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रिश्ता प्यार का

“घर में अकेले परेशान हो जाती हूँ | न आस न पड़ोस | न नाते रिश्तेदार |”
“सुबह-शाम तो मैं रहता ही हूँ न !”
“हुह ..सुबह जल्दी भागते हो और देर से लौटते हो ..!” थकी-थकी-सी जिन्दगी घिसट रही थी मधु की | धीरे-धीरे डिप्रेशन की शिकार होने लगी थी |
एक दिन हरीश को जाने क्या सूझी, एक पिल्ला उठा लाये घर में | मधु ने पिल्ला देखते ही पूरा घर सिर पर उठा लिया | “अब बुढ़ापे में इसकी भी सेवा करनी होगी !”
“अरे ! यह तुम्हारा मुँह-बोलारो रहेगा | घर में अकेले समय कटता नहीं था न तुम्हारा, इसलिए इसे लेता आया | देखो तो कितना प्यारा है |”
“लेकिन तुम्हें तो कुत्ते-बिल्ली बिलकुल भी पसंद नहीं थे | फिर कैसे उठा लाये इसे | मुझे तो यह सोचकर आश्चर्य हो रहा कि तुम गोद में इसे पकड़कर घर तक ला कैसे पाये ! क्या तुमने अब कुत्तों से डरना छोड़ दिया ? तुम्हारी माँ तो कहती थी कि तुम कुत्तों के डर से खटिया पर से उतरते ही नहीं थे | जब तक वह डंडा लेकर कुत्तों को भगा न देतीं क्या मज़ाल कि तुम खटिया से उतरकर बाहर ओसार से चार कदम चलकर घर में दाखिल हो जाओ |
“अरे ! तेरे प्यार में क्या-क्या न किया दिलवर |”
“चलो हटो ! बूढ़ा गये लेकिन ..!”
समय बीतता रहा | एक दिन हरीश ऑफिस जाने लगा तो मधु ने उदास होकर कहा – “सुनो ! जल्दी आना | ओवर-टाइम मत करने लगना |”
शाम को ऑफिस से आते ही जोजो ने मचल-मचलकर स्वागत किया हरीश का |
लेकिन पिछले चार दिन से उदास-उदास-सी दिख रही थी मधु | हरीश ने पूछा ही था कि फूट पड़ी | ले-देके वही कारण | सब दर्द की एक वजह अकेलापन बताकर भड़क गयी | “मेरा तो कोई अपना है ही नहीं | बड़े से घर में अकेले भूतों-सी रहती हूँ |”
“क्यों ! ये तेरा जोजो भी तो रहता है न तेरे साथ |”
“तुम्हारे ये जोजो मियां तो घोड़ा बेचकर दिन में सोते रहते हैं | शाम को तुम्हारे आने पर ही इनमें फुर्ती जागती है | आलसी-निकम्मा कहीं का ..!” चाय का कप हरीश को पकड़ाती हुई मधु तुनकती हुई बोली |
“तुम्हें मालूम है इसके साथ रहते तुम्हारा छः महीने का समय फुर्र हो गया |”
“बच्चें पाल-पोषकर बड़ा करने के बाद तो शहर के बाहर के ही हो जाने रहते हैं |” चाय की चुश्कियाँ लेते हुए वह पलंग पर बैठी अपना अकेलापन किस कदर खलता है, बता ही रही थी कि जोजो कूदकर पलंग पर चढ़ आया और मधु के गोद में अपना आधा शरीर रखता हुआ बैठ गया | न चाहते हुए भी उसने जोजो को भगाया नहीं | जबकि उसके पलंग पर चढ़ने से उसे सख्त ऐतराज रहता था | जोजो अपने थूथुन से उसके हाथों को उछालने लगा | जब तक मधु उसके चेहरे पर हाथ रखकर सहलाने न लगी, तब तक वह उस क्रिया को दोहराता ही रहा | हरीश यह सब देखकर मुस्कराया |
“सुनो ! महीनों हो गये, बच्चों की कोई ख़बर ही नहीं है |” जोजो गोद में लेटा हुआ उलटते-पुलटते लाड़ लड़ाने लगा | खीझकर एक बार को मधु ने उसे दुत्कार दिया | जोजो ने सुनी आँखों से मधु को निहारा तो उसका भोलापन देखकर मधु मुस्करा पड़ी | वह फिर से उसके गोद में घुसने लगा | अबकी बार न चाहते हुए भी वह चाय का कप रखकर उसे पुचकारने लगी |
“जाने क्या-कैसे खा-पी रहे होंगे बच्चे !” पति को नाश्ता पकड़ाते हुए वह बोली| मधु ने पुचकारते हुए जोजो को आवाज़ दी तो वह दौड़ता हुआ अपने कटोरे के पास आ गया | चप्प-चप्प करता हुआ अपने कटोरे में डाला गया दूध पीने लगा| उसके बगल में बैठकर वह उसे पुचकारती रही |
समय को तो पंख लगे होते हैं दुःख हो सुख हो समय अपने ही गति से दौड़ता रहता है| इन्सान को लगता है कि सुख के पल में समय जल्दी भागता है और दुःख में ठहर ठहरकर कछुवा गति हो लेता है | लेकिन समय का चक्र तो दोनों समय में एक समान ही चलता है|
आज हरीश ऑफिस से लौटा तो मधु की शिकायत की पोटली फिर खुली मिली|
“सुनो ! महीनों हो गये बच्चें खुद से फोन नहीं किए कभी !”
“तुम कर लेती |”
“किया था मैंने उन्हें फोन|” चाय का कप हाथ में थमाती हुई बोली|
“हाँ तो क्या कहा बच्चो ने ?”
“आज बड़े बेटे ने कहा कि सब आपकी कमी निकालते हैं| आपके पास कोई भी रहना नहीं चाहता| न बुआ न ताई ! न कोई हेल्पर तो कुछ तो कमी होगी आपमें ही !”
“....”
कहते-कहते बिस्तर बिछा ही रही थी कि लपककर जोजो आकर लेट गया|
मधु हँसते हुए बोली- “देखो इस मोटे को ..!”

हरीश आराम की मुद्रा में लेट चुका था | लेकिन मधु अधलेटी-सी कुछ सोच रही थी | सोचते-सोचते वह फिर अनमनी हो गयी थी|
अपने से सटकर लेटे हुए जोजो को सहलाती हुई बुदबुदाई – “क्या इंसानों को ही मुझमें कमी दिखती है | इस बेजुबान को नहीं ..!”
“गुस्से में इसकी पिटाई भी कर देती हो ! लेकिन देखो फिर भी कैसे प्यार से तुझसे ही चिपककर बैठा है |”
“हाँ ! कल भी दो डंडे धर दिए थे|” जोजो का सिर सहलाते हुए मधु ने कहा तो वह मासूम आँखों से जीभ लटकाए उसके चेहरे की ओर निहारने लगा |
“मारा मत करो ! नासमझ है ! आखिर बेजुबान जानवर ही तो है |”
“एक बात है इसने इतना अधिक नुकसान किया लेकिन तुमने कभी हाथ नहीं उठाया इसपर ..!”
“पिता हूँ न ...! हाँ! हाँ! हाँ! यह भी खूब रही | पालन करते हुए इसे न जाने कब हम दोनों इसके माँ-बाप बन गये और ...”
“और यह अपना लाड़ला |” कहते हुए उसने हरीश द्वारा अधुरा छोड़ दिया वाक्य पूरा किया |
समय अपनी धुरी पर चलता रहा| समय के साथ हरीश-मधु और घर का तीसरा प्राणी जोजो भी अपना अपना जीवन चक्र जीते हुए चलते रहे |
मधु ने जोजो को अच्छी-खासी ट्रेनिंग देकर ट्रेंड कर दिया था | वह उसके इशारे पर नाचता था, लाड़ लड़ाता था| बात भी मानता था | नमस्ते कहने पर आगे के दोनों पैर उठाकर खड़ा हो जाता था| शेख हैण्ड तो हथेली बढ़ाते ही कर लेता था | उसकी इन अदाओं पर मधु खिलखिला पडती थी | लेकिन फिर भी मधु को रहकर अपने बच्चों की रिक्तता खल जाती थी | हरीश रिटायर हो गया था आज | वह भी जोजो को दी गयी मधु की ट्रेनिंग को देखकर वाह-वाह कर बैठा | “आज तुम्हारा यह लाड़ला पूरे दो साल का हो गया |”
“हाँ ! और दो साल हो गये बच्चों को इस घर की देहरी पार किए | इस घर में एक बार भी वो झाँकने नहीं आये कि उनके माँ-बाप कैसे हैं | यह भी नहीं पूछा कभी फोन पर भी कि माँ अकेले रह जाती हो तो बनाती-खाती हो या नहीं | कहाँ बचपन में खुद खाते हुए मुझे मेरे हाथों का ही कौर खिला देते थे |” कहकर व्यंग्य से मुस्करा पड़ी |
हरीश ने ठंडी लम्बी साँस छोड़ी लेकिन उसके मुख से एक भी शब्द नहीं निकला | शायद वह भी बच्चों का मिज़ाज-व्यवहार देखकर अंदर से टूट गया था लेकिन मधु की तरह खुलकर कह नहीं पा रहा था |
खाना पलंग पर ही रखते हुए बोली – “उठो खाना ले आई हूँ |”
“तू अपना भी तो ला ! और जोजो को भी दे दिया न इसका खाना !”
“हाँ ! दे तो दिया | पर यह जायेगा थोड़ी | मुँह ताकता हुआ यही बैठा रहेगा |”
खाना तो वह वर्तमान में तन से खा रही थी लेकिन मन उसका अतीत के ख्यालों में ही खोया था |
बगल में बैठा जोजो कू-कू कर रहा था | न जाने कब कौर खुद खाते हुए बेख्याली में जोजो को खिलाने लगी और वह प्रेम से कुकुहाता हुआ अपने पैरों से मधु के हाथों को बार-बार छूकर मांगता हुआ खाने लगा |
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हम प्रमाणित करते हैं कि यह हमारी मौलिक कहानी है |

सविता मिश्रा अक्षजा
आगरा,
2012.savita.mishra@gmail.com

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