सरकण्डों के पीछे Saadat Hasan Manto द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

सरकण्डों के पीछे

सरकण्डों के पीछे

कौन सा शहर था, इस के मुतअल्लिक़ जहां तक में समझता हूँ, आप को मालूम करने और मुझे बताने की कोई ज़रूरत नहीं ।बस इतना ही कह देना काफ़ी है कि वो जगह जो इस कहानी से मुतअल्लिक़ है, पेशावर के मुज़ाफ़ात में थी। सरहद के क़रीब। और जहां वो औरत थी, उस का घर झोंपड़ा नुमा था……सरकण्डों के पीछे।

घनी बाढ़ थी, जिस के पीछे उस औरत का मकान था, कच्ची मिट्टी का बना हुआ, चूँकि ये बाढ़ से कुछ फ़ासले पर था, इस लिए सरकण्डों के पीछे छिप सा गया था कि बाहर कच्ची सड़क पर से गुज़रने वाला कोई भी उसे देख नहीं सकता था।

सरकण्डे बिलकुल सूखे हुए थे मगर वो कुछ इस तरह ज़मीन में गढ़े हुए थे कि एक दबीज़ पर्दा बन गए थे। मालूम नहीं उस औरत ने ख़ुद वहां पेवस्त किए थे या पहले ही से मौजूद थे। बहर-हाल, कहना ये है कि वो आहनी क़िस्म के पर्दा-पोश थे।

मकान कह लीजिए या मिट्टी का झोंपड़ा, सिर्फ़ छोटी छोटी तीन कोठरियाँ थीं। मगर साफ़ सुथरी। सामान मुख़्तसर था मगर अच्छा। पिछले कमरे में एक बहुत बड़ा नवाड़ी पलंग था। उस के साथ एक ताक़चा था जिस में सरसों के तेल का दिया रात भर जलता रहता था....... मगर ये ताक़चा भी साफ़ सुथरा रहता था। और वो दिया भी जिस में हर रोज़ नया तेल और बत्ती डाली जाती थी।

अब मैं आप को उस औरत का नाम बतादूं जो उस मुख़्तसर से मकान में जो सरकण्डों के पीछे छुपा हुआ था, अपनी जवान बेटी के साथ रिहाइश पज़ीर थी।

मुख़्तलिफ़ रिवायती हैं। बअज़ लोग कहते हैं कि वो उस की बेटी नहीं थी। एक यतीम लड़की थी जिस को उस ने बचपन से गोद ले कर पाल-पोस कर बड़ा किया था। बअज़ कहते हैं कि उस की नाजाएज़ लड़की थी। कुछ ऐसे भी हैं जिन का ख़याल है कि वो उस की सगी बेटी थी.......हक़ीक़त जो कुछ भी है, उस के मुतअल्लिक़ वसूक़ से कुछ कहा नहीं जा सकता। ये कहानी पढ़ने के बाद आप ख़ुद-ब-ख़ुद कोई ना कोई राय क़ायम कर लीजिए गा।

देखिए, मैं आप को उस औरत का नाम बताना भूल गया.......बात असल में ये है कि उस का नाम कोई अहमियत नहीं रखता। उस का नाम आप कुछ भी समझ लीजीए, सकीना, महताब, गुलशन या कोई और। आख़िर नाम में क्या रखा है लेकिन आप की सहूलत की ख़ातिर में उसे सरदार कहूंगा।

ये सरदार, अधेड़ उम्र की औरत थी। किसी ज़माने में यक़ीनन ख़ूबसूरत थी। उस के सुर्ख़-ओ-सफ़ेद गालों पर गो किसी क़दर झुर्रियां पड़ गई थीं, मगर फिर भी वो अपनी उम्र से कई बरस छोटी दिखाई देती थी। मगर हमें उस के गालों से कोई तअल्लुक़ नहीं।

उस की बेटी, मालूम नहीं वो उस की बेटी थी या नहीं, शबाब का बड़ा दिलकश नमूना थी। उस के ख़द-ओ-ख़ाल में ऐसी कोई चीज़ नहीं थी जिस से ये नतीजा अख़्ज़ किया जा सके कि वो फ़ाहिशा है। लेकिन ये हक़ीक़त है कि उस की माँ उस से पेशा कराती थी और ख़ूब दौलत कमा रही थी। और ये भी हक़ीक़त है कि उस लड़की को जिस का नाम फिर आप की सहूलत की ख़ातिर नवाब रखे देता हूँ, को इस पेशे से नफ़रत नहीं थी।

असल में उस ने आबादी से दूर एक ऐसे मक़ाम पर परवरिश पाई थी कि उस को सही इज़दिवाजी ज़िंदगी का कुछ पता नहीं था। जब सरदार ने उस से पहला मर्द बिस्तर पर.......नवाड़ी पलंग पर मुतआरिफ़ करवाया तो ग़ालिबन उस ने ये समझा कि तमाम लड़कियों की जवानी का आग़ाज़ कुछ इसी तरह होता है। चुनांचे वो अपनी इस कस्बियाना ज़िंदगी से मानूस हो गई थी और वो मर्द जो दूर दूर से चल कर उस के पास आते थे और उस के साथ उस बड़े नवाड़ी पलंग पर लेटते थे, उस ने समझा था कि यही उस की ज़िंदगी का मुन्तहा है।

यूँ तो वो हर लिहाज़ से एक फ़ाहिशा औरत थी, इन मानों में जिन में हमारी शरीफ़ और मुतह्हिर औरतें ऐसी औरतों को देखती हैं, मगर सच पूछिए तो इस अमर का क़तअन एहसास न था कि वो गुनाह की ज़िंदगी बसर कर रही है....... वो इस के मुतअल्लिक़ ग़ौर भी कैसे कर सकती थी जब कि उस को इस का मौक़ा ही नहीं मिला था।

उस के जिस्म में ख़ुलूस था। वो हर मर्द को जो उस के पास हफ़्ते डेढ़ हफ़्ते के बाद तवील मसाफ़त तय कर के आता था, अपना आप सपुर्द कर देती थी, इस लिए कि वो ये समझती थी कि हर औरत का यही काम है। और वो उस मर्द की हर आसाइश उस के हर आराम का ख़याल रखती थी। वो उस की कोई नन्ही सी तकलीफ़ भी बर्दाश्त नहीं कर सकती थी।

उस को शहर के लोगों के तकल्लुफ़ात का इल्म नहीं था। वो ये क़तअन नहीं जानती थी कि जो मर्द उस के पास आते हैं, सुब्ह सवेरे अपने दाँत बरशश के साथ साफ़ करने के आदी हैं और आँखें खोल कर सब से पहले बिस्तर में चाय की प्याली पीते हैं, फिर रफ़ा-ए-हाजत के लिए जाते हैं, मगर उस ने आहिस्ता आहिस्ता बड़े अल्लढ़ तरीक़े पर उन मर्दों की आदात से कुछ वाक़फ़ीय्यत हासिल कर ली थी। पर उसे बड़ी उलझन होती थी कि सब मर्द एक तरह के नहीं होते थे। कोई सुबह सवेरे उठ कर सिगरेट मांगता था, कोई चाय और बअज़ ऐसे भी होते जो उठने का नाम ही नहीं लेते थे। कुछ सारी रात जागते रहते और सुब्ह मोटर में सवार हो कर भाग जाते थे।

सरदार बे-फ़िकर थी। उस को अपनी बेटी पर, या जो कुछ भी वो थी, पूरा एतिमाद था कि वो अपने ग्राहकों को संभाल सकती है, इस लिए वो अफ़ीम की एक गोली खा कर खाट पर सोई रहती थी। कभी कभार जब उस की ज़रूरत पड़ती.......मिसाल के तौर पर जब किसी गाहक की तबीअत ज़्यादा शराब पीने के बाइस यक-दम ख़राब हुए तो वो ग़ुनूदगी के आलम में उठ कर नवाब को हिदायात दे देती थी कि उस को अचार खिला दे या कोशिश करे कि वो नमक मिला गर्मगर्म पानी पिला कर क़ै करा दे और बाद में थपकियां दे कर सुला दे।

सरदार इस मआमले में बड़ी मोहतात थी कि जूँ ही गाहक आता, वो उस से नवाब की फ़ीस पहले वसूल कर के अपने नेफ़े में महफ़ूज़ कर लेती थी और अपने मख़्सूस अंदाज़ में दुआएँ दे कर कि तुम आराम से झूले झूले, अफ़ीम की एक गोली डिबिया में से निकाल कर मुँह में डाल कर सो जाती।

जो रुपया आता, उस की मालिक सरदार थी। लेकिन जो तोहफ़े तहाइफ़ वसूल होते, वो नवाब ही के पास रहते थे। चूँकि उस के पास आने वाले लोग दौलतमंद होते, इस लिए वो बढ़िया कपड़ा पहनती और क़िस्म क़िस्म के फल और मिठाइयाँ खाती थी।

वो ख़ुश थी....... मिट्टी से लिपे पुते उस मकान में जो सिर्फ़ तीन छोटी छोटी कोठरियों पर मुश्तमिल था। वो अपनी दानिस्त के मुताबिक़ बड़ी दिलचस्प और ख़ुश-गवार ज़िंदगी बसर कर रही थी....... एक फ़ौजी अफ़्सर ने उसे ग्रामोफोन और बहुत से रीकार्ड ला दिए थे। फ़ुर्सत के औक़ात में वो उन को बजा बजा कर फ़िल्मी गाने सुनती और उन की नक़्ल उतारने की कोशिश किया करती थी। उस के गले में कोई रस नहीं था। मगर शाएद वो इस से बे-ख़बर थी.......सच पूछिए तो उस को किसी बात की ख़बर भी नहीं थी और न उस को इस बात की ख़्वाहिश थी कि वो किसी चीज़ से बा-ख़बर हो। जिस रास्ते पर वो डाल दी गई थी, उस को उस ने क़ुबूल कर लिया था। बड़ी बे-ख़बरी के आलम में।

सरकण्डों के उस पार की दुनिया कैसी है, उस के मुतअल्लिक़ वो कुछ नहीं जानती थी सिवाए उस कि एक कच्ची सड़क है जिस पर हर दूसरे तीसरे दिन एक मोटर धूल उड़ाती हुई आती है और रुक जाती है। हॉर्न बजता है। उस की माँ या जो कोई भी वो थी, खटिया से उठती है और सरकण्डों के पास जा कर मोटर वाले से कहती है कि मोटर ज़रा दूर खड़ी करके अंदर आ जाये। और वो अंदर आ जाता है और नवाड़ी पलंग पर उस के साथ बैठ कर मीठी मीठी बातों में मशग़ूल हो जाता है।

उस के हाँ आने जाने वालों की तादाद ज़्यादा नहीं थी। यही पाँच छः होंगे मगर ये पाँच छः मुस्तक़िल गाहक थे और सरदार ने कुछ ऐसा इंतिज़ाम कर रखा था कि उन का बाहम तसादुम न हो। बड़ी होशियार औरत थी..... वो हर गाहक के लिए ख़ास दिन मुक़र्रर कर देती, और ऐसे सलीक़े से कि किसी को शिकायत का मौक़ा न मिलता था।

इस के अलावा ज़रूरत के वक़्त वो उस का भी इंतिज़ाम करती रहती कि नवाब माँ ना बन जाये। जिन हालात में नवाब अपनी ज़िंदगी गुज़ार रही थी, उन में उस का माँ बन जाना यक़ीनी था। मगर सरदार दो ढाई बरस से बड़ी कामियाबी के साथ इस क़ुदरती ख़तरे से निबट रही थी।

सरकण्डों के पीछे ये सिलसिला दो ढाई बरस से बड़े हम-वार तरीक़े पर चल रहा था। पुलिस वालों को बिलकुल इल्म नहीं था। बस सिर्फ़ वही लोग जानते थे जो वहां आते थे।

या फिर सरदार और उस की बेटी नवाब, या जो कोई भी वो थी।

सरकण्डों के पीछे, एक दिन मिट्टी के उस मकान में एक इन्क़िलाब बरपा हो गया। एक बहुत बड़ी मोटर जो ग़ालिबन डोज थी वहाँ आके रुकी। हॉर्न बजा। सरदार बाहर आई तो उस ने देखा कोई अजनबी है। उस ने उस से कोई बात न की। अजनबी ने भी उस से कुछ न कहा। मोटर दूर खड़ी कर के वो उतरा और सीधा उन के घर में घुस गया जैसे बरसों का आने जाने वाला हो।

सरदार बहुत सटपटाई, लेकिन दरवाज़े की दहलीज़ पर नवाब ने उस अजनबी का बड़ी प्यारी मुस्कुराहट से ख़ैर-मक़्दम किया और उसे उस कमरे में ले गई जिस में नवाड़ी पलंग था। दोनों उस पर साथ साथ बैठे ही थे कि सरदार आ गई.......होशियार औरत थी। उस ने देखा कि अजनबी किसी दौलतमंद घराने का आदमी है। ख़ुश शक्ल है, सेहत-मंद है। उस ने अंदर कोठरी में दाख़िल हो कर सलाम किया और पूछा। “आपको इधर का रास्ता किस ने बताया?”

अजनबी मुस्कुराया और बड़े प्यार से नवाब के गोश्त भरे गालों में अपनी उंगली चुभो कर कहा। “इस ने?”

नवाब तड़प कर एक तरफ़ हट गई, एक अदा के साथ कहा। “हाएं....... मैं तो कभी तुम से मिली भी नहीं?”

अजनबी की मुस्कुराहट उस के होंटों पर और ज़्यादा फैल गई। “हम तो कई बार तुम से मिल चुके हैं।”

नवाब ने पूछा। “कहाँ....... कब?” हैरत के आलम में उस का छोटा सा मुँह कुछ इस तौर पर वा हुआ कि उस के चेहरे की दिल-कशी में इज़ाफे़ का मुअज्जिब हो गया।

अजनबी ने उस का गुदगुदा हाथ पकड़ लिया और सरदार की तरफ़ देखते हुए कहा। “तुम ये बातें अभी नहीं समझ सकतीं....... अपनी माँ से पूछो।”

नवाब ने बड़े भोल पन के साथ अपनी माँ से पूछा कि ये शख़्स उस से कब और कहाँ मिला था। सरदार सारा मुआमला समझ गई कि वो लोग जो उस के यहां आते हैं, उन में से किसी ने इस के साथ नवाब का ज़िक्र किया होगा और सारा अता पता बता दिया होगा चुनांचे उस ने नवाब से कहा। “मैं बतादूंगी तुम्हें।”

और ये कह कर वो बाहर चली गई। खटिया पर बैठ कर उस ने डिबिया में से अफ़ीम की गोली निकाली और लेट गई। वो मुतमइन थी कि आदमी अच्छा है गड़-बड़ नहीं करेगा।

वसूक़ से इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन अग़्लब यही है कि अजनबी जिस का नाम हैबत ख़ान था और ज़िला हज़ारा का बहुत बड़ा रईस था, नवाब के अल्लढ़ पन से इस क़द्र मुतअस्सिर हुआ कि उस ने रुख़सत होते वक़्त सरदार से कहा कि आइन्दा नवाब के पास और कोई न आया करे। सरदार होशियार औरत थी। उस ने हैबत ख़ान से कहा। “ख़ानसाहब! ये कैसे हो सकता है.... क्या आप उतना रुपया दे सकेंगे कि.......”

हैबत ख़ान ने सरदार की बात काट कर जेब में हाथ डाला और सौ सौ के नोटों की एक मोटी गड्डी निकाली और नवाब के क़दमों में फेंक दी। फिर उस ने अपनी हीरे की अँगूठी उंगली से निकाली और नवाब को पहना कर तेज़ी से सरकण्डों के उस पार चला गया।

नवाब ने नोटों की तरफ़ आँख उठा कर भी ना देखा। बस देर तक अपनी सजी हुई उंगली को देखती रही जिस पर काफ़ी बड़े हीरे से रंग रंग की शुवाएँ फूट रही थीं। मोटर स्टार्ट हुई और धूल उड़ाती चली गई। इस के बाद वो चौंकी और सरकण्डों के पास आई, मगर अब गर्द-ओ-ग़ुबार के सिवा सड़क पर कुछ न था।

सरदार नोटों की गड्डी उठा कर उन्हें गिन चुकी थी। एक नोट और होता तो पूरे दो हज़ार थे। मगर उस को इस का अफ़्सोस नहीं था। सारे नोट उस ने अपनी घेरेदार शलवार के नेफ़े में बड़ी सफ़ाई से अड़से और नवाब को छोड़ कर अपनी खटिया की तरफ़ बढ़ी और डिबिया में से अफ़ीम की एक बड़ी गोली निकाल कर उस ने मुँह में डाली और बड़े इत्मिनान से लेट गई और देर तक सोती रही।

नवाब बहुत ख़ुश थी। बार बार अपनी उस उंगली को देखती थी जिस पर हीरे की अंगूठी थी....... तीन चार रोज़ गुज़र गए। इस दौरान में उस का एक पुराना गाहक आया जिस से सरदार ने कह दिया कि पुलिस का ख़तरा है, इस लिए उस ने ये धंदा बंद कर दिया है। ये गाहक जो ख़ासा दौलतमंद था, बे-नील-ओ-मराम वापस चला गया। सरदार को हैबत ख़ान ने बहुत मुतअस्सिर किया था। उस ने अफ़ीम खा कर पेंक के आलम में सोचा था कि अगर आमदन उतनी ही रहे जितनी कि पहले थी और आदमी सिर्फ़ एक हो तो बहुत अच्छा है। चुनांचे उस ने फ़ैसला कर लिया था कि बाकियों को आहिस्ता आहिस्ता ये कह कर टर्ख़ा देगी कि पुलिस वाले उस के पीछे हैं और ये नहीं देख सकती कि उन की इज़्ज़त ख़तरे में पड़े।

हैबत ख़ान एक हफ़्ते के बाद नुमूदार हुआ। इस दौरान में सरदार दो ग्राहकों को मना कर चुकी थी कि वो अब इधर का रुख़ न करें।

वो उसी शान से आया जिस शान से पहले रोज़ आया था। आते ही उस ने नवाब को अपनी छाती के साथ भींच लिया। सरदार ने उस से कोई बात न की। नवाब उसे....... बल्कि यूं कहिए कि हैबत ख़ान उसे उस कोठरी में ले गया जहां नवाड़ी पलंग था। अब के सरदार अंदर न आई और अपनी खटिया पर अफ़ीम की गोली खा कर ऊँघती रही।

हैबत ख़ान बहुत महज़ूज़ हुआ। उस को नवाब का अल्लढ़ पन और भी ज़्यादा पसंद आया। वो पेशा-वर रन्डियों के चलत्रों से क़तअन ना-वाक़िफ़ थी। उस में वो घरेलू पन भी नहीं था जो आम औरतों में होता है। उस में कोई ऐसी बात थी जो ख़ुद उस की अपनी थी। दूसरों से मुख़्तलिफ़। वो बिस्तर में उस के साथ इस तरह लेटती थी, जिस तरह बच्चा अपनी माँ के साथ लेटता है। उस की छातियों पर हाथ फेरता है। उस की नाक के नथनों में उंगलियां डालता है, उस के बाल नोचता है और फिर आहिस्ता आहिस्ता सो जाता है।

हैबत ख़ान के लिए ये एक नया तजुर्बा था। उस के लिए औरत की ये क़िस्म बिलकुल निराली, दिलचस्प और फ़रहत-बख्श थी। वो अब हफ़्ते में दोबार आने लगा था। नवाब उस के लिए एक बे-पनाह कशिश बिन गई थी।

सरदार ख़ुश थी कि उस के नेफ़े में उड़ेसने के लिए काफ़ी नोट मिल जाते हैं....... लेकिन नवाब अपने अल्लढ़ पन के बावजूद बअज़ औक़ात सोचती थी कि हैबत ख़ान डरा डरा सा क्यूँ रहता है। अगर कच्ची सड़क पर से, सरकण्डों के उस पार कोई लारी या मोटर गुज़रती है तो वो क्यूँ सहम जाता है। क्यूँ उस से अलग हो कर बाहर निकल जाता है और छुपछुप कर देखता है कि कौन था।

एक रात बारह बजे के क़रीब सड़क पर से कोई लारी गुज़री। हैबत ख़ान और नवाब दोनों एक दूसरे से गुथे हुए सो रहे थे कि एक दम हैबत ख़ान बड़े ज़ोर से काँपा और उठ कर बैठ गया। नवाब की नींद बड़ी हल्की थी। वो काँपा तो वो सर से पैर तक यूँ लरज़ी जैसे उस के अंदर ज़ल-ज़ला आ गया है। चीख़ कर उस ने पूछा। “क्या हुआ?”

हैबत ख़ान अब किसी क़दर संभल चुका था। उस ने ख़ुद को और ज़्यादा संभाल कर उस से कहा। “कोई बात नहीं....मैं.... मैं शायद ख़्वाब में डर गया था।”

लारी की आवाज़ दूर से रात की ख़ामोशी में अभी तक आ रही थी।

नवाब ने उस से कहा। “नहीं ख़ान.......कोई और बात है। जब भी कोई मोटर या लारी सड़क पर से गुज़रती है, तुम्हारी यही हालत होती है।”

हैबत ख़ान की शायद ये दुखती रग थी जिस पर नवाब ने हाथ रख दिया था। उस ने अपना मर्दाना वक़ार क़ाएम रखने के लिए बड़े तेज़ लहजे में कहा। “बकती हो तुम....... मोटरों और लारियों से डरने की क्या वजह हो सकती है?”

नवाब का दिल बहुत नाज़ुक था। हैबत ख़ान के तेज़ लहजे से उस को ठेस लगी और उस ने बिलक बिलक कर रोना शुरू कर दिया। हैबत ख़ान ने जब उस को चुप कराया तो वो अपनी ज़िंदगी के एक लतीफ़ तरीन ख़ते से आशना हुआ और उस का जिस्म नवाब के जिस्म से और ज़्यादा क़रीब हो गया।

हैबत ख़ान अच्छे क़द काठ का आदमी था। उस का जिस्म गट्ठा हुआ था। ख़ूबसूरत था। उस की बाँहों में नवाब ने पहली बार बड़ी प्यारी हरारत महसूस की थी। उस को जिस्मानी लज़्ज़त की अलिफ़ बे उसी ने सिखाई थी। वो उस से मोहब्बत करने लगी थी। यूँ कहिए कि वो शैय जो मोहब्बत होती है, उस के मआनी अब उस पर आशकार हो रहे थे। वो अगर एक हफ़्ता ग़ायब रहता तो नवाब ग्रामोफोन पर दरदीले गीतों के रिकार्ड लगा कर ख़ुद उन के साथ गाती और आहें भर्ती थी। मगर उस को इस बात की बड़ी उलझन थी कि हैबत ख़ान मोटरों की आमद-ओ-रफ़्त से क्यूँ घबराता है।

महीनों गुज़र गए। नवाब की सुपुर्दगी और उस के इल्तिफ़ात में इज़ाफ़ा होता गया। मगर उधर उस की उलझन बढ़ती गई कि अब हैबत ख़ान चंद घंटों के लिए आता और अफ़रा-तफ़री के आलम में वापस चला जाता था। नवाब महसूस कर रही थी कि ये सब किसी मजबूरी की वजह से है, वर्ना हैबत ख़ान का जी चाहता है कि वो ज़्यादा देर ठहरे।

उस ने कई मर्तबा उस से इस बारे में पूछा। मगर वो गोल कर गया। एक दिन सुबह सवेरे उस की डोज सरकण्डों के पार रुकी। नवाब सो रही थी। हॉर्न बजा तो चौंक कर उठी। आँखें मलती मलती बाहर आई। उस वक़्त तक हैबत ख़ान अपनी मोटर दूर खड़ी करके मकान के पास पहुंच चुका था। नवाब दौड़ कर उस से लिपट गई। वो उसे उठा कर अंदर कमरे में ले गया जहां नवाड़ का पलंग था।

देर तक दोनों बातें करते रहे। प्यार मोहब्बत की बातें....... मालूम नहीं नवाब के दिल में क्या आई कि उस ने अपनी ज़िंदगी की पहली फ़र्माइश की। “ख़ान....... मुझे सोने के कड़े लादो।”

हैबत ख़ान ने उस की मोटी मोटी गोश्त भरी सुर्ख़-ओ-सफ़ेद कलाइयों को कई मर्तबा चूमा और कहा। “कल ही आ जाएँगे। तुम्हारे लिए तो मेरी जान भी हाज़िर है।”

नवाब ने एक अदा के साथ, मगर अपने मख़्सूस अल्लढ़ अंदाज़ में कहा। “ख़ान साहब....... जाने दीजिए....... जान तो मुझे ही देनी पड़ेगी।”

हैबत ख़ान ये सुन कर कई बार उस के सदक़े हुआ....... और बड़ा पुर-लुत्फ़ वक़्त गुज़ार के चला गया, और वअदा कर गया कि वो दूसरे दिन आएगा और सोने के कड़े उस के नर्म नर्म हाथों में ख़ुद पहनाएगा।

नवाब ख़ुश थी। उस रात वो देर तक मसर्रत भरे रिकार्ड बजा बजा कर उस छोटी सी कोठरी में नाचती रही जिस पर नवाड़ी पलंग था....... सरदार भी ख़ुश थी। उस रात उस ने फिर अपनी डिबिया से अफ़ीम की एक बड़ी गोली निकाली और उसे निगल कर सो गई।

दूसरे दिन नवाब और ज़्यादा ख़ुश थी कि सोने के कड़े आने वाले हैं और हैबत ख़ान ख़ुद उस को पहनाने वाला है। वो सारा दिन मुंतज़िर रही पर वो न आया। उस ने सोचा शायद मोटर ख़राब हो गई हो.......शायद रात ही को आए। मगर वो सारी रात जागती रही और हैबत ख़ान न आया। उस के दिल को, जो बहुत नाज़ुक था, बड़ी ठेस पहुंची। उस ने अपनी माँ को, या जो कुछ भी वो थी, बार बार कहा “देखो, ख़ान नहीं आया, वअदा कर के फिर गया है।” लेकिन फिर वो सोचती और कहती ऐसा न हो, कुछ हो गया हो और वो सहम जाती।

कई बातें उस के दिमाग़ में आती थीं। मोटर का हादसा, अचानक बीमारी, किसी डाकू का हमला....... लेकिन बार बार उस को लारियों और मोटरों की आवाज़ों का ख़याल आता था। जिन को सुन कर हैबत ख़ान हमेशा बौखला जाता था.......वो उस के मुतअल्लिक़ पहरों सोचती थी, मगर उस की समझ में कुछ नहीं आता था।

एक हफ़्ता गुज़र गया। इस दौरान में उस का कोई पुराना गाहक भी न आया, इस लिए कि सरदार उन सब को मना कर चुकी थी। तीन चार लारियां और दो मोटरें अलबत्ता उस कच्ची सड़क पर से धूल उड़ाती गुज़रीं। नवाब का हर बार यही जी चाहा कि दौड़ती हुई उन के पीछे जाये और उन को आग लगा दे। उस को यूँ महसूस होता था कि यही वो चीज़ें हैं जो हैबत ख़ान के यहाँ आने में रुकावट का बाइस हैं, मगर फिर सोचती कि मोटरें और लारियां रुकावट का क्या बाइस हो सकती हैं, वो अपनी कम अकली पर हंसती।

लेकिन ये बात उस के फ़हम से बालातर थी कि हैबत ख़ान जैसा तनो-मंद मर्द इन की आवाज़ सुन कर सहम क्यूँ जाता है। इस हक़ीक़त को उस के दिमाग़ की पैदा की हुई दलील झुटला नहीं सकती थी। और जब ऐसा होता तो बेहद रंजीदा और मग़्मूम हो जाती और ग्रामोफोन पर दरदीले रिकार्ड लगा कर सुनना शुरू कर देती और उस की आँखें नमनाक हो जातीं।

एक हफ़्ते के बाद दोपहर को जब नवाब और सरदार खाना खा कर फ़ारिग़ हो चुकी थीं और कुछ देर आराम करने की सोच रही थीं कि अचानक बाहर सड़क पर से मोटर के हॉर्न की आवाज़ सुनाई दी। दोनों ये आवाज़ सुन कर चौंकें क्यूँ कि हैबत ख़ान की डोज के हॉर्न की आवाज़ नहीं थी.......सरदार बाहर लपकी कि देखे कौन है, पुराना आदमी हुआ तो उसे टर्ख़ा देगी। मगर जब वो सरकण्डों के पास पहुंची तो उस ने देखा कि एक नई मोटर में हैबत ख़ान बैठा है। पिछली नशिस्त पर एक ख़ुश-पोश और ख़ूबसूरत औरत है।

हैबत ख़ान ने मोटर कुछ दूर खड़ी की और बाहर निकला। उस के साथ ही पिछली नशिस्त से वो औरत....... दोनों उन के मकान की तरफ़ बढ़े। सरदार ने सोचा कि ये क्या सिलसिला है। औरत के लिए तो हैबत इतनी दूर से चल कर यहां आता है, फिर ये औरत जो इतनी ख़ूबसूरत है, जवान है, क़ीमती कपड़ों में मलबूस है, उस के साथ यहां क्या करने आई है।

वो अभी ये सोच ही रही थी कि हैबत ख़ान उस ख़ूबसूरत के साथ जिस ने बेशक़ीमत ज़ेवर पहने हुए थे, मकान में दाख़िल हो गया। वो उन के पीछे पीछे चली। उस की तरफ़ उन दोनों में से किसी ने ध्यान ही नहीं दिया था।

जब वो अंदर गई तो हैबत ख़ान, नवाब और वो औरत तीनों नवाड़ी पलंग पर बैठे थे और ख़ामोशी तारी थी.......अजीब क़िस्म की ख़ामोशी। ज़ेवरों से लदी फंदी औरत अलबत्ता किसी क़दर मुज़्तरिब नज़र आती थी कि उस की एक टांग बड़े ज़ोर से हिल रही थी।

सरदार दहलीज़ के पास ही खड़ी हो गई। उस के क़दमों की आहट सुन कर जब हैबत ख़ान ने उस की तरफ़ देखा तो उस ने सलाम किया... हैबत ख़ान ने कोई जवाब न दिया। वो सख़्त बौखलाया हुआ था।

उस औरत की टांग हिलना बंद हुई और वो सरदार से मुख़ातब हुई। “हम आए हैं। खाने पीने का तो बंद-ओ-बस्त करो।”

सरदार ने सर-ता-पा मेहमान नवाज़ बन कर कहा। “जो तुम कहो, अभी तैय्यार हो जाता है।”

उस औरत ने जिस के ख़द-ओ-ख़ाल से साफ़ मतरश्शह था कि बड़ी धड़ल्ले की औरत है, सरदार से कहा। “तो चलो तुम बावर्ची-ख़ाने में....... चूल्हा सुलगाओ....... बड़ी देगची है घर में?”

“है!” सरदार ने अपना वज़नी सर हिलाया।

“तो जाओ उस को धो कर साफ़ करो। मैं अभी आई।” वो औरत पलंग पर से उठी और ग्रामोफोन को देखने लगी।

सरदार ने मअज़रत भरे लहजे में उस से कहा। “गोश्त वग़ैरा तो, यहाँ नहीं मिलेगा।”

उस औरत ने एक रिकार्ड पर सुई रखी “मिल जाएगा। तुम से जो कहा है, वो करो....... और देखो आग काफ़ी हो।”

सरदार ये अहकाम लेकर चली गई। अब वो ख़ुश-पोश औरत मुस्कुरा कर नवाब से मुख़ातब हुई। “नवाब! हम तुम्हारे लिए सोने के कड़े लेकर आए हैं।”

ये कह कर उस ने अपना वेंटी बैग खोला और उस में से बारीक सुर्ख़ काग़ज़ में लिपटे हुए कड़े निकाले जो काफ़ी वज़नी और ख़ूबसूरत थे।

नवाब अपने साथ बैठे हुए ख़ामोश हैबत ख़ान को देख रही थी। उस ने कड़ों को एक नज़र देखा और उस से बड़ी नर्म-ओ-नाज़ुक मगर सहमी हुई आवाज़ में पूछा। “ख़ान ये कौन है?” उस का इशारा उस औरत की तरफ़ था।

वो औरत कड़ों से खेलते हुए बोली। “मैं कौन हूँ....... मैं हैबत ख़ान की बहन हूँ।” और ये कह कर उस ने हैबत ख़ान की तरफ़ देखा जो उस के इस जवाब पर सिकुड़ गया था। फिर वो नवाब से मुख़ातब हुई। “मेरा नाम हलाकत है।”

नवाब कुछ न समझी। मगर वो उस औरत की आँखों से ख़ौफ़ खा रही थी जो यक़ीनन ख़ूबसूरत थीं मगर बड़े ख़ौफ़-नाक तौर पर खुली। उन में जैसे आग बरस रही थी।

वो आगे बढ़ी और उस ने सिमटी हुई, सहमी हुई नवाब की कलाइयाँ पकड़ीं और उस में कड़े डालने लगी। लेकिन उस ने उस की कलाइयाँ छोड़ दीं और हैबत ख़ान से मुख़ातब हुई। “तुम जाओ हैबत ख़ान....... मैं इसे अच्छी तरह सजा बना कर तुम्हारी ख़िदमत में पेश करना चाहती हूँ।”

हैबत ख़ान मबहूत था। जब वो न उठा तो वो औरत जिस ने अपना नाम हलाकत बताया था, ज़रा तेज़ी से बोली। “जाओ....... तुम ने सुना नहीं?”

हैबत ख़ान, नवाब की तरफ़ देखता हुआ बाहर चला गया। वो बहुत मुज़्तरिब था। उस की समझ में नहीं आता था कि कहाँ जाये और क्या करे।

मकान के बाहर जो बरामदा सा था, उस के एक कोने में टाट लगा बावर्ची-ख़ाना था। जब वो उस के पास पहुंचा तो उस ने देखा कि सरदार आग सुलगा चुकी है। उस ने उस से कोई बात न की और सरकण्डों के उस पार सड़क पर चला गया....... उस की हालत नीम दीवानों की सी थी। ज़रा सी आहट पर भी वो चौंक उठता था।

जब उस को दूर से एक लारी आती हुई दिखाई दी तो उस ने सोचा कि वो उसे रोक ले और उस में बैठ कर वहाँ से ग़ायब हो जाये। मगर जब वो पास आई तो ऐसी धूल उड़ी कि वो उस में ग़ायब हो गया। उस ने आवाज़ें दीं, मगर गर्द के बाइस उस का हलक़ इस काबिल ही नहीं था कि बुलंद आवाज़ निकाल सके।

गर्द-ओ-ग़ुबार कम हुआ तो हैबत ख़ान नीम मुर्दा था....... उस ने चाहा कि सरकण्डों के पीछे उस मकान में जाये जहां उस ने कई दिन और कई रातें नवाब के अल्लढ़ पहलू में गुज़ारी थीं, मगर वो न जा सका। उस के क़दम ही नहीं उठते थे।

वो बहुत देर तक कच्ची सड़क पर खड़ा सोचता रहा कि ये मुआमला क्या है। वो औरत जो उस के साथ आई थी, उस के साथ उस के काफ़ी पुराने तअल्लुक़ात थे, सिर्फ़ इस बिना पर कि बहुत देर हुई, वो उस के ख़ावंद की मौत का अफ़्सोस करने गया था जो उस का लंगोटिया था। मगर इत्तिफ़ाक़ से ये मातम-पुर्सी उन दिनों के बाहमी तअल्लुक़ में तबदील हो गई। ख़ावंद की मौत के दूसरे ही दिन वो उस के घर में था, और उस औरत ने उस को ऐसे तहक्कुम से अंदर बुला कर अपना आप उस के सपुर्द किया था जैसे वो उस का नौकर है।

हैबत ख़ान औरत के मुआमले में बिलकुल कोरा था। जब शाहीना ने उस से अपने अजीब-ओ-ग़रीब तहक्कुम भरे इल्तिफ़ात का इज़हार किया तो उस के लिए यही बड़ी बात थी। उस में कोई शक नहीं कि शाहीना के पास बे-अंदाज़ा दौलत थी। कुछ अपनी और कुछ अपने मरहूम ख़ावंद की, मगर उसे उस दौलत से कोई सरोकार नहीं था। उस को शाहीना से सिर्फ़ यही दिलचस्पी थी कि वो उस की ज़िंदगी की सब से पहली औरत थी। वो उस के तहक्कुम के नीचे शायद इस लिए दब के रह गया था कि वो बिलकुल अनाड़ी था।

बहुत देर तक वो कच्ची सड़क पर खड़ा सोचता रहा। आख़िर उस से न रहा गया। सरकण्डों के पीछे मकान की तरफ़ बढ़ा तो उस ने बरामदे में टाट लगे बावर्ची-ख़ाने में सरदार को कुछ भूनते हुए देखा। अंदर उस कमरे की तरफ़ गया जहां नवाड़ का पलंग था तो दरवाज़ा बंद पाया। उस ने होले से दस्तक दी।

चंद लमहात के बाद दरवाज़ा खुला। कच्चे फ़र्श पर उस को सब से पहले ख़ून ही ख़ून नज़र आया। वो काँप उठा। फिर उस ने शाहीना को देखा जो दरवाज़ा के पट के साथ खड़ी थी। उस ने हैबत ख़ान से कहा। “मैं ने तुम्हारी नवाब को सजा बना दिया है!”

हैबत ख़ान ने अपने ख़ुश्क गले को थूक से किसी क़दर तर कर के उस से पूछा “कहाँ है?”

शाहीना ने जवाब दिया। “कुछ तो उस पलंग पर है....... लेकिन उस का बेहतरीन हिस्सा बावर्ची-ख़ाना में है।”

हैबत ख़ान पर इस का मतलब समझे बगै़र हैबत तारी हो गई। वो कुछ कह न सका। वहीं दहलीज़ के पास खड़ा रहा। मगर उस ने देखा कि फ़र्श पर गोश्त के छोटे छोटे टुकड़े भी हैं और.......एक तेज़ छुरी भी पड़ी है। और नवाड़ी पलंग पर कोई लेटा है जिस पर ख़ून आलूद चादर पड़ी है।

शाहीना ने मुस्कुरा कर कहा। “चादर उठा कर दिखाओं....... तुम्हारी सजी बनी नवाब है....... मैं ने अपने हाथों से सिंघार किया है....... लेकिन तुम पहले खाना खा लो। बहुत भूक लगी होगी, सरदार बड़ा लज़ीज़ गोश्त भून रही है। उस की बोटियाँ मैं ने ख़ुद अपने हाथ से काटी हैं।”

हैबत ख़ान के पांव लड़खड़ाए....... ज़ोर से चिल्लाया। “शाहीना तुम ने ये क्या किया!”

शाहीना मुस्कुराई। “जान-ए-मन! ये पहली मर्तबा नहीं....... दूसरी मर्तबा है। मेरा ख़ावंद, अल्लाह उसे जन्नत नसीब करे, तुम्हारी तरह ही बे-वफ़ा था। मैं ने ख़ुद उस को अपने हाथों से मारा था और उस का गोश्त पका कर चीलों और कौओं को खिलाया था....... तुम से मुझे प्यार है, इस लिए मैं ने तुम्हारे बजाय.......”

उस ने फ़ुक़रा मुकम्मल न किया और पलंग पर से ख़ून आलूद चादर हटादी.......हैबत ख़ान की चीख़ उस के हलक़ के अंदर ही धंसी रही और वो बे-होश हो कर गिर पड़ा।

जब उसे होश आया तो उस ने देखा कि शाहीना कार चला रही है और वो ग़ैर इलाक़े में हैं।

***