ैज़ान मौजूद ही नहीं होते थे...। घर पर सब फ़ैज़ान मियाँ की इस नई व्यस्तता से थोड़े से आश्चर्यचकित ज़रूर थे, पर कहाँ कौन सी दाल पक रही थी, इसकी खुशबू भी किसी को न मिली...।

सबसे पहले शक़ आलिया को ही हुआ था...। बचपन से, जब से होश संभाला था, फ़ैज़ान की रग-रग से वाक़िफ़ थी वो...। कब वो खुश है, कब दुःखी...और कब अन्दर कुछ घोंट रहा है...हर बात का देर-अबेर अन्दाज़ा लग ही जाता था उसे...। इस बार भी दाल में कहीं कुछ काला था, ये बात उसे समझ आने लगी थी...। सो एक दिन दोपहर से ही आसन जमा कर बैठ गई...। आज साफ़-साफ़ पूछना ही था फ़ैज़ान से...क्या मतलब है अचानक उसे यूँ इग्नोर करने का...।

पहले तो बहुत भड़का था फ़ैज़ान...खूब खरी-खोटी भी सुनाई थी। झूठा शक़ करने पर हज़ार लानतें-मलामतें भी भेजी...। पर आलिया अपनी बात पर डटी रही...। आज तक ऐसा तो कभी नहीं हुआ था...अपने सौ ज़रुरी काम छोड़ कर भी फ़ैज़ान ने उसके लिए वक़्त निकाला था हमेशा...। लगभग रोज़ की मुलाकातों के बावजूद उसके आमद की ख़बर पाकर वो उसकी एक झलक के लिए बेकरार रहता था...। उसके आँसू तो दूर की बात, उसकी एक आह पर वो जान न्यौछावर करने को तैयार रहता था। पर इधर सब कुछ बदलता जा रहा था...या यूँ कहिए, बदल ही चुका था...। आलिया का बस यही एक सवाल...लगातार...उसके बदलाव की वजह क्या थी...?

आखिरकार फ़ैज़ान हार मान ही गया। पहले तो आलिया को शान्त किया, उसे अपने हाथ से लाकर पानी पिलाया, फिर बड़े नपे-तुले शब्दों में अपने दिल का हाल बताना शुरू किया...। बात जैसे-जैसे आगे बढ़ती जा रही थी, आलिया के लिए खुद को जब्त करना मुश्किल होता जा रहा था। पर फ़ैज़ान ने बात शुरू करने से पहले ही उसे कसम दे रखी थी, पूरी बात सुनने से पहले वो न तो वहाँ से जाएगी और न ही कोई तमाशा बनाएगी...। आलिया ने कब फ़ैज़ान की किसी बात से इंकार किया था, जो इस बात से कर देती...। चाहे कितनी भी तकलीफ़ हो उसे, वो उस क़सम का मान हर हालत में रखेगी...। वैसे क़सम दिए बग़ैर भी तो उसने हमेशा ही उनकी बात मानी है...।

सब कुछ आलिया के आगे उगल कर फ़ैज़ान तो राहत महसूस करने लगे पर आलिया कहीं की नहीं रही...। होश संभालने से लेकर आज तक कभी किसी की ओर आँख भर कर भी नहीं देखा था, सिर्फ़ इस डर से कि कहीं फ़ैज़ान की जगह कोई और न ले ले...। और फ़ैज़ान...? उन्होंने तो खुद आगे बढ़ कर उसकी जगह किसी और को सौंप दी...। सिर्फ़ सौंपी ही नहीं, अब उसकी तरफ़ इस आशा से ताक भी रहे कि वो ही उनकी मदद करे, इस नए रिश्ते को उसके अंजाम तक पहुँचाने में...।

आलिया बहुत देर तक सकते की हालत में बैठी रही। आँसू भी नहीं आ रहे थे...दिमाग़ से जैसे सोचने समझने की सारी ताकत ही ख़तम हो गई थी। हाथ-पाँव ठण्डे-से पड़ गए थे...एकदम सुन्न..दिलो-दिमाग़ की ही तरह...। फ़ैज़ान उसे क्या समझा रहे थे, उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था अब...। किसी सम्मोहित आत्मा-सी जैसे उठ कर वो बिना कुछ कहे कमरे से निकल गई...।

हफ़्ता बीत गया, आलिया नहीं आई तो नसीबन खाला को चिन्ता होने लगी...। बच्ची ने आज तक तो ऐसा कभी नहीं किया था। खुदा-न-खास्ता अगर कभी तबियत भी खराब होती थी तो फ़ैज़ान मियाँ को बुलवा भेजती थी...। पर इस बार क्या हुआ...कोई ख़ोज़-ख़बर ही नहीं...। तुरन्त फ़ातिमा आपा को फोन किया...। आवाज़ से वो भी कम परेशान नहीं लग रही थी...पता नहीं क्या हुआ नसीबन...? उस दिन जब से तुम्हारे यहाँ से लौटी है, बिल्कुल चुप-सी हो गई है...। न ठीक से खा-पी रही, न कॉलेज जा रही...। बस दिन भर मुँह ढाँपे अपने कमरे में पड़ी रहती है...। कुछ पूछो तो जवाब नदारत...बस्स, आँसू बहने लगते हैं...। इसके अब्बा से कुछ कह नहीं सकते, तुम तो जानो हो, बी.पी हाई रहने लगा है...। डॉक्टर मना किए हैं कुछ टेन्शन देने से...। हम खुद ही तुमसे मिलने आने वाले थे कि शायद तुम्हें कुछ पता हो...। सोचा, फ़ैज़ान को बुला लें...वही सम्हाले इसे...पर रुक गए...इम्तहान आ रहे उसके भी न...?

नसीबन और फ़तिमा, दोनो मिल कर भी आलिया की इस हालत की कोई माकूल वजह नहीं ढूँढ पाई...। हार कर नसीबन ने गेंद फ़ैज़ान के पाले में फेंकने का फ़ैसला कर ही लिया...आपा, हम-तुम कुछ न समझ पाएँगी...। अब फ़ैज़ान को ही समझने दो, जो भी है...। आखिर आगे भी तो उसे ही सब समझना-सम्हालना है न...।

फ़ैज़ान के शाम को घर आते ही नसीबन खाला ने उसे कुछ भी खाए-पीए बग़ैर सीधे आलिया के पास पहुँचने का हुक़्म सुना दिया। आलिया का हाल अम्मी के मुँह से सुन कर फ़ैज़ान समझ तो गए थे कि उसकी इस हालत के ज़िम्मेदार वो ही हैं...पर कुछ कह नहीं सकते थे, सो सीधा हुक़्म की तामील करने में ही अपनी भलाई समझी।

आलिया ने उन्हें देख कर भी कोई बदलाव नहीं दिखाया। क्या फ़र्क पड़ना था अब...? पर फ़ैज़ान मियाँ थोड़े बेचैन हो गए...आलिया, समझने की कोशिश करो...। दिमाग़ खोलो अपना ज़रा...। अभी तक हम गुड्डे-गुड़ियों की तरह खुद को डील कर रहे थे...। माँ-बाप ने बचपन में एक फ़ैसला कर दिया, हम बँध गए उससे...। अरे, शादी न हो गई, तमाशा हो गया...। सोचो ज़रा, पूरी ज़िन्दगी का सवाल है ये...ऐसे थोड़े न कोई और हमारे लिए सब तय कर देगा और हम मुँह बन्द किए सब मान लेंगे...। चाहे अम्मी-अब्बू ही क्यों न हों...पर अपनी ज़िन्दगी अपनी मर्ज़ी से जीने का हक़ हर किसी को है...। तुम्हें भी...तुम चाहो तो हम मदद करेंगे तुम्हें अपनी पसन्द का शौहर चुनने में...। वादा है ये हमारा...देख लेना...।

पूरी बातचीत के दौरान आलिया ने एक बार भी फ़ैज़ान की ओर नहीं देखा था, पर इस वादे की बात सुन कर उसने अपनी मोटी-मोटी आँखें, जो लगातार रोने की वजह से कुछ सूज भी गई थी, उनके ऊपर गहराई से टाँग दी...अगर वादा करना ही है तो जो हम कहें वो वादा करेंगे हमसे...? निभाएँगे उस वादे को...? खुदा को हाज़िर-नाज़िर जान कर बोलिएगा...।

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